।। श्रावक के षट् अवश्यक कर्म : जिनेन्द्रदेव की पूजा ।।

निज आवश्यक सिद्धको, नमूं सिद्ध भगवान।
श्रावक आवश्यक कहूं, दो मम अंतरज्ञान।।15।।

देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः।
दानं चेति गृहस्थाणां षट्कर्माणि दिने दिने।।

जिनेन्द्रदेव की पूजा करना, गुरू की उपासना करना, शास्त्रों का स्वाध्याय करना-कराना, इन्द्रियों पर नियंत्रण एवं प्राणिरक्षारूप संयम रखना, अनशन रसत्यागादि तप करना तथा अपनी शक्ति के अनुसार पात्रों को श्रद्धा के साथ और दीन-दुखी जीवों को करूणाभाव से आहार, औषधि, ज्ञान और अभय दान देना; ये छह आवश्यक कार्य गृहस्थ को प्रत्येक दिन करना आवश्यक है। इसलिए समस्त संसारी कार्यों को त्याग कर सर्वप्रथम मानव मात्र को इन आवश्यक कमों को करना चाहिए।

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प्रत्येक मानव आत्मा शाति चाहता है। पर आत्म शांति तथा सुख धर्म कार्य से प्राप्त होता है। अतः धर्म के कार्य करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए परम आवश्यक है। कभी-कभी जो मनुष्य सांसारिक कार्यों को मुख्य मानकर, किसी कार्य की आवश्यकता को पूरी करने के लिए नित्य नियम अथवा नैमित्तिक धर्म साधना में कमी कर देते हैं वे गलती करते हैं। अपने नित्य नियम के षट् कार्यों को परम आवश्यक समझकर उनमें रंचमात्र भी कमी कीाी न होने दें, क्योंकि आत्म-कल्याण अपने कर्तव्य का पालन करने से होता है, सांसारिक कार्य करने से नहीं। जो मानव समस्त कार्यों को छोड़कर सर्वप्रथम षट् आवश्यक कर्मों को करता है, उसकी सभी आवश्यक समस्याएं स्वयमेव ही पूर्ण हो जाती है। आवश्यक कर्म करने से पुण्य का संचय होता है। पुण्य का संचय होने से पाप का नाश होता है। पाप का नाश होने से हमारा कितना भी कठिन काम क्यों न हो सजह में ही पूर्ण हो जाता है। आवश्यक कर्मों का जो पालन करते हैं, मुक्ति-लक्ष्मी भी उनके आस-पा चक्कर लगाती है फिर और क्या कार्य कठिन हो सकते हैं।

आवश्यक बिन न बने मन चाहे जग काम।
षट् आवश्यक पालके नाश क्रोध अरू काम।।16।।

प्रथम आवश्यक कर्म: पूजन

पूजा किसे कहते है? मन, वचन, काय से भगवान जिनेन्द्र के गुणों का विशेष रूप से वर्णन, चिन्तन व मनन करते हुए (मोक्षफल की इच्छा से), जल, चन्दन, आक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फलादि, द्रव्यों को जिनेन्द्र भगवान के समक्ष चढ़ाते हुए भूख, प्यास, मोह, अज्ञान, ज्ञानावरणादि कर्म, सांसारिक संताप, कामवासना-नाश, अविनश्वर मुक्तिपद प्राप्त करने की पवित्र भावना माने ाके पूजन कहते हैं।

सच्चा पुजारी कौन?

आचार्यों ने सच्चे पुजारी का चित्रण करते हुए कहा है कि सच्चा पुजारी वही है जो लैकिक इच्छाओं को भगवान के समक्ष न रखकर, भाता है भावना भक्त से भगवान बनने की, हो जाता है है उनके गुणों में लीन, भूल जाता है घर और परिवार जनों को, कर लेता है आसीन भगवान को स्वहृदय कमलासन पर, मिला लेनता है अपनी ज्योति को मूर्तिमान में। जो ख्याति-लाभ की भावना से, पु-संपदा की भावना से या उदरपूर्ति की भावना से पूजन करता है वह सच्चा पुजारी नहीं अर्थात् भगवाान की सच्ची पूजा नहीं कर सकता। ऐसा ही किसी विद्वान ने कहा है-

भ्मए ूीव पे ं ेसंअम जव ीपे इमससल ेमकवउ ूवतेीपच ळवकण्

जो अपने उदर का गुलाम है वह भगवान की पूजा नहीं कर सकता अर्थात् जिसकी रूचि मात्र सांसारिक सुखों में है वह भगवान की सच्ची पूजा नहीं कर सकता। अतः हमें बिना किसी प्रकार की लौकिक इच्छा के ही भगवान की पूजा करनी है। जब पूजन का उत्तम फल पूज्य बनना है तो सामान्य फल तो हमें बिना मांगे ही मिलेगा।

