|| श्लोक-काव्य : 13-24 ||
उज्ज्वल-निरुपम-निष्कलंक
वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि,
निःशेषनिर्जित-जगत्त्रितयोपमानम्।
बिम्बं कलंकमलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम्।।१३।।

पदच्छेद - वक्त्रं क्व ते सुर-नरः - उरग-नेत्रहारि, निःशेष-निर्जित-जगत्-त्रितय-उपमानम् बिम्बम् कलंक-मलिनम् क्व निशाकरस्य, यत् वासरे भवति पाण्डु पलाशकल्पम्।

शब्दार्थ - वक्त्रं = मुख, क्व = कहाँ, ते = आपका, सुरनरः = देव और मनुष्य, उरग = नाग, धरणेन्द्र, नेत्रहारि = नेत्रों को हरण करनेवाले। निःशेष = सम्पूर्ण रूप से, निर्जित = जीत लिये गये, जगत्त्रितय = तीनों जगत की, उपमानम् = उपमाओं को। बिम्बं = छाया का, मण्डल को, कलंकमलिनं = कलंकित, क्व = कहाँ, निशाकरस्य = चन्द्रमा का। यत् = जो, वासरे = दिन में, सूर्य के प्रकाश में, भवति = हो जाता है, पाण्डु = फीका, पलाशकल्पम् = ढाक के पत्ते की तरह।।१३।।

अन्वय - सुरनरोरगनेत्रहारि निः शेषनिर्जितजगत्त्रितयोपमानम् ते वक्त्रं क्व निशाकरस्य कलंकमलिनं बिम्बं क्व यत् वासरे पाण्डुपलाशकल्पम् भवति।

श्लोकार्थ- हे जिनेन्द्र! तीनों जगत् के सुर (देवता) - नर-धरणेन्द्र आदि के नेत्रों को मोहनेवाले आपके सुन्दर, अनुपम, निष्कलंक कान्तिवान मुख की तुलना चन्द्रमा से करना उपयुक्त नहीं है। अर्थात् आपके मुख को चन्द्रमा की उपमा नहीं दी जा सकती क्योंकि चन्द्रमा मंे कलंक है; वह केवल रात मंे ही शोभायमान होता है, दिन में ढाक के जीर्ण पत्ते की भाँति निस्तेज, पीला और फीका पड़ जाता है। जबकि आपका मुख सदा अर्थात् दिन और रात दोनों में एक समान समुज्ज्वल रहता है। उसकी कांति कभी म्लान नहीं होती।

कहँ सुर-उरग-नर-नयन आनँद-करन तुव मुखचंद है।
तिहुँ लोक उपमावृन्द जिहिं के, होत सम्मुख मंद है।
अरु कहाँ शशि को मलिन बिम्ब, कलंकवारौ दास सौ।
जो होय दिन के होत ही, छविहीन श्वेत पलास सों।।१३।।

O Ye Lord! thy splendid face which has focused the eyes of gods, men and serpents, surpasses all the objects of comparision in this three fold world. How can it be compared to the disc of the moon which is stained by dark spots and turns pale in the day like leaves of Buteafrondosa (Palash).

निर्बाधगति-प्रदाता
सम्पूर्णमण्डल-शशांक-कलाकलाप,
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति।
ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वर-नाथमेकं,
कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम्।।१४।।

पदच्छेद - सम्पूर्ण मंडल शशांक कला-कलाप, शुभ्रा गुणाः त्रिभुवनम् तव लंघयन्ति, ये संश्रिताः त्रि-जगदीश्वर नाथम् एकम्, कः तान् निवारयति संचरतः यथा इष्टम्।

शब्दार्थ - सम्पूर्ण = पूर्ण, मण्डलशशांक = चन्द्र-बिम्ब, कलाकलाप = कला समूह के। शुभ्रा = स्वच्छ, उज्जवल, गुणाः = गुण-समूह, त्रिभुवनम् = तीन लोक को, तव = आपके, लंघयन्ति = लाँघ रहे हैं। ये = जो, संश्रिताः = आश्रित हैं, त्रिजगदीश्वर = तीन जगत के स्वामी, तीन लोक के नाथ, नाथम् = स्वामी को, एकम् = एक, मुख्य। कः = कौन, तान् = उन्हें, निवारयति = रोकता है, संचरतः = चलते हुए, घूमते हुए, यथा = अपनी, इष्टम् = इच्छानुसार।।१४।।

अन्वय - त्रिजगदीश्वर तव सम्पूर्ण मण्डल शशांक-कला-कलाप शुभ्रा गुणाः त्रिभुवनं लंघयति ये एक नाथम् संश्रिताः तान् यथेष्टम् संचरतः कः निवारयति।

श्लोकार्थ- तीनों लोक के स्वामी! जैसे पूर्णिमा के चन्द्रमा की कलाएँ (ज्योत्स्ना) सर्वत्र व्याप्त हो जाती हैं उसी प्रकार आपके ज्ञान-दर्शन आदि अनंत गुण तीनों लोकों में व्याप्त हा रहे हैं। स्पष्ट है कि उन गुणों ने तीनों लोकों के नाथ आपका सहारा ले लिया तब उन्हें सर्वत्र स्वेच्छापूर्वक विचरण करने से भला कