।। कषाय ।।

विषय-कषायन से गये, राज तेज अरू वंश।
तीनों ताला दे गये, रावण, कौरव, कंश।।

अनादिकाल से हमें दुःखों का सामना करना पड़ा रहा है। इसका मूल कारण है कषाय। कषय के वशीभूत होकर खो बैठते हैं अपने शांति-स्वभाव को, नहीं रहता विवेक कार्य-अकार्य का, कर बैठते हैं सर्वथा अहित अपना, कर्मों की कोटाकोटि की स्थिति का कारण भी यही तीव्र कषाय है। कषाय के चक्कर में आकर बड़े-बड़े महापुरूष भी अपना अनिष्ट कर बैठते हैं हमारी तो बात ही क्या है। इन्द्रिय भोग इतने दुःख के कारण नहीं हैं जितनी कि कषाय। अतः अगर हम अपना कल्याण करना चाहते हैं तो अपनी शक्ति के अनुसार कषाय का परित्याग कर दें इसी क्षण।

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कषाय किसे कहते है?

जो हमारे ज्ञानादि गुणों को घातकर हमें चारों गतियों की चैरासी लाख योनियों में भ्रमण कराये, भटकाये; उसे कषाय कहते हैं। कषाय का स्वरूप ‘जीवकाण्ड गोम्मटसार’ में इस प्रकार बताया है-

सुहदुक्खसुबहुसस्सं कम्मक्खतेत्तं कसेदि जीवस्स।
संसारदूरमेरं तेण कषाओ त्त्ति णं बेंति।।

अर्थ - जीव के सुख-दुःख आदिरूप अनेक प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले तथा जिसकी संसार रूप मर्यादा अत्यंत दूर है ऐसे कर्मरूपी क्षेत्र (खेत) का यह कर्षण करती है अर्थात जोतती है, इसलिए इसको कषाय कहते हैं।

कृष विलेखने धातु से यह कषाय शब्द बना है, जिसका अर्थ होता है जोतना। यहां कषाय का अर्थ किसान के स्थान पर लेना। जिस प्रकार किसान लम्बे-लम्बे खेत को इसलिए जोतता है कि उसमें बोया हुआ बीज अधिक से अधिक प्रमाण में उत्पन्न हो, ठीक उसी तरह कषाय द्रव्यापेक्ष या अनादिनिधन कर्मरूपी क्षेत्र अर्थात खेत कीा जिसकी कि सीमा बहुत दूर तक है इस तरह से जोतता है कि शुभाशुभ फलरूपी धान्य इसमें अधिक से अधिक उत्पन्न हों।

बंधने वाले नीवन कर्मों में अनुभागबंध और स्थितिबंध इसी का कार्य है।

कषाय का दूसरा अर्थ - कृष् धातु की अपेक्षा से कषाय शब्द का अर्थ बताकर अब हिंसार्थक कष् धातु की अपेक्षा से कषाय शब्द की सिद्धि बताते हैं - सम्यक्त्वादिविशुद्धात्मपरिणामान् कषति हिनस्ति इति कषायः’’ शुद्धात्मा के सम्यक्त्वादि विशुद्ध परिणामों को नष्ट कर दे अर्थात स्वभावरूप में न रहने दे वे कषाय है। दो प्रकार से कषायः शब्द की सिद्ध बतायी गयी। अब इसको, समझने के लिए इसके भेदों को बताया जा रहा है। इसे अच्छी तरह समझ कर महान दुःख का कारण जान इसका पूर्णतय त्याग करना है।

कषाय के भेद
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कषाय के उदय स्थानों की अपेक्षा से असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं। मूल में कषाय के चार भेद हैं - क्रोध, मान, माया, और लोभ। इन चार भेदों के सोलह भेद हो सकते हैं, इनका क्रम इस प्रकार है - अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया लोभ। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान माया, लोभ। प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान माया, लोभ ओर संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ। इसमें नौ नोकषाय और मिला देने पर कषाय के पच्चीस भेद हो जाते हैं। लेश्यादि की अपेक्षा से भी कषाय के भेद होते हैं।

किस कषाय का क्या अर्थ है?

अनन्तानुबंधही कषाय क्या काम करती है?

अनन्तानुबंधी कषाय सम्यग्र्शन नहीं होने देती।

अप्रत्याख्यानावरण कषाय का क्या काम है?

अप्रत्याख्यानावरण कषाय का काम एकदेश चारित्र को नहीं होने देना अर्थात अणुव्रतों को नहीं धारण करने देती।

प्रत्याख्यानानवरण कषाय का काम क्या है?

प्रत्याख्यानावरण कषाय का काम सकलचारित्र को नही होने देना अर्थात पांच महाव्रत, तीन गुप्ति, पांच समितियों को अपनाकर मुनि-महाव्रती नहीं बनने देना।

संज्वलन कषाय का क्या काम है?

संज्वलन कषाय अपने रहते हुए यथाख्यातचरित्र को नहीं होने देती

इस प्रकार से संक्षेप में चारों कषायों का कार्य बताया। अब इनका स्वरूप किसी ने इस प्रकार भी बताया है -

क्रोधात् प्रीतिविनाशःस्यात् मानात् विनयसंहतिः।।
मायया प्रत्यय-हानिः लोभात् सर्वगुणक्षयः।ं