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कल्याण मंदिर विधान
अथ प्रत्येक अर्घ्य
--दोहा— कुमुदचंद्र आचार्य ने, रचा स्तोत्र महान।--
मैं भी पूजन के निमित्त, करूँ पाश्र्व गुणगान।।
अथ प्रथमवलये अष्टकोष्ठोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
—वसंततिलका छंद—
(१)
कल्याणमन्दिरमुदारमवद्य - भेदि -
भीताभय - प्रदमनिन्दितमङ्घ्रिपद्मम्।
संसारसागर - निमज्जदशेष-जन्तु-
पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य।।१।।
—कुसुमलता छंद—
पारस प्रभु कल्याण के मंदिर, निज-पर पाप विनाशक हैं।
अति उदार हैं भयाकुलित, मानव के लिए अभयप्रद हैं।।
भवसमुद्र में पतितजनों के, लिए एक अवलम्बन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।१।।
ॐ ह्रीं भवसमुद्रतरणे पोतायमानकल्याणमंदिरस्वरूपाय श्रीपाश्र्वनाथ-जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(२)
यस्य स्वयं सुरगुरु र्गरिमाम्बुराशे:,
स्तोत्रं सुविस्तृतमति र्न विभुर्विधातुम्।
तीर्थेश्वरस्य कमठस्मयधूमकेतो-
स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये।।२।।
सागर सम गंभीर गुणों से, अनुपम हैं जो तीर्थंकर।
सुरगुरु भी जिनकी महिमा को, कह न सके वे क्षेमंकर।।
महाप्रतापी कमठासुर का, मान किया प्रभु खण्डन है।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वंदन है।।२।।
ॐ ह्रीं कमठस्य धूमकेतूपमाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(३)
सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप-
मस्मादृश: कथमधीश! भवन्त्यधीशा:।।१।।
धृष्टोऽपि कौशिकशिशुर्यदि वा दिवान्धो,
रूपं प्ररूपयति विंâ किल घर्मरश्मे:?।।३।।
दिवाअन्ध ज्यों कौशिक शिशु नहिं, सूर्य का वर्णन कर सकता।
वैसे ही मुझ सम अज्ञानी, वैâसे प्रभु गुण कह सकता।।
सूर्य बिम्ब सम जगमग-जगमग, जिनवर का मुखमंडल है।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वंदन है।।३।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्याधीशाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(४)
मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ! मत्र्यो,
नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत।
कल्पान्त-वान्त-पयस: प्रकटोऽपि यस्मा-
न्मीयेत केन जलधे-र्ननु रत्नराशि:?।।४।।
प्रलय अनंतर स्वच्छ सिन्धु में, भी ज्यों रत्न न गिन सकते।
वैसे ही तव क्षीणमोह के, गुण अनंत नहिं गिन सकते।।
उनके क्षायिक गुण कहने में, पुद्गल शब्द न सक्षम हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वंदन है।।४।।
ॐ ह्रीं सर्वपीड़ानिवारकाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(५)
अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ! जडाशयोऽपि,
कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य।
बालोऽपि िंक न निजबाहु-युगं वितत्य,
विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशे:।।५।।
शिशु निज कर पैâलाकर जैसे, बतलाता सागर का माप।
वैसे ही हम शक्तिहीन नर, कर लेते हैं व्यर्थ प्रलाप।।
सच तो प्रभु गुणरत्नखान अरु, अतिशायी सुन्दर तन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वंदन है।।५।।
ॐ ह्रीं सुखविधायकाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(६)
ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश!
