।। दीपावली ।।

अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर के निर्वाणलाभ के दिन दीपावली, दीपमालिका, दीवाली अथवा वीर निर्वाणोत्सव पर्व मनाया जाता है। भगवान महावीर का निर्वाण कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के अंतिम प्रहर में स्वाति नक्षत्र के रहते हुए हुआ। यह बात तिलोयपण्णत्ती, जयधवला टीका, उत्तरपुराण, वर्द्धमानचरित तथा निर्वाण-भक्ति इत्यादि के उल्लेखों से सिद्ध होती है-


कत्तियकिण्हे चैद्सिपच्चूससे सादिणामणक्खत्ते।
पावाए णयरीए एक्को वीरसरा सिद्धो।।(तिलोयपण्णत्ती अ. गा. 1208)
पच्छापावाणायरे कत्तियमासस्स किण्ह चोद्दसिए।
रत्तीए सेसरयं छेत्तुं महावीरणिव्वाओ।।(जयधवला टीका)
कृष्णकात्र्तिकपक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये।
स्वातियोगे तृतीय शुक्लध्यानपरायणः।।(उत्तरपुराण पर्व 76/510-5211)
कार्तिककृष्णस्यान्ते स्व0ातावृक्षे निहत्य कर्मराजः।
अवशेष संप्रापद व्यजरामरमक्षयं सौख्यम्।।(निर्वाणभक्ति-17)

अतएव सिद्ध हे कि भगवान महावीर का निर्वाण कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात के अवसान में और अमावस्या के प्रातः काल में हुआ है1। इस अवसर पर अनेक राजा, महाराज, गणनायक, सामंत, श्रेष्ठि तथा जन सामान्य पावापुर के उस सुरम्य पद्मसरोवर के तट पर एकत्रित हुए जहां भगवान का निर्वाण हुआ था। भगवान के मुक्त होने पर उन्होंने सोत्साह निर्वाण की पूजा की थी। उन्होंने यह निश्चय किया कि अप्रतिम ज्ञान ज्योति हमारे मध्य अब विलुप्त हो गई है, उसकी स्मृति को जागृत रखने के लिए पार्थिक दीपमालिका आयोजित करें। सर्वज्ञदेव नहीं रहे, किंतु उनकी वह सर्वप्रकाशन ज्ञानज्योति जो वर्ष पर्यन्त हमारे मोहंधकार को दूर करती रही, शाश्वत है और उनके मार्ग के अनुसरण करने वाले भव्यजीवों का हृदय सदैव आलोकित करती रहेगी। अत एव तभी से जन-मन भगवान के निर्वाण दिसव की उनकी दैवी ज्ञानज्योति के प्रगतीक रूप दीपावली सजाकर मनाते आए है। भगवान ने संसरण से मुक्त होकर मोख्ज्ञलक्ष्मी का वरण किया था और उसी समय उनके प्रधान शिष्य गौतम गणेश (गणधर) ने केवलज्ञान प्राप्त किया था। अतएव दीपावली के अंकन में समवसरण का चित्र बनाकर लक्ष्मी एवं गणेश के पूजन की प्रवृत्ति हुई1। बाद में लोग ज्ञानलक्ष्मी को तो भूल गये, उसके स्थान पर धनलक्ष्मी की पूजा होने लगी।

दीपावली पर्व जैनों के समान हिंदुओं में भी सोल्लास मनाया जाता है। इसके अनेक कारण बतलाए जाते हैं-

1- भगवान राम दशहरे को रावण का वध करके, उसके 20 दिन बाद कार्तिक कृष्ण अमावस्या को अयोध्या पधारे थे। उनका स्वागत प्रज्वलित आरती से करने हेतु दीप जलाए गये थे।

2- इस दिन श्री कृष्ण ने नरकासुर का वध किया था।

3-स्वामी शंकराचार्य ने शरीर उसी दिन छोड़ा था।

4-सम्राट अशोक की दिग्विजय से लौटने की प्रसन्नता में कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीप प्रज्वलित किए गये।

5- सिक्खों के छठे गुरू गोविन्दसिंह का स्वर्गवास इसी दिन हुआ था।

स्वामी रामतीर्थ ने 1806 ई. में दीपावली को रामगंगा में समाधि ली थी।

वात्स्यायन कामसूत्र में दीपावली को यक्षरात्रि महोत्सव कहा गया है। बौद्धों के ‘पुष्परत्त जातक’ में कार्तिक की रात्रि को होने वाले उत्सव का वर्णन है। इसी प्रकार कार्तिक की पूर्णमासी को होने वाले उत्सव का वर्णन ‘धम्मपद अट्ठकथा’ में पाया जाता है। इन उल्लेखों से पता चलता है कि कार्तिक में रात्रि के समय कोई उत्सव मनाया जाता रहा है, किंतु वह क्यों मनाया जाता है तथा उसका रूप क्या था, इसका पता नहीं चलता है।

