मन्त्रशास्त्र और णमोकार मन्त्र
jain-img187

मन के साथ जिन ध्वनियों का घर्षण होने से दिव्य ज्योति प्रकट होती है उन ध्वनियों के समुदाय को मन्त्र कहा जाता है। मन्त्र और विज्ञान दोनों में अन्तर है; क्योंकि विज्ञान का प्रयोग जहाँ भी किया जाता है, फल एक ही होता है। परन्तु मन्त्र में यह बात नहीं है, उसकी सफलता साधक और साध्य के ऊपर निर्भर है, ध्यान के अस्थिर होने से भी मन्त्र असफल हो जाता है। मन्त्र तभी सफल होता है; जब श्रद्धा, इच्छा और दृढ़ संकल्प ये तीनों ही यथावत् कार्य करते हों। मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि मनुष्य की अवचेतन में बहुत-सी आध्यात्मिक शक्तियाँ भरी रहती हैं, इन्हीं शक्तियों को मन्त्र द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। मन्त्र की ध्वनियों के संघर्ष द्वारा अध्यात्मिक शक्ति को उत्तेजित किया जाता है। इस कार्य में अकेली विचारशक्ति ही काम नहीं करती है, इसकी सहायता के लिए उत्कट इच्छा-शक्ति के द्वारा ध्वनि-संचालन की भी आवश्यकता है। मन्त्र-शक्ति के प्रयोग की सफलता के लिए मानसिक योग्यता प्राप्त पड़ती है, जिसके लिए नैष्ठिक आचार की आवश्यकता है। मन्त्रनिर्माण के लिए ओं ह्नां ह्नीं ह्नूं ह्नौं ह्नः हृ ह सः क्लीं क्लृ द्रा द्रीं द्रूं द्रः श्रीं क्षीं क्ष्वीं क्लीं र्हं अं फट्, वषट, सवौषट् घे घै यः ठः खः ह ल्व्र्यं पं वं यं झं तं थं दं आदि बीजाक्षरों की आवश्यकता होती है। साधारण व्यक्ति को ये बीजाक्षर निरर्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु हैं ये सार्थक और इनमें ऐसी शक्ति अन्तर्निहित रहती है, जिसमें आत्मशक्ति या देवताओं को उत्तेजित किया जा सकता है। अतः ये बीजाक्षर अन्तकरण और वृह्निा की शुद्ध प्रेरणा के व्यक्त शब्द हैं, जिनसे आत्मिक शक्ति का विकास किया जा सकता है।

इन बीजाक्षरों की उत्पत्ति प्रधानतः णमोकार मन्त्र से ही हुई है क्योंकि मातृका ध्वनियाँ इसी मन्त्र से उद्भूत हैं। इन सबमें प्रधान ‘ओं’ बीज है, यह आत्मवाचक मूलभूत है। इसे तेजोबीज, कामबीज और भवबीज माना गया है। पंचपरमेष्ठी वाचक होने से ओं को समस्त मन्त्रों का सारतत्व बताया गया है। इसे प्रणववाचक भी कहा जाता है। श्रीं को कीर्तिवाचक, हृीं को कल्याणवाचक, क्षीं को शान्तिवाचक, हं को मंगलवाचक, ऊँ को सुखवाचक, क्ष्वीं को योगवाचक, ह्नं को विद्वेष और रोषवाचक, प्रीं प्रीं को स्तम्भनवाचक और क्लीं को लक्ष्मीप्राप्तिवाचक कहा गया है। सभी तीर्थंकरों के नामाक्षरों को मंगलवाचक एवं यक्ष-यक्षिणियों के नामों को कीर्ति और प्रीतिवाचक कहा गया है। बीजाक्षरों का वर्णन निम्न प्रकार किया गया है:

ऊँ प्रणवध्रुवं ब्रह्मबीजं, तेजोबीजं व, ओं तेजोबीजं, ऐं वाग्भवबीजं, लृं कामबीजं, क्रीं शक्तिबीजं, हं सः विषापहारबीजं, क्षीं पृथ्वीबीजं, स्वा वायुबीजं, हा आकाशबीजं, हां मायाबीजं त्रैलोक्यनाथबीजं वा, क्रों अंकुशबीजं जं पाशबीजं, फट् विसर्जनं चालनं वा, वौषट् पूजाग्रहणं आकर्षण वा; संवौषट् आमन्त्रणम्, वलूं द्रावणं, क्लूं आकर्षणं, गलौं स्तम्भनं, ह्नीं महाशक्तिः, वषट् आवाहनं, रं ज्वलनं, क्ष्वीं विषापहारबीजं, ठः चन्द्रबीजं, घे घै ग्रहणबीजं, वैविबन्धो वा; द्रा द्रां क्लीं ब्लूं सः पंचवाणी, द्रं विद्वेषणं रोषबीजं वा, स्वाहा शान्तिकं मोहकं वा, स्वधा पौष्टिकं, नमः शोधनबीजं, हं गगनबीजं, ह्नं ज्ञानबीजं, यः विसर्जनबीजं उच्चारणं वा, यं वायुबीजं, जुं विद्वेषणबीजं, इवीं अमृतबीजं, क्ष्वीं भोगबीजं, हूं दण्डबीजम्, खः स्वादनबीजं, झ्रौं महाशक्तिबीजं, ह्ल्वर्यूं पिण्डबीजं, र्हं मंगलबीजं सुखबीजं वा, श्रीं कीर्तियबींज कल्याणबीजं वा, क्लीं धनबीजं कुबेरबीजं वा तीर्थंकरनामाक्षरशान्तिबीजं मांगल्यबींज कल्याणबीजं विघ्नविनाशकबीजं वा, अं काआशबीजं धान्यबींज वा, अ सुखबीजं तेजोबीजं वा, ई गुणबीजं तेजोबीजं वा, उ वायुबीजं, क्षां क्षीं क्षूं क्षें क्षैं क्षौं क्षः रक्षाबीजं, सर्वकल्याणबीजं सर्वशुद्धिबींज वा, वं द्रवणबीजं, य मंगलबीजं, शोधनबीजं, यं रक्षाबीज, झं शक्तिबीजं तं थं दं कालुष्यनाशक मंगलवर्धकं च।-बीजकोश।