वत्तुंâ कथं भवति तेषु ममावकाश:।
जाता तदेव-मसमीक्षित-कारितेयं,
जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि।।६।।
बड़े-बड़े योगी भी जिनके, गुणवर्णन में नहिं सक्षम।
तब अबोध बालक सम मैं, वैâसे कर सकता भला कथन।।
फिर भी पक्षीसम वाणी से, करूँ पुण्य का अर्जन मैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।६।।
ॐ ह्रीं अव्यक्तगुणाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(७)
आस्तामचिन्त्य-महिमा जिन! संस्तवस्ते,
नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति।
तीव्राऽऽतपोपहत-पान्थ-जनान्निदाघे,
प्रीणाति पद्म-सरस: स-रसोऽनिलोऽपि।।७।।
जलाशयों की जलकणयुत, वायू भी जैसे सुखकारी।
ग्रीष्मवायु से थके पथिक के, लिए वही है श्रमहारी।।
वैसे ही प्रभुनाम मंत्र भी, मात्र हमारा संबल है।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वंदन है।।७।।
ॐ ह्रीं भवाटवीनिवारकाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(८)
हृद्वर्तिनि त्वयि विभो! शिथिलीभवन्ति,
जन्तो: क्षणेन निबिडा अपि कर्मबन्धा।
सद्यो भुजङ्गम-मया इव मध्य-भाग-
मभ्यागते वन-शिखण्डिनि चन्दनस्य।।८।।
जो नर मनमंदिर में अपने, प्रभु का वास कराते हैं।
उनके कर्मों के दृढ़तर, बंधन ढीले पड़ जाते हैं।।
चंदन तरु लिपटे भुजंग के, लिए मयूर वचन सम हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वंदन है।।८।।
ॐ ह्रीं कर्माहिबन्धमोचनाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
अथ द्वितीयवलये षोडशकोष्ठोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(१)
मुच्यन्त एव मनुजा: सहसा जिनेन्द्र!
रौद्रै-रुपद्रव-शतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि।
गो-स्वामिनि स्पुâरित-तेजसि दृष्टमात्रे,
चौरैरिवाऽऽशु पशव: प्रपलायमानै:।।९।।
ग्वाले के दिखते ही जैसे, चोर पशूधन तज जाते।
वैसे ही तव मुद्रा लखकर, पाप शीघ्र ही भग जाते।।
वैâसा हो संकट समक्ष प्रभु, ही हरने में सक्षम हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वंदन है।।९।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रवहरणाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(२)
त्वंं तारको जिन! कथं भविनां त एव,
त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्त:।
यद्वा दृतिस्तरति यज्जलमेष नून-
मन्तर्गतस्य मरुत: स किलानुभाव:।।१०।।
भवपयोधितारक हे जिनवर! तुम्हें हृदय में धारण कर।
तिर सकते हैं जैसे पवन, सहित तिरती है चर्ममसक।।
इसीलिए भवसागर तिरने, में कारण प्रभु चिन्तन है।
ऐेसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।१०।।
ॐ ह्रीं भवोदधितारकाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(३)
यस्मिन्हर-प्रभृतयोऽपि हत-प्रभावा:,
सोऽपि त्वया रति-पति: क्षपित: क्षणेन।
विध्यापिता हुतभुज: पयसाथ येन,
पीतं न विंâ तदपि दुर्धर-वाडवेन?।।११।।
हे अनङ्गविजयिन्! हरिहर, आदिक भी जिससे हार गये।
कामदेव के वे प्रहार भी, तुम सम्मुख आ हार गये।।
दावानल शांती में जल सम, प्रभु इन्द्रियजित् सक्षम हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वंदन है।।११।।
ॐ ह्रीं हुतभुग्भयनिवारकाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(४)
स्वा१मिन्ननल्प-गरिमाणमपि प्रपन्ना-
स्त्वां जन्तव: कथमहो हृदये दधाना:।।
जन्मोदधिं लघु तरन्त्यतिलाघवेन,
चिन्त्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभाव:।।१२।।
है त्रैलोक्यतिलक! जिसकी, तुलना न किसी से हो सकती।
उन अनंत गुणभार को मन में, धर जनता वैâसे तिरती।।
किन्तु यही आश्चर्य हुआ, तिरते जिनवर भाक्तिकजन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वंदन है।।१२।।
ॐ ह्रीं हृदयधार्यमाणभव्यगणतारकाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(५)
क्रोधस्त्वया यदि विभो! प्रथमं निरस्तो,
ध्वस्तास्तदा १वद कथं किल कर्म-चौरा:।
प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके,
नील-द्रुमाणि विपिनानि न िंक हिमानी।।१३।।
प्रभो! क्रोध को प्रथम जीतकर, कर्मचोर वैâसे जीता।
प्रश्न उठा मन में बस केवल, इसीलिए तुमसे पूछा।।
उत्तर आया हिम तुषार ज्यों, जला सके वन-उपवन है।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वंदन है।।१३।।
ॐ ह्रीं कर्मचौरविध्वंसकाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(६)
त्वां योगिनो जिन! सदा परमात्मरूप,
मन्वेषयन्ति हृदयाम्बुज-कोष-देशे।
पूतस्य निर्मल-रुचेर्यदि वा किमन्य-
दक्षस्य सम्भव-पदं ननु कर्णिकाया:।।१४।।
हे जिनवर! योगीजन तुमको, हृदयकोष के मध्य रखें।
वैसे ही ज्यों कमल कर्णिका, कमलबीज को संग रखे।।
शुद्धात्मा के अन्वेषण में, हृदय कमल ही माध्यम है।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वंदन है।।१४।।
ॐ हीं हृदयाम्बुजान्वेषिताय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(७)
ध्यानाज्जिनेश! भवतो भविन: क्षणेन,
देहं विहाय परमात्म-दशां व्रजन्ति।
तीव्रानलादुपल-भावमपास्य लोेके,
चामीकरत्वमचिरादिव धातु-भेदा:।।१५।।
हे जिनेश! तव ध्यानमात्र से, परमातम पद पाते जीव।
अग्निनिमित पा करके जैसे, सोना बनता शुद्ध सदैव।।
ऐसी शक्ती देने में निज, ज्ञानपुञ्ज ही सक्षम है।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वंदन है।।१५।।
ॐ ह्रीं जन्ममरणरोगहराय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(८)
अन्त: सदैव जिन! यस्य विभाव्यसे त्वं,
भव्यै: कथं तदपि नाशयसे शरीरम्।
एतत्स्वरूपमथ मध्य-विवर्तिनो हि,
यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावा:।।१६।।
जिस काया के मध्य भव्यजन, सदा आपका ध्यान करें।
उस काया का ही विनाश, क्यों करते हो भगवान्! अरे।।
अथवा उचित यही जो विग्रह-तन तजते बन भगवन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वंदन है।।१६।।
ॐ ह्रीं विग्रहनिवारकाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(९)
आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेद-बुद्ध्या,
ध्यातो जिनेन्द्र! भवतीह भवत्प्रभाव:।
पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं,
विंâ नाम नो विष-विकारमपाकरोति।।१७।।
हे जिनेन्द्र! मंत्रादिक से, जैसे जल अमृत बन जाता।
विषविकार हरने में सक्षम, वह परमौषधि कहलाता।।
इसी तरह तुमको ध्याकर, तुम सम बनते योगीजन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वंदन है।।१७।।
ॐ ह्रीं आत्मस्वरूपध्येयाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(१०)
त्वामेव वीत-तमसं परवादिनोऽपि,
नूनं विभो! हरि-हरादि-धिया प्रपन्ना:।
िंक काच-कामलिभिरीश! सितोऽपि शङ्खो,
नो गृह्यते विविध-वर्ण-विपर्ययेण?।।१८।।
जैसे कामलरोगी को, दिखती पीली वस्तू सब हैं।
वैसे ही अज्ञानी को, प्रभुवर दिखते हरिहर सम हैं।।
हे त्रिभुवनपति! फिर भी वे, करते तेरी ही पूजन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वंदन है।।१८।।
ॐ ह्रीं परवादिदेवस्वरूपध्येयाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(११)
धर्मोपदेश-समये सविधानुभावा-
दास्तां जनो भवति ते तरुरप्यशोक:।
अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरुहोऽपि,
