|| प्राचीन मंत्र-यंत्र शास्त्रीय धारणाओं के अनुसार भक्तामर के ऋद्धि मंत्र-यंत्र के फलितार्थ ||

काव्य: १ ऋद्धि एवं मंत्र का सवा लाख जप, यंत्र पास रखने से ऋद्धि, सुख, सौभाग्य-प्राप्ति, सर्व उपद्रव निवारण।

काव्य: २ सर्व विघ्न विनाशक।

काव्य: ३ शत्रु दृष्टि-बन्धक शत्रुता भूलकर मैत्री करने लगता है।

काव्य: ४ जल-जन्तुओं का भय दूर होता है।

काव्य: ५ मंत्रित जल पीने से आँखों की पीड़ा दूर होती है।

काव्य: ६ ज्ञान-वृद्धि, बिछुड़े स्वजन मिलते हैं।

काव्य: ७ सर्प-विष उपशांत होता है।

काव्य: ८ चर्मरोग मिटते हैं, शरीर पीड़ा दूर होती है।

काव्य: ९ दस्यु-तस्कर-चोर भयहारी।

काव्य: १० श्वान-विष विनाशक, पागल कुŸो का जहर दूर होता है।

काव्य: ११ इष्ट व्यक्ति का नाम लेकर आह्वाहन करने पर शीघ्र मिलाप होता है।

काव्य: १२ उन्मŸा हाथी का मद दूर हो जाता है।

काव्य: १३ भूत-प्रेत, डाकिनी आदि का भय दूर होता है।

काव्य: १४ आँधी-तूफान आदि का भय मिटता है।

काव्य: १५ सौभाग्य लक्ष्मीवर्द्धक।

काव्य: १६ प्रतिद्वन्द्वी के प्रभाव को रोकता है।

काव्य: १७ मंत्रित जल से उदर व्याधि मिटती है।

काव्य: १८ शत्रु सैन्य स्तम्भन, न्यायालय आदि में वाद-विजय।

काव्य: १९ दूसरों के टोना टोटका, उच्चाटन आदि मलिन तंत्र का प्रभाव रोकता है।

काव्य: २० एक सौ आठ बार जप करने से विजय प्राप्त होती है।

काव्य: २१ इष्ट व्यक्ति को अनुकूल कारक।

काव्य: २२ व्यंतर आदि बाधाओं का निवारक।

काव्य: २३ प्रेत बाधा दूर करता है।

काव्य: २४ भयंकर शिरःशूल निवारक।

काव्य: २५ अग्नि उपद्रव शांत करता है।

काव्य: २६ मस्तक वेदना, आधाशीशी पीड़ा दूर होती है।

काव्य: २७ मंत्र साधना में आत्म-रक्षक, जंगल आदि में शत्रु का भय नहीं होता।

काव्य: २८ व्यापार में वृद्धि।

काव्य: २९ बिच्छु-विष निवारक।

काव्य: ३० शत्रु आदि का उपद्रव रोकता है।

काव्य: ३१ राज्य आदि में यश प्राप्ति।

काव्य: ३२ संग्रहणी रोग पीड़ा निवारक, लक्ष्मी-प्राप्ति।

काव्य: ३३ प्राकृतिक उपद्रव शांत होते हैं। ज्वार निवारक।

काव्य: ३४ सम्पतिदायक।

काव्य: ३५ प्रकृति प्रकोप निवारक।

काव्य: ३६ मंत्रित जल छिटकने से अग्नि उपद्रव शांत होता है।

काव्य: ३७ दुष्ट वचन अवरोधक।

काव्य: ३८ मदोन्मत्त गज मद निवारक।

काव्य: ३९ सिंह-भय निवारक।

काव्य: ४० अग्नि-भय निवारक।

काव्य: ४१ सर्प-विष निवारक।

काव्य: ४२ युद्ध-भय निवारक।

काव्य: ४३  पर-शस्त्र का प्रभाव रोकता है।

काव्य: ४४ समुद्री तूफान आदि भय निवारक।

काव्य: ४५ दुःसाध्य रोग पीड़ाहारी।

काव्य: ४६ कारागार बंधन-मोचक।

काव्य: ४७ सभी प्रकार के भय विनाशक।

काव्य: ४८ लक्ष्मी सौभाग्यदायक।

महिमामयी कथाएँ

        भक्तामर स्तोत्र की प्रभावकता जग विश्रुत है। इस स्तोत्र की उत्पत्ति ही बड़ी चमत्कारपूर्ण घटना के साथ जुड़ी है। भक्त कविराज आचार्य श्री मानतुंग सूरि का सम्पूर्ण शरीर पाँव से लेकर कंठ तक लोहे की मजबूत श्रृंखलाओं से बाँध दिया गया था, फिर अंधेरी कठोरी में बंद कर उसके दरवाजों पर अड़तालीस ताले लगा दिये गये।

        भक्तराज उसी बंद कोठरी में पाप-शान्ति के साथ प्रभु-भक्ति में तन्मय होकर प्रभु ऋषभदेव की स्तुति करते हैं। भक्ति के अपूर्व उद्रेक से आचार्यश्री के लौह-बंधन टूटने लगते हैं, जब इस स्तोत्र का ४६वाँ श्लोक-‘आपाद-कण्ठमुरु-श्रृंखल-वेष्टितांगा‘ का उच्चारण करते हैं तो समस्त बेडि़याँ टूट-टूटकर बिखर जाती हैं, ताले टूट जाते हैं, द्वार खुल जाते हैं और आचार्यश्री परम प्रसन्न मुद्रा के साथ कालकोठरी से बाहर पदार्पण करते हैं। यह अद्भुत चमत्कारपूर्ण घटना इस स्तोत्र की उत्पत्ति के मूल में है।

        इसके पश्चात् इस स्तोत्र की इतनी महिमा फैली कि भक्त जन-जीवन की अनेकानेक समस्याओं, कठिनाइयों, विपत्तियों व आकस्मिक संकटों, रोक-भय-दरिद्रता आदि से छुटकारा पाने के लिये इस स्तोत्र का स्मरण करने लगे और उन्हें अप्रत्याशित चमत्कार अनुभव हुए। इन चमत्कारपूर्ण घटनाओं के कारण भक्तामर स्तोत्र सम्पूर्ण जैन-समाज में एक चमत्कारी स्तोत्र के रूप में प्रसिद्ध हो गया।

        इस स्तोत्र की प्रभावकता बताने वाली इस प्रकार की घटनाओं, कथाओं को एक सूत्र में बाँधने का सर्वप्रथम प्रयास आचार्य श्री गुणाकर सूरि ने किया है। उन्होंने भक्तामर स्तोत्र के वृहद् टीका में भक्तामर कथाओं का सुन्दर संकलन किया है।

        इस टीका का आधार मानकर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में भक्तामर स्तोत्र की प्रभावक कथाएँ काफी प्रसिद्ध हुई हैं। अनेक लेखकों ने इन कथाओं के पात्रों व स्थान आदि में किंचित् परिवर्तन करके अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार भक्तामर स्तोत्र की कथाएँ लिखी है। श्वेताम्बर-दिगम्बर-दोनों ही परम्पराओं के भक्तामर कथा साहित्य का पर्यालोचन करने से लगता है - कथा का कथ्य, तथ्य और सत्य प्रायः समान है, परन्तु उन पर परम्परा का रंग चढ़ता गया है।

        मैंने यहाँ पर अनेक कथा-ग्रंथों का आधार लेकर अपनी शैली में भक्तामर स्तोत्र की चमत्कारी कथाएँ प्रस्तुत की हैं। जहाँ तक मेरा प्रयत्न रहा है, इनमें सांप्रदायिक प्रभाव नहीं आने दिया है। कथा-तथ्य को जैसा प्राप्त है, उसी रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। पाठक के समक्ष कथासूत्र और श्लोक का चमत्कारी प्रभाव प्रस्तुत करने का शुद्ध प्रयत्न किया है। प्रस्तुत हैं यहाँ पर महिमामयी कथाएँ।

(१)
सत्य की विजय

श्लोक १-२

        उज्जैन में चोरी के लिए सोमदŸा विख्यात था। वह सिद्धहस्त चोर उस दिन बुरी तरह फँस गया। होनी को कौन टाल सकता है ? कोतवाल ने उसे रँगे हाथों जो पकड़ लिया था। अगले दिन राज्य दरबार में उसे पेश किया गया।

        राजा ने क्रोध से पूछा-‘‘क्यों सोमदŸा! तुमने बहुत परेशान किया। आखिर आज हाथ आ ही गये न ।सच बताओ कि तुमने चोरी का माल कहाँ छिपा रखा है?‘‘

        सोमदत्त पहुँचा हुआ था। वह सोचने लगा कि किसी धनपति का नाम बतलाने से मैं बच जाऊँगा। बस, फिर क्या था सोमदत्त के मुँह से नगरसेठ का नाम राजा के समक्ष निकल गया-‘‘महाराज! नगरसेठ हेमदŸा।‘‘

        श्रेष्ठि हेमदत्त जिनभक्त, सुव्रती और ईमानदार थे। राजा का बुलावा पाकर श्रेष्ठि हेमदत्त दरबार में पहुँचे। राजा ने पूछा - ‘‘श्रेष्ठिवर! यह चोर जो माल आपकेा देता रहा है वह कहाँ है ?‘‘

        यह सुन नगरसेठ हक्के-बक्के से रह गये। अशुभ कर्मों का उदय जान नगरसेठ ने विनम्र शब्दों में कहा-‘‘राजन्! इस व्यक्ति से मेरा कोई वास्ता नहीं है। इसको तो मैंने आज ही देखा है। इसके साथ मेरा कोई लेना-देना नहीं है, महाराज!‘‘

        जल में खींची हुई रेखा के समान नगरसेठ के विनम्र-कथन का प्रभाव तो दूर अपितु चोरी करवाने का इल्जाम और उनके मत्थे मढ़ गया। क्योंकि चोर सोमदत्त ने मिथ्या बोलकर राजा को जो आश्वस्त कर दिया।

        वह नगरसेठ की ओर मुखातिब हो बोला- ‘‘सेठजी! आप डूबते हैं तो भले ही डूब जायें, लेकिन साथ में मुझ गरीब को क्यों घसीटते हैं ? मेरा परिवार तो भूखों मर जायेगा। जैसा आपने कहा, वैसा मैंने कहा। आप तो आज मुझे बीच मझधार में छोड़ रहे हैं। यही आपका इनाम है जो मुझे आप पहचानने से भी कतरा रहे हैं।‘‘

        होना क्या था ? नगरसेठ के विनय और सच्चाई की कद्र नहीं हुई। वक्त बुरा जो आ पड़ा था। राजा ने नगरसेठ को सजा सुना दी। उसने अपने सिपाहियों को आज्ञा दी कि ‘‘इस चोरों के सरदार को बियाबान जंगल के अंधकूप में डाल दो।‘‘ सिपाहियों ने वैसा ही किया।

        अंधकूप में भूखे-प्यासे पड़े सेठजी आत्मध्यान में लीन हो गये। भगवान आदिनाथ की मुग्धकारी झाँकी उनकी बंद आँखों में चित्रपट के समान झूलने लगी। उन्होंने ‘भक्तामर स्तोत्र‘ के प्रथम-द्वितीय काव्यछंद का मनोयोगपूर्वक उच्चारण-स्मरण किया। मंत्र का प्रभाव होता है, सो हुआ। शासनदेवी चक्रेश्वरी अवतरित हुई। उसने नगरसेठ की सहायता की। अंधकूप से नगरसेठ को बाहर निकाला। शासनदेवी नेे नगरसेठ की प्रशंसा की और कहा कि ‘‘तुम कहो तो चोर और राजा को अच्छी सजा दे दूँ।‘‘

        नगरसेठ कर्मसिद्धान्त से परिचित था, उसने कहा-‘‘माँ! इसमें किसी का दोष नहीं है, यह मेरा दुर्भाग्य था जो मुझे भोगना था।‘‘

        तब राजा को वस्तुस्थिति का भान हुआ। उसने नगरसेठ को सम्मान दिया, क्षमा माँगी और चोर को सजा सुनाई।

        आखिर, सत्य की विजय हुई।

(२)
आस्था का फल

श्लोक ३-४

        मालवा की स्वस्तिमती नगरी मे श्रेष्ठि सुदŸा का हीरे-जवाहरात का व्यापार था। जैनधर्म और श्रावक-क्रिया में आस्था रखने वाले श्रेष्ठि सुदŸत के घर के सामने से एक दिन पहुँचे हुए जैन साधु का गोचरी के लिये निकलना हुआ। श्रष्ठि सुदŸा सपत्नीक गुरुवर्य को भोजनशाला मे ले गये एवं यथा-विधि आहार ग्रहण करवाया।

        तत्समय भक्तिकाल का मध्य युग था। लोग मंत्रों के बल पर चमत्कार प्रकट कर अपने-अपने धर्मोंं-समप्रदायों की महŸाा का प्रकाशन करने में विश्वास रखते थे। जैन साधु भी समय की चाह से अनभिज्ञ न थे। वह भी तŸवज्ञान का पाठ शास्त्रीय ही नहीं अपितु प्रायोगिक रूप से ही पढ़ाते थे। श्रेष्ठि सुदŸा ने गुरुवर के समक्ष तŸवज्ञान श्रवण करने की विनम्र इच्छा प्रकट करते हुए कहा-‘‘महाराज! मुझे कोई स्तोत्र सिखाइए जिससे आपकी मंगल-स्मृति रहे और मेरा जन्म सफल हो।‘‘

        गुरुवर ने महाप्रभावक ‘भक्तामर स्तोत्र‘ के तृतीय-चतुर्थ काव्यछंद श्रेष्ठि को मंत्र-ऋद्धि-साधना-विधि के साथ कंठस्थ कर दिये। गुरुवर ने अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान किया।

        दिन यूँ ही बीत गये। श्रेष्ठि का झुकाव व्यापार की ओर हुआ। फिर क्या था ? जहाजांे पर माल लदवाकर चल दिया समुद्र के उस पार रत्नद्वीप की ओर।

        आधी दूरी भी तय नहीं हुई थी कि होता क्या है कि यकायक समुद्र में जोरों का तूफान आता है, घटाएँ घिर आती हैं, जहाज डगमगाने लगता है। जहाज के सभी यात्री घबड़ा जाते हैं। सबको प्राणों की पड़ जाती है। लोगों को कोई युक्ति नहीं सूझती।