अर्थात - ओं प्रणव, ध्रुव, ब्रह्मबीज या तेजोबीज है। ऐं वाग्भव बीज, लृं कामबीज, क्रीं शक्तिबीज, हं सः विषापहार बीज, क्षीं पृथ्वीबीज, स्वा वायुबीज, हा आकाशबीज, हृां मायाबीज या त्रैलोक्यनाथ बीज, क्रों अंकुशबीज, जं पाशबीज, फट् विसर्जनात्मक या चालन-दूरकरणार्थक, वौषट् पूजाग्रहण या आकर्षणार्थक, संवोषट् आमन्त्रणार्थक, ब्लूं द्रावणबीज, क्लौं आकर्षणबीज, ग्लौं स्तम्भन बीज, हृौं महाशक्तिवाचक, वषट् आवाहन वाचक, रं ज्वलनवाचक, क्ष्वीं विषापहार बीज, ठः चन्द्रबीज, घे घै ग्रहणबीज, द्रं विद्वेषणार्थक, रोषबीज, स्वाहा शान्ति और हवनवाचक, स्वधा पौष्टिकवाचक, नमः शोधनबीज, हं गणनबीज, हं गणनबीज, हृं ज्ञानबीज, यः विसर्जन या उच्चारणवाचक, नु विद्वेेषणबीज, इवीं अमृतबीज, क्ष्वीं भोगबीज, हूँ दण्डबीज, खः स्वादनबीज, झ्रौं महाशक्बिबीज, ह् ल्व्र्यू पिण्डबीज, क्ष्वीं हैं मंगल और सुखबीज, श्रीं कीर्तिबीज या कल्याणबीज, क्लीं धनबीज, या कुबेरबीज, तीर्थंकर के नामक्षर शान्तिबीज, हौं ऋद्धि और सिद्धिबीज, हृां हृीं हृूंः सर्वशान्ति, मांगल्य, कल्याण, विघ्नविनाशक, सिद्धिदायक, अ अकाशबीज, या धान्यबीज, आ सुखबीज या तेजोबीज, ई गुणबीज या तेजोबीज या वायुबीज, क्षां क्षीं, क्षूं क्षें क्षें क्षों क्षौं क्षः सर्वकल्याण या सर्वशुद्धिबीज, वं द्रवणबीज, यं मंगलबीज, सं शोधनबीज, यं रक्षाबीज, झं शक्तिबीज और तंथं दं कालुष्यनाशक, मंगलवर्धक और सुखकारक बताया गया है। इन समस्त बीजाक्षरों की उत्पत्ति णमोकार मन्त्र तथा इस मन्त्र में प्रतिपादित पंचपरमेष्ठी के नामाक्षर, तीर्थंकर और यक्ष-यक्षिणियों के नामाक्षरों पर-से हुई है। मन्त्र के तीन अंग होते हैं, रूप, बीज और फल। जितने भी प्रकार के मन्त्र हैं, उनमें बीजरूप यह णमोकार मन्त्र या इससे निष्पन्न कोई सूक्ष्मतत्त्व रहता है। जिस प्रकार होम्योपैथिक दवा में दवा का अंश जितना अल्प होता जाता है, उतनी ही उसकी शक्ति बढ़ती जाती है और उसका चमत्कार दिखलाई पड़ने लगता है। इसी प्रकार इस णमोकार मन्त्र के सूक्ष्मकरा द्वारा जितने सूक्ष्म बीजाक्षर अन्य मन्त्रों में निहित किये जाते हैं, उन मन्त्रों की उतनी ही शक्ति बढ़ती जाती है।मन्त्रों का बार-बार उच्चारण किसी सोते हुए को बार-बारजगाने के समान है। यह प्रक्रिया इसी के तुल्य है, जिस प्रकार किन्हीं दो स्थानों के बीच बिजली का सम्बन्ध लगा दिया जाए। साधक की विचार-शक्ति स्विच का काम करती है और मन्त्र-शक्ति विद्युत् लहर का। जब मन्त्र सिद्ध हो जाता है तब आत्मिक शक्ति से आकृष्ट देवता मान्त्रिक के समक्ष अपना आत्मार्पण कर देता है और उस देवता की सारी शक्ति उस मान्त्रिक में आ जाती है। सामान्य मन्त्रों के लिए नैतिकता की विशेष आवश्यकता नहीं हैं साधारण साधक बीजमन्त्र और उनकी ध्वनियों के घर्षण से अपने भीतर आत्मिक शक्ति का प्रस्फुटन करता है। मन्त्रशास्त्र में इसी कारण मन्त्रों के अनेक भेद बताये गये हैं। प्रधान ये हैं-

