व्रतविधान और णमोकार मन्त्र
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व्रतों का पालन आत्मकल्याण और जीवन संस्कार के लिए होताहैं ब्रतों की विधि का वर्णन कई श्रावकाचारों में आया है। कर्मों की असंख्यातगुणी निर्जरा करने के लिए श्रावक व्रतोपवास करता है, जिससे उनकी आत्मा के विकार शान्त होते हैं और त्याग की महत्ता जीवन में आती हैं सप्तव्यसन के त्याग के साथ, आठ मूलगुण, बारह व्रत और अंतिम समय में सल्लेखना धारण कर विशेष उपवासों के द्वारा श्रावक अपनी आत्मा को शुद्ध करने का अभ्यास करता है। व्रत प्रधान रूप से नौ प्रकार के होते हैं-सावधि, निरवधि, दैवसिक, नैशिक, मासावधिक, वार्षिक, काम्य, अकामय और उत्तमार्थ। सावधि व्रत दो प्रकार के हैं-तिथि की अवधि के किये जानेवाले और दिनों की अवधि से किये जानेवाले। तिथि की अवधि से किये जानेवाले सुखचिन्तामणि, पंचविंशतिभावना, द्विित्रंशद्भावना, सम्यक्त्वपंचविंशतिभावना औरणमोकारपंचत्रिंशद्भावना आदि हैं। दिनों की अवधि से किये जानेवाले व्रतों में दुःखहराव्रत, धर्मचक्रव्रत, जिनगुणसम्पत्ति, सुखसम्पत्ति, शीलकल्याण, श्रुति-कल्याणक और चक्रकल्याणक आदि हैं। निरवधि में कवलचन्द्रायण, तपोंजलि, जिनमुखावलोकन, मुक्तावली, द्विकावली और एकावली आदि हैं। दैवसिक व्रतों में दशलक्षण, पुष्पांजलित, रत्नत्रय आदि हैं। आकाशपंचमी नैशिक व्रत है। षोडशकारण, मेघमाला आदि मासिक हैं। जो व्रत किसी कामना की पूर्ति के लिए किये जाते हैं, वे काम्य और जो निष्कामरूप से किये जाते हैं, वे निष्काम कहलाते हैं। काम्य व्रतों में संक्टहरण, दुःखहरण, धनदकलश आदि व्रतो की गणना की जाती है। उत्तम व्रतों में कर्मचूर, कर्मनिर्जरा, महासर्वतोभद्र आदि हैं।

अकाम्य व्रतों में मेरूपंक्ति आदि की गणना है। इन समस्त व्रतों के विधान में जाप्य मन्त्रों की आवश्यकता होती है। यों तो णमोकार मन्त्र के नाम पर णमोकारपंचत्रिंशद्भावना व्रत भी है। इस व्रत का वर्णन करते हुए बताया गया है कि इस व्रत का पालन करने से अनेक प्रकार के ऐश्वर्यों के साथ मोक्ष-सुख प्राप्त होता है। कहा गया है:

अपराजित है मन्त्र णमोकार, अक्षर तहँ पैंतीस विचार।
कर उवपस वरण परिमाण, सोहं सात करो बुधिमान।।
पुनि चैदा चैदशिव्रत साँच पाँचें तिथि के प्रोषध पाँच।
नवमी नव करिये भवि सात, सब प्रोषध पैंतीस गणात।।
पैंतीस णवकर जु येह, जाप्यमन्त्र नवकार जयेह।
मन वच तन नरनारी करे, सुरनर सुख लह शिववतिय वरे।।

अर्थात् - यह णमोकारपैंतीसीव्रत एक वर्ष छह महीने में समाप्त होता है। इस डेढ़ वर्ष की अवधि में केवल 35 दिन व्रत के होते हैं। व्रतारम्भ करने की यह विधि है-

1. प्रथम आषाढ़ शुक्ला सप्तमी का उपवास करे, फिर श्रावण महीने की दोनों सप्तमी, भाद्रपद महीने की दोनों सप्तमी और आश्विन महीने की दोनों सप्तमी इस प्रकार कुल सात सप्तियों के उवपस करें।

2. पश्चात् कार्तिक कृष्ण पंचमी से पौष कृष्ण पंचमी तक अर्थात् कुल पांच पंचमियों के उपवास करें।

3. तदनन्तर पौष कृष्ण चतुर्दशी से चैत कृष्ण चतुर्दशी तक सात चतुर्दशियों के सात उपवास करें।

4. अनन्तर क्षेत्र शुक्ला चतुर्दशी से आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी तक सात चतुर्दशियों के सात उपवास करें।

5. तत्पश्चात् श्रावण कृष्ण नवमी से अगहन कृष्ण नवमी तक नौ नवमियों के नौ उपवास करे।

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इस प्रकार कुल 35 अक्षरों के पैंतीस उपवास किय जाते हैं। णमोकार मन्त्र के प्रथम पद में 7 अक्षर, द्वितीय में 5, तृतीय में 7, चतुर्थ में 7 और पंचम में 9 हैं; अतः उपवासों का क्रम भी ऊपर इसी के अनुसार रखा गया है। उपवास के दिन व्रत करते हुए भगवान का अभिषेक करनेके उपरान्त णमोकार मन्त्र का पूजन तथा त्रिकाल इस मन्त्र का जाप किया जाता है। व्रत के पूर्ण हो जाने पर उद्यापन कर देना चाहिए। इस व्रत का पालन भोपाल नामक ग्वाल ने किया था, जो चम्पानगरी में तद्भवमोक्षगामी सुदर्शन हुआ। वर्धमान पुराण में णमोकार व्रत को 70 दिन में ही समाप्त कर देने का विधान है।

णमोकार व्रत अब सुन राज, सत्तर दिन एकान्तर साज।

अर्थात् 70 दिनों तक लगातार एकाशन करें। प्रतिदिन भगवान् के अभिषेक-पूर्वक णमोकार मन्त्र का पूजन करे। त्रिकाल णमोकार मन्त्र का जाप करे। रात्रि में पंचपरमेष्ठी के स्वरूप का चिन्तन करते हुए याइस महामन्त्र का ध्यान करते हुए अल्प निद्रा ले। जो व्यक्ति इस व्रत का पालन करता है, उसकी आत्मा में महान् पुण्य का संचय होता है और समस्त पाप भस्म हो जाते हैं।

णमोकार मन्त्र का त्रिकाल जाप, त्रेपन क्रिया व्रत, लघुपल्यविधान, बृहत्पल्य-विधान, नक्षत्रमाला, सप्तकुम्भ, लघुसिंहनिष्क्रीडित, बृहत्सिहनिष्क्रीडित, भाद्रवन-सिंहनिष्क्रीडित, त्रिगुणसार, सर्वतोभद्र, महासर्वतोभद्र, दुःखहरण, जिनपूजापुरन्दरव्रत, लघुधर्मचक्र, बृहद्धर्मचक्र, बृहद जिनगुणसम्पत्ति, लघुजिनगुणसम्पत्ति, बृहत्सुखसम्पत्ति, मध्यमसम्पत्ति, लघुसुखसम्पत्ति, रूद्रवसन्तव्रत, शीलककल्याणकव्रत, श्रुतिकल्याणकव्रत, चन्द्रकल्याणकव्रत, लघुकल्याणकव्रत, बृहद्रत्नावलीव्रत, मध्यमरत्नावलीव्रत, लघुरत्नावलीव्रत, बृहद्मुक्तावलीव्रत, मध्यममुक्तावलीव्रत, लघुमुक्तावलीव्रत, एकावलीव्रत, लघुएकावलीव्रत, द्विकावलीव्रत, लघुद्विकावलीव्रत, लघुकनकावलीव्रत, बृहद्कनकावलीव्रत, लघुमृदंगमध्यव्रत, बृहद्मृदंगमध्यव्रत, मुरजमध्यव्रत, वज्रमध्यव्रत, अक्षयनिधिव्रत, मेघमालाव्रत, सुखकारणव्रत, आकाशपंचमी, निर्दोषसप्तमी, चन्दनषष्ठी, श्रवणद्वादशी, श्वेतपंचमी, सर्वार्थसिद्धिव्रत, जिनमुखावलोकनव्रत, जिनरात्रिव्रत, नवनिधिव्रत, अशोकरोहिणीव्रत, कोकिलापंचमीव्रत, रूक्मिणीव्रत, अनस्तमीव्रत, निर्जरपंचमीव्रत, कवलचन्द्रायणव्रत, बारह विजोराव्रत, ऐसानव्रत, ऐसादशव्रत, कंजिकव्रत, कृष्णपंचमीव्रत, निःशल्यअष्टमीव्रत, लक्षणपंक्तिव्रत, दुग्धरसीव्रत, धनदकलशव्रत, कलिचतुर्दशी, शीलसप्तमीव्रत, नन्दसप्तमीव्रत, ऋषिपंचमीव्रत, सुदर्शनव्रत, गन्धअष्टमीव्रत, शिवकुमारवेलाव्रत, मौनव्रत, बारहतपव्रत और परमेष्ठिगुणव्रत के विधान में बतलाया गया है। अर्थात् उपर्युक्त व्रतों को णमोकार मन्त्र के जाप द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है। कुल 25-26 व्रत ऐसे हैं, जिनमें णमोकार मन्त्र से उत्पन्न मन्त्रों के जाप का विधान है। इस मन्त्र का व्रतसाधना के लिए कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है, यह उपर्युक्त व्रतों की नामावली से ही स्पष्ट है। श्रावक व्रतों के पालन द्वारा अनेक प्रकार के पुण्य का अर्जन करताहै। बताया गयाहै कि:

अनेकपुण्यसंतानकारणं.............. स्वर्निबन्धनम्।
पापघ्नं च क्रमादेतद् व्रतं मुक्तिवशीकरम्।।
यो विधते व्रतं सारमेतत्सर्वसुखावहम्।
प्राप्य षोडशमं नाकं सं गच्छेत् क्रमशः शिवम्।।

अर्थात् - व्रत अनेक पुण्य की सन्तान का कारण है, संसार के समस्त पापों को नाश करने वाला है एवं मुक्ति-लक्ष्मी को वश में करने वाला है, जो महानुभाव सर्वसुखोत्पादक श्रेष्ठ व्रत धारण करते हैं, वो सोलहवें स्वर्ग के सुखों का अनुभव कर अनुक्रम से अविनाशी मोक्षसुख को प्राप्त करते हैं। अतएव यह स्पष्ट है कि व्रतों के सम्यक् पालन करने के लिए णमोकार मन्त्र का ध्यान करना अत्यावश्यक है।