        आखिर श्रेष्ठि सुदŸा ने यह सब परखा-देखा और मनोयोग से भक्तामर के तृतीय-चतुर्थ काव्यछंद को जपना प्रारम्भ किया। शुद्धोच्चारण के एक-एक शब्द ने माने सजीव प्रतिमा का निर्माण कर दिया। जैसा मैंने कहा कि मंत्र का प्रभाव होता है, सो हुआ। शासनदेवी प्रकट हुई। वातावरण शांत हुआ। जहाज निर्विघ्न तट की ओर बढ़ने लगा। देवी ने श्रेष्ठि की आस्था पर आशंसा व्यक्त की और उसे ‘चन्द्रकांत मणि‘ प्रदान कर ज्यों ही वह अन्तध्र्यान हुईं त्यों ही निरभ्र गगन में चंद्र मुस्कराने लगा। भोर हुई। सूर्य की रश्मियाँ समुद्र के शांत जल पर बिखरी हुई थीं। यात्री जहाज से उतरकर मुस्करा रहे थे मानो कुछ भी हुआ ही नहीं। यात्रियों ने श्रेष्ठि के समक्ष कृतज्ञता प्रकट की।

(३)
निर्धन से धनवान

श्लोक ५

        कोकन देश की सुभद्रावती नगरी के राज्यमंत्री का सात वर्षीय बालक सोमक्रांति अध्ययनार्थ पाठशाला जाने लगा और थोड़े ही समय में वह व्याकरण, काव्य, न्याय और धर्मशास्त्र मंे प्रवीण हो गया।

        एक दिन सोमक्रांति ने बहुत से लड़कों को गिल्ली-डंडे का खेल खेलते देखा। उसका भी खेलने को मन आ गया। उसी समय आनन-फानन मंे सोमक्रांति ने एक दयालु लड़के से डंडा लेकर खेलना शुरू कर दिया। जी भरकर खेल भी न पाया था कि दैवयोग से डंडा ही टूट गया। डंडे के टूटते ही उसका दिल टूट गया। क्योंकि वह दूसरे का ऋणी था। उसका मुख लज्जा से लाल हो गया।

        दयालु लड़के से उसने पूछा-‘‘भाई! तुम डण्डा कहाँ से लाये हो ? हम भी वहीं से तुम्हें ला देवें।‘‘ दयालु लड़के ने देवल बढ़ई का घर बता दिया। सोमक्रांति ने देवल के घर जाकर उसे डण्डे के दाम दे दिये और अगले दिन तैयार कर रखने को कह दिया। सवेरा होते ही सोमक्रांति का पाठशाला जाता हुआ, परन्तु बढ़ई के यहाँ से डण्डा लाने की चिन्ता बराबर बनी रही। वह भोजन के बहाने अवकाश लेकर देवल के घर पहुँचा। बढ़ई ने देखा कि उसके हाथ में कपड़े में लिपटी कोई वस्तु है पुस्तक जैसी। वह बोला - ‘‘यह हाथ में क्या लिए हुए हो ?‘‘

        सोमक्रांति ने कहा-‘‘जैनधर्म का पवित्र ग्रंथ ‘भक्तामर स्तोत्र‘ है।‘‘

        बढ़ई बोला - ‘‘भई, इसमें से थोड़ा-सा मुझे भी पढ़कर सुनाओ।‘‘

        सोमक्रांति ने भक्तामर को पाँचवाँ काव्यछंद ऋद्धि-मंत्र के साथ उसे सुना दिया। बढ़ई ने पूछा- ‘‘इस मंत्र का फल क्या है ?‘‘ सोमक्रांति ने कहा-‘‘यह मंत्र सिखा दो, कृपा होगी। ‘‘ सोमक्रांति ने कहा-‘‘पहले तुम श्रावक तो बनो।‘‘ देवल बढ़ई ने श्रावक का व्रत लेकर मंत्र सीख लिया। फिर सोमक्रांति को उसने दो डण्डे बनाकर दिये और कहा कि ‘‘एक से स्वयं खेलना और दूसरा उस लड़के को जाकर दे देना जिससे तुमने लिया था।‘‘

        एक दिन बढ़ई वन की गुफा में गया, पवित्र अंग होकर सीखा हुआ मंत्र सिद्ध किया। यकायक उसके सामने सिंह पर विराजमान, हाथ में चक्र धारण किये शासनदेवी प्रकट हुई। देवी ने पूछा-‘‘हे वत्स! तू क्या चाहता है ?‘‘ देवल बढ़ई गरीब था सो उसके मुख से निकल गया - ‘‘माँ! मुझे धन चाहिए।।‘‘

        शासनदेवी भक्तों की कामना पूर्ण करती है, वह बोली-‘‘देखो वत्स! यहाँ से ईशानकोण में जो पीपल का झाड़ है - उसके चारों ओर की भूमि को खोदो, उसके नीचे अटूट धन गढ़ा है, जाओ।‘‘ इतना कहकर इधर शासनदेवी लोप हो गई उधर देवल को हीरे-जवाहरात प्राप्त हुए। निर्धन देवल अब धनवान बन गया।

        स्बसे पहले देवल ने निश्चय किया कि पहले मैं एक उपाश्रय बनवाऊँ जिसमें साधु-साध्वी आकर धर्मध्यान कर सकें तब मैं इस धन का उपभोग अपने लिए करूँगा। लोगांे को बहुत आश्चर्य हुआ। कल तक रोटी के लिए जो मोहताज था, आज इतने वैभव का स्वामी कैसे बन गया ? उन्होंने देवल से पूछा-‘‘यह सब कैसे हुआ ?‘‘ देवल सरल स्वभाव था उसने ज्यों का त्यों सारा वृŸाांत लोगों को कह सुनाया।

(४)
गोबर से गणेश

श्लोक ६

        काशी के राजा हेमवाहन के दो पुत्र हुए। बड़े का नाम भूपाल और छोटे का नाम भुजपाल रखा गया। बड़ा मन्द बुद्धि था और छोटा कुशाग्र बुद्धि। बारह वर्ष तक पंडित श्रुतधर ने भूपाल के साथ माथापच्ची की। सारा श्रम निरर्थक ही रहा। उसके मस्तिष्क में सिवाय गोबर के और कुछ नहीं रहा। श्रुतधर के पाण्डित्य ने जवाब दे दिया। हाँ, भुजपाल जरूर पिंगल, व्याकरण, तर्क, न्याय, राजनीति, सामुद्रिक ज्योतिष, वैद्यक, शस्त्र-शास्त्र आदि सभी विद्याओं में पारंगत हो गया। एक ही गुरु के पढ़ाये ये दोनों शिष्य, एक ही पिता के ये दोनों पुत्र, किन्तु जमीन-आसमान का अन्तर। यह विधि का विधान ही है कि एक का जीवन लोकप्रियता के पथ पर और दूसरे का परिहास और निंदा के मार्ग पर।

        भूपाल अपनी इस दशा से बड़ा खेद खिन्न रहने लगा। दिन-रात उसे एक ही चिन्ता सताया करती-‘‘मैं भी सम्मान हासिल करूँ, सबका प्रिय बन सकूँ, इस दशा से मुक्त हो सकूँ।‘‘

        एक दिन उसने भुजपाल से सलाह ली और भक्तामर स्तोत्र का षष्ठ श्लोक ऋद्धि मंत्र सहित सीख लिया। भूपाल के निराश मन में यही एक मात्र आस की किरण थी। उसने विधिपूर्वक इस मंत्र का सिद्धि अनुष्ठान किया। इक्कीसवें दिन भूपाल का साक्षात्कार शासनदेवी से हुआ। देवी माता बोली-‘‘क्यांे बेटे! मुझे क्यों याद किया ?‘‘

        भूपाल बोला-‘‘माँ! मैं विद्याविहीन हँू, मेरा अज्ञान मिटाओ।‘‘

        देवी बोली - ‘‘एवमस्तु! तथास्तु! बेटे! तेरे मन की इच्छा पूर्ण होगी।‘‘ देवी से वरदान प्राप्त करते ही भूपाल धुरंधर विद्वान् हो गया। उस पर विद्या ऐसी प्रसन्न हुई कि काशी नगर में कोई भी पण्डित उससे टक्कर नहीं ले सकता था। भूपाल अब गोबर से गणेश जो बन गया। सभी उसकी प्रशंसा करने लगे।

(५)
मंत्र- कीसिद्धि

श्लोक ७

        पटना नगर के राजा धर्मपाल न्यायशील और धर्मात्मा थे। उसी शहर में बुद्ध नाम के धनपति रहते थे। उनके रतिशेखरनाम का रूपवान और विनयवान पुत्र था। वह एक उपाश्रय में विद्याध्ययन करता था। उसने वहाँ से व्याकरण, कोष, सिद्धांत और मंत्र-तंत्र में भी अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली।

        पाटलिपुत्र में धूलिया नाम का ख्यातिप्राप्त कुतापसी था। उसे वैताली विद्या सिद्ध हो गयी थी, जिसे चरित्रभ्रष्ट भी प्राप्त कर लोगों की आँखों में धूल झोंक सकते हैं। धूलिया भी ऐसा ही चरित्रहीन पाखंडी था।

        रतिशेखर पाखंडी धूलिया के प्रपंचपूर्ण कृत्य देखता और उसका भंडाफोड़ करने के अवसर की ताक में रहता। एक दिन रतिशेखर उपाश्रय में अध्ययन में संलग्न था। धूर्Ÿा धूलिया का एक प्रमुख चेला इस अभिप्राय से रतिशेखर के पास आ बैठा किवह विनयाविनत होकर उसे नमस्कार करे। नमस्कार की तो छोड़ो रतिशेखर ने उसे देखा भी नहीं। अपना अपमान समझ वह अपने बुद्धिशून्य गुरु के पास पहुँचा और उसने अपने अपमान की बात मिर्च-मसाला मिलाकर गुरु के समक्ष प्रस्तुत की। गुरु भड़क उठा। गुरु ने आँखें तरेरी ही थीं कि वैताली विद्या की अनुचरी आ टपकी। वह बोली-‘‘तापस क्या कार्य है ?‘ उच्च स्वर में धूलिया ने कहा-‘‘रतिशेखर का प्राणहरण।‘‘ अनुचरी ने कहा-‘‘तापस! मैं अभी जाकर धूल की वर्षा करती हूँ।‘‘

        बस फिर क्या था ? आँधी उठी-इतने जोरों की कि मकान के मकान उड़ने लगे। धूल वर्षा से गगन प्रच्छन्न हो गया। रतिशेखर की विशाल सुदृढ़ अट्टालिका तो मानो धूल के समुद्र में गोते लगा रही थी। रतिशेखर घर पर नहीं था।

        जब उसने यह वृŸाांत सुना तो चुप न रह सका और आनन-फानन में भक्तामर स्तोत्र के सप्तम श्लोक का स्मरण ऋद्धि-मंत्र जाप सहित किया। रतिशेखर ने अपने सामने शासनदेवी को वैताली विद्या की अनुचरी के सीने पर सवार होते हुए देखा। इतना ही नहीं उसने देखा धूल का भयंकर चक्रवान धूर्Ÿा धूलिया की कुटिया पर मँडरा रहा है। मानो काल ने उसे अपना ग्रास बनाने का निश्चय कर लिया हो। धूलिया और उनके चेलों का साँस लेना भारी हो गया। तब वह रतिशेखर के मंत्र की सिद्धि से परिचित हुआ और अपने चेलों के साथ उसके समक्ष उपस्थित हो क्षमायाचना करने लगा।

(६)
नाम से नहीं दाम से भी

श्लोक ८

        वसंतपुर नगर में धनपाल नाम का वैश्य रहता था। वह बड़ा धर्मात्मा था। उसकी पत्नी नाम के अनुरूप गुणवती थी, लेकिन धन और संतान का अभाव दोनों को सालता था। दैवयोग से उन्हें एक जैन साधु का सान्निध्य मिला। कहते हैं कि संत का संग संतोष देता है। हुआ भी यही। गुणवती ने जैन साधु से पूछा-‘‘महाराज! मुझे कर्म ने दोनांे प्रकार से मारा है। प्रथम तो निर्धनता पीस रही है, दूसरे संतानहीनता से दुःखी रहती हूँ। क्या करूँ? कृप्या इस संकट से उबरने का उपाय बताइए।‘‘

        जैन साधु दया के सागर थे। उन्होंने धनपाल और गुणवती दोनों को भक्तामर स्तोत्र का अष्टम काव्य मंत्र विधि समेत सिखा दिया। श्रद्धा-भक्ति का परिणाम अवश्य मिलता है। यदि निष्काम भाव से मंत्र का आराधन किया जाये तो कहने ही क्या ? धनपाल ने पर्यंक आसन में तीन दिन-रात मंत्र की आराधना की तो शासनदेवी ने दर्शन दिये। देवी बोली-‘‘कहो क्या चाहते हो, वत्स! तुम्हारी किसी एक चिन्ता को इस समय समूल समाप्त कर सकूँगी।‘‘

        धनपाल को गरीबी ने खूब सताया था, उसने सोचा कि जीवन मिला है तो उसके लिये धन की आवश्यकता बहुत है। इसके आगे संतान का सवाल इतना महनीय नहीं है। सो उसने धन की पूर्ति की बात देवी से कह डाली। देवी ने ‘तथास्तु‘ कहा और विदा ली। अब धनपाल नाम से ही नहीं दाम से भी धनपाल हो गया।

(७)
आपकी कामना पूर्ण होगी

श्लोक ६

        भद्रा नगरी के राजा हेमब्रह्य अपनी आज्ञाकारिणी भार्या हेमश्री के साथ एक दिन वन-क्रीड़ा को गये। वहाँ दोनों ने साधना में निमग्न जैन साधु के दर्शन किये। वे दोनों उनकी शरण में जा पहुँचे। ध्यानस्थ साधु को अपलक निहारते रहे और मन ही मन संतान-प्राप्ति की कामना करने लगे। मनःपर्यवज्ञानी साधु जब साधना से मुक्त हुए तो राजा-रानी को अपने समीप बैठे पाया। उन्होंने दोनों के मनोभावों को पढ़ा।

