।। षोडश कारण पर्व ।।

प्रतिवर्ष षोडश कारण पर्व भाद्रकृष्ण प्रतिपदा को प्रारम्भ होता है और अश्विन कृष्ण प्रतिपदा को इसकी समाप्ति होती है। इस प्रकार यह पर्व सामान्यता 31 दिन का होता है। बलात्कारगण के आचार्यों का तो यहां तक कहना है कि यदि कभी तिथि हानि हो तो यह व्रत एक दिन पहले और तिथि वृद्धि हो तो एक दिन पश्चात करना चाहिए। अन्य आचार्य तिथि हानि और तिथि वृद्धि को ध्यान में नहीं रखते। उनकी दृष्टि में व्रत का प्रारम्भ प्रतिपदा को ही होना चाहिए और प्रतिपदा तक ही करना चाहिए। इस पर्व में षोडश कारण भावनाओं का चिन्तन किया जाता है। शास्त्रों में 16 भावनायें कहीं गई हैं। इन सोलह भावनाओं से तीर्थकर प्रकृति का बंधन होता है। इन सोलह भावनाओं का विवेचन इस प्रकार है।

1. दर्शनविशुद्धि

जिनापदिष्ट मोक्षमार्ग में रूचि सम्यग्दर्शन है। दर्शन विशुद्धि शब्द का शाब्दिक अर्थ है - विशुद्ध विशस। जिसे ठीक-ठीक दिखाई दे गया, वह पक्का विश्वासी बन ही जायेगा। वह पतित समाज के लिए वैसा ही सिद्ध होगा, जैसे कुधातु के लिए सुधातु यानी लोहे के लिए पारस मणि1। जिसका विश्वास विशुद्ध नहीं, उसके ऊपर मिथ्यात्व अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेगा और वह व्यक्ति किसी कार्य को वैसा ही करेगा, जैसे गाढ अंधकार के बीच कोई व्यक्ति किसी कार्य को करे अथवा भूताविष्ट व्यक्ति विविध प्रकार की क्रियाओं को सम्पन्न करे। उसका मन निरंतर संयम में पड़ रहेगा और जिस प्रकार शरीर में चुभा हुआ कांटा रह रहकर कष्ट देता है, उसी प्रकार संशय भी उसे कष्ट देगा2। दर्शनविशुद्धि के आठ अंग होते हैं-

1. निःशंगित्व 2. निःकाड्क्षता 3. निर्विचिकित्सता 4. अमूढदृष्टिता 5. उपवृहण 6. स्थितिकरण 7. वात्सल्य 8. प्रभावना।

1. महात्मा भगवानदीनः षोडश कारण भावना,

2. केषांचिदन्धतमसायते गृहीतं ग्रहायतेन्येषां।

मिथ्यात्वमिंह ग्रहीतं शल्यति सांशयिकमपरेषाम्।। सागारधर्मामृत।

1. निःशंकित्व

तत्व यही है, दूसरा नहीं है; इस प्रकार सन्मार्ग में तलवार के पानी के समान अचल-शंकारहित श्रद्धा होना निःशंकित्व है3। आचार्य अकलंकदेव के अनुसार इहलोक, परलोक, व्याधि, मरण, अगुप्ति, अत्राण, और आकस्मिक, इस प्रकार सात भयों से रहित होना तथा अर्हन्त भगवान के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन में यह ऐसा है अथवा नहीं है? इस प्रकार की शंका का न होना निःशंकित्व है।

2. नि$काड्क्षता

इस लोक और परलोक में विषयोपभोग की आकांक्षा नहीं करना अैर अन्य मिथ्यादृष्टि सम्बंधी आकांशाओं का निरास करना निःकाड्क्षता है5। सांसारिक सुख कर्मों के आधीन है, उसका नाश हो जाता है, दुखों से उसमें तरह-तरह की बाधायें आती रहती हैं तथा वह पाप का बीज है। इस प्रकार के सांसारिक सुख में आस्था नहीं रखना, सच्चा श्रद्धान रखना निःकाड्क्षता है6।

