।। भक्तामर स्तोत्र की महिमा ।।

        भक्तिपूर्ण काव्य के स्त्रष्टा आचार्य मानतुंग के विषय में निर्णय लेना सहज नहीं है। अन्तः साक्ष्य प्रमाणों के अभाव में कविवर आचार्य मानतुंग और उनकी यशस्वी रचना का काल निर्धारित करना प्रायः सम्भव नहीं है। श्रुतपरंपरा से कई विद्वान् उनका समय मालवपति महाराज भोज का समय निश्चित करते हैं तो कई मनीषियों को महाकवि बाणभट्टकालीन महाराज हर्षवर्धन का समय मान्य है तथा कई विद्वान् इनका समय विक्रम की छठी शताब्दी के आसपास स्वीकारते हैं। लोकश्रुत आधार पर यह महनीय प्रसंग अवश्य अवन्तिका नगरी का है। ग्यारहवीं सदी के उत्तरार्ध में विदेशी आक्रमणों से हमारी अनेक कृतियाँ नष्ट-भ्रष्ट हो गईं। अतएव आज आचार्य मानतुंग के आधारभूत जीवन-वृत्त से हम अपरिचित हैं।

        आचार्य मानतुंग प्रणीत प्रसिद्ध भक्तामर स्तोत्र दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में समान रूप से समादृत हैं। भक्तामर से अभिप्राय है - आत्मा-परमात्मा का सम्मिलन, उसका दर्शन और चिंतन। इस स्तोत्र में परमात्मा के अनुपम गुणों का और वीतरागभाव का अपूर्व वर्णन प्रस्तुत हैं। भक्त को अमर बनाने का अपार सामथ्र्य ‘भक्तामर स्तोत्र‘ में है। नमन और स्तवन अन्योन्याश्रित है। जहाँ नमन होता है, वहाँ स्तवन अपने आप ही हो जाता है। नमन आत्म-निवेदन रूप भक्ति का एक प्रकार है। नमन द्वारा भक्त का परमात्मा से तादात्म्य होता है। जहाँ सीमा का विर्सजन होता है, वहाँ असीम का दर्शन होता है। जहाँ-जहाँ जब भी ऐसा होगा, वहाँ-वहाँ तब ही मानतुग जैसे आचार्य का आविर्भाव होगा और ‘भक्तामर स्तोत्र‘ जैसी अमर रचना का प्रणयन होगा। लोहे ही श्रृंखलाएँ टूटेंगी, भक्ति का अजस्त्र स्तोत्र प्रवहमान होगा।

        भक्तामर की अर्थात्मा जैनदर्शन से अनुप्राणित है। इसलिए भारतीय वाड्.मय में उपलब्ध अन्य अनेक स्तोत्रों से विवेच्य स्तोत्र का स्थान सर्वथा भिन्न और अनन्य है।

        जैनदर्शन में जीवन-तत्व अथवा द्रव्य सर्वथा अविनाशी है और है चैतन्य से परिपूर्ण। शेष सभी द्रव्यों में इस सबका अभाव है। जीव अथवा आत्म-तत्व कर्म करने की शक्ति रखता है। वह अपने कार्य का स्वयं ही कर्ता होता है और अपने द्वारा किये कर्म के फल का स्वयं ही भोक्ता भी है।

        भक्तामर का वाचक भक्त है। उसकी भक्ति में किसी परकीय शक्ति को नमन नहीं किया गया है। वह स्वयं प्रभु बनकर प्रभु की पूजा करता है। प्रत्येक आत्मा में अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनन्त वीर्य (शक्ति) - अनंत चतुष्टय विद्यमान है। स्तोत्र के वाचन-प्रवाचन से, उससे उत्पन्न नाद से अन्तरंग में प्रच्छन्न इस अमोघ आत्म-शक्ति को जगाना होता है। उस स्वयं की शक्ति से स्वयं को अनभिज्ञ बनाए रखने का कारण क्या है ? कारण है - अहंकार का उदय। मदमत्त भक्त का चित्त सर्वदा परकीय शक्ति की शरण को स्वीकारता है। मदों के अभाव में शुद्ध भक्त अपनी आत्मा से साक्षात्कार करता है।