        राजा-रानी अपनी बात कहने ही वाले थे कि साधु बोल उठे-‘‘राजन्! सर्वप्रथम अपने राज्य में पंचेन्द्रिय जीव-हिंसा पर प्रतिबंध लगाइए। मूक पशुओं की दया, दुःखी-दीन-अपंगों को दान और त्यागी साधु-संतों की सेवा का संकल्प लीजिए। दया, दान और सेवा ही दुःखों के सागर से पार लगाती है। फिर जिनेश्वर देव की भक्तिपूर्वक भक्तामर स्तोत्र का नौवाँ काव्य केशर-चंदन से लिखकर, उसे जल से धोकर श्रद्धापूर्वक पान किया करो। अवश्य ही आपकी कामना पूर्ण होगी।‘‘

        राजा-रानी ने साधु की बताई विधि को श्रद्धापूर्वक स्वीकारा और वंदन कर राजमहल लौट आये। मंत्र के प्रभाव को क्या कहिए ? वक्त बदलते क्या देर लगती है ? देखते-देखते वसंत का आगमन हो गया। प्रकृति में मादकता का समावेश हो गया। कामदेव रति के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। मुकुलित पुष्पों पर भौंरे रसपान कर रहे थे। पक्षियों के युगल सरोवरों में ही जीवन-रस प्राप्त कर रहे थे।

        बस फिर क्या था ? मधुऋतु के मधुर मिलन में राजा-रानी अनुपम जीवन-रस से सिक्त हुए। नौ मास पश्चात् राजमहल में बधाइयाँ गंुजायमान हुईं। नगर में आनंद की लहर दौड़ गई। प्रियदर्शन की मधुर किलकारियों से राजा-रानी के हर्ष का ठिकाना न रहा।

(८)
धन की खोज

श्लोक १॰

        सुभद्रा नगरी में श्रीदत्त नाम का वैश्य धन के अभाव मे दुःखी था। एक दिन जैन साधु गोचरी के लिये विचरण कर रहे थे। अवसर पाकर श्रीदत्त ने साधु के श्रीचरण पकड़ लिये और अपनी व्यथा कह डाली। तब उन कृपालु मुनिराज ने सर्वभयभंजन भक्तामर का दसवाँ काव्य उसे सिखा दिया और विहार कर गये।

        श्रीदत्त अपने साथियों के साथ धन कमाने परदेश निकला। वे लोग रास्ता भूल गये। श्रीदत्त ने दसवें काव्य का स्मरण किया और उसके प्रभाव से एक उपाश्रय दिखाई दिया। उसकी ओर चलते-चलते वे वहाँ पहुँच गए।

        उपाश्रय के पास मे एक जोगी बैठा हुआ था, सबको देखकर बोला - ‘‘तुम कौन हो ? क्यों और कहाँ से आये हो ?‘‘

        श्रीदत्त ने कहा-‘‘मैं सुभद्रा नगरी का निवासी श्रीदत्त हूँ, गरीब हूँ अतएव धन की खोज में निकला हूँ।‘‘

        जोगी बोला-‘‘बच्चा! थोड़ी दूरी पर रसकूप है, उस रस को ताँबे पर डालने वह कंचन हो जाता है। तू चल, उसमें से हम रस निकलवा देंगे और बराबर बाँट लेंगे।‘‘

        दुःखी क्या न करता ? श्रीदत्त चल दिया, उस जोगी के साथ। वहाँ पहुँचकर जोगी ने एक चैकी पर बैठाकर चारों कोनों पर रस्सी बाँधकर और साथ में खाली तुम्बी देकर श्रीदत्त को कुएँ में उतार दिया। तुम्बी भरकर श्रीदत्त ने खींचने को कहा और जोगी ने तुम्बी खींच ली। इसके बाद दूसरी तुम्बी लटकाकर जोगी ने आवाज दी कि ‘‘एक तुम्बी और आने दो!‘‘ श्रीदत्त ने वह भी भर दी।

        तत्पश्चात् चैकी पर श्रीदत्त को बैठाकर खींचते हुए जोगी विचारने लगा कि इसे आधा रस देना पड़ेगा। क्यों न रस्सी काटकर रफूचक्कर हुआ जाये ? जोगी ने ऐसा ही किया। बेचारा श्रीदत्त धड़ाम से कुएँ में गिर पड़ा।

        विपत्ति के मारे श्रीदत्त ने भक्तामर के दसवें काव्य का जाप सविधि किया। देवी का आगमन हुआ और श्रीदत्त को उस रसकूप से निकालकर और उसे अपार सम्पदा प्रदान करती हुई बोली-‘‘श्रेष्ठिवर! लोभ में आज व्यक्ति अंधकूप में पड़ा हुआ है, उसका उद्धार तुम्हारे द्वारा सम्भव है। तुम्हें एक कार्य करना होगा।‘‘

        जिज्ञासु श्रेष्ठि श्रीदत्त ने पूछा- ‘‘देवि! वह क्या ?‘‘

        देवी बोली-‘‘श्रेष्ठिवर! तुमने जिस मंत्र और ऋद्धि के द्वारा भक्तामर के दसवें काव्य के आधार पर मुझे इस जंगल में स्मरण किया, उसी प्रकार जनता-जनार्दन के सामने मुझे प्रकट करना होगा। साथ ही उन जैन साधु को भी नहीं भूलना है जिनसे तुमने यह विद्या पाई है।‘‘ यह कहकर देवी अन्तध्र्यान हो गई।

(९)
खारा जल मधुर बना

श्लोक ११

        श्रतनावती के राजकुमार तुरंग ने कावेरी नदी के तट पर एक अत्यन्त रमणीय बगीचा बनवाया। उसकी मनोहर क्यारियाँ, हरे-हरे अंकुर, रंग-बिरंगे फूल और स्वादिष्ट फूल, नन्दनवन की समता करते थे। जहाँ-तहाँ विश्रान्ति स्थल और चित्रशालाएँ कुबेर की कृति का दिग्दर्शन कराती थी।

        सब कुछ होते हुए भी एक अभाव बगीचे की शोभा को खंडित कर दे रहा था। ‘सौ गुन पै इक ओगुन फीको‘ वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी। वह यह कि उस बाग में जो बावड़ी थी उसका पानी बहुत ही खारा था मानो उसका सम्बन्ध ‘लवणसागर‘ से हो।

        राजकुमार तुरंग ने मंत्र, जंत्र, तंत्र, होम, आराधन आदि अनेक उपाय-उपचार किए किन्तु सफलता हाथ नहीं लगी। बिचारे तुरंग दिन-रात इसी सोच में डूबे रहते कि ‘कैसे दूर हो, इस बाबड़ी के जल का खारापन ?‘

        संयोग से एक जैन श्रमण के समक्ष अन्यान्य धार्मिक तात्विक प्रश्नों के उपरांत खारे जल को मधुर बनाने का उपाय पूछा।

        मुनिराज ने कहा-‘‘महाप्रभावक भक्तावर के ग्यारहवें काव्य का पाठ ऋद्धि-मंत्र सहित करते हुए पाँच स्वर्ण कलशों में बाबड़ी से जल भरकर अभिमंत्रित कीजिए। तदुपरान्त उसी अभिमंत्रित जल का उपयोग कर शुद्ध पवित्र भोजन बनाइए तथा वह शुद्ध प्रासुक आहार त्यागी श्रमणों को दीजिए। निश्चय ही बाबड़ी का जल मिष्ट और स्वादिष्ट हो जायेगा।‘‘

        राजकुमार तुरंग ने जैन श्रमण द्वारा भक्तामर के ग्यारहवें काव्य की बताई गई मंत्र विधि के अनुसार प्रयोग किया। मंत्र के प्रभाव से वनदेवी प्रकट हुई, वह बोली-‘‘वत्स! तेरी क्या इच्छा है?‘‘

        राजकुमार तुरंग ने जैन श्रमण द्वारा भक्तामर के ग्यारहवें काव्य की बताई गई मंत्र विधि के अनुसार प्रयोग किया। मंत्र के प्रभाव से वनदेवी प्रकट हुई, वह बोली-‘‘वत्स! तेरी क्या इच्छा है?‘‘

        तुरंगकुमार ने कहा-‘‘माँ! मेरी बावड़ी का पानी मीठा हो जाये।‘‘

        ‘एवमस्तु‘ कहकर देवी अन्तध्र्यान हो गई।

        खारा जल मधुर बन गया, मानो उसका सम्बन्ध क्षीरसागर से हो गया हो। नगरवासी खुश हुए। तुरंगकुमार की मनोकामना पूर्ण हुई।

(१॰)
तदू्र्रप होने में सिद्धि

श्लोक १२

        अहिल्यापुर नगरी के राजा कुमारपाल थे। उनके मंत्री विलाचन्द्र के पुत्र महीचन्द्र की घनिष्ठ मित्रता एक वैश्य-पुत्र से थी। एक दिन दोनों ने वन में तपस्या करते हुए जैन साधु के शुभ दर्शन किये। उनसे दोनों ने भक्तामर स्तोत्र के बारहवें श्लोक को ऋद्धि-मंत्र सविधि सीख लिया।

        वैश्य-पुत्र ने तो पढ़ने के लिये पढ़ा था सो उसके हाथ तो केवल रटन्त मात्र पढ़ना ही रहा, परन्तु मंत्री-पुत्र ने उन शब्दों में अपनी तदू्रपता स्थापित कर ली। सात दिन तक सविधि बारहवें श्लोक के ऋद्धि-मंत्र का आराधन किया। फलस्वरूप शासनदेवी के द्वारा उसे कामधेनु नामक स्वर्गिक गाय प्राप्त हुई। जहाँ उसके दूध को छिड़का जाता वहीं स्वर्ण का ढेर बन जाता। मंत्री-पुत्र महीचन्द्र ने वही दूध अपने घर के चैके में डाल दिया तो भाँति-भाँति के पकवान तैयार हो गये-हजारों स्त्री-पुरुषों को भोजन परोसा गया, पर भण्डार भरपूर ही रहा। राजा कुमारपाल ने जब यह सुना तो महीचन्द्र की आस्था से वे प्रभावित हुए।

        सचमुच पढ़ने मात्र से सिद्धि नहीं होती अपितु शब्दों के साथ तदू्रप होने में सिद्धि निहित है।

(११)
आस्था की प्रशंसा

श्लोक १३

        अंग देश में चम्पावती नगरी के राजा कर्ण की रूपवती विशनावती कुधर्म का आचरण करने वाली थी। एक दिन कपाली नाम का जोगी रानी के पास आया। उसने रानी को पिशाचिनी विद्या सिखा दी। रानी ने एक महीने के भीतर पिशाचिनी देवी को वश में कर लिया।

        चम्पावती नरेश के दरबार में सुमति नाम के मंत्री थे। वे जैनधर्म में आस्था रखते थे। एक दिन राजा ने राज्यसभा में धार्मिक चर्चा छेड़ दी। मंत्री की आस्था से राजा कुपित हो गये। रानी ने राजा के क्रोध को जाना तो वह भी आक्रोश में आ गई। वह झट से श्मशान में गई और पिशाचिनी को याद किया तो वह तत्काल प्रकट हो गई। रानी ने उससे मंत्री को सबक सिखाने की बात कह दी। तब पिशाचनी अपने साथियों के साथ भयंकर रौद्र रूप धरकर त्रिशूल, गदा, चक्र आदि लेकर सुमति मंत्री पर प्रहार करने दौड़ी। अनेक विक्रियाएँ करके डराया।

        लेकिन जैनधर्म में आस्था रखने वाले मंत्री सुमति ने भक्तामर के तेरहवें काव्य का ऋद्धि-मंत्र सहित आराधन किया जिससे शासनदेवी ने प्रकट पिशाचिनी आदि को पकड़कर बाँध लिया और प्राण लेने को तत्पर हुई, लेकिन कृपालु सुमति के कहने से छोड़ दिया।

        राजा ने मंत्री की आस्था की प्रशंसा की।

(१२)
प्रेम सागर

श्लोक १४-१५

        केतुपुर नगर के राजा की भार्या का नाम कल्याणी था। कल्याणी धर्मात्मा और सच्चरित्रा थी। जिनेश्वर देव की आराधना और भक्तामर का पाठ उसका नित्य का कर्म था।

        एक दिन राजा वन-क्रीड़ा के लिये गया तो वहाँ उसने किलोलकामिनी गोली को खाया। खाते ही उसने अपना रंग जमाना प्रारम्भ कर दिया। आँखों मंे मादकता टपकने लगी। एक अनोखी मदहोशी व्याप्त हो गई। राजमहल में आकर वह पलँग पर पसर गया। काम की अन्धता ने राजा के विवेके को हर लिया। वह कजरारी आँखों वाली बाँदी पर मर मिटा। महारानी कल्याणी के निश्चल निष्कपट अगाध प्यार को करारा धक्का लगा।

        दूसरी रात्रि का दूसरा प्रहर हुआ। राजा-रानी दोनो एक ही पलँग पर सोने की कोशिश में थे पर दोनों की आँखों में नींद कहाँ ? रानी का हठ और नरेश की वासना में संघर्ष जो था।

        कल्याणी कटिबद्ध थी कि राजा पर-रमणी की छाया का पाप जब तक नहीं स्वीकारेंगे, तब तक मैं उनसे किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखूँगी। दृढ़ संकल्प के आगे कामान्ध राजा की एक न चली। उसका काम क्रोध में बदल गया। रानी का संकल्प भक्तिरस में परिवर्तित हो गया। उसने भक्तामर स्तोत्र के चैदहवें और पन्द्रहवें काव्य की सविधि आराधना आरम्भ कर दी। खप्पर और कटार लिये ‘शासनदेवी‘ विकारल रूप धारण किये प्रकट हुई। राजा की शूरवीरता गायब हो गई, वह डर गया। उसने परस्त्री-संसर्ग न करने का संकल्प लिया। देवी ने अभयदान दिया। राजा-रानी के हृदय में प्रेम का सागर हिलोरें ले रहा था।