jain-img188

1 - स्तम्भन

2 - मोहन,

3 - उच्चाटन

4 - वश्याकर्षण

5 - जृम्भण,

6 - विद्वेषण

7 - मारण

8 - शान्तिक और

9 - पौष्टिक।

जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण द्वारा सर्प, व्याघ्र, सिंह आदि भयंकर जन्तुओं को; भूत, प्रेत, पिशाच आदि दैविक बाधाओं को, शत्रुसेना के आक्रमण तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा किये जानेवाले कष्टों को दूर कर इनको जहाँ के तहाँ निष्क्रिय कर स्तम्भित कर दिया जाए उन ध्वनियों के सन्निवेश को स्तम्भन मन्त्र; जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण द्वारा किसी को मोहन कर दिया जाए उन ध्वनियों के सन्निवेश को मोहित मन्त्रः जिन ध्वनियों के सन्निवेश के घर्षण द्वारा किसी का मन अस्थिर, उल्लासरहित एवं निरूत्साहित होकर पदभ्रष्ट एवं स्थानभ्रष्ट हो जाए, उन ध्वनियों को उच्चाटन मन्त्र; जिन ध्वनियों के सन्निवेश के घर्षण द्वारा इच्दित वस्तु या व्यक्ति साधक के पास आ जाए-किसी का विपरीत मन भी साधक की अनुकूलता स्वीकार कर ले, उन ध्वनियों के सन्निवेश को वश्याकर्षण; जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण द्वारा शत्रु, भूत, पे्रत, व्यन्तर साधक की साधना से भयत्रस्त हो जाएं, काँपने लगें, उन ध्वनियों के सन्निवेश को जृम्भण मन्त्र; जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण द्वारा कुटुम्ब, जाति, देश, समाज, राष्ट्र आदि में परस्पर कलह और वैमनस्य की क्रान्ति मच जाए, उन ध्वनियों के सन्निवेश को विद्वेषण मन्त्र; जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण द्वारा साधक आततायियों को प्राणदण्ड दे सके, उन ध्वनियों के सन्निवेश को मारण मन्त्र; जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण द्वारा भयंकर से भयंकर व्याधि, व्यन्तर-भूत-पिशाचों की पीड़ा, क्रूर ग्रह-जंगम स्थावर विषबाधा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष्दि ईतियों और चार आदि का भय प्रशान्त हो जाए, उन ध्वनियों के सन्निवेश को शान्ति मन्त्र एवं जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण द्वारा सुख-सामग्रियों की प्राप्ति तथा सन्तान आदि की प्राप्ति हो, उन ध्वनियों के सन्निवेश को पौष्टिक मन्त्र कहते हैं। मन्त्रों में एक से तीन ध्वनियों तक के मन्त्रें का विश्लेषण अर्थ की दृष्टि से नहीं किया जा सकता है, किन्तु इससे अधिक ध्वनियों के मन्त्रों का विश्लेषण हो सकता है। मन्त्रों से इच्छाशक्ति का परिष्कार या प्रसारण होता है, जिससे अपूर्व शक्ति आती है।

मन्त्रशास्त्र के बीजों का विवेचन करने के उपरान्त आचार्यों ने उनके रूप का निरूपण करते हुए बतालाया है कि - अ आ ऋ ह श य क ख ग ध ड ये वर्ण वायुतत्त्व संज्ञक; च छ ज झ ´ इ ई ऋ अ र ष ये वर्ण अग्नितत्त्व संज्ञक; त ट द उ उ ऊ ण लृ व ल ये वर्ण पृथ्वी संज्ञक; ठ थ ध ढ़ न ए ऐ लृ स ये वर्ण जलतत्त्व संज्ञक एवं प फ ब भ म ओ और अं अः आकाशतत्त्व संज्ञक हैं। अ उ ऊ ऐ ओ औ अं क ख ग ट ठ ड ढ त थ प फ ब ज झ ध य स ष क्ष ये वर्ण पुल्लिग; ऐ ओ और अं क ख ग अ ठ ड़ ढ़ त थ प फ ब ज झ ध य स ष क्ष ये वर्ण पुल्लिंग; आ ई च छ ल व वर्ण स्त्रीलिंग और इ ऋ ऋृ लृ लृ ए अः घ भ य र ह द ´ ण ड़ ये वर्ण नपुंसक लिंग संज्ञक होते हैं। मन्त्रशास्त्र में स्वर और ऊष्मध्वनियाँ ब्राह्मण वर्ण संज्ञक; अत्त्स्थ और कबर्ग ध्वनियों शुद्रवर्ण-संज्ञक होती है।

jain-img189

वश्य, आकर्षण और उच्चाटन में ‘हूं’ का प्रयोग9 मारण में ‘फट्’ का प्रयोग; स्तम्भन, विद्वेषण और मोहन में ‘नमः’ का प्रयोग एवं शान्तित और पौष्टिक के लिए ‘वषट्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। मन्त्र के अन्त में ‘स्वाहा’ शब्द रहता है। यह शब्द पापनाशक, मंगलकारक तथा आत्मा की आन्तरिक शान्ति को उद्बुद्ध करनेवाला बतलाया गय है। मन्त्र को शक्तिशाली बनानेवाली अन्तिम ध्वनियें में स्वाहा को स्त्रीलिंग; वषट्, फट्, स्वधा को स्वधा को नपुंसक लिंग माना है। मन्त्र-सिद्धि के लिए चार पीठों का वर्णन जैनशास्त्रों में मिलता है-श्मशानपीठ, शवपीठ, अरण्यपीठ और श्यामापीठ।