पूजन के अंग

सर्वप्रथम भगवान जिनेन्द्र का शुद्ध प्रासुक कुएं के जल से विधिपूर्वक अभिषेक करना, तत्पश्चात् पुष्प चढ़ाते हुए छोठे में आहृान ( की क्रियाअत्र अवतर-अवतर रूप में), फिर स्थापना (अत्र-तिष्ठ-तिष्ठ के रूप में ठोने में पुष्प चढ़ाते हुए भगवान की स्थापना की क्रिया) तदनन्तर सन्निधिकरण (अत्रमम सन्निहितो भव-भववषट् कहते हुए हृदय के निकट करने के लिए ठोने में पुष्पक्षेपण करना) होता है।

यह सब पूर्व की क्रिया करने के बाद अष्टद्रव्यों को क्रमशः जलादि द्रव्यों के छनद पढ़कर चढ़ाना चाहिए। समस्त पूजन कर लने के अनन्तर शांतिपाठ पढ़कर ठोने में पुष्प चढ़ाते हुए पूजन की समाप्ति करना विसर्जन है। इस तरह अभिषेक आहृन, स्थापना, सन्निधिकरण, पूजन, शांतिपाठ और विसर्जन-ये पूजा के अंग हैं। इनके किये बिना पूजा अधूरी रहती हैं।

अंग-शुद्धि

अंग-शुद्धि अर्थात् स्नान। शास़्ों में अंग-शुद्धि पांच प्रकार से बतलाई है:

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मन्त्रस्नानं, जपस्नानं तपःस्नानं तथैव च।
दयास्नानं जलस्नानं षष्ठं नैव विद्यते।।

अर्थात् -मंत्रस्नान, जपस्नान, तपस्नान, दयास्नान और जलस्नान - ये पांच प्रकार के स्नान होते हैं इनमें स ेजल स्नान के अतिरिक्त शेष चार स्नानों के द्वारा तो निर्जल जंगल में रहने वाले स्वानुीाव में निमग्न महामुनिराज अपनी अंग-शु;ि करते हैं। पांचवां जो जल स्नान है इसके द्वारा पूजादि शुभ कार्यों को करने के लिए श्रावक जन अपनी अंग-शुद्धि करते हैं।

पूजन करने के लिए सर्वप्रथम शुद्ध छने हुए जल से स्नान कर शुद्ध धुले हुए धोती और दुपट्टादि पहनाना चाहिए। अधो वस्त्र (धोती) और उत्तरीय वस्त्र (दुपट्टा) अलग-अलग होना चाहिए। धोती का ही भाग नहीं ओढ़ना चाहिए। अगर प्राप्त हो तो पूजन करते समय मुकुट भी बांधना चाहिए।

सामग्री धोने क लिए कुएं का ही जल काम में लेना चाहिए, क्योंकि कुएं का जल शुद्ध होता है, उसे छानकर जिवाणी भी कुंए में पहुंचाई जानी चाहिए, जिवाणी कुएं में पहुंचने के लिए कड़े की बाल्टी होना अत्यंत आवश्यक है, इससे जीव-हानि नहीं होती है। पूजन की सामग्री कुंए के जल में धोनी चाहिए।

पूजन के लिए किस दिशा में खड़े हों?

आगम में पूरब और उत्तर दिशा उत्तम मानी गई है। सूर्य का उदय पूरब दिशा में होता है, समवसरण में भगवान का मुख भी पूरब दिशा में होता है, अतः वह दिशा अत्यंत शुभ है। उत्तर दिशा में सुमेरू पर्वत है जिस पर चारों दिशाओं में 16 अकृत्रिम जिनालय बने हुए हैं, तीर्थंकरों का जन्माभिषेक भी सुमेरू पर्वत पर होता है। विदेह क्षेत्र भी उत्तर दिशा में हैं जाहं कि कम-से-कम बीस तीर्थंकर शश्वत विद्यमान रहते हैं। इसलिए उत्तर दिशा को शुभ माना जाता है। अतः पूजन, सामायिकादि शुभ कार्य करते समय मुख पूर्व अथवा उत्तर दिशा में रखना चाहिए, पूजा-सामायिकादि के लिए प्रतिमाजी के समक्ष भी मुख करके खडत्रे हो सकते हैं।

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