        अहंकार का पुरस्कर्त्ता है - मोह! मोह का परिणाम है - राग और द्वेष। राग और द्वेष को चिरंजीवी करते हैं - लोभ, माया, मान और क्रोध। इनके प्रवेश से भक्त का अन्तरंग जागतिक क्रिया-कलापों में सक्रिय हो जाता है। उसका आध्यात्मिक रूप प्रच्छन्न हो जाता है। विनय के प्रयोग से अहंकार का विसर्जन होता है। इस विनय का प्रयोक्ता होता है भक्त! विवेच्य स्तोत्र में विनय का माहात्म्य उल्लेखनीय है। अपने को अपने मे ले जाने की विशिष्ट प्रक्रिया का मूलाधार है विनय।

        ‘भक्तामर स्तोत्र‘ में भक्त परमेश्वर आदिनाथ के रूप का स्मरण करता है। उसका रूप प्रत्येक आत्मा का निष्कलुष स्वरूप ही है। प्रत्येक आत्मा का आत्मरूप जब अपने में उजागर होने लगता है, तब समभाव का उदय होता है। आचार्य मानतुंग विवेच्य भक्तामर स्तोत्र के माध्यम से समभाव को जगाने का सफल समुद्योग करते हैं।

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        ममता की उपस्थिति में जागतिक क्रियाकलाप व राग-द्वेष उत्पन्न हो जाता है और तब सांसारिक जीवन-चक्र गतिमान होता है। कर्मकुल अच्छे अथवा बुरे सम्पन्न होते हैं। इसी कार्य से प्राण-तत्व पर्याय धारण करता है। पर्याय धारण कर प्रत्येक प्राण-तत्व प्राणी बन जाता है। अड़तालीस तालों में बनाया हुआ बंदी पुरुष उससे मुक्त होने के लिए तत्कालीन राजा-रानी अथवा किसी अन्य व्यक्ति-शक्ति को भला-बुरा नहीं कहता और न ही वह उन्हें शापित करता है। वह तो अपने को बाहर से भीतर ले जाने का सम्यक् पुरुषार्थ करता है। आत्मोदय होने से सारे बन्ध स्वयं निर्बन्ध हो जाते है। ममता के मिटने पर समता के प्रकट होने से स्व-पर का भेद समाप्त हो जाता है।

        बंध तो भेदभाव पर निर्भर करता है। भक्त इसी भेदभाव को भेदता है और अपने में व्याप्त द्वैत को अद्वैत में बदल देता है। यह बात मोटे तौर पर सुनने में लगती है कि जब समत्व जग जायेगा तब बंधनमुक्त कैसे होना होगा ? विचारणीय बात यह है कि बंधन तो मोह-ममता की उपज है। जीवन से जब मोह-ममता का अंत हो जायेगा, तब बंधन कैसे स्थिर रह सकता है ? इसके लिए भक्त स्तोत्र का वाचन करता है।

        शरीर में आत्म-तत्व प्रतिष्ठित है। ममत्व का संसार उसे अपनी प्रभावना से प्रच्छन्न किये है। राग-द्वेष की अद्भुत चिपकरन उस पर आवृत है। फलस्वरूप उसका आकिंचन्य स्वभाव तिरोहित हो गया है। भक्ति की प्रक्रिया में विनय अथवा प्रणाम की मुद्रा से शरीर के उत्तमांग मुखर हो जाते हैं जिनके द्वार से ऊर्जा का उजागरण होता है और तब अहंकार का पुँज निस्तेज हो जाता है। स्तोत्रकार जब अपने मोहजन्य बंधनों से मुक्त हो जाता है तो उसकी समत्व शक्ति से सारे बंधन स्वयं खुल जाते हैं।

        ‘भक्तामर स्तोत्र‘ परमार्थ का समुच्चय है। परमार्थ मिलने पर भक्त को यह स्तोत्र ऋद्धि, निधि, सिद्धि और आत्मिक सुख को सुलभ कराता है। इसका प्रत्येक चरण, पद और अक्षर चमत्कारी है। इस स्तोत्र की यह विशेषता है कि इसे किसी भी तीर्थंकर पर घटित किया जा सकता है। प्रत्येक पद्य में उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकार का समावेश है। इसका भाषा-सौष्ठव और भावगाम्भीर्य आकर्षक है। कवि अपनी नम्रता प्रकट करता हुआ कहता है कि ‘हे प्रभु! मैं अल्पज्ञ हूँ। बहुश्रुतज्ञ विद्वानों द्वारा हँसी का पात्र होने पर भी आपकी भक्ति ही मुझे मुखर बनाती है। वसंत में कोकिल स्वयं नहीं बोलना चाहती, प्रत्युत आम्रमंजरी ही उसे बलात् कूजने का निमंत्रण देती है। स्तोत्र का छंद छह इस दृष्टि से देखिए। अतिशयोक्ति अलंकार के उदाहरण इस स्तोत्र में कई आये हैं, पर सत्रहवें छंद का अतिशयोक्ति अलंकार बहुत ही सुंदर है। आचार्य मानतुंग कहते हैं कि हे भगवन्! आपकी महिमा सूर्य से भी बढ़कर है, क्यांेकि आप कभी भी अस्त नहीं होते। न राहुगम्य है। न आपका महान् प्रभाव मेघों से अवरुद्ध होता है। आप समस्त लोकों को एक साथ अनायास स्पष्ट रूप से प्रकाशित करते हैं; जबकि सूर्य राहु से ग्रस्त या मेघों से आच्छन्न हो जाने पर अकेले मध्यलोक को भी प्रकाशित करने मे अक्षम रहता है। इस सत्रहवें छंद में भगवान को अद्भुत सूर्य के रूप में वर्णित कर अतिशयोक्ति का चमत्कार दिखलाया गया है। आचार्य मानतुंग छंद पच्चीस में आदि जिन को बुद्ध, शंकर, धाता और पुरुषोत्तम सिद्ध करते हैं।

        भक्तामर स्तोत्र में कल्पना की स्वच्छता ‘कल्याण-मंदिर स्तोत्र‘ के सदृश है। भक्तामर स्तोत्र की कल्पनाओं का पल्लवन एवं कुछ नवीनताओं का समावेश चमत्कारपूर्ण शैली में हुआ है। भक्तामर में कहा है कि सूर्य की बात ही क्या, उसकी प्रभा ही तालाबों में कमलों को विकसित कर देती है, उसी प्रकार हे प्रभो! आपका स्तोत्र तो दूर ही रहे, आपके नाम की कथा ही समस्त पापों को दूर कर देती है। यह नाम-माहात्म्य श्रीमद्भागवत के समान भक्ति-स्तोत्र साहित्य में स्थानान्तरित हुआ है। भक्तामर स्तोत्र में नाम का महत्व दृष्टिगत है। आचार्य मानतुंग कहते हैं कि ‘हे प्रभो! संग्राम में आपके नाम का स्मरण करने से बलवान राजाओं के युद्ध करते हुए घोड़ों, हाथियों की भयानक गर्जना से युक्त सैन्यदल उसी प्रकार नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है, जिस प्रकार सूर्य के उदय होने से अंधकार नष्ट हो जाता है। ‘ ‘भक्तामर स्तोत्र‘ तथ्य विश्लेषण की दृष्टि से श्रीमद्भागवत और शैली की दृष्टि से पुष्पदंत के ‘शिवमहिम्न स्तोत्र‘ के समकक्ष है। इस प्रकार ‘भक्तामर स्तोत्र‘ में भक्ति, दर्शन और काव्य की त्रिवेणी एक साथ प्रवाहित हुई है।