1- जैन संदेश (16 अक्टूबर 1978) 2- पं. कैलाशचन्द्रशास्त्री: जैनधर्म

रामायण में दीपावली के दिन राम के अयोध्या वापिस लौटने का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है, किसी हिन्दुपुराण में भी इस सम्बंध में काई उल्लेख नहीं मिलता है1। जैन सम्प्रदाय में शक सं. 705 (वि.सं. 840) का रचा हुआ हरिवंश पुराण है। उसमें भगवान महावीर के निर्वाण का वर्णन करते हुए लिखा है- महावीर भगवान भव्यजीवों को उपदेश देते हुए पावापुरी में पधारे और वहां के एक मनोहर उद्यान में चतुर्थकाल में तीन वर्ष साढे आठ मास बाकी रह जाने पर कार्तिक अमावस्या के प्रभातकालीन संध्या के समय योग का निरोध करके कर्मों का नाश कर मुक्ति को प्राप्त हुए। चारों प्रकार के देवताओं ने आकर उनकी पूजा की और दीपक जलाये। उस समय उन दीपकों के प्रकाश से पावानगरी का आकाश प्रदीपित हो रहा था। उसी समय से भक्त लोग जिनेश्वर की पूजा करने के लिए भारतवर्ष में प्रतिवर्ष उनके निर्वाण दिवस के उपलक्ष्य में दीपावली मनाते हैं2।

दीपावली पर्व सफाई और स्वच्छता का प्रतीक है। दीपावली आने के कई दिन पूर्व हम मकान, दुकान, घरों वगैरह की सफाई करते है। जिस प्रकार हम बाह्य स्वच्छता पर जोर देते हैं, उसी प्रकार अंतरंग कर्म मत कलंक तथा रागद्वेषदि भाव जो हमारी आत्मा को मलिन करते हैं, को हटाकार उसके स्थान पर अपने हृदय को निर्मल तथा आत्मा को पवित्र बनाना चाहिए।

धनतेरस को धन की पूजा के चक्कर में न पडकर हम उस ध्यान का अभ्यास करें, जिसका अलम्बन कर भगवान महावीर ने मोक्ष की उपलब्धि की थी। यद्यपि प्राणियों की मृत्यु अनिवार्य है, किंतु मृत्यु एक वास्तविक समाधान नहीं हैं, क्योंकि मृत्यु के बाद पुनः जन्म लेना पड़ता है। जन्म के बाद पुनः जरा और मरण के दुख भोगने पडतें हैं। मृत्यु जीवन का वास्तविक समाधान होता तो अनेक व्यक्ति आत्महत्या करके इस समाधान को प्राप्त कर लेते। हमारा वास्तविक लक्ष्य यह होना चाहिए कि वास्तव को भली भांति समझकर सम्यक आचरण कर हम उस दशा की उपलब्धि करें, जिसे निर्वाण या मोक्ष, संज्ञा से अभिहित किया जाता है। निर्वाण या मोक्षप्राप्ति के बाद पुनः कर्म बंधन नहीं होता है, पुनः जन्म तथा जरा के दुःख नहीं भोगने पड़ते हैं।

दीपावली के अवसरपर प्रतिवर्ष लाखों, करोड़ों रूपये की आतिशबाजी, पटाखे इत्यादि में व्यय हो जाते है। मोमबत्ती, लाइट, दीपक इत्यादि से हम आकाश को प्रदीप्त कर देते हैं, किंतु हमारा अंतरंग हृदय पहले के ही समान तिमिराच्छन्न रहता है, अतः अपनी आत्मा के ज्ञानरूपी दीपक को जलाने की आवश्यकता है। यदि यह दीपक एक बार जलाने की आवश्यकता है। यदि यह दीपक एक बार जल गया तो अनन्तकाल के गहन मिथ्यात्व रूपी अंधकार को तत्क्षण ही मिटाने में समर्थ होगा। भगवान महावीर के परिनिर्वृत्त होने की घटना सर्वोकृष्ट सिद्धि की प्राप्ति की घटना थी, अतः उसी दिन से वीर निर्वाण संवत का प्रचलन हुआ, जो वर्तमान प्रचलित संवतों में सर्वाधिक प्राचीन है और इसका उपयोग निरंतर जैन साधु और लेखक करते आए हैं। अनके उललेखों के आधार पर भारतीय इतिहास के समय की कडियों को भली भांति जोडा जा सकता है। आज के विभिन्न धार्मिक समुदाय दीपावली पर्व का सम्बंध अपनी अपनी परम्परा की किसी न किसी महत्वपूर्ण घटना के साथ जोडते हैं, किंतु उनके कथनों के आधार पर इस प्राचीन लोकप्रिय महापर्व की ऐतिहासिकता सिद्ध करना दुर्लभ है। उक्त परम्परागत मान्यताओं की प्राचीनता यदि साहित्यिक आधारों, शिलालेखों, पुरातत्व आदि में खोजें तो वह कुछ शताब्दियों से अधिक नहीं पहुंच पाती। जैन परम्परा इस स्थिति कमोउपवाद है। जैन साहित्य, शिलालेखों और कला में जब दीपावली के मूल को खोजते हैं तो उसका सीधा सम्बंध जैन इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना के साथ ईसवी सन् के प्रायः प्रराम्भकाल से ही रहता आया सिद्ध होता है1। भगवान महावीर द्वारा प्रचारित धर्म उस समय लोगों में इतना लोकप्रिय और कल्याणकारी सिद्ध हुआ था कि लोगों ने महावीर से प्रभावित होकर उनके नाम तथा चिन्ह के आधार पर क्षेत्रों का नामकरण वर्दमान (वर्द्धमान) सिंहभूमि तथा वीरभूमि किया था। धर्मप्रचारार्थ उनका विहार जिस प्रदेश में हुआ था उस प्रदेश का नाम ‘विहार’ हो गया। पहले यह अंग देश के नाम से पुकारा जाता था।