िंक वा विबोधमुपयाति न जीव-लोक:।।१९।।
हे प्रभु पुण्य गुणों के आकर! तव महिमा का क्या कहना।
तरु भी शोकरहित तुम ढिग हों, फिर मानव का क्या कहना।।
रवि प्रगटित होते ही जैसे, कमल आदि खिलते सब हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वंदन है।।१९।।
ॐ ह्रीं अशोकप्रातिहार्योपशोभिताय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(१२)
चित्रं विभो! कथमवाङ्मुख-वृन्तमेव,
विष्वक्पतत्यfिवरला सुर-पुष्प-वृष्टि:।
त्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश!,
गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि।।२०।।
हे मुनीश! सुरपुष्पवृष्टि, जो तेरे ऊपर होती है।
उनकी डंठल नीचे अरु, ऊपर पंखुरियाँ होती हैं।।
यही सूचना है कि भव्य के, प्रभु ढिग खुलते बन्धन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वंदन है।।२०।।
ॐ ह्रीं पुष्पवृष्टिप्रातिहार्योपशोभिताय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(१३)
स्थाने गभीर-हृदयोदधि-सम्भवाया:,
पीयूषतां तव गिर: समुदीरयन्ति।
पीत्वा यत: परम-सम्मद-सङ्ग-भाजो,
भव्या व्रजन्ति तरसाप्यजरामरत्वम्।।२१।।
तव गंभीर हृदय उदधी से, समुत्पन्न जो दिव्यध्वनी।
अमृततुल्य समझकर भविजन, पीकर बनते अतुलगुणी।।
सबकी भव बाधा हरने में, जिनवर गुण ही साधन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वंदन है।।२१।।
ॐ ह्रीं अजरामरदिव्यध्वनिप्रातिहार्योपशोभिताय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(१४)
स्वामिन्सुदूरमवनम्य समुत्पतन्तो,
मन्ये वदन्ति शुचय: सुर-चामरौघा:।
येऽस्मै नतिं विदधते मुनि-पुङ्गवाय,
ते नूनमूध्र्व-गतय: खलु शुद्ध-भावा:।।२२।।
देवों द्वारा ढुरते चामर, जब नीचे-ऊपर जाते।
विनयभाव वे भव्यजनों को, मानो करना सिखलाते।।
प्रातिहार्य यह प्रगटित कर, बन गये नाथ अब भगवन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।२२।।
ॐ ह्रीं चामरप्रातिहार्योपशोभिताय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(१५)
श्यामं गभीर-गिरमुज्ज्वल-हेम-रत्न
िंसहासनस्थमिह भव्य-शिखण्डिनस्त्वाम्।
आलोकयन्ति रभसेन नदन्तमुच्चै-
श्चामीकराद्रि-शिरसीव नवाम्बुवाहम्।।२३।
स्वर्ण-रत्नमय सिंहासन पर, श्यामवर्ण प्रभु जब राजें।
स्वर्ण मेरु पर कृष्ण मेघ लख, मानों मोर स्वयं नाचें।।
इसी तरह जिनवर सम्मुख, आल्हादित होते भविजन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।२३।।
ॐ ह्रीं सिंहासनप्रातिहार्योपशोभिताय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(१६)
उद्गच्छता तव शिति-द्युति-मण्डलेन,
लुप्त-च्छद-च्छविरशोक-तरुर्बभूव।
सान्निध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग!
नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि।।२४।।
तव भामण्डल प्रभ से जब, तरुवर अशोक भी कान्तिविहीन।
हो जाता है तब बोलो क्यों?, भव्यराग नहिं होगा क्षीण।।
वीतरागता के इस अतिशय, से लाभान्वित भविजन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।२४।।
ॐ ह्रीं भामण्डलप्रातिहार्यप्रभास्वते श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
अथ तृतीयवलये िंवशतिकोष्ठोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(१)
भो भो: प्रमादमवधूय भजध्वमेन-
मागत्य निर्वृति-पुरीं प्रति सार्थवाहम्।
एतन्निवेदयति देव! जगत्त्रयाय,
मन्ये नदन्नभिनभ: सुरदुन्दुभिस्ते।।२५।।
हे प्रभु! देवदुन्दुभी बाजे, जब त्रिलोक में बजते हैं।
तब असंख्य देवों-मनुजों को, वे आमंत्रित करते हैं।।
तज प्रमाद शिवपुर यात्रा, करना चाहें तब भविजन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।२५।।
