।। महावीर जयन्ती ।।

भगवान महावीर का जन्म दिन महावीर जयन्ती के नाम से प्रसिद्ध है। उनका जन्म चेत्रशुक्ल त्रयोदशी को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में हुआ था। ईस्वी कालगणना के अनुसार सोमवार दिनांक 27 मार्च 598 ईसा पूर्व के मांगलिक प्रभात में गणनायक सिद्धार्थ के घर पुत्र उत्पन्न होने की खुशी में वैशाली के नर नारी नाच उठे। देवों ने नन्द्यावर्त प्रासाद और नगरी पर रत्नों की वर्षा की। इन्द्र अपने पाणिकर के साथ शिशु को ले ऐरावत हाथी पर सवार हो पाण्डुक शिला पर गया और क्षीर सागर के पवित्र जल से उस बालक का अभिषेक किया। बालक के रूप, सौंदर्य और आभा को देखकर देव आश्चर्य चकित रह गये। इन्द्र निहारता ही रह गया, एक हजार नेत्र बना लिए फिर भी तृप्ति नहीं हुए।

माता पिता के घर तरह-तरह की क्रीड़ाओं के द्वारा मन को मोहित करता हुआ बालक दिनों दिन बढने लगा। बालक के गर्भ में आने के छः मास पहले से निरंतन राजलक्ष्मी बढ़ रही थी। सब तरह का वैभव वैशाली के चरणों में लोट रहा था।

कुमार का वर्द्धमान के रूप में जन्म उनके पिछले अनेक जन्मों की सतत साधना का परिणाम था। कहा जाता है कि एक समय वर्द्धमान का जीवन पुरूरवा भील था। संयोगवश उसने सागरसेन नाम के मुनिराज के दर्शन किये। मुनिराज रास्ता भूल जाने के कारण उधर आ निकले थे। मुनिराज के धर्मोपदेश से उसने धर्मधारण कर लिया। महावीर के जीवन की वास्तविक साधना का मार्ग यहां से प्रारंभ होता है। बीच में उसे कौन-कौन से मार्गाें से जाना पड़ा, जीवन में क्या-क्या बाधायें आई और किस प्रकार भटकना पड़ा? यह एक लम्बी और दिलचस्प कहानी है, जो सन्मार्ग का अवलम्बन कर जीवन के विकास की प्रेरणा देती है। वर्द्धमान का जीवन हमें एक शांत पथिक का जीवन लगता है जो कि संसार में भटकते-भटकते थक गया है। जिन भोगों को भोगना था अनन्त बार भोग लिए, फिर भी तृप्ति नहीं हुई। अतः भोग से मन हट गया, अब किसी चीज की चाह नहीं रही। परकीय संयोग से बहुत कुछ छुटकारा मिल गया। अब जो कुछ भी रह गया उससे भी छुटकारा पाकर वर्द्धमान मुक्ति की राह देखने लगे। इस राह की प्राप्ति के लिए बचपन से ही उन्होने अभय की साधना की। एक बार बालकों के साथ-साथ बहुत बड़े वटवृक्ष के ऊपर चढ़कर खेलते हुए वर्द्धमान के धैर्य की परीक्षा करने के लिए संगम नामक देव ने आकर भयंकर सर्प का रूप धारण किया। सर्प को देखकर सभी बालक भाग गए, किंतु वर्द्धमान इससे जरा भी विचलित नहीं हुए। निःशंक होकर नाग के ऊपर लीलापूर्वक पैर रखकर वे वृक्ष से नीचे उतरे। संगमदेव उनके घैर्य और साहस को देखकर दंग रह गया। उसने अपना असली रूप धारण किया और दिव्य घटों के जल से कुमार का अभिषेक कर उनकी ‘महावरी’ नाम से स्तुति कर चला गया।

महान पुरूषों का दर्शन ही संशयालु चित्त लोगों की शंकाओं का निवारण कर देता है। संजय और विजय नामक दो चारण ऋद्धिधारी देव थे, जिन्हें तत्व के विषय में कुछ शंका थी। कुमार वर्द्धमान को देखते ही उनकी शंका दूर हो गयी। उन दो यतियों ने प्रसन्नचित्त होकर कुमार का ‘सन्मति’ यह नाम रखा।