भयानक श्मशान भूमि में जाकर मन्त्र की आराधना करना श्मशानपीठ है। अभीष्ट मन्त्र की सिद्धि का जितना काल शास्त्रों में बताया गया है, उतने काल तक श्मशान में जाकर मन्त्र साधन करना आवश्यक है। भीरू साध कइस पीठ का उपयोग नहीं कर सकता है। प्रथमानुयोग में आया है कि सुकुमाल मुनिराज ने णमोकार मन्त्र की आराधना इस पीठ में करके आत्मसिद्धि प्राप्त की थी। इस पीठ में सभी प्रकार के मन्त्रों की साधना की जा सकती है। शवपीठ में कर्ण-पिशाचिनी, कर्णेश्वरी आदि विद्याओं की सिद्धि के लिए मृतक कलेवर पर आसन लगाकर मन्त्र साधना करनी होती है। आत्मसाधना करनेवाला व्यक्ति इस घृणित पीठ से दूर रहता है। वह तोएकान्त निर्जन भूमि में स्थित होकर आत्मा की साधनाकरता है। अरण्यपीठ में एकान्त निर्जन स्थान, जो हिंसक जन्तुओं से समाकीर्ण है, में जाकर निर्भय एकाग्रचित से मन्त्र की आराधना की जाती है। णमोकार मन्त्र की आराधना के लिए अरण्यपीठ ही सबसे उत्तम माना गया है। निग्र्रन्थ परम तपस्वी निर्जन अरण्यों में जाकर ही पंचपरमेष्इी की आराधना द्वारा निर्वाण लाभ करते हैं। राग-द्वेष, मोह, क्रोध, मन, माया और लोभ आदि विकारों को जीतने का एक मात्र सथान अरण्य ही है, अतएव इस महामन्त्र की साधना इसी स्थान पर यथार्थ रूप से हो सकती है। एकान्त निर्जन स्थान में षोडशी नवयौवना सुन्दरी को वस्त्ररहित कर सामने बैठकार मन्त्र सिद्ध करना एवं अपने मन को तिलमात्र भी चलायमान नहीं करना और ब्रह्मचर्यव्रत में दृढ़ रहना श्यामापीऽ है। इन चारों पीठों का उपयोगमन्त्र-सिद्धि के लिए किया जाता है। किन्तु णमोकार मन्त्र की साधना के लिए इस प्रकार के पीठों की आवश्यकता नहीं है। यह तो कहीं भी और किसी भी स्थिति में सिद्ध कियाजा सकता हैं

उपर्युक्त् मन्त्र-शास्त्र के संक्षिप्त विश्लेषण अैर विवेचन क निष्कर्ष यह है कि मन्त्रों के बीजाक्षर, सन्निविष्ट ध्वनियों के रूप िवधान में उपयोगी लंग और तत्त्वों का विधान एवं मन्त्र के अंतिम भाग में प्रयुक्त होनेवाला पल्लव-अन्तिम ध्वनिसमूह का मूलस्त्रोत णमोकार मन्त्र है। जिस प्रकार समुद्र का जल नवीन घड़े में भर देने पर नवीन प्रतीत होने लगता है,उसी प्रकार णमोेकार मन्त्ररूपी समुद्र में से कुछ ध्वनियों को निकालकर मन्त्रों का सृजन हुआ हैं ‘सिद्धों वर्णसमान्यायः’ नियम बतलाता है कि वर्णों का समूह अनादि है। णमोकार मत्र में कण्ठ, तालुम, मूर्धन्य, अन्तस्थ, ऊष्म, उपध्मानीय, वत्स्र्य आदि सभी ध्वनियों के बीज विद्यमान हैं बीजाक्षर मन्त्रों के प्राण हैं। ये बीजाक्षर ही स्वयं इस बात को प्रकट करते हैं कि इनकी उत्पत्ति कहाँ से हुई है। बीजकोश में बताया गया है कि ऊँ बीज समस्त णमोकार मन्त्र से हृीं की उत्पत्ति णमोकार मन्त्र के प्रथम पद से, श्रीं की उत्पत्तिणमोकार मन्त्र के द्वितीय पद से, क्षीं और क्ष्वीं की उत्पत्ति णमोकार मन्त्र के प्रथम, द्वितीय और तृतीय पदों से, क्लीं की उत्पत्ति प्रथम पद में प्रतिपादित तीर्थकरों की यक्षिणियों से, अत्यन्त शक्तिशाली सकल मन्त्रों में व्याप्त ‘र्हं’ की उत्पत्ति णमोकार मन्त्र के प्रथम पद से, द्रां द्रीं की उत्पत्तिउक्त मन्त्र के चतुर्थ और पंचम पद से हुई है। हृां हृीं हृोैं हृः ये बीजाक्षर प्रथम पद से, क्षां, क्षीं क्षूं क्षें क्षैं क्षौंः बीजाक्षर प्रथम, द्वितीय और पंचम पद से निष्पन्न है। णमोकार मन्त्रकल्प, भक्तामर यन्त्र-मन्त्र, कल्याणमन्दिर यन्त्र-मन्त्र,यन्त्र-मन्त्र संग्रह, पद्मावती मन्त्रकल्प आदि मान्त्रिक ग्रन्थों के अवलेकन से पता लगता है कि समस्त मन्त्रों के रूपी बीज पल्लव इसी महामन्त्र से निकले हैं। ज्ञानार्णव में षोडशाक्षर, षक्षर, चतुरक्षर, द्व्यक्षर, एकाक्षर, पंचाक्षर, त्रयोदशाक्षर, सप्ताक्षर, अक्षरपंक्ति इत्यादि नाना प्रकार के मन्त्रों की उत्पत्ति इसी महामन्त्र से मानी है। षोडशाक्ष्र मन्त्र की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए कहा गया है:

स्मर पंचपदोद्भूतां महाविद्यां जगन्नुताम्।
गुरूपचंकनामोत्थां षोडशाक्षरराजिताम्।।
अस्याः शतद्वयं ध्यानी जपन्नेकाग्रमानसः।
अनि छन्नप्यवाप्निोति चतुर्थतपकसः फलम्।।
विद्यां षड्वर्णसम्भूतामजय्यां पुण्यशालिनीम्।
जपन्प्रागुक्तमभ्येति फलं ध्यानी शतत्रयम्।।
चतुर्वर्णमयं मन्त्रं चतुर्वर्गफलप्रदम्।
चतुःशतं पजन् योगी चतुर्थस्य फलं लभेत्।।
वर्णयुक्मं श्रुतस्कन्धसारभूतं शिवप्रदम्।
ध्यायेज्जन्मोद्भवाशेषक्ले शविध्वंसनक्षमम्।।
सिद्धेः सौधं समारोढुमियं सोपानमालिका।
त्रयोदशाक्षरोत्पन्ना विद्या विश्वातिशाविनी।।
jain-img190

अर्थात - षोडशाक्षरी महाविद्या पंच पदों और पंच गुरूओं के नामों से उत्पन्न हुई है, इसका ध्यान करने से सभी प्रकार के अभ्युदयों की प्राप्ति होती हैं यह सोलह अक्ष्र का मन्त्र है-‘‘अर्हत्सिद्धाचार्योंपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः।’’ जो व्यक्ति एकाग्र मन होकर इस सोलह अक्षर के मन्त्र का ध्यान करता है, उसे चतुर्थ तप-एक उपवास का फल प्राप्त होता है। णमोकार मन्त्र से निःसृत-‘अरिहन्त सिद्ध’ इन छह अक्षरों से उत्पन्न हुई विद्या का तीन-सौ बार-तीन माला प्रमाण जाप करनेवाला एक उपवास के फल को प्राप्त होता है;द्ध क्योंकि षडक्षरी विद्या अजय्य है और पुण्य को उत्पन्न करनेवाली तथा पुण्य से शोभित है। उक्त महासमुद्र से निकला हुआ ‘अरिहन्त’ ये चार अक्षरोवाला मन्त्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप फल को देनेवाला है, इसकी जो चार मालाएं प्रतिदिन जाप करता है, उसे एक उपवास का फल मिला है। ‘सिद्ध’ यह दो अक्षरों का मन्त्र द्वादशांग जिनवाणी का सारभूत है, मोक्ष को देनेवाला है, तथा संसार से उत्पन्न हुए समस्त क्लेशों का नाश करनेवाला है। णमोकार महामन्त्र से उत्पन्न तेरह अक्षरों के समूहरूप मन्त्र मोक्ष महल पर चढ़ने े लिए सीढ़ी के समान है। यह मन्त्र है-‘‘ऊँ अर्हत्सिद्धसयोगकेवली स्वाहा।’’

आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने द्रव्य संग्रह की 49वी गाथा में इस णमोकार मन्त्र से उत्पन्न आत्मसाधक तथा चमत्कार उत्पन्न करने वाले मन्त्रों का उल्लेख करते हुए कहा है:

पणतीस सोल छप्पण चउदुगमेगं च जबह झाएह।
परमेट्ठिवाचयाणं अण्णं च गुरूवएसेण।।

अर्थात - पंचपरमेष्ठीवाचक पैंतीस, सोहल, छह, पाँच, चार, दो और एक अक्षररूप मन्त्रों का जप और ध्यान करना चाहिए। स्पष्टता के लिए इन मन्त्रों को यहाँ क्रमशः दिया जाता है।

सोलह अक्षर का मन्त्र- अरिहंत-सिद्ध-आइरिय-उवज्झाय-साहू अथवा अर्हत्सिद्धाचार्यउपाध्यायसर्वसधुभ्या ेनमः।
छ अक्षर का मन्त्र-अरिहंतसिद्ध। अरिहंत सि सा। ऊँ नमः सिद्धेभ्यः। नमोऽर्हत्सिद्धेभ्यः।
पाँ अक्षर का मन्त्र-अ सि आ उ सा। णमो सिद्धाणं।
चार अक्षर का मन्त्र-अरिहंत। अ सि साहू।
सात अक्षर का मन्त्र-ऊँ हृीं रीं अर्हं नमः।
आठ अक्षर का मन्त्र-ऊँ णमो अरिहंताणं।
तेरह अक्षर का मन्त्र-ऊँ अर्हत् सिद्धसयोगकेवली स्वाहा।
दो अक्षर का मन्त्र- ऊँ हृीं । सिद्ध। अ सि।
एक अक्षर का मन्त्र- ऊँ ओं ओम्, अ, सि। त्रयोदशाक्षरात्मक विद्या-ऊँ हृां हृूं हृौं हृः अ सि आ उ सा नमः।

jain-img191

अक्षरपंक्ति विद्या- ऊँ नमोऽर्हते केवलिने परमयोगिनेऽनन्तशुद्धिपरिणाम-विस्फुरदुरूशुक्लयानाग्निदग्धकर्मबीजाय प्राप्तानन्तचतुष्अयाय सौम्याय शान्ताय मंगलाय वरदाय अष्टादशदोषरहिताय सवाहा। यह अीाय स्थान मन्त्र भी कहा गया है। इसके जपने से कामनाएँ पूर्ण होती है। प्रणवयुगल और मायायुगल मन्त्र-हृीं ऊँ ऊँ हृीं, हं सः।