(१३)
मित्राबाई का संकल्प

श्लोक १६

        मंडपपुर के राजा महीचन्द्र की पुत्री मित्राबाई का आरम्भ से ही आध्यात्मिकता की ओर झुकाव था। राजा को अपनी पुत्री का धर्म के प्रति आकर्षण देख प्रसन्नता हुई। उन्होंने श्रीमती नाम की साध्वी के पास विद्याध्ययन हेतु उसे भेजा। वहाँ मित्रा ने धर्म के गूढ़ रहस्यों को समझा और सोचा कि जीवन में धर्म को समझना उनता मूल्यवान नहीं जितना उस पर आचरण करना। विद्याध्ययन के उपरांत आशीषवचन देते हुए साध्वी श्रीमती ने मित्राबाई को संकल्प दिया कि ‘‘त्यागी तपस्वी श्रमणों के पवित्र दर्शन के बाद ही भोजन करोगी।‘‘

        समय बीता। मित्राबाई के विवाह की दुन्दुभि बज उठी। उसका विवाह क्षेमंकर नाम के धर्मपरायण विद्वान् धनपति से हुआ। जब मित्राबाई ससुराल पहुँची तो उसकी सास ने भोजन के लिये बुलाया। मित्राबाई के संकल्प को सभी ने जाना। क्षेमंकर पत्नी की प्रतिज्ञा से प्रभावित हुए। उन्होंने योगासन में बैठकर भक्तामर स्तोत्र के सोलहवें काव्य का सविधि आराधन आरम्भ किया। चतुर्भुजी देवी प्रकट हुईं। वह बोलीं-‘‘कुमार! तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी।‘‘

        देखते ही देखते दो मासक्षमण के तपस्वी संत भिक्षार्थ उनके भवन में पधारे। पति-पत्नी के संकल्प और आस्था का सर्वत्र बखान होने लगा।

(१४)

श्लोक १७

        चक्रेशपुर के राजा नरसिंह का पुत्र रत्नशेखर दुराचारी और नीच वृत्ति का था। राजा ने उसका विवाह कल्याणश्री नाम की राजकन्या से कर दिया। वह जैन कुलोत्पन्न सदाचारिणी विदुषी रमणी थी। भक्तामर का पाठ ऋद्धि-मंत्रों सहित करने का उसका नित्य का कर्म था।

        रत्नशेखर की दोस्ती एक ऐसे जोगी से हो गई जो कहने को तो तपस्वी जटाजूटधारी था, लेकिन वह विविध चमत्कारों की योग्यता का स्वांग करने वाला था। रत्नशेखर को उस जोगी ने एक चमत्कार दिखाया-अपने हाथ की अँगूठी निकालकर सामने फैंकते हुए कहा कि मेरा चमत्कार देखो, मैं अचेतन को चलाये देता हूँ। देखते क्या हैं कि योगी के मंत्र फूँकते ही अँगूठी चलने लगी। रत्नशेखर की जोगी पर बड़ी श्रद्धा हो गई।

        कल्याणश्री ने अपने पतिदेव की दुरास्था को जाना। उससे यह देखा न गया। असल में कुसंगति और सत्संगति का संघर्ष छिड़ गया।

        एक दिन कल्याणश्री ने उस जोगी को अपने घर बुलाया और भोजनोपरांत जल को भक्तामर स्तोत्र के सत्रहवें काव्य की ऋद्धि और मंत्र से मंत्रित किया और उस मंत्रित जल को स्वयं पीने के पश्चात् उच्छिष्ठ जल पीने के लिये पाखंडी जोगी के सामने रख दिया। जोगी उस जल को पीकर भोजन सामप्त कर ही रहा था कि शासनदेवी आकर सामने खड़ी हो गई। उसने एक अंगूठी जोगी को देकर कहा कि-उड़ाओ इसे......।‘ परन्तु कीलित अँगूठी काहे को उड़ती ? अब देवी ने स्वयं वह सुवर्ण मुद्रिका आकाश में फैंकी तो जहाँ पर वह गिरी वहाँ एक सुन्दर भव्य उपाश्रय दृष्टिगोचर हुआ। गांधारीदेवी के इस अनोखे चमत्कार को देखकर जोगी देवी के चरणों में गिर पड़ा और हमेशा-हमेशा के लिये दूसरों को चंगुल में फँसाने वाली अपनी धूर्Ÿा विद्या का परित्याग कर सच्चा जिनभक्त बन गया।

        रत्नशेखर भी धर्मपत्नी कल्याणश्री के समक्ष अधिक लज्जित हुआ और सत्संगति में समय व्यतीत करने की प्रतिज्ञा ली।

(१५)
जड़मति से सुजान

श्लोक १८

        कुलिंग देश के बरबर नगर में राजा चन्द्रकीर्ति राज्य करते थे। उनके मंत्री सुमतिचन्द्र का स्वर्गवास हो गया। राजा ने उसके पुत्र भद्रकुमार को बुलाया और कहा कि तुम अपने स्वर्गीय पिता की पदवी अंगीकार करो। भद्रकुमार निरक्षर था। लिखना-पढ़ना तक न आता था। बेचारा बड़ा ही लज्जित हुआ और राजा को अपना अभागा दोष कह सुनाया कि मेरे मंत्री पद से मेरी ही नहीं आपकी भी जग हँसाई होगी। राजा ने कहा-‘‘भद्र! बिना विद्या के जीवन बेकार है। तुम्हंे इस ओर ध्यान देना चाहिए।‘‘

        भद्रकुमार अत्यन्त लज्जित होकर दरबार से तो चला आया, परन्तु उसके चित्त में विद्याधन कमाने की गहरी चिन्ता हो गई। एक दिन उसने एक जैन श्रमण के समक्ष अपने चिŸा का क्लेश कह सुनाया। कृपालु साधु ने भक्तामर का अठारहवाँ काव्य विधि समेत सिखा दिया। भद्रकुमार ने अन्न-जल त्यागकर तीन दिन तक बड़ी तपस्या की और मंत्र सिद्ध किया। परिणाम यह हुआ कि शासनदेवी प्रकट हुई और कहने लगी-‘‘भद्र! क्या इच्छा है ?‘‘ भद्रकुमार ने कहा-‘‘माँ! वरदान दीजिए कि मैं विद्वान् बनूँ।‘‘ विद्या का वरदान देकर देवी निज स्थान को प्रस्थान कर गई।

        मंत्री-पुत्र भद्रकुमार अत्यन्त प्रसन्न होकर घर को चले गये। राजा ने भरे दरबार में इतनी जल्दी विद्वान् होने का कारण पूछा तो भद्रकुमार ने विनयपूर्वक कहा-‘‘राजन्! जैनधर्म के प्रभाव से बड़ी-बड़ी ऋद्धियाँ और महान् ज्ञान प्राप्त होता है फिर इस शास्त्रीय ज्ञान की क्या बिसात ?‘‘ भद्रकुमार जड़मति से सुजान बन गए।

(१६)
अपने किए का फल

श्लोक १९

        हस्तिनापुर के राजा शूरपाल थे। उन्हीं दिनों वहाँ देवल नाम के नगरसेठ भी रहते थे। उनके यहाँ हीरा-जवाहरात का व्यापार होता था। नगरसेठ के सुखानंद नाम का एक पुत्र था। नगरसेठ ने उसे अन्यान्य धर्मशास्त्रों के अतिरिक्त भक्तामर स्तोत्र का भी अध्ययन कराया था। एक दिन राजा शूरपाल को बहुत से गहने बनवाने की आवश्यकता पड़ी सो उन्होंने प्रिय सुखानंद कुमार को बुलाया और सोना, चाँदी और बहुत से हीरा माणिक सब अच्छा सच्चा माल उन्हें सम्हला दिया। सुखानंद कुमार ने वह सब माल सुनार को राजा के ही सामने सौंप दिया।

        सुनार के मन में खोट था। उसने सारे आभूषण नकली गढ़ डाले। राजा ने जब तलब किया तो सुनार ने सुखानंद का नाम ले दिया कि इन्होंने ही मुझे ऐसा करने को कहा था।

        राजा ने तुरन्त सुखानंद कुमार को बुलवाया और डाँट-फटकार लगाई। राजा ने सुनार को तो विदा कर दिया और सुखानंद को जेल में कैद कर देने का हुक्म दे दिया-‘‘जब तुम मेरे रतन-हीरे-जवाहरात लौटा दोगे, तब मैं तुम्हें छोड़ दूँगा।‘‘

        बिना अन्नाहार ग्रहण किया कारागार में पड़े हुए सुखानंद को पूरे बहŸार घंटे हो गये, पर धीर-वीर सुखानंद का हृदय रंचम मात्र भी क्षोभित नहीं था। चूँकि उसे भक्तामर स्तोत्र पर अटल आस्था थी। वह सोलह आने सच्चाई पर था, फिर डर काहे का ? दूध का दूध और पानी का पानी सब स्पष्ट हो जायेगा।

        उसने भक्तामर का उन्नीसवाँ काव्य ऋद्धि-मंत्र के साथ आराधन करना आरम्भ कर दिया। कारागार की काली कोठरी मंे रात्रि को जव वह सो रहा था तब शासनदेवी आकर उसे निद्रावस्था में ही उसके घर रख आई।

        अगले दिन राजा शूरपाल ने देखा कि कारागार का दरवाजा खुला पड़ा है और सुखानंद कुमार अपनी जवाहरातो की दुकान पर निश्चिन्त बैठे हुए व्यापार में मग्न है। राजा समझ गया कि उसने पिछली रात के अन्तिम प्रहर में जो स्वप्न देखा था वह इसी रूप में साकार हुआ है। बस फिर क्या था ? राजा शूरपाल तो जैनधर्म का अटल श्रद्धानी हो गया और सुनार को अपने कियो का फल मिल गया। कहते हैं-देवता भी धर्मात्माओं के दास बनकर रहते हैं।

(१७)
विश्वास का फल

श्लोक २॰

        रतनावती नगरी में अडोल नाम के एक सेठ रहते थे। उनका जैनधर्म पद दृढ़ विश्वास था। उनके एक पुत्र था। वह स्वरूपवान था और शरीर मंे सुदृढ़ भी; परन्तु जैनधर्म मंे उसकी किंचित् भी श्रद्धा नहीं थी। विष्णु में गहरी अभिरुचि होने से पिता ने उसका नाम विष्णुदास रख दिया था।

        संयोग से एक दिन जैन मुनि का आगमन हुआ। विष्णुदास ने मुनि से पूछा-‘‘महाराज! स्ंासार से छूटने का उपाय बताइए।‘‘ दया के सागर मुनि ने कहा-‘‘वत्स विष्णु! प्रत्येक सीढ़ी पर पाँव रखकर महल मंे चढ़ना युक्तिसंगत है, पर एकदम कई सीढि़याँ लाँघने से मनुष्य मुँह के बल गिरता है। तुुम्हारे अन्दर की आत्मा अभी सत्य के प्रकाश की ओर नहीं बढ़ी और तुम अंतिम उपदेश की ओर बढ़ रहे हो। गृहस्थ का सबसे पुण्य कार्य वही है, जिसमें उसकी स्वयं की आत्मा धिक्कारे नहीं, वरन् सहमति दे।‘‘

        विष्णुदार ने कहा-‘‘महाराज! कोई चमत्कार दिखलाइए, जिससे मेरा धर्म और साधुओं पर विश्वास हो?‘‘

        जैन मुनि ने भक्तामर की बीसवाँ काव्यमय ऋद्धि-मंत्र के सिखलाकर कहा-‘‘वत्स! तुम सभी व्यक्तियों के समक्ष अपना मनोरथ सिद्ध करो, जिससे सभी व्यक्तियों का धर्म मंे विश्वास हो सके।‘‘

        रतनावती के राजा की संपूर्ण प्रजा दरबार में उपस्थित थी। विष्णुदास ने मधुर कंठ से भक्तामर स्तोत्र का बीसवाँ काव्य पढ़ना शुरू किया। तत्काल ही शासनदेवी वहाँ उपस्थित हो गईं। देवी ने विष्णुदास को अष्ट सिद्धियाँ प्रदान की।

        राजा ने विष्णुदास पर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की। उन्हें अपना आधा राज्य दे दिया और अपनी प्यारी कन्या उन्हें ब्याह दी।

(१८)
संकल्प की शक्ति

श्लोक २१

        मालवा की विशाला नगरी में नामचन्द्र नाम के एक नगरसेठ रहते थे। पुण्योदय से उन्हें एक पुत्र हुआ। नाम जिसका श्रीधर था। जब वह विद्याध्ययन के योग्य हुआ तब उसने गणित, साहित्य, छंद, व्याकरण आदि विद्याओं के अतिरिक्त मनवांछित फलदायक श्री भक्तामर स्तोत्र का भी अध्ययन किया।

        समय आने पर श्रीधर का विवाह रूपश्री से हुआ। रूपश्री सुशील और धर्मपरायणा थी। उसने एक संकल्प ले रखा था कि मैं जिनवंदना कियो बिना अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगी।

        एक दिन प्रातःकाल से ही वर्षा की घनघोर झड़ी लगी हुई थी। नगर में चारों ओर निस्तब्धता थी। लोग छुट्टी मना रहे थे। श्रीधर के परिवार वाले मध्याह्न में भोजन कर चुके थे, लेकिन रूपश्री अभी तक निराहार थी। घनघोर सघन वर्षा मंे नगर से पाँच मील दूर देवालय में स्थित जिनदेव की आराधना करना टेढ़ी खीर थी। सास ने आकर आश्वासन दिया-‘‘बहू! शाम को जिनालय चलेंगे। अभी इस स्थिति में चलना असम्भव है।‘‘

        जैनधर्म में आस्था रखने वाले प्रायः अपने संकल्प को प्राणप्रण से निभाते हैं। हुआ भी यही। सात दिन तक लगातार मूसलाधार वर्षा होती रही। नगर ने बाढ़ का रूप ले लिया। रूपश्री के निर्जल उपवास ने उसकी कुंदन-सी काया को मलिन बना दिया, लेकिन उसके मुख पर अद्भुत आभा विकीर्ण थी। संकल्प में शक्ति जो होती है। बाढ़ से पीडि़त व्यक्ति निरुपाय हो अपने-अपने इष्टदेव का स्मरण कर रहे थे। श्रीधर को भी प्रकृति के प्रकोप के आगे सिर झुकाना पड़ा। उसने भक्तामर स्तोत्र का इक्कीसवाँ काव्य पढ़ना शुरू किया। उसे आनंदानुभूति हो रही थी। वह बार-बार दुहरा रहा था।बस फिर क्या था शासनदेवी प्रकट हुई-‘‘वत्स! तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी।‘‘