ॐ ह्रीं दुन्दुभिप्रातिहार्योपशोभिताय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(२)
उद्योतितेषु भवता भुवनेषु नाथ!,
तारान्वितो विधुरयं विहताधिकार:।
मुक्ता-कलाप-कलितोरु-सितातपत्र-
व्याजात्त्रिधा धृत-तनुध्र्रुवमभ्युपेत:।।२६।।
तीन छत्र हे नाथ! चन्द्रमा, मानो स्वयं बना आकर।
निज अधिकार पुन: लेने को, सेवा में वह है तत्पर।।
छत्रों के मोती बन मानो, ग्रह भी करते वंदन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।२६।।
ॐ ह्रीं छत्रत्रयप्रातिहार्यविराजिताय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(३)
स्वेन प्रपूरित-जगत्त्रय-पिण्डितेन,
कान्ति-प्रताप-यशसामिव संचयेन।
माणिक्य-हेम-रजत-प्रविनिर्मितेन,
१सालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि।।२७।।
समवसरण में माणिक-सोने-चांदी के त्रय कोट बने।
माना नाथ! तुम्हारी कांती-कीर्ती और प्रताप इन्हें।।
जन्मजात वैरी के भी, हो जाते मैत्रीयुत मन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।२७।।
ॐ ह्रीं वप्रत्रयविराजिताय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(४)
ाqदव्य-स्रजो जिन! नमत्त्रिदशाधिपाना-
मुत्सृज्य रत्न-रचितानपि मौलि-बन्धान्।
पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वा परत्र२,
त्वत्सङ्गमे सुमनसो न रमन्त एव।।२८।।
प्रभु! इन्द्रों के नत मुकुटों की, पुष्पमालिका कहती हैं।
तव पद का सामीप्य प्राप्त कर, प्रगट हुई जो भक्ती है।।
इसका अर्थ समझिये प्रभु से, जुड़े सभी अन्तर्मन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।२८।।
ॐ ह्रीं पुष्पमाला-निषेवितचरणाम्बुजाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(५)
त्वं नाथ! जन्मजलधेर्विपराङ् मुखोऽपि,
यत्तारयस्यसुमतो निज-पृष्ठ-लग्नान्१।
युत्तंâ हि पार्थिव-निपस्य सतस्तवैव,
चित्रं विभो! यदसि कर्म-विपाक-शून्य:।।२९।।
हे कृपालु! जिस तरह अधोमुखि, पका घड़ा करता नदि पार।
कर्मपाक से रहित प्रभो! त्यों ही तुम करते भवि भवपार।।
इस उपकारमयी प्रकृति का, जिनमें अति आकर्षण है।।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।२९।।
ॐ ह्रीं संसारसागरतारकाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(६)
विश्वेश्वरोऽपि जन-पालक! दुर्गतस्त्वं,
िंक वाऽक्षर-प्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश!
अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव,
ज्ञानं त्वयि स्पुâरति विश्व-विकास-हेतु:।।३०।।
हे जगपालक! तुम त्रिलोकपति, हो फिर भी निर्धन दिखते।
अक्षरयुत हो लेखरहित, अज्ञानी हो ज्ञानी दिखते।।
शब्द विरोधी अलंकार हैं, प्रभु तो गुण के उपवन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।३०।।
ॐ ह्रीं अद्भुतगुणविराजितरूपाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(७)
प्राग्भार-सम्भृत-नभांसि रजांसि रोषा-
दुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि।
छायापि तैस्तव न नाथ! हता हताशो,
ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा।।३१।।
हे जितशत्रु! कमठ वैरी ने, तुम पर बहु उपसर्ग किया।
किन्तु विफल हो कर्म रजों से, कमठ स्वयं ही जकड़ गया।।
कर न सका कुछ अहित चूँकि, ध्यानस्थ हुए जब भगवन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।३१।।
ॐ ह्रीं रजोवृष्ट्यक्षोभ्याय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(८)
यद्गर्जदूर्जित-घनौघमदभ्र-भीम
भ्रश्यत्तडिन्-मुसल-मांसल-घोरधारम्।
दैत्येन मुक्तमथ दुस्तर-वारि दध्रे,
तेनैव तस्य जिन! दुस्तर-वारिकृत्यम्।।३२।।
