।। अष्ट मूलगुण ।।

इस अमूल्य नर-जन्म को सार्थक बनाने पर ही संसार में हम मानव कहे जा सकते हैं, अन्यथा नहीं इसलिए जल्दी से जल्दी हमें अपने कर्तव्यों का पालन शुरू कर देना चाहिए। सर्वप्रथम हमें जो हमारे अष्ट मूलगुण हैं उन्हें अपनाना है। उनकी संख्या आचार्यों ने इस प्रकार लिखी है -

मद्यमांस-मधुत्यागैः सहाणुव्रत-पंचकम्।
अष्टौ मूलगुणानाहुः गृहिणां श्रमणोत्तमा।।66।।

अर्थात् -मद्य (शराब), मास और मधु (शहद) इन तीनों का त्याग और स्थूल रूप से पांच अणुव्रतों के पालने का अभ्यास करें।

श्री जिनसेनाचार्य जी ने अष्ट मूलगुण इस प्रकार कहे हैं -

हिंसाऽसत्यस्तेयादब्रह्मपरिग्रहाच्च सूक्ष्म बादर-भेदात्।
द्यूतान्मांसान्मद्याद्विरतिर्गृहिणोऽष्ट सन्त्यमी मूलगुणाः।।

अर्थात् -स्थूल हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म, परिग्रह, जुआ, मांस और मदिरा इनका त्याग अष्ट मूलगुण हैं।

‘सागरधर्माृत’ में पण्डित आशाधरजी ने अष्ट मूलगुण किन्हीं और आचार्यों के प्रमाण से इस प्रकार कहे हैं -

मद्यपलमधुनिशाशन-पंचफलीविरति-पंचकाप्तनुतीः।
जीवदया-जलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणाः ।।2।।18।।

अर्थात् -शराब, मांस, शहद, रात्रि-भोजन, पांच उदम्बर फल (बड़ फल, पीपल, फल, पाकर फल, गूलर, और अंजीर) इन सबका त्याग तथा पंचपरमेष्ठी की भक्ति, जीव दया पालन और जल छानकर पीना।

अष्ट मूलगुण धार, जान धर्म का मूल है।
इन बिन ना उद्धार, रहे मूल में भूल है।।4।।

jain mandir
सप्त व्यसन

इस प्रकार इन अष्ट मुलगुणों का पालन करें और साथ ही सप्त व्यसनों का त्याग करें। व्यसन नाम शौक-आदत का है। इन सात बुराईयों से हम मोड़ लें अपने को। व्यसन सेवन करने वाले व्यसनी कहलाते हैं। इस लोक और परलोक में न्हें दुख और अपयश उठाना पड़ता है; दुर्गति की प्राप्ति होती है। इसलिए भव्य जीवों ाके इन खोटे व्यसनों सेदूर ही रहना चाहिए।

जुआ चोरी मांस मद वेश्या-रमण शिकार।
पर-रमणी-रति व्यसन ये, सात कहे दुखकार।।

अर्थात् -जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरापान करना, शिकार खेलना, वेश्यागमन करना, चोरी करना और पर-स्त्री सेवन ये सात कुव्यसन हैं। इन सबसे अपने को मोउ़ लें। अगर एक भी लगा रहा तो सर्वथा अहित हो जायेगा। देखो एक-एक व्यसन के फन्दे में फंसकर पाण्डव राजकुमार, वक्र राजा, सेवक चारूदत्त, अपना अहित कर बैठे, लोकनिन्दा के पात्र बने तथा दुर्गति में गमन आदि अनेक कष्टों को पाया। अतः हमें सप्त व्यसनों का त्याग तो निश्चित करना ही है, अगर करना चाहते हैं नरजन्म को सफल तो-

सप्त व्यसन अति घोर, जग में दुख ही देत हैं।
जो तज दे कर जोर, पर भव में सुख लेते हैं।।