        देखते क्या हैं कि श्रीधर रूपश्री के साथ वायुरथ पर चढ़कर जिनवंदना कर रहे हैं। रूपश्री इक्कीसवें काव्य को पढ़ रही हैं। श्रीधर इस चमत्कार से हतप्रभ हुआ। वह धर्म के प्रति पूर्ण श्रद्धावान हो गया।

(१९)
चण्डी ने क्षमा माँगी

श्लोक २२-२३

        उज्जैन के राजा श्रीचन्द्र जैनधर्मी, न्यायशील, प्रजापालक थे। उन्होंने मंत्री का काम नगरसेठ मतिसागर को सौंप रखा था। मतिसागर अनुभवी और विद्वान् थे। उनके एक पुत्र था महीचन्द्र! एक दिन राजा ने महीचन्द्र को बच्चों के साथ खेलते देखा तो वह मतिसागर से बोले-‘‘मंत्री महोदय! महीचन्द्र के लिए विद्याधन की व्यवस्था कीजिए।‘‘

        मंत्री ने महीचन्द्र को राज्य के बड़े गुरु को सौंप दिया। महीचन्द्र थोड़े ही दिनों में निपुण हो गया। उसने लौकिक और धार्मिक दोनों प्रकार की योग्यता प्राप्त कर ली और भक्तामर का तो वह पूरा ही भक्त हो गया था।

        जब महीचन्द्र पढ़-लिखकर होशियार हो गया और राजा के दरबार में गया तो राजा ने अपने पास बैठाकर कुशल-क्षेम पूछी। महीचन्द्र की विद्या में उन्नति को देखकर प्रसन्नता के साथ उन्होंने बहुत-सी भेंट दी।

        समय यूँही बीत रहा था कि एक दिन राजा श्रीचन्द्र के कानों में यह चर्चा सुनाई पड़ी कि नगर के चण्डीमठ में एक जैन मुनि पर घोर उपसर्ग किया जा रहा है। उन्होंने तत्काल महीचन्द्र को बुलाया और उपद्रव शांत करने के लिए उससे कहा।

        महीचन्द्र ने जैन मुनि के समीप ही एकांत स्थान पर बैठकर भक्तामर स्तोत्र के बाईसवें और तेईसवें वाक्य का सविधि आराधन किया। शासनदेवी प्रकट हुई। वह बोली-‘‘वत्स! क्या चाहते हो ?‘‘ महीचन्द्र ने कहा-‘‘देवी माँ! मैं अपने लिए तो कुछ नहीं चाहता, परन्तु यहाँ का वातावरण शांत अवश्य चाहता हूँ जोकि इस मठ में निवास करने वाली पिशाचनी चण्डिका के कारण क्षुब्ध है।‘‘ देवी बोली-‘‘अच्छा, वत्स! देखो, मैं इसे कैसे सबक सिखाती हूँ।‘‘

        देखते ही देखते देवी ने अपनी दोनों आँखें बंद कर लीं। ओठों पर मंद-मंद मुस्कान लाकर दाहिना हाथ ज्यों ही ऊपर उठाया कि चण्डीदेवी के हथियार अपने आप हाथों से गिरने लगे। मायावी भूत-प्रेत तथा सिंह, चीते, व्याल आदि सभी ंिहंसक पशु भाग खड़े हुए।

        अन्त में चण्डीदेवी उस शासनदेवी के चरण-शरण में गिरकर गिड़गिड़ाने लगी-‘‘देवी! मुझ हतभागिन को क्षमा करो।‘‘ देवी ने जैन साधु की ओर संकेत करके कहा कि ‘‘उनसे ही तुम क्षमा माँगो।‘‘

        कृपालु जैन मुनि ने चण्डी को माफ किया।

        राजा ने महीचन्द्र को गले से लगा लिया और बड़ी प्रशंसा की।

(२॰)
यह कैसा फाग ?

श्लोक २४-२५

        कोशाम्बी के राजा जितशत्रु विलासी और कामुक थे। उन्होंने छŸाीस राजकुमारियों से विवाह रचाया था। एक दिन की बात। वसंत का सुहावना समय था। कोयल की कूक और सुगंध पवन के झौंके कामियों को उन्मŸा करते थे। राजा जितशत्रु को भी वन-क्रीड़ा की सूझी और अपनी सभी रानियों को लेकर वाटिका पहुँचे। उनकी रसीली रानियों ने खूब फाग मचाई। अबीर, गुलाल, चंदन, केशर, कज्जल, कुंकुम की खूब भरमार की और राजा की अच्छी तरह फाग में राजी किया। उन्हें अपनी पिचकारी का निशाना बनाया और ऊपर से फगुवा का दावा किया। परन्तु राग के बिना फाग कैसा ? बस फिर क्या था संगीत की झंकार और रानियों की थिरकन ने राजा का मन मोह लिया।

        राजा वन-क्रीड़ा से लौट रहे थे। ऐसे में वनदेवता ने रानियों को विहल कर दिया। सबकी सब सुध-बुध खो बैठी। उन्मŸा रानियाँ राजा को मदोन्मŸा कर रही थीं। राजा अवाक् था। रानियों की इस दशा से वह परेशान था। करे तो करे क्या ?

        यकायक राजा देखते क्या हैं कि दूर अमुक वृक्ष के तले एक जैन साधु विराजमान हैं। राजा सभी रानियों को उनके पास ले गये। साधु से रानियों की उन्मŸा दशा को दूर करने का राजा ने निवेदन किया। साधु ने भक्तामर के चैबीसवें और पच्चीसवें काव्य का आराधन करते हुए मंत्र फूँका। रानियाँ पूर्व दशा में लौट आई। सबकी सब मन ही मन लज्जित हुईं।

(२१)
क्या यह मेरा घर है ?

श्लोक २६

        बरारा नगरी मे धनमित्र नाम का एक भिखारी रहता था। गरीबी के कारण वह झूठन भी खाने लगा था फिर भी उसका पेट नहीं भरता था। कहते हैं कि घूरे के भी दिन फिरते हैं। फिर अभागे धनमित्र के दिन क्यों न फिरते ? उसे एक जैन साधु के दर्शन हुए। उनसे अपनी व्यथा कही। कृपालु श्रमण ने भक्तामर का छब्बीसवाँ काव्य सिखा दिया। उसने शरीर शुद्धि कर छब्बीसवें काव्य का आराधन सविधि शुरू किया। ज्यों-ज्यों रात्रि गिरती जाती थी, त्यों-त्यों धनमित्र को मंत्र जपने का रस आ रहा था। जब जप पूरा हुआ तब एक देवी नागकुमार धनमित्र के शील की परीक्षा लेने के लिये सुन्दर रूप धारण कर प्रस्तुत हुई। नागकुमारी ने धनमित्र के साथ नाना चेष्टाएँ की, परन्तु सब व्यर्थ हुईं। उसके स्थिर चिŸा को चंचल न बना सकीं। वह परीक्षा में सफल हुआ।

        तब फिर शासनदेवी प्रकट हुई। उसने धनमित्र से पूछा-‘‘वत्स! क्या व्यथा है ?‘‘ धनमित्र बोला-‘‘माँ! मेरा दुःख-दारिद्रय दूर करो।‘‘देवी बोली-‘‘तथास्तु वत्स! तेरे मनोरथ पूर्ण होंगे।‘‘

        धनमित्र घर आया तो घर का कुछ निराला ही हाल देखा। वह पहचान ही न सका कि यह मेरा घर है। अपनी सौभाग्यवती स्त्री को सजधज में देखा तो धनमित्र ठगा-सा रह गया। अब धनमित्र से धन ने पूरी मित्रता कर ली थी।

(२२)
राजा की श्रद्धा जगी

श्लोक २७

        चन्द्रकान्त के राजा हरिश्चन्द्र की भार्या का नाम चन्द्रमती था। दोनों को बस एक अभाव सालता था कि उनके कोई संतान न थी। उन्होंने क्या-क्या यत्न नहीं किये, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। राजा-रानी पेशेवर व्यक्तियों में अपना विश्वास खो चुके थे। आखिर एक जैन साधु से उनकी भेंट हुई। उन्होंने भक्तामर स्तोत्र का रहस्य तथा उसका प्रभाव बतलाते हुए सŸााईसवें श्लोक का उच्चारण कर उसके महŸव का प्रतिपादन किया। राजा की श्रद्धा जगी। वे मंत्र की आराधना करने लगे। शासनदेवी प्रकट हुईं। उन्होंने वरदान दिया। राजा को महाप्रतापी पुत्र प्राप्त हुआ। पाँच वर्ष बाद फिर वहीं जैन साधु पधारे। राजा-रानी दलबदल सहित दर्शनार्थ पहुँचे और उनसे पुत्र के लिये आशीष माँगा।

(२३)
रूपकुण्डली

श्लोक २८

        धरापुरी नगरी के राजा पृथ्वीपाल के सात पुत्र और एक कन्या थी। कन्या बड़ी ही रूप और लावण्य-सम्पन्न थी। नाम उसका रूपकुण्डली था। एक दिन वह सखियों के साथ वाटिका मंे गई तो वहाँ जैन साधु को देखा। रूप और सŸाा के अभिमान में आकर रूपकुण्डली ने उस तपस्वी साधु को भला-बुरा कहा।

        परिणाम यह हुआ कि थोडे़ दिनों में वह रूपकुण्डली से कुरूपकुण्डली बन गई। उसे कोढ़ हो गया। शरीर के रोम खिर गये, हाथ-पाँव गल गये और बड़ी दुर्दशा हुई। वह रोती, बिलखती, पश्चाŸााप करती हुई तपस्वी साधु के पास गई।

        साधु दया के सागर थे। उन्होंने भक्तामर का अट्ठाईसवाँ काव्य सिखा दिया। रूपकुण्डली साधु महाराज को वंदन कर घर को चली आई और तीन दिन-रात काव्य की आराधना की । फलस्वरूप उसका सारा शरीर पुनः कुंदन सा चमक उठा। राजा-रानी की खुशी का ठिकाना न रहा। उन्होंने रूपकुण्डली का विवाह सद्गुणी राजपुत्र से करना चाहा, लेकिन रूपकुण्डली नाशवान शरीर का सही उपयोग समझ चुकी थी। उसने आजन्म ब्रह्यचर्य व्रत ले लिया।

(२४)
निंदा का फल

श्लोक २९

        अलकापुरी के राजा जयसेन सच्चे जैनधर्मी और पापभीरु थे। उनकी भार्या जया जैनधर्म में आस्था न रखने वाली, काम-अग्नि से सन्तप्त रहने वाली मिथ्यात्विनी थी। संयोग से एक जैन मुनि का पधारना हुआ। राजा उनकी भक्ति मंे लग गया, लेकिन रानी ने मुंनि की निन्दा की। राजा के सामने तो वह मध्ुारभाषिणी थी, परन्तु अंतरंग मलिनता से अनुप्राणित थी। तीव्र पाप का फल भी कभी-कभी शीघ्र उदय हो जाता है। सो हुआ। रानी कुष्ठ व्याधि से व्यथित हो गई। शरीर से दुर्गन्ध निकलने लगी। रानी भी मन में समझ गई कि यह साधु-निंदा का फल है। राजा के परामर्शानुसार वह प्रायश्चिŸा करने साधु के पास पहुँची। मुनिराज ने भक्तामर स्तोत्र का उन्तीसवाँ काव्य मंत्र सहित विधिपूर्वक अनुष्ठान करने की प्रेरणा दी। रानी ने ऐसा ही किया। फलस्वरूप उसका शरीर पूर्ववत् गुलाब की तरह सुन्दर बन गया।

(२५)
ग्वाला राजा बना

श्लोक ३॰-३१

        श्रीपुर के राजा रिपुपाल की चार रानियाँ थीं जो गृहस्थ धर्म मंे बड़ी सावधान थीं। उनके यहाँ एक ग्वाला रहता था जो उनके गाय, भैंस आदि की टहल किया करता था।

        एक दिन वह ग्वाला जंगल में गया। वहाँ उसे एक परम जैन मुनि के दर्शन हुए। उसने मुनिराज की सभक्ति सेवा की। मुनिराज उसकी भक्ति से प्रभावित हुए। उन्होंने भक्तामर के तीसवें और इकतीसवें काव्य को मंत्र-ऋद्धि के साथ समझा दिया। देखिए मंत्र का प्रभाव कि ग्वाला श्रीपुर का राजा बन गया।

        हुआ यह कि राजा रिपुपाल के कोई संतान न थी। उनकी मृत्यु के उपरान्त हाकिम लोग आपस में लड़-झगड़ रहे थे। राज्य की सŸाा को हथियाने का प्रयास कर रहे थे। ऐसे में राजपरिषद् के वरिष्ठ सदस्यों ने एक राय होकर राजा का हाथी सजाया और उसे पुष्पमाला दी। हाथी द्वारा माला को ग्रहण करने वाला व्यक्ति ही राज्य गद्दी पाने का अधिकारी होगा। यह घोषणा नगरभर में करा दी गई। संयोग की बात उस दिन ग्वाला जंगल से जानवरों सहित लौट रहा था। भक्तामर के तीसवें और इकतीसवें काव्य को गुनगुनाता जा रहा था। बस हाथी ने उसके गले में माला डाल दी। ग्वाला राजा बन गया।

(२६)
जैसा नाम वैसा रूप

श्लोक ३२-३३

        उज्जैन के राजा रतनशेखर बड़े नीतिवान और प्रजापालक थे। उनकी पटरानी का नाम मदनसुन्दरी था। नाम उनका सुन्दरी जरूर था, लेकिन देह कुरूप पाई थी। सिर पर खड़े बाल, छोटा-सा ललाट, चपटी बहती हुई नाक, ओठों से बाहर निकले हुए दाँत, मोटी कमर, पतली जंघा, बिबाई फटी एडि़याँ, फूली हुई गर्दन और पीप बहते कान होने से वह कहने मात्र को मदनसुन्दरी थी। इतने पर भी उसे गलित कुष्ठ और खाँसी तथा दमा उसकी दम तोड़ डालते थे। इससे कोई पास भी नहीं खड़ा होता था। राजा ने नाना चेष्टाएँ की पर सफलता नहीं मिली।

        एक दिन राजा रतनशेखर चिन्तामग्न थे कि उनके बाल सखा का आना हुआ। बाल सखा ने पूछा-‘‘राजन्! चिन्ता का क्या कारण है ?‘‘ राजा ने रानी मदनसुन्दरी का सब दशा उसे कह सुनाई। तब फिर बाल सखा ने जैन मुनि के पास जाने का सुझाव दिया। राजा-रानी जैन मुनि के पास पहुँचे और अपनी व्यथा कह डाली। मुनिराज ने रानी को बŸाीसवाँ और तेतीसवाँ काव्य सविधि सिखा दिया। रानी ने विधिपूर्वक जाप किया और जैसा नाम था वैसा ही उसका रूप हो गया। साथ ही सारे रोग नष्ट हो गये।

(२७)
राजा रोग दूर हुआ

श्लोक ३४-३५

        बनारस के राजा भीमसेन न्यायप्रिय थे। असाता कर्मों का उदय हुआ कि राजा भीमसेन एक रोग से पीडि़त हो गए, जिससे उनका शरीर नितान्त दुर्बल हो गया। कांति उड़ गई। अस्थि चर्म सूख गये। देखने में बहुत डरावने दिखने लगे। भूख का पता नहीं था। नाना प्रयत्न किये गये पर व्यर्थ हुए। राजा की यह दशा देखकर रानी रो पड़ी। उन्हें साहस न रहा। मंत्रीगण आए, रानी को धीरज बँधाया।

        संयोग से एक दिन साधु महाराज पधारे। राजा उनके श्रीचरण में पहुँच गये। अपनी कमनसीबी का सब हाल कह सुनाया और निवेदन किया कि हे दीनदयाल! ऐसी कृपा कीजिए जिससे यह व्यथा दूर होवे।

        साधु महाराज विधिपूवर्क चैंतीसवाँ और पैंतीसवाँ काव्य विधि सहित सिखाकर विहार कर गये। राजा ने तीन दिन बड़ी कठिन तपस्या की तब चक्रेश्वरी नाम की शासनदेवी प्रकट हुई। देवी ने कहा-‘‘राजन्! माँग क्या माँगता है ?‘‘ राजा बोले - ‘‘माँ! मेरी सहायता करो। मेरी सारी व्यथा हरो।‘‘ देवी आशीर्वाद देकर अपने गन्तव्य को गई और राजा ने वैसा ही किया जैसा देवी ने बताया था। राजा की मनोकामना सफल हुई।

(२८)
करनी का फल

श्लोक ३६

        पटना के राजा धाड़ीवाहन के एक पुत्री थी। पुत्री का नाम सुरसुन्दरी था। जैसा उसका नाम था वैसी ही वह रूपवान और मनोहर भी थी। परन्तु जिनधर्म में उसकी आस्था नहीं थी। उसे अपने सुन्दर रूप का बड़ा गुमान था। अपने रूप के अभिमान के मारे वह औरों को तिनके के समान समझती थी। राजा-रानी के लाड़ से वह उनके सिर चढ़ गई थी और उन दोनों की कुछ परवाह भी नहीं करती थी। यद्यपि सुरसुन्दरी बड़ी ढीठ थी फिर भी माता-पिता को बहुत प्यारी थी।

        एक दिन वह पालकी में चढ़कर वन-भ्रमण को गई और बहुत-सी सहेलियों को साथ ले गई। वहाँ पर उसने एक तपस्वी ध्यानस्थ श्रमण को देखा, उनकी कृशकाया को देखकर सहेलियाँ उपहास करने लगी-‘‘जब इनकी खुद ही की यह दशा है तो ये दूसरों को क्या दे सकते हैं ? सुखा की आशा से इनकी वंदना करना घृत के लिये पानी का विलोवना है।‘‘

        कहते हैं कि करनी का फल तत्काल मिल जाता है। सो सुरसुन्दरी को भी ऐसा ही हुआ। उसका शरीर कुरूप हो गया।

        राजा अपनी पुत्री की यह करतूत और दशा देखकर बहुत चिन्तित हुए। वह अपने गुरुदेव के पास पहुँचे। उनसे उपाय पूछा। गुरुदेव ने एक घड़ा पानी मँगवाया औैर भक्तामर का छत्तीसवाँ काव्य पढ़ दिया। तब राजा से कहा कि बाई को इस पानी से स्नान कराओ। सुरसुन्दरी ने अपनी करनी पर पश्चात्ताप एवं प्रायश्चित्त किया और मंत्रित जल से स्नान किया। उसका शरीर पहले की तरह सुन्दर हो गया।

        सुरसुन्दरी की आस्था जैनधर्म पर हो गई और उसने आजीवन ब्रह्यचर्य का व्रत ले लिया।

(२९)
मनोकामना पूर्ण हुई

श्लोक ३७

        कोशाम्बी के नगरसेठ जिनदास का बड़ा व्यापार था, लेकिन वक्त ने तेवर बदले। उन्हें व्यापार में घाटा हो गया। सारी सम्पत्ति खो बैठे। वे व्याकुल हुए और खूब रोये। मित्रों ने समझाया, उन्हें सहायता भी की। लेकिन होनी को कौन टाले ? भाग्य ने पुनः टक्कर दे दी। आखिर एक जैन साधु के पास नगरसेठ का पहुँचना हुआ। कहते हैं कि संत का सान्निध्य सम्बल देता है। अपने मन की व्यथा उन्हें कह सुनाई। जैन साधु ने उन्हें भक्तामर स्तोत्र की सेतीसवाँ काव्य सिखा दिया और सिद्ध करने की सम्पूर्ण रीति बना दी। नगरसेठ ने मंत्र की विधिपूर्वक साधना की। शासनदेवी का प्रकट होना हुआ। वह नगरसेठ से बोली-‘‘हे भव्य जिनदास! तूने मुझे क्यों स्मरण किया है? तेरे मन में जो इच्छा हो से माँग।‘‘

        नगरसेठ बोला-‘‘माँ! मेरे हालात खस्ता है। मुझे इस संकट से बचाइए।‘‘ देवी ने नगरसेठ को एक अँगूठी को देकर कहा कि ‘‘इससे तुम्हारी मनोकामनाएँ पूरी होंगी।‘‘

        नगरसेठ यात्रा पर थे कि रास्ते में चोर मिले जो राजा के यहाँ से हीरे-जवाहरातों को चुरा लाये थे। नगरसेठ से बोले-‘‘सेठजी! इस माल को खरीदकर हमें नगदी रुपया दे दें।‘‘ नगरसेठ ने समझ लिया कि यह माल चोरी का है। उन्होंने चोरों को देवी द्वारा दी गई अँगूठी दिखाई और फटकार लगाई। नतीजा यह हुआ कि चोर भाग लिये। साथ ही सारी सम्पदा भी छोड़ गये। बहुत कुछ सोच-विचारकर वे राजा के दरबार में सम्पूर्ण दौलत लेकर गये और उन्हें सौंपकर सब समाचार सुनाया। राजा ने अपना सब माल पहचान लिया और सेठ की ईमानदारी से प्रसन्न होकर सारी सम्पदा उन्हें सौंपकर बड़ी प्रशंसा की। मंत्र से नगरसेठ पुनः सम्पत्ति और पद के अधिकारी बन गये।

(३॰)
फिर राजा बना

श्लोक ३८

        वीरपुर के राजा सोमदत्त का एक मात्र पुत्र सुखानन्द दुराचारी और जुआरी था। उसकी कुसंगति और दुराचार को देखकर पड़ोस के राजा ने सोमदत्त की सारी सम्पत्ति लुटवा ली और उन्हें गद्दी से उतार दिया। यहाँ तक कि उन्हें भोजन तक के लिये मुँहताज कर दिया। पहले तो पुत्र कुपुत्र, दूसरे दरिद्रता ने बेचारे सोमदत्त को कहीं का न रखा।

        संयोग से एक तपस्वी जैन मुनि के दर्शन हुए। उनसे अपनी रामकहानी कह सुनाई। जैन श्रमण ने भक्तामर का अड़तीसवाँ काव्य विधिपूर्वक सिखा दिया। सोमदत्त ने उसकी भली प्रकार से आराधना की और मंत्र सिद्ध करके धन की चिन्ता में हस्तिनापुर गये।

        हस्तिनापुर में सोमदत्त क्या देखते हैं कि राजा का प्रचण्ड और उद्दण्ड मदमत्त हाथी महावतो की असावधानी से छूट पड़ा और शहर में प्रवेश कर उत्पात मचाने लगा। सैकड़ों नर-नारियों को उसने चीर डाला। हजारों दुकानें कुचल डालीं, बहुत से वृक्ष उखाड़कर फैंक दिए। लोगों का घर से निकलना असम्भव हो गया। उसे वश में करने के कई उपाय किये गये लेकिन सब बेकार। आखिर राजा ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो कोई हाथी को वश में करेगा उसको मैं अपनी पुत्री ब्याह दूँगा तथा चैथाई राज्य सौंप दूँगा।

        सोमदत्त ने जब यह सुना तो उन्होंने भक्तामर से अडतीसवें काव्य का पाठ किया और उस हाथी का कान पकड़कर उस पर सवार होकर राजा के दरबार में जा पहुँचे। राजा बहुत प्रसन्न हुए, लेकिन सोमदत्त के जाति-कुल से अपरिचित होने के कारण अपनी पुत्री न देकर मनमाना धन देने का निश्चय किया। जब राजकुमारी मनोरमा की दृष्टि सोमदत्त पर पड़ी तो मदन के जोर से वह विह्ल हो गई और होश गवाँ बैठी। बेहोश होकर वह भूमि पर गिर पड़ी।

        जैसे-तैसे राजा एक आफत से मुक्त हुए कि दूसरी मुसीबत का सामना हो गया। राजवैद्य ने नाना उपचार किये पर मूच्र्छा बढ़ती ही गई। आखिर राजा ने फिर घोषणा करवा दी कि जो कोई मनुष्य मेरी पुत्री की मूच्र्छा को दूर करेगा उसे अपनी पुत्री के साथ आधा राज्य सौंप दूँगा।

        सोमदत्त ने फिर अड़तीसवाँ काव्य उच्चारा और राजा की कन्या के पास गये। राजकन्या उन्हें देखते ही सचेत हो गई और बोली- ‘‘यहाँ भीड़ क्यों जमा है ? मुझे स्नान कराओ, भूख लगी है।‘‘

        यह चमत्कार देखकर मंत्री ने सोमदत्त का परिचय पूछा। तब सोमदत्त ने सविस्तार हाल सुनाया। राजा प्रसन्न हुआ, उसने अपनी पुत्री का हाथ सोमदत्त को सौंपकर अपना आधा राज्य भेंट कर दिया।

        भक्तामर के प्रभाव से कुबेर जैसी सम्पदा और इन्द्राणी जैसी राजकन्या पाकर राजा सोमदत्त के हर्ष का ठिकाना न रहा।

(३१)
विघ्न टल जाते हैंे

श्लोक ३९

        श्रीपुर में देवराज नाम के जौहरी जवाहरात का व्यापार करते थे। उन्होंने अपने गुरुदेव से भक्तामर का अच्छा अभ्यास किया। देवराज का पुत्र अमृतचन्द पितृभक्त था। एक दिन देवराज ने व्यापार के लिये रत्नद्वीप जाने का मन बनाया। जाने से पहले देवराज ने अपने पुत्र अमृतचन्द्र को घर की चैकसी की हिदायत दी। अपने साथियों के साथ देवराज रत्नद्वीप को निकल पड़े।

        चलते-चलते वह राह भूल गये। भयंकर जंगल में जा पहुँचे जहाँ हाथी, रीछ, बन्दर, सर्प, सिंह आदि का बोलबाला था। यकायक एक दहाड़ता हुआ सिंह मानो काल बनकर सामने खड़ा हो गया। सब लोगों के होश उड़ गये। करें तो करें क्या ? ऐसे में धर्म ही रक्षक होता है। देवराज ने भक्तामर का उनतालीसवाँ काव्य स्मरण किया। जिसके प्रभाव से वह सिंह दुम हिलाता हुआ देवराज पर भक्ति दर्शाने लगा। इतना ही नहीं वह बहुत से गजमुक्ता बटोर लाया।

        देवराज ने कहा-‘‘हे सिंहराज! तुम हिंसक जीव हो, प्राणियों का घात करते हो। यह तुम्हारे लिये अच्छी बात नहीं है।‘‘ यह सुनते ही सिंह को अपने पूर्वभव का स्मरण हो आया। उसका चित्त बड़ा ही नम्र हो गया। उसने फिर कभी हिंसा न करने का संकल्प किया।

        देवराज रत्नद्वीप की यात्रा करके श्रीपुर सकुशल लौट आये। राजा को यात्रा का वृत्तान्त बताते हुए देवराज ने अच्छे-अच्छे गजमुक्ता उन्हें भेंट किये। यह सही है कि भक्तामर के प्रभाव से कोटि-कोटि विघ्न क्षणभर में टल जाते हैं।

(३२)
और आग शांत हो गई

श्लोक ४॰

        पोदनपुर के लक्ष्मीधर सेठ का जैनधर्म पद दृढ़ विश्वास था। उन्होंने एक जैन मुनि से भक्तामर काव्य को विधिपूर्वक सीखा था। गणधरनाम का उनका सुशील एवं आज्ञाकारी पुत्र था। एक दिन सेठ ने पुत्र को समझाते हुए कहा-‘‘बेटा! न्यायपूर्वक उद्योग करके धन का संचय करना गृहस्थों का कर्तव्य है, क्योंकि संसार में निर्वाह का दारमदार धन ही पर निर्भर है। अतएव मैं व्यापार के लिये सिंहलद्वीप जा रहा हूँ। तुम घर-व्यापार की देखभाल भलीभाँति करना।‘‘

        लक्ष्मीधर सेठ अपनी वणिक् मण्डली के साथ माल की गाडि़याँ खच्चर आदि पर भरवाकर सिंहलद्वीप को चल दिये। रास्ते में एक जगह डेरा डाले पड़े हुए थे और रसोई बना रहे थे कि अकस्मात् उनके डेरे में आग लग गई। चहुँ ओर घास के झोंपड़े होने से अग्नि ने बड़ा भयंकर रूप धारण किया। हाहाकार मच गया। सेठ के सभी साथी रोने जो लगे थे। श्रद्धालु सेठ ने धैर्य नहीं खोया। उसने भक्तामर का चालीसवाँ काव्य विधिवत् स्मरण-जपना आरम्भ किया। शासनदेवी चक्रेश्वरी प्रकट हुई। देवी ने गिलासभर पानी देकर कहा कि ‘‘इसे जहाँ-तहाँ छिड़क दो।‘‘ लोगों ने वैसा ही किया जिससे तुरन्त आग शांत हो गई। लोग यह कौतुक देख बहुत विस्मित हुये। सबने सेठ लक्ष्मीधर का बड़ा उपकार माना।

        धर्म की महिमा का क्या कहना ?