अचिन्त्य फलप्रदायक मन्त्र-ऊँ हृीं स्वर्हं णमो णमो अरिहंताणं हृीं नमः।

पापभक्षिणी विद्यारूप मन्?-ऊँ अर्हन्मुखकमलवासिनि पापात्मक्षयंकरि, श्रुतिज्ञानज्वालासहस्त्रप्रज्वलिते सरस्वति मत्पापं हन हनंद ह दह क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः क्षीरवरधवले अमृतसम्भवे वं वं हूं हूं स्वाहा। इस मन्त्र के जाप के प्रभाव से साधक का चित्त प्रसन्नता धारण करता है और समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और आत्मा में पवित्र भावनाओं का संचार हो जाता है।

गणधरवलय में आये हुए ‘ऊँ णमो अरिहंताणं’, ‘ऊँ णमो सिद्धाणं’, ‘ऊँ णमो आइरियाणं’, ‘ऊँ णमो उवज्झायाणं, ‘ऊँ णमो लोए सव्वसाहूणं’ आदि मन्त्र णमोकार महामन्त्र के अभिनन अंग ही हैं।

णमोकार मन्त्र कल्प के सभी मन्त्र इस महामन्त्र से निकले हैं। 46 मन्त्र इस कल्प के ऐसे हैं, जिनमें इस महामन्त्र के पदों का संयोग पृथक रूप में विद्यमान है। इन मन्त्रों का उपयोग भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए किया जाता है। यहाँ पर कुछ मन्त्र दिये जा रहे हैं।

रक्षामन्त्र (किसी भी कार्य के आरम्भ में इन रक्षा-मन्त्रों के जप सेउस कार्य में विघ्न नहीं आता है)-

ऊँ णमो अरिहंताणं हृां हृदयं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।

ऊँ णमो सिद्धाणं हृी सिरो रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।

ऊँ णमो आइरियाणं हृूं शिखां रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।

ऊँ णमो उवज्झायाणं हैं एहि एहि भगवति वज्रकवचवज्रिणि रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा। ऊँ णमो लोए सव्वसाहूणं हृः क्षिप्रं साधय साधय वज्रहस्ते शूलिनि दुष्टान् रक्ष हुं फट् स्वाहा।

रोग - निवारण मन्त्र (इन मन्त्रों को 108 बार लिखकररोगी के हाथ पर रखने से सभी रोग दूर होते हैं। मन्त्र सिद्ध कर लने के पश्चात् किसी भी मन्त्र से 108 बार पढ़कर फूँक देने से रोग अच्छा होता है)-

ऊँ णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं। ऊँ णमो भववति सुअदेवयाणवार संग एव, यण जणणीये, सरसस्ई ए सव्व, वार्हणि सवणवणे, ऊँ अवतर अवतर, देवि मयसरीर वपिस पुछं, तस्स पविस सत्व जण मयहरीये अरिहंत सिरिसरिए स्वाहा।

सिर की पीड़ादूर करने के मन्त्र (108 बार जल को मन्त्रित करके पिलादेने से सिर दर्द दूर हो जाता है)-

ऊँ णमो अरिहंताणं,
ऊँ णमो सिद्धाणं, ऊँ णमो आइरियाणं, ऊँ णमो उवज्झायाणं, ऊँ णमो लोए सव्वसाहूणं। ऊँ णमो णाणाय, ऊँ णमो दंसणाय, ऊँ णमो चारित्ताय, ऊँ हृीं त्रैलोक्यवश्यंकरी हृीं स्वाहा।

बुखार तिजारी और एकतरा दूर करने का मन्त्र-

ऊँ णमो लोए सव्वसाहूणं ऊँ णमो उवज्झायाणं ऊँ णमो आइरियाणं ऊँ णमो सिद्धाणं ओं णमो अरिहंताणं।

विधि - एक सफेद चादर के एक किनारे को लेकरएक बार मन्त्र पढ़कर एक स्थान पर मोड़ दे, इस प्रकार 108 बार चादर को मन्त्रित कर मोड़ देने के पश्चत् उस चादर को रोगी को उढ़ा देने पर रोगी का बुखार उतर जाता है।

अग्निनिवारक मन्त्र:

ऊँ ण्मो ऊँ अर्हं अ सि आ उ सा, णमो अरिहंताणं नमः।

विधि - एक लोटे में शुद्ध पवित्र जल लेकर उसमें से थोड़ा-सा जल चुल्लू में अलग निकालकर उस चुल्लू के जल को 21 बार उपर्युक्त मन्त्र से मन्त्रित कर चुल्लू के जल से एक रेखा खींच दे ंतो अग्नि उस रेखा से आगे नहीं बढती है। इस प्रकार चारो दिशाओं में जल से रेखा खींचकर अग्नि का स्तमभनकरें। पश्चात् लोटे के जल को लेकर 108 बार मन्त्रित कर अग्नि पर छींटे दे ंतो अग्नि शान्त हो जाती है। इस मन्त्र का आत्मकल्याण के लिए 108 बार जाप करने से एक उपवास का फल मिलता है।

लक्ष्मी-प्राप्ति मन्त्रः

ऊँ णमो अरिहंताणं ऊँ णमो सिद्धाणं ऊँ णमो आइरियाणं ऊँ णमो उवज्झायाणं ऊँ णमो लोए सव्वसाहूणं। ऊँ हृां हृीं हृूँ हृः स्वाहा

विधि - मन्त्र को सिद्ध करने के लिए पुष्य नक्षत्र के दिन पीला आसन, पीली माला और पीले वस्त्र पहनकर एकान्त में जप करना आरमभ करें। सवा लाख मन्त्र का जाप करने पर मन्त्र सिद्ध होता है। साधना के दिनां में एक बार भोजन, भूमि पर शयन, ब्रह्मचर्य कापालन, सप्तव्यसन का त्याग, पंचपाप का त्यग करना चाहिए। स्वाहा शब्द के साथ प्रत्येक मन्त्र पर धूप देता जाए तथा दीप जलाता रहे। मन्त्रसिद्धि के पश्चात् प्रतिदिन एक माला जपने से धन की वृद्धि होती है।

सर्वसिद्धि मन्त्र (ब्रह्मचर्य और शुद्धतापूर्वक सवा लाख जाप करने से सभी कार्य सिद्ध होते हैं)ः

ऊँ अ सि आ उ सा नमः।

jain-img192

पुत्र और सम्पदा-प्रािप्त का मन्त्रः

ऊँ हृीं श्रीं हृीं क्लीं अ सि आ उ सा चलु चलु हुलु हुलु मुलु मुलु इच्छियं में कुरू कुरू स्वाहा।

त्रिभुवनस्वामिनी विद्या:

ऊँ हृां णमो सिद्धाणं ऊँ हृीं ामो आइरियाणं ओं हृूँ णमो अरिहन्ताणं

ऊँ हृौं णमो उवज्झायाणं अें हृः णमो लोए सव्वसाहूणं। श्रीं क्लीं नमः क्षां क्षीं क्षूं क्षें क्षैं क्षों क्षौं क्षः स्वाहा।

विधि - मन्त्र सिद्ध करने के लिए सामने धूप जलाकर रख् लें तथा 24 हजार श्वेत पुष्पों पर इस मन्त्र को सिद्ध करें। एक फूल परएक बार मन्त्र पढ़ें।

राजा, मन्त्री या किसी अधिकारी को वश करने का मन्त्र:

ऊँ हृीं णमो अरिहंताणं ऊँ हृीं णमो सिद्धाणं ऊँ हृीं णमो आइरियाणं ऊँ हृीं णमो उवजयाणं ऊँ हृीं णमो लोए सव्वसाहूणं। अमुक मम वश्यं कुरू कुरू स्वाहा।

विधि - पहले 11 हज्ार बार जाप कर मन्त्र को सिद्ध कर लेना चाहिए। जब राजा, मन्त्री या अन्य किसी अधिकारी के यहाँ जाएं तोसिरके वस्त्र को 21 बार मन्त्रित कर धारण करें, इससे यह व्यक्ति वश में हो जाता है। अमुक के स्थान पर जिस व्यक्ति को वश करना होउसका नाम जोड़ देना चाहिए।

महामृत्युंजय मन्त्रः

ऊँ हृीं णमो अरिहंताणं ऊँ हृीं णमो सिद्धाणं ऊँ हृीं णमो आइरियाणं ऊँ हृीं णमो उवजयाणं ऊँ हृीं णमो लोए सव्वसाहूणं। मम सर्वग्रहारिष्टान् निवारय निवारय अपमृत्युं घातय घातय सर्वशान्ति कुरू कुरू स्वाहा।

विधि - द्वीप जलाकर धूप देते हुए नैष्ठिक रहकर इस मन्त्र का स्वयं जाप करें या अन्य द्वारा कराएं। यदि अन्य व्यक्ति जाप करें तो ‘मम’ के स्थान परउस व्यक्ति का नाम जोड़ लें-अमुकस्य सर्वग्रहारिष्टान् निवारय आदि। इस मन्त्र का सवा लाख जाप करने से ग्रहबाधा दूर हो जाती है। कम-से-कम इस मन्त्र का 31 हजार जाप करना चाहिए। जाप के अनन्तर दशांश आहुति देकर हवन भी करें।

सिर, अक्षि, कर्ण, श्वास रोग एवं पादरोगविनाशक मन्त्रः

ऊँ हृीं अर्हं णमो ओहिजिणाणं परमोहिजिणाणं शिरोरोगविनाशनं भवतु।
ऊँ हृीं अर्हं णमो सव्वोहिजिणाणं अक्षिरोगविनाशनं भवतु।
ऊँ हृीं अर्हं णमो अणंतोहिजिजिणाणं कर्णरोगविनाशनं भवतु।
ऊँ हृीं अर्हं णमो संमिण्णसोदराणं श्वासरोगविनाशनं भवतु।
ऊँ हृीं अर्हं णमो सव्वजणाणं पादादिसर्वरोगविनाशनं भवतु।

विवेक प्राप्ति मन्त्र:

ऊँ हृीं अर्हं णमो कोट्ठबुद्धीणं बीजबुद्धीणं ममात्मनि विवेकज्ञानं भवतु।

विरोध-विनाशक मन्त्र:

ऊँ हृीं अर्हं णमो पादानुसारणीं परस्परविरोधविनाशनं भवतु।

प्रतिवादी की शक्ति को स्तम्भनकरने का मन्त्र:

ऊँ हृीं अर्हं णमो पत्तेयबुद्धाणं प्रतिवादिविद्याविनाशनं भवतु।

विद्या और कवित्व प्राप्ति के मन्त्र:

ऊँ हृीं अर्हं णमो सयंबुद्धाणं कवित्वं पाण्डित्यं च भवतु।
ऊँ हृीं अर्हं दिवसररात्रिभेदविवर्जितपरज्ञानर्कचन्द्रातिशयाय श्रीप्रथमजिनेन्द्राय नमः।

सर्वकार्यसाधक मन्त्र (मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक प्रातः सायं और मध्याह्न में जाप करना चाहिए)