एक दिन 30 वर्ष का त्रिशालानन्दन वह कुमार कर्मों का बंधन काटने के लिए बिना किसी बाह्य निमित्त के ही स्वर्गसम भोगों और घर बार को छोडकर माता-पिता की आज्ञा ले तपस्या और आत्मचिन्तन में लीन रहने का विचार करने लगा। कुमार की इस विरक्ति की स्वर्ग के लौकान्तिक देवों ने भी आकर प्रशंसा की। कुमार की विरक्ति का समाचार सुनकर माता-पिता को बहुत चिन्ता हुई। कुमार वर्द्धमान के विवाह का प्रस्ताव भेजा था। उनके इस प्रस्ताव को सुनकर माता-पिता ने जो स्वप्न संजोये थे, आज वे स्वप्न बिखरते हुए नजर आ रहे थे। वर्द्धमान को बहुत समझाया गया। अंत में भोगों के समक्ष माता-पिता को योग की ही स्वीकृति देनी पडी। मुक्ति के राही को भोेगों के कांटे जरा भी विचलित नहीं कर सके। मृगशिष कृष्णा दशमी सोमवार 29 दिसम्बर 569 ईसा पर्व को मुनिदीक्षा लेकर वर्द्धमान ने शालवृक्ष के नीचे तपस्या आरम्भ कर दी। उनकी तपःसाधन बडी कठिन थी। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने कहा है - ‘‘महावीर और बुद्ध से ज्यादा यदि कोई त्याग और तपस्या का घमण्ड करता है तो मैं उसे दुम्भी कहूंगा।’’ महावीर ने 13 वर्ष तक घोर तपश्चर्या की। श्वेताम्बर ग्रन्थों में उनकी तपःकालीन साधना इतनी कठोर और रोमांचित वर्णित है कि तन, मन, नयन, सिहर उठते हैं। करतल भिक्षा, तरूतल वास, न कोई साथी न संगी, भयंकर वर्षा और शरद ऋतु का प्रकोप, जंगली जंतुओं और दंशमशक की बाधा तथा अज्ञानी जनता का उत्पान, इस प्रकार की भयंकर बाधायें भी महावीर की आस्था को डिगा न सकी। नवधाभक्ति से ओतप्रोत भोजन कहीं प्राप्त हो गया तो ले लिया, नही ंतो निराहार ही तपश्चर्या चलती रही।

तपः काल का वह एक दिन ग्वाला कहीं से आया और भगवान से पूछने लगा कि तुमने मेरे बैल तो नहीं देखे हैं? महावरी तपश्चार्य में लीन, तन की सुध नहीं, ग्वाले की बात का उत्तर कौन दे? ग्वाला इधर-उधर चला गया। जंगल में भटकता फिर, बैल कहीं हाथ नहीं आये, बेचारा परेशान होकर उसी स्थान पर आ गया, जहां महावीर तपस्या कर रहे थे। देखा, बैल वहीं योगी के समक्ष घास चरते हुए विचरण कर रहे हैं। बैलों को साधु के समीप चरता हुआ देखकर ग्वाला क्रोध से मत्त हो उठा - निश्चय ही इस धूर्त का जादू है। मन में कपट रखकर यह कैसा बगुले के समान आचरण कर रहा है, इस प्रकार के नाना संकल्प विकल्पों से प्रोरित हो उसने महावीर पर लाठी और पत्थरों से प्रहार किया।

करूणाशील महावीर फिर भी अविचल ध्यान लगाये खडे रहे। यह कैसा साधु है जो इतना प्रहार करने के बाद भी, मुख पर जरा भी विकृति लाए बिना अविचल भाव से खडा है? ओह, मैंने बडा अनर्थ किया, जी चाहता है कि इस योगी के कदम चूम लूं। इस प्रकार पश्चात्तापपूर्ण हृदय वाला ग्वाला महावरी के चरणों में लोट गया। भगवन! मुझ अज्ञानी, निपट मूर्ख को क्षमा करो! महावरी ने आंखें खोली। इस भूले भटके राही पर उनकी करूणामय दृष्टि ने मानो अमृत बिखेर दिया। ग्वाला हतप्रभ नयनों से देखने लगा। उसे कानों में एक आवाज सुनाई दी। वत्स! तुम्हारा कल्याण हो।