हे बलशाली! तुम पर मूसल-धारा दैत्य ने बरसाई।
भीम भयंकर बिजली की, गर्जना उसी ने करवाई।।
खोटे कर्म बंधे उसके पर, जिनवर तो निश्चल तन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।३२।।
ॐ ह्रीं कमठदैत्यमुक्तवारिधाराक्षोभ्याय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(९)
ध्वस्तोध्र्व-केश-विकृताकृति-मत्र्य-मुण्ड-
प्रालम्बभृद्भयदवक्त्र-विनिर्यदग्नि:।
पे्रतव्रज: प्रति भवन्तमपीरितो य:,
सोऽस्याभवत्प्रतिभवं भव-दु:ख-हेतु:।।३३।।
केशविकृत मृतमुंडमाल धर, वंâठ रूप विकराल किया।
अग्नीज्वाला पेंâक-पेंâककर, विषधर सम मुख लाल किया।।
व्रूâर दैत्यकृत इन कष्टों से, भी नहिं प्रभु विचलित मन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।३३।।
ॐ ह्रीं कमठदैत्यप्रेषितभूतपिशाचाद्यक्षोभ्याय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(१०)
धन्यास्त एव भुवनाधिप! ये त्रिसंध्य-
माराधयन्ति विधिवद्विधुतान्य-कृत्या:।
भक्त्योल्लसत्पुलक-पक्ष्मल-देह-देशा:,
पादद्वयं तव विभो! भुवि जन्मभाज:।।३४।।
हे प्रभु! अन्यकार्य तज जो जन, तव पद आराधन करते।
भक्ति भरित पुलकित मन से, त्रय संध्या में तुमको यजते।।
धन्य-धन्य वे ही इस जग में, धन्य तुम्हारा दर्शन है।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।३४।।
ॐ ह्रीं त्रिकालपूजनीयाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(११)
अस्मिन्नपार-भव-वारि-निधौ मुनीश!
मन्ये न मे श्रवण-गोचरतां गतोऽसि।
आकर्णिते तु तव गोत्र-पवित्र-मन्त्रे,
िंक वा विपद्विषधरी सविधं समेति।।३५।।
इस भव सागर में प्रभु! तेरा, पुण्यनाम नहिं सुन पाये।
इसीलिए संसार जलधि में, बहुत दु:ख हमने पाये।।
जिनका नाम मंत्र जपने से, खुल जाते भवबंधन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।३५।।
ॐ ह्रीं आपन्निवारकाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(१२)
जन्मान्तरेऽपि तव पाद-युगं न देव!
मन्ये मया महितमीहित-दान-दक्षम्।
तेनेह जन्मनि मुनीश! पराभवानां,
जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम्।।३६।।
हे जिन! पूर्व भवों में शायद, चरणयुगल तव नहिं अर्चे।
तभी आज पर के निन्दायुत, वचनों से मन दुखित हुए।।
अब देकर आधार मुझे, कर दो मेरा मन पावन है।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।३६।।
ॐ ह्रीं सर्वपराभवहरणाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(१३)
नूनं न मोह-तिमिरावृतलोचनेन,
पूर्वं विभो! सकृदपि प्रविलोकितोऽसि।
मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनर्था:,
प्रोद्यत्प्रबन्ध-गतय: कथमन्यथैते।।३७।।
मोहतिमिरयुत नैनों ने, प्रभु का अवलोकन नहीं किया।
इसीलिए क्षायिक सम्यग्दर्शन आत्मा में नहीं हुआ।।
जिनके दर्शन से भूतादिक, के कट जाते संकट हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।३७।।
ॐ ह्रीं सर्वमनर्थमथनाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(१४)
आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि,
नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या।
जातोऽस्मि तेन जनबान्धव! दु:खपात्रं,
यस्मात्क्रिया: प्रतिफलन्ति न भाव-शून्या:।।३८।।
देखा सुना और पूजा भी, पर न प्रभो! तव ध्यान दिया।
भक्तिभाव से हृदय कमल में, नहिं उनको स्थान दिया।।
इसीलिए दुखपात्र बना, अब मिला भक्ति का साधन है।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।३८।।
ॐ ह्रीं सर्वदु:खहराय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(१५)
त्वं नाथ! दु:खि-जन-वत्सल! हे शरण्य!