ऊँ हृीं श्री क्लीं नमः स्वाहा।

सर्वशान्तिदायक मन्त्रः

ऊँ हृीं श्रीं क्लीं ब्लूं अर्ह नमः।

व्यन्तर बाधा विनाशक मन्त्र:

ऊँ हृीं श्री क्लीं अर्हृं अ सि आ उ सा अनावृतविद्यायै ण्मो अरिहंताणं हृौं सर्वशान्तिर्भवतु स्वाहा।
ओं नमोऽर्हे सर्वं रक्ष रक्ष हुँ फट् स्वाहा।

उपर्युक्त मन्त्रों के अतिरिक्त सहस्त्रों मन्त्र इसी महामन्त्र से निकले हैं

सकलीकरण क्रिया के मन्त्र, ऋषिमन्त्र, पीठिकामन्त्र, प्रोक्षणमन्त्र, प्रतिष्ठामन्त्र, शान्तिमन्त्र, इष्असिद्धि-अरिष्टनिवारकमन्त्र, विभिन्न मांगलिक कृत्यों के अवसर पर उपयोग में आनेवाले मन्त्र, विवाह, यज्ञोपवीत आदि संस्कारों के अवसर पर हवन-पूजन के लिए प्रयुक्त होनेवाले मन्त्र प्रभृति समस्त मन्त्र णमोकार महामन्त्र से प्रादुर्भूत हुए हैं इस महामन्त्र की ध्वनियें के संयोग, वियोग, विश्लेषण और संश्लेषण के द्वारा ही मन्त्रशास्त्र की उत्पत्ति हुई है। प्रवचन-सारोद्धार के वृत्तिकार ने बताया है:

सर्वमन्त्ररत्नानामुत्पत्त्पत्त्याकरस्य प्रथमस्य कल्पिपदार्थकरणैककल्पद्रुमस्य विषविषधरशाकिनीडाकिनीयाकिन्यादिनिग्रहनिरवग्रहस्वभावस्य सकलजगद्वशी करणाकृष्ट्याद्यव्यभिचारप्रौढप्रभावस्य चतुर्दशपूर्वाणां सारभूतस्य पंचपरमेष्ठिनमस्कारस्य महिमात्यद्भुतं वरीवर्तते, त्रिजगत्याकालमिति निष्प्रतिपक्षमेतत्सर्वसमयविदाम्।

अर्थात - यह णमोकार मन्त्र सभी मन्त्रों की उत्पत्ति के लिए समुद्र के समानहै। जिस प्रकार समुद्र से अनेक मूल्यवान् रत्न उत्पन्नहोते हैं, उसी प्रकार इस महामन्त्र से अनेक उपयोगी और शक्तिशाली मन्त्र उत्पन्न हुए है। यह मन्त्र कल्पवृक्ष है, इसकी आराधना से सभी प्रकार की कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। इस मन्त्र से विष,सर्प, शाकिनी, डाकिनी, याकिनी, भूत, पिशाच आदि सब वश में हो जाते हैं। यह मन्त्र ग्यारह अंग और चैदह पूर्व का सारभूत है। मन्त्रों को आचार्यों ने वश्य, आकर्षण आदि नौ भागों में विभक्त कियाहै। ये नौ प्रकार के मन्त्र इसी महामन्त्र से निष्पन्न हैं; क्योंकि उन मन्त्रों के रूप इस मन्त्रोक्त वर्णों याध्वनियों से ही निष्पन्न हैं। मन्त्रों के प्राण बीजाक्षरतो इसी मन्त्र से निःसृत हैं तथा मन्त्रों का विकास और निकास इसी महासमुद्र से हुआ है।े जिस प्रकार गंगा, सिन्धु आदि नदियाँ पöहृदादि से निकलकर समुद्रों में मिल जाती हैं, उसी प्रकार सभी मन्त्र इसी महामन्त्र से निकलकर इसी महामन्त्र के तत्त्वों में मिश्रित हैं।

जिनकीर्ति सूरि ने अपने नमस्कारस्तव के पुष्पिका वाक्य में बताया है कि इस महामन्त्र में समस्त मन्त्रशास्त्र उसी प्रकार निवास करता है, जिस प्रकार एक परमाणु में त्रिकोणाकृति। और यही कारण है कि इस महामन्त्र की आराधना से सभी प्रकार के शुभ और आत्मानुभवरूप शुद्ध फल प्राप्त होते हैं। इसलिए यह सब मन्त्रों में प्रधान और अन्य मन्त्रों का जनक हैंः

एवं श्रीपंचपरमेष्ठिनमस्कारमहामन्त्रः सकलसमीहितार्थ - प्रापणकल्पदुमाभ्य - धिकमहिमाशान्तिपौष्टिकद्यष्टकर्म कृत्। ऐहिकपारलौकिक-स्वाभिमतार्थसिद्धये यथा श्रीगुर्वाम्नायं ज्ञातव्यः।

अर्थात - यह णमोकर मन्त्र, जिसे पंचपरमेष्ठी को नमस्कार किये जाने के कारण पंचनमस्कार भी कहा जाता है, समस्त अभीष्ट कार्यों की सिद्धि के लिए कल्पदु्रम से भी अधिक शक्तिशाली है। लौकिक और पारलौकिक सभी कार्यों में इसकी आराधना से सफलता मिलती है। अतः अपनी आम्नाय के अनुसार इसका ध्यान करना चाहिए।

निष्कर्ष यह है कि णमोकार महामन्त्र की बीज ध्वनियाँ ही समस्त मन्त्रशस्त्र की आधारशिला हैं। इसी से यह शास्त्र उत्पन्न हुआ हैं