वन, खेट, मटम्ब, पुटभेदन, व्रज और ग्रामानुग्रामों को पार करते हुए महावीर एक बार लाट देश (बंगाल) में पहुंचे। वहां नग्नावस्था में महावीर को देखकर लोग उन पर लाठी, पत्थरों का प्रहार करते, उन पर छू-छू कहकर कुत्ते छोड देते तथा अनेक प्रकार के उपसर्ग करते। महावीर इन उपसर्गों की तनिक भी परवाह किये बिना आगे बढ जाते। लोगों के इस घोर उपसर्ग को देख कहा जाता है कि इन्द्र ने एक बार उनके सामने प्रस्ताव रखा कि भगवन! मैं आपको घोर संकटों के बीच देख रहा हूं। साधना का मार्ग बडा कंटकाकीर्ण है, यदि आज्ञा हो तो मैं आपकी परिचर्या में रहूं, आप पर कोई दैवीय और मानवीय विपत्ति नहीं आ सकती। इन्द्र के वचनों को सुनकर महावीर का पौरूष पुनः एक बार प्रदीप्त हो उठा। वे बोले - इन्द्र! साधना के लिए सहायता की अपेक्षा नहीं होती, यदि इसी प्रकार की सहायता की अपेक्षा होती तो घरबार और महल छोड़ने की क्या आवश्यकता थी? ये मिट्टी, ढेले और पिण्ड मेरी आत्मा का कुछ भी बिगाड नहीं कर सकते। आत्मविकास के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को स्वावलम्बी होना आवश्यक है। स्व की अभिव्यक्ति के लिए स्वतः साधना करनी होगी। कोई भी आत्मवीर किसी इन्द्र, महेन्द्र और चक्रवर्ती के बल पर न तो सिद्धि प्राप्त कर सका है और न प्राप्त कर सकेगा। महावीर की वाणी को सुनकर आत्म बली का इन्द्र को कुछ बोध हुआ और वह इस प्रकार के बल की कामना करता हुआ लौट आया।

महावीर की साधना मौन साधना थी, उसमें दिखवट का एक अंश भी नहीं था। जब तक उन्हें पूर्ण ज्ञान की उपलब्धि नहीं हो गई तब तक उन्होंने किसी को उपदेश नहीं दिया। जब तक तत्व का पूर्ण साक्षतकार नहीं हुआ, तब तक उपदेश देना उनकी दृष्टि में वृथा था, उसका कोइ मूल्य नहीं था, वे कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं समझते थे। वैशाख शुक्लादशमी, 26 अप्रैल 557 ईसा पूर्व का वह दिन चिरस्मरणीय रहेगा, जब जृम्भक नामक ग्राम में पहुंचकर अपराह्न समय में सालवृक्ष के नीचे एक चट्टान पर ध्यान लगाकर उन्होंने घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। उस दिन से भगवान् सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के रूप में प्रसिद्ध हो गये। कर्मों के विजेता होने के कारण वे जिन कहलाए। जिन होने के बाद उनका पहला उपदेश श्रावण कृष्णा 1 (प्रतिपदा) रविवार दिनांक 18 जुलाई 557 ईसा पर्वू को विपुलाचल पर्वत पर हुआ। इस प्रकार केवलज्ञान होने के 66 दिन के बाद उनकी वाणी प्रस्फुटित हुई। इसका कारण यह है कि महावीर को किसी योग्य व्यक्ति की अपेक्षा थी, जो उनके उपदेशों को धरण करने और जनता में फैलाने में समक्ष हो। इन्द्र को इस विषय में चिन्ता हुई वह उस समय के प्रकाण्ड विद्वान् इन्द्रभूति गौतम के पास गया और उसके समक्ष अपनी शंका रखी। इन्द्रभूति गौतम यद्यपि इन्द्र की शंका का सामाधान नहीं कर सका किंतु अभिमानवश ‘‘तुम्हारे गुरू से शास्त्रार्थ करेंगे’’ ऐसा बहाना बनाकर भगवान् के पास आया। आते ही उत्तुंग मानस्तम्भ को देखकर उसका मान गलित हो गया। उसे जीव के स्वरूप के विषय में जो शंका थी, वह भगवान ने दूर कर दी। गौतम उनके प्रमुख शिष्य (गणधर) हुए। उनकी धर्मसभा समवसरण कहलाई इसमें मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी प्राणी उपस्थित होकर धर्मोंपदेश का लाभ लेते थे। लगभग 30 वर्ष तक उन्होंने सारे देश में भ्रमण कर सदुपदेश दिया और कल्याण का मार्ग बताया। संसार समुद्र के पार होने के लिए उन्होंने ..............(तरति संसार महार्णवयेन त्तीर्थ) की रचान की, अत वे तीर्थकर कहलाए।

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