कारुण्य-पुण्य-वसते! वशिनां वरेण्य।
भक्त्या नते मयि महेश! दयां विधाय,
दुखांकुरोद्दलन-तत्परतां विधेहि।।३९।।
हे दयालु! शरणागत रक्षक, तुम दु:खितजनवत्सल हो।
पुण्यप्रभाकर इन्द्रियजेता, मुझ पर भी अब दया करो।।
जग के दु:खांकुर क्षय में, जिनकी भक्ती ही माध्यम है।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।३९।।
ॐ ह्रीं जगज्जीवदयालवे श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(१६)
नि:संख्य-सार-शरणं शरणं शरण्य-
मासाद्य सादित-रिपु-प्रथितावदानम्।
त्वत्पाद-पंकजमपि प्रणिधान-वन्ध्यो,
बन्ध्योऽस्मि चेद् भुवन-पावन! हा हतोऽस्मि।।४०।।
हे त्रिभुवन पावन जिनवर! अशरण के भी तुम शरण कहे।
कर न सवेंâ यदि भक्ति तुम्हारी, समझो पुण्यहीन हम हैं।
जिनका पुण्य नाम जपने से, होता नष्ट विषम ज्वर है।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।४०।।
ॐ ह्रीं सर्वशांतिकराय श्रीजिनचरणाम्बुजाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(१७)
देवेन्द्रवन्द्य! विदिताखिल-वस्तु-सार!
संसार-तारक! विभो! भुवनाधिनाथ!।
त्रायस्व देव! करुणा-हृद! मां पुनीहि,
सीदन्तमद्य भयद-व्यसनाम्बु-राशे:।।४१।।
हे देवेन्द्रवंद्य! सब जग का, सार तुम्हीं ने समझ लिया।
हे भुवनाधिप नाथ! तुम्हीं ने, जग को सच्चा मार्ग दिया।।
जनमानस की रक्षा करते, दयासरोवर भगवन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।४१।।
ॐ ह्रीं जगन्नायकाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(१८)
यद्यस्ति नाथ! भवदङ्घ्रि-सरोरुहाणां,
भत्तेâ: फलं किमपि सन्ततसञ्चिताया:।
तन्मे त्वदेक-शरणस्य शरण्य! भूया:,
स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि।।४२।।
नाथ! तुम्हारे चरणों की, स्तुति में यह अभिलाषा है।
भव-भव में तुम मेरे स्वामी, रहो यही आकांक्षा है।।
जिन पद के आराधन से, मिटते सब रोग विघन घन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।४२।।
ॐ ह्रीं अशरणशरणाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(१९)
इत्थं समाहित-धियो विधिवज्जिनेन्द्र!
सान्द्रोल्लसत्पुलक-कञ्चुकिताङ्गभागा:।
त्वद्विम्ब-निर्मल-मुखाम्बुज-बद्ध-लक्ष्या,
ये संस्तवं तव विभो! रचयन्ति भव्या:।।४३।।
हे जिनेन्द्र! तव रूप एकटक, देख-देख नहिं मन भरता।
रोम-रोम पुलकित हो जाता, जो विधिवत् सुमिरन करता।।
दिव्य विभव को देने वाले, रहते सदा अविंâचन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, अर्घ्य चढ़ाकर वन्दन है।।४३।।
ॐ ह्रीं चित्तसमाधिसुसेविताय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
२०)
(आर्याछंद)
जननयन ‘कुमुदचन्द्र’! प्रभास्वरा: स्वर्ग-सम्पदो भुक्त्वा।
ते विगलित-मल-निचया, अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते।।४४।।
जो जन नेत्र ‘कुमुद’ शशि की, किरणों का दिव्य प्रकाश भरें।
स्वर्गों के सुख भोग-भोग, कर्मों का शीघ्र विनाश करें।।
मोक्षधाम का द्वार खोलकर, सिद्धिप्रिया का वरण करें।
ऐसे पारस प्रभु को हम सब, अर्घ्य चढ़ाकर नमन करें।।४४।।
दोहा- इस स्तोत्र सुपाठ का, भाषामय अनुवाद ।
किया ‘‘चन्दनामति’’ सुखद, ले ज्ञानामृत स्वाद।।
ॐ ह्रीं परमशांतिविधायकाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।