(३३)
सर्प फूलों का गजरा बना

श्लोक ४१

        नर्मदा नदी के किनारे सर्वदापुर नगर में एक धनाढ्य सेठ रहते थे। उनके समान नगर में और कोई लक्ष्मीवान नहीं था। नाम उनका गुणचन्द था। उनके एक पुत्री थी जो रूप और लावण्य से भरपूर थी। नाम उसका दृढ़व्रता था। उसने अपने गुरुदेव से भक्तामर का अध्ययन ऋद्धि-मंत्र के साथ किया था। जब दृढ़व्रता ब्याह के योग्य हुई तो शिरपुर नगर निवासी सेठ कर्मचन्द्र के पुत्र श्रीदत्त के साथ उसका ब्याह कर दिया।

        श्रीदत्त धनवान अवश्य थे, किन्तु धर्म-कर्म से बिल्कुल शून्य थे। दृढ़व्रता ससुराल में व्याप्त अधार्मिक वृत्ति देख चकित हुई। जब रात्रि के दस बजे गये तब दृढ़व्रता की सास ने भोजन के लिये उससे आग्रह किया। दृढ़व्रता ने अपनी चर्या सासुजी को बताई -‘‘हे माता! रात्रि भोजन, अनछाना पानी, कंदमूल का भक्षण ये बातें धर्म के प्रतिकूल हैं। मैंने तो अपने गुरुदेव के समक्ष इन सबका संकल्प ले लिया है अतएव रात्रि में भोजन करना मेरे लिए असम्भव है।‘‘

        सास और पति ने बहुतेरा उसे समझाया, लेकिन दृढ़व्रताअपने नियम से लेशमात्र भी नहीं डिगी। सभी परिजन दृढ़व्रतारुष्ट हुए और उसे मार डालने की तजबीज करने लगे। एक दिन श्रीदत्त ने सपेरे से एक बड़ा भयंकर साँप घड़े में रखकर मँगवाया और अपने शयनकक्ष में चुपचाप रखवा दिया। रात्रि के एकांत क्षणों में श्रीदत्त ने दृढ़व्रता से कहा-‘‘प्रिये! उस घड़े में एक फूलों का हार रखा है उसे उठा लाओ।‘‘

        भोली दृढ़व्रता इस कपट से अनभिज्ञ थी। वह सीधी घड़े के पास चली गई और हाथ डाल दिया। छली श्रीदत्त पलँग पर लेटा-लेटा ही सोच रहा था कि अभी ही इसका काम तमाम हुआ जाता है। बस दूसरी शादी कर लेंगे। आदमी सोचता कुछ और है, होता कुछ और है। दृढ़व्रताने घड़े के अंदर की वस्तु हाथ से पकड़कर निकाल ली तो देखती क्या है कि बहुत ही बढि़या फूलों का गजरा है। वह उसे हाथ में लेती आई और बड़े उछाह से अपने प्राणनाथ के गले में डाल दिया। वह पुष्पमाला श्रीदत्त के गले और बड़े उछाह से अपने प्राणनाथ के गले में डाल दिया। वह पुष्पमाला श्रीदत्त के गले में पड़ते ही पुनः भयंकर सर्प हो गई। श्रीदत्त को उसने डस लिया। वह मूच्र्छित हो गया। फिर क्या था ? हाहाकार मच गया।

        सारा दोष दृढ़व्रता पर आ गया। राजा ने तलब किया। दृढ़व्रता ने न्याय गुहार करते हुए कहा-‘‘राजन्! मेरे ऊपर झूठा कलंक आवेगा तो श्रीमान् के ऊपर अपने प्राण विसर्जन करूँगी।‘‘ राजा ने पता लगाया तो दृढ़व्रता को निर्दोष पाया, लेकिन राजा आश्चर्य में था कि ‘सर्प गजरा कैसे बना ?‘

        तब दृढ़व्रता ने कहा-‘‘राजन्! यह सब भक्तामर के इकतालीसवें काव्य का प्रभाव है। इस मंत्र को पढ़ते ही जब मैंने घड़े में हाथ डाला तो मैंने वहाँ फूलों का गजरा पाया।‘‘

        श्रीदत्त अभी भी मूच्र्छित था। झाड़ने-फूँकने वाले अपने प्रयास में लगे थे, लेकिन कोई युक्ति काम न आई। दृढ़व्रता ने इकतालीसवें काव्य की मंत्र-साधना की। शासनदेवी प्रकट हुई। वह बोली -‘‘दृढ़व्रते! आँखें खोलो और कुंभ के जल केा पतिदेव के शरीर पर छिड़को।‘‘ दृढ़व्रता ने ऐसा ही किया। श्रीदत्त ऐसे उठ बैठा जैसे सोकर उठा हो।

        राजा के साथ सपेरे और तांत्रिक इस चमत्कार से दंग रह गये। 

(३४)
चतुरंगिणी सेना सजा दो

श्लोक ४२-४३

        मथुरा के राजा रणकेतु को धर्म और नीति का ज्ञान कुछ भी न था। एक दिन उनकी भार्या ने कहा-‘‘प्राणनाथ! आपका छोटा भाई गुणवर्मा आपसे द्वेष-भाव रखता है। आप तो इस तरफ कुछ ध्यान नहीं देते पर वह आस्तीन का साँप है। कभी न कभी आपको डस लेगा। आपसे राज्य छुड़ा लेगा।‘‘

        गुणवर्मा यद्यपि सुशील, जिनभक्त था। उसका अधिकांश समय भक्तामर के मंत्रशास्त्रों की क्रियाओं को सीखने में बीत जाता था। राज्य की ओर उसका ध्यान भी न था। परन्तु राजा रणकेतु के हृदय में उनकी मूर्ख रानी की बात ऐसी समा गईं कि उन्हें गुणवर्मा-सा भाई भी शत्रु भासने लगा। वे उसे महल से निकालने की चिन्ता में रहने लगे। एक दिन उन्होंने अपने मंत्री से कहा-‘‘मंत्री! आप गुणवर्मा को देश निकाला दे दें, ऐसा कियो बिना मुझे चैन नहीं है।‘‘

        राजा रणकेतु की ऐसी ओछी बात सुनकर मंत्री आश्चर्य में पड़ गये। उन्होंने राजा को बहुतेरा समझाया, परन्तु राजा के मन को कोई बात नहीं भाई। वह मंत्री पर नाराज हो पड़े। आखिर में राजा ने गुणवर्मा से कह दिया कि ‘‘हमारे देश से निकल जाओ।‘‘

        राजा को इतना कहते देर हुई, लेकिन गुणवर्मा को महल छोड़ने में देर नहीं लगी। वे अपने भाई के राज्य से दूर वन की गुफा में निवास करने लगे। राजा को चैन कहाँ? द्वेष उसके हृदय में जो घर कर गया था। अपने कर्मचारियों को भेजकर गुणवर्मा की गतिविधि का पता लगवाया।

        कर्मचारी आकर बोले-‘‘महाराज! वे वन में रहते हैं। एकांत में प्रभु-भक्ति करते हैं।‘‘ यह सुनकर राजा ने और ही कल्पना कर डाली कि मुझे मारने का कोई जादू टोना सिद्ध कर रहा है। जब गुणवर्मा ने सजी हुई सेना राजा रणकेतु की देखी तो उन्होंने भक्तामर के बयालीसवें और तेतालीसवें काव्य की सविधि आराधना की जिससे शासनदेवी चक्रेश्वरी प्रकट होकर बोली-‘‘वत्स! तेरे मन में जो इच्छा हो सो कह।‘‘ गुणवर्मा ने कहा-‘‘माँ! मेरे लिये एक चतुरंगिणी सेना सजा दो। एक बार भाई से लडँूगा, तब फिर संयम का व्रत लूँगा।‘‘

        ऐसा ही हुआ। दोनों ओर से रणभेरी बनने लगी, खूब घोर युद्ध हुआ और विक्रिया के बल से राजा रणकेतु को बाँध लिया।

        गुणवर्मा ने देवी से प्रार्थना की-‘‘माँ! ये मेरे ज्येष्ठ भ्राता है। इनका अनादर नहीं होना चाहिए।‘‘ रणकेतु ने पश्चाŸााप किया और भाई को गले लगाया। गुणवर्मा ने जिनदीक्षा ले ली।

(३५)
जब जलदेवी ने जहाज रोका

श्लोक ४४

        बहुत पहले तामली नगर में तामलिप्त नाम के एक सेठ रहते थे। जैनधर्म में उनकी अच्छी रुचि थी और उन्होंने अपने गुरुदेव से भक्तामर के काव्य यंत्रों का अध्ययन भी किया था। एक दिन वे व्यापार हेतु बहुत-सा माल जहाज में लदवाकर अपने साथियों के साथ विदेश रवाना हो गये। धर्म के प्रभाव से कोई विघ्न नहीं आया। यहाँ से जो वस्तुएँ वे ले गये थे वहाँ बेच दीं और वहाँ से बहुत से हीरे-जवाहरात खरीदकर जहाज भर लिया।

        व्यापार में सभी को लाभ हुआ। सबके सब फूले नहीं समा रहे थे। धन संचय की चर्या में इतने मशगूल हो गये कि उन्हें नित्यकर्म-प्रभुस्मरण का भी ध्यान न रहा। एक जलवासिनी देवी ने जहाज रोक दिया। बहुत प्रयत्न हुए। जहाज जरा भी नहीं हिला। मल्लाह बोले-‘सेठजी, जलदेवी का कोप हुआ है। पशुबलि देनी होगी।‘‘ यह सुनकर तामलिप्त सेठ बोला-‘‘सुनो! मैं कदापि नहीं होने दूँगा। मैं प्राणीवध के सर्वथा विरुद्ध हूँ।‘‘ संसारी जीव सुख में ईश्वर को भूल जाता है, लेकिन दुःख में उसे याद करने लगता है।

        सेठ ने भक्तामर का चवालीसवाँ काव्य सविधि पढ़ना शुरु किया। मंत्र का प्रभाव होता है, सो हुआ। शासनदेवी चक्रेश्वरी प्रकट होती हुई बोली-‘‘सेठ कहो, कौन-सा संकट आन पड़ा ? जल्दी बताओ। ‘‘सेठ हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे-‘‘हे माता! किसी व्यन्तरी ने मेरा जहाज रोक रखा है, चलाने पर भी नहीं चलता।

        फिर क्या था ? इतना सुनते ही चक्रेश्वरी ने जहाज को एक लात मार दी, लात लगते हीवह जलवासिनी खूब चिल्लाई-‘‘रक्षा करो! रक्षा करो! मैं आज से हिंसा नहीं कराऊँगी।‘‘

        कृपालु सेठ ने भी उसे क्षमा कर दिया।

(३६)
रोगी निरोगी हुआ

श्लोक ४५

        उज्जैन के राजा नृपशेखर को पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई। बालक जन्म से ही बहुत रूपवान और सुशील था, उसका नाम हंसराज था। जब हंसराज सात वर्ष का हुआ तो राजा ने राजगुरु को विद्याध्ययन के लिये सौंप दिया। राजगुरु ने उसे बड़े चाव से विद्या का अभ्यास कराया। बालक हंसराज विद्या में सम्पन्न होकर घर आया ही था कि दैवयोग से उसकी पूज्या माता विमलमती का स्वर्गवास हो गया। इस वियोग से राजा और पुत्र दोनों ही दुःखी हुए। बहुत रोये। आखिर राजा ने दूसरा ब्याह रचाया।

        राजा की नयी रानी कमला स्वभाव से कुटिला और निर्दयी थी। समय पाकर उसके भी एक पुत्र हुआ। नाम श्रीचन्द्र रखा गया। उसे भी विद्याध्ययन कराया गया। नई रानी कमला के हृदय में द्वेष-भाव पनपा। वह सोचा करती कि यदि हंसराज मर जाये तो मेरे पुत्र के रास्ते का काँटा हट जायेगा।

        एक दिन राजा दिग्विजय को निकले। हंसराज को कमला रानी के भरोसे छोड़ गये। रानी कमला को अपने मन की मुराद पूरी करने का अवसर मिल गया। उसने भोजन में विष मिलाकर हंसराज को खिला दिया, जिससे थोड़े ही समय में हंसराज का शरीर पीला पड़ गया। वह नितान्त अशक्त हो गया। वात, कफ, खाँसी से पीडि़त रहने लगे। हंसराज अपनी विमाता की यह करतूत समझ गये पर उससे वे कह भी क्या सकते थे और उसे लाभ भी क्या था ? राजमहल छोड़ देना ही हंसराज को उचित लगा। वे निकल पड़े और मानगिरि जा पहुँचे ?