निर्विचिकित्सता

शरीर को अत्यंत अपवित्र मानकर उसमें पवित्रता में मिथ्या संकल्प को छोडकर देना अथवा अर्हन्त भगवान के द्वारा उपदिष्ट, प्रवचन में यह अयुक्त है, घोर कष्ट है, यह सब नहीं बनता’ आदि प्रकार की अशुभ भावनाओं से चित्त को मलिन न करना निर्विचिकित्सा है7। जो शरीर स्वभाव से अपवित्र है, वह रत्नत्रयधारी जीव के संसर्ग से पवित्र माना जाता है। इस प्रकार के शरीर में ग्लानि का न होना, गुण के प्रति अनुराग रखना निर्विचिकित्सता है8।

3. इदमेवद्रशं चैव तत्व नान्यत्र चान्यथा।
इत्यकम्पापयसाम्भोवत्सन्मार्गे संशयारूचिः ।।रत्नकरण्डश्रावकाचार-11
4. तत्वार्थवार्तिक- 6/24/1,5. वही
6. कर्मपरवशेसान्तेदुःखैरन्तरितोदये।
रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रपिद्यते साधुः ।। रत्नकरण्ड श्रावकाचार - 47
पापबीजे सुखेनास्था श्रद्धाकांक्षणा स्मृता।। रत्नकरण्डश्रावकाचार - 12
7. तत्वाथर्रवार्तिक
8. स्वभावतोशुचै काये रत्नत्रयपवित्रिते।
निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता विर्निचिकित्सता।। रत्नकरण्डश्रावकाचार - 13

अमूढदृष्टिता

दुखों के मार्गरूप कुमार्ग में और कुमार्ग में स्थित मिथ्याद्रष्टिओं से मन से सहमत न होना, शरीर से शामिल नहीं होना और वचन से प्रशंसा नहीं करना अमूढद्रष्टि अंग कहा जाता है9।

अमूढदृष्टिता

दुखों के मार्गरूप कुमार्ग में और कुमार्ग में स्थित मिथ्याद्रष्टिओं से मन से सहमत न होना, शरीर से शामिल नहीं होना और वचन से प्रशंसा नहीं करना अमूढद्रष्टि अंग कहा जाता है9।

उपवृंहण

उत्तम क्षमादि भावना के द्वारा अपने (आत्मा के) धर्म की परिवृद्धि करना उपवृंहण है10। आचार्य समन्तभद्र ने इसे उपगूहन नाम दिया है। उनके अनुसार स्वयं शुद्ध मार्ग की अज्ञानी या असमर्थ मनुष्यों के द्वारा की हुई निन्दा को दूर करना उपगूहन ह11।

स्थितिकरण

सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र से विचलित हुए पुरूषों को यदि धर्मप्रेमी जन पुनः उसी मार्ग में स्थिर कर दे ंतो उसे स्थितिकरण कहा जाता है12। यह स्थितिकरण अपने लिए भी होता है। कषयादि, धर्म से भ्रष्ट करने के कारण उपस्थित होने पर भी अपने आपको धर्म से च्युत न करना स्थितिकरण है13।

वात्सल्य

अपने सहधर्मी मनुषें का सद्भावपूर्वक, कपट रहित यथायोग्य आदर सत्कार करना वात्सल्य है14। अथवा जिनप्रणीत धर्मरूपी अमृत के प्रति नित्य अनुराग रखना वात्सल्य है15।

प्रभावना

अज्ञान रूपी अंधकार के विस्तार को शक्ति के अनुसार दूर कर जिनेन्द्र

9. कापथे पथि दुःखानां कापथस्ते प्ससम्मतिः।

असम्पृक्तिरनुत्कीर्तिस्मूढादृष्टिरूच्यते ।। रत्नकरण्डश्राववकाचार 14