        मनगिरि के राजा की कलावती नाम की सुशिक्षिता और रूप वती कन्या थी। एक दिन राजान ने अपनी कन्या से पूछा-‘‘बेटी! तुम हमारे घर में सुख चैन से रहती हो। यह हमारे प्रसाद से है या तुम्हारे भाग्य से।‘‘

        बुद्धिमती कलावती ने उत्तर दिया-‘‘पिताजी! यह मेरे कर्मों का प्रसाद है।‘‘

        कलावती के इस उत्तर से राजा कुपित हुए। उसने मंत्री के द्वारा रोगी हंसराज को बुलाकर उसके साथ विवाह करा दिया। इतना ही नहीं उन्हें महल से निकाल दिया।

        हंसराज और कलावती दोनों वन में विचरण करने लगे। वहाँ उन्हें एक जैन मुनि मिले। उनसे रोगमुक्त होने का उपाय पूछा। कृपालु मुनि ने भक्तामर का पैंतालीसवाँ काव्य उसे सिखा दिया। हंसराज ने सात दिन तक योगासन में बैठकर मंत्र की आराधना की जिसके प्रसाद से वे बिल्कुल नीरोग और कामदेव सदृश रूपवान हो गये। दिग्विजय करके जब राजा नृपशेखर उज्जैन वापस आये तो कमला रानी से पूछा कि ‘‘प्रिय हंसराज कहाँ है ?‘‘ कमला ने उत्तर दिया कि ‘‘आपने उसका विवाह नहीं किया था तो किसी कुलटा को लेकर कहीं चला गया है।‘‘

        राजा नृपशेखर ने जहाँ-तहाँ हंसराज की खोज की। आखिर उन्हें समाचार मिला कि हंसराज मानगिरि के वन विहार में हैं। साथ में कोई सुन्दर-सी स्त्री भी है। नृपशेखर के हर्ष का ठिकाना न राह। कमलारानी की करतूत से उन्हें वैराग्य हो गया। मानगिरि के राजा को भी अपनी गलती का अहसास हुआ।

(३७)
सब बंधन खुल गये

श्लोक ४६

        अजमेर के राजा कुँवरपाल बड़े न्यायशील और धर्मात्मा थे। पुण्योदय से उन्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई। नाम पुण्यपाल रखा गया। राजा ने पुण्यपाल की शिक्षा का अच्छा ध्यान रखा था। पुण्यपाल ने राजगुरु से लौकिक ज्ञान के अतिरिक्त भक्तामर के मंत्र और यंत्र का खूब अध्ययन किया था। एक दिन जोगिनपुर के बादशाह सुलतान ने अजमेर पर हमला बोल दिया। राजा कुँवलपाल ने ऐलान किया कि ‘‘ऐसा कौन शूरवीर है जो सुलतान को जीवित पकड़ लायेगा। मेरे राज्य में ऐसा कोई है तो सामने आये।‘‘

        यह सुनकर पुण्यपाल की भुजा फड़क उठी। वह राजा से आज्ञा पाकर सुलतान को पकड़ने चल दिया। दोनों तरफ की सेना में घोर संग्राम हुआ। अंत में सुलतान की विजय हुई। सुलतान ने पुण्यपाल को कैद कर लिया। भोजन-पानी बंद करके खूब तकलीफ दी।

        ‘इस प्रकार कष्ट भोगते-भोगते दो दिन-दो रातें बीत गईं। तब तीसरे दिन पुण्यपाल ने भक्तामर के छियालीसवें काव्य का स्मरण किया। तत्काल ही शासनदेवी प्रकट हुई और उनके बंधन खुल गये। फिर क्या था सवेरा होते ही कुमार पुण्यपाल दरबार में जा पहुँचे। सुलतान सकते में आ गया। उसने जेलर को तलब किया-‘‘इसे किसने छोड़ दिया और किसके हुक्म से छोड़ा है ?‘‘

        जेलर विस्मय में था। उसने कहा-‘‘जहाँपनाह! यह तो कोई चमत्कारी लगता है; नही तो किसकी ताकत है जो हुजूर की परवानगी के बाहर कदम रख सके ?‘‘ तब सुलतान ने स्वयं अपने हाथ से पुण्यपाल को खूब कसकर बाँधा और जेलखाने में सख्ती से बन्द कर दिया। जब रात्रि के बारह बजे का घण्टा बजा, पुण्यपाल ने पुनः मंत्र का स्मरण किया जिससे सब बन्धन खुल गये। वे एक पलँग पर लेट गये और दो देवियाँ उनकी सेवा करने लगी। यह सब जेलर ने सुलतान को एक झरोखे मंे से साफ दिखा दिया। सुलतान तो बहुत घबराया। उसने पुण्यपाल को ससम्मान अजमेर विदा किया।

        लोग श्रद्धा के महŸव को समझने लगे।

स्वर अक्षरों की अद्भुत शक्ति

व्यंजन और स्वरों से मिलकर, मंत्र बीज बनते हैं।
बीज-शक्ति के ही प्रभाव से, मंत्र-भाव छनते हैं।।

पृथ्वी-पावक-पवन-पयः नभ, प्रणव बीज की माया।
सारस्वत-भुवनेश्वरी के, बीजों को समझाया।।

अ अव्यय सूचक, शक्ति प्रदायक, प्रणव बीज का कर्ता।
शुद्ध बुद्ध सद्ज्ञान रूप, एकत्व आत्म में भर्ता।।

आ सारस्वत का जनक यही है, शक्ति बुद्धि परिचायक।
माया बीज सहित होता है, यह धन-कीर्ति प्रदायक।।

इ गति का सूचक, अग्नि-बीज का, जनक लक्ष्मी का साधक।
कोमल कार्य सिद्ध करता है, कठिन कार्य में बाधक।।

ई अमृत-बीज यह स्तम्भक है, कार्य साधने वाला।
सम्मोहक, जृम्भण करता, ‘‘ई‘‘ ज्ञान बढ़ाने वाला।।

उ उच्चाटन का मंत्र-बीज यह, बहुत शक्तिशाली है।
उच्चाटन का श्वास नली से, शक्ति मारने वाली है।।

ऊ उच्चारण के सम्मोहन के, बीजों का यह मूल मंत्र है।
बहुत शक्ति को देने वाला, यह विघ्वंसक कार्य तंत्र है।

ऋ ऋद्धि-सिद्धि को देने वाला, शुभ कार्यों में उपयोगी।
बीजभूत इस अक्षर द्वारा, कार्य सिद्धि निश्चित होगी।।

लृ वाणी का संहारक है यह, किन्तु सत्य का संचारक।
आत्म-सिद्धि में कारण बनता, लक्ष्मी बीज यही कारक।।

ए पूर्ण अटलता लाने वाला, पोषन संवर्द्धन करता।
‘ए‘ बीजाक्षर शक्ति युक्त हो, सभी अरिष्ट हरण करता।।

ऐ वशीकरण का जनक बीज यह, ऋण विद्युत् का उत्पादक।
वारि बीज को पैदा करता, यह उदाŸा सुख सम्पादक।
इसके द्वारा ही होता है, शासन देवों का आह्वाहन।
कितना ही हो कठिन काम पर, इससे हो जाता आसान।।

ओ लक्ष्मी पोषक, माया बीजक, सुष्ठु वस्तुएँ करे प्रदान।
अनु-स्वरान्त का सहयोगी है, कर्म-निर्जरा-हेतु प्रधान।।

औ मारण में या उच्चाटन में, कई बीजों का मूल प्रधान।
निरपेक्षी है स्वयं बीज यह, कई बीजों का मूल प्रधान।।

अं ‘‘अं‘‘ अभाव का सूचक है, शून्याकाश बीज परतंत्र।
मृदुल शक्तियों का उद्घाटक, कर्माभावी है यह मंत्र।।

अः शान्ति-बीज में प्रमुख बीज यह, रहता नहीं स्वयं निरपेक्ष।
सहयोगी के साथ साधता, कार्य हमारे सभी यथेच्छ।।

व्यंजन अक्षरों की अद्भुत शक्ति
क् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘क‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
भोग और उपभोग जुटावै, साधै यही काम-पुरुषार्थ।
यही प्रभावक शक्ति बीज है, संततिदायक वर्ण यथार्थ।।

ख् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘ख‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
उच्चाटन बीजों का दाता, यह आकाश-बीज है एक।
किन्तु अभाव कार्यों के हित, कल्पवृक्ष सम है यह नेक।।

ग् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘ग‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
पृथक्-पृथक् यदि करना चाहो, तो इसका उपयोग करो।
प्रणव और माया बीजों का, पर इससे संयोग करो।।

घ् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘घ‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
यह स्तम्भक बीज विघ्न का, मारण करने वाला है।
सम्मोहक बीजों का दाता, रोग मिटाने वाला है।।

ड.् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘ड.‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
स्वर से मिलकर फल देता है, करता है रिपुओं का नाश।।
यह विध्वंसक बीज जनक है, सभी मातृकाओं में खास।।

च् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘च‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
उच्चाटन बीजों का दाता, खंड शक्ति बतलाता है।
अंगहीन है स्वयं स्वरों पर, अपना फल् दिखलाता है।।

छ् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘छ‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
छाया सूचक बंधन-कारक, माया का सहयोगी है।
जल बीजों का जनक यही है, मृदुल कार्य फल भोगी है।।

ज् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘ज‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
आधि-व्याधि का उपशम करके, साधै सारे कार्य नवीन।
यह आकर्षक बीज जनक है, शक्ति बढ़ाने में तल्लीन।।

झ् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘झ‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
इस पर रेफ लगा दोगे तो, आधि-व्याधि हो जाय समाप्त।
श्री बीजों का जनक यही है, शक्ति इसी से होती प्राप्त।।

´् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘´‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
यही जनक है मोह बीज का, स्तम्भन का माया का।
यही साधना का अवरोधक, बीजभूत है काया का।

ट् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘ट‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
अग्नि-बीज है अतः अग्नि से, सम्बन्धित हैं जितने कार्य।
इसके उच्चारण से पावक, जल्दी बुझती है अनिवार्य।।

ठ् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘ठ‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
अशुभ कार्य का सूचक है यह, मंजुल कार्य न सफलीभूत।
शान्ति भंग कर रुदन मचाता, कठिन कार्य को करै प्रसूत।।

ड् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘ड‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
शासनदेवी को शक्ति को, यही फोड़ने वाला है।
निम्न कोटि की कार्यसिद्धि को, यही जोड़ने वाला है।।
जड़ की क्रिया साधना है यह, हों खोटे आचार-विचार।
पंच-तŸव के भौतिक संयोगांे को करता है विस्तार।।

ढ् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘ढ‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
यह निश्चित है माया बीजक, एवं मारण बीज प्रधान।
शान्ति विरोधी मूल मंत्र है, शक्ति बढ़ाने में बलवान।।

ण् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘ण‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
नभ बीजों में यही मुख्य है, शक्ति प्रदायक स्वयं प्रशांत।
ध्वसंक बीजों का उत्पादक, महाशून्य एवं एकांत।।

त् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘त‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
आकर्षक करवाने वाला, साहित्यिक कार्यों में सिद्ध।
आविष्कारक यही शक्ति का, सरस्वती का रूप-प्रसिद्ध।।

थ् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘थ‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
मंगलकारक लक्ष्मी बीजों, का बन जाता सहयोगी।
अगर स्वरों से मिल जाये तो, मोहकता जाग्रत होगी।।

द् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘द‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
आत्मशक्ति को देने वाला, वशीकरण यह बीज प्रधान।
कर्म-नाश में उपयोगी है, करै धर्म आदान-प्रदान।।

ध् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘ध‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
धर्म साधने से अचूक हैं, श्री क्लीं करता धारण।
मित्र समान सहायक है यह, माया बीजांे का कारण।।

न् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘न‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
आत्म-सिद्धि का सूचक है यह, वारि तत्व रचने वाला।
आत्म-नियन्ता वृष्टि सृष्टि मंे, एक मात्र नचने वाला।।

प् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘प‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
परमातम को दिखलाता है, विद्यमान इसमंे जल-तŸव।
सभी कार्यों में रहता है, इसका अपना अलग महŸव।।

फ् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘फ‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
वायु और जल तŸव युक्त है, बड़े कार्य कर देता सिद्ध।
स्वर को जोड़ो रेफ लगा दो, हो प्रध्वंसक यही प्रसिद्ध।।
इसके साथ अगर फट् बोलो, तो उच्चाटन हो जाएगा।
कठिन कार्य भी सफल करेगा, विघ्न शमन हो जाएगा।।
ब् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘ब‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
अनुस्वार इसके मस्तक पर, आकर विघ्न विनाश करै।
स्वयं सफलता का सूचक बन, सबको अपना दास करै।।

भ् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘भ‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
मरक एवं उच्चाटक है, सात्मिक कार्य निरोधक है।
कल्याणों से दूर साधना, लक्ष्मी बीज निरोधक है।।

म् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘म‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
लौकिक एवं पारलौकिकी, सफलताएँ इससे मिलती।
यह बीजाक्षर सिद्धि प्रदाता, संतति की कलियाँ खिलती।।

य् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘य‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
मित्र मिलन मंे, इष्ट प्राप्ति में, यह बीजाक्षर उपयोगी।
ध्यान-साधना में सहकारी, सात्विकात इससे होगी।।

र् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘र‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
अग्नि-बीज यह कार्य-प्रसाधक, शक्ति सदा देनो वाला।
जितने भी हैं प्रमुख बीज यह, उन सबको जनने वाला।।

ल् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘ल‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
लक्ष्मी लावे, मंगल गावे, श्री बीज का सहकारी।
लाभ करावे, सुख पहुँचावे, परम सगोत्री उपकारी।।

व् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘व‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
भूत पिशाचिन शाकिन डाकिन, सबको दूर भगाता है।
ह् र् एवं अनुस्वार से मिल, जादू-सा दिखलाता है।।
लौकिक इच्छा पूरी करता, सब विपŸिायाँ देता रोक।
मंगल-साधक सारस्वत है, आकर्षित होता सब लोक।।

श् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘श‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
शांति मिला करती है इससे, किंतु निरर्थक है यह बीज।
स्वयं उपेक्षा धर्मयुक्त है अति साधारण यह नाचीज।।

ष् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘ष‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
आह्वाहन बीजों का दाता, है जल-पावक स्तम्भक।
आत्मोन्नति से शून्य भयंकर, रुद्र-बीज का उत्पादक।।
रौद्र और वीभत्स रसों में, भी प्रयुक्त यह होता है।।
ध्वनि सापेक्ष ग्रहण करता है, संयोगी सुख बोता है।।

स् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘स‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
सर्व समीहित साधक है यह, सब बीजों में अति उपयुक्त।
शांति प्रदाता कामोत्पादक, पौष्टिक कार्यों हेतु प्रयुक्त।।
ज्ञानावरणी और दर्शनावरणी कर्म हटाता है।
क्लीं बीज का सहयोगी यह, आत्मा प्रकट दिखाता है।।

ह् (व्यंजन) $ अ (स्वर) = ‘‘ह‘‘ बीजाक्षर (मंत्र बीज)
मंगल कार्योंं का उत्पादक, पौष्टिक सुख संतान करे।
है स्वतंत्र पर सहयोगार्थी, लक्ष्मी प्रचुर प्रदान करे।।
अनुस्वार यदि इस पर होवे, तो फिर इसी बीज का जाप।
नव तŸवों से मिलकर धोता, पाप और कर्मों के शाप।।

(पं श्री कमलकुमार जैन शास्त्री भक्तामर-रहस्य से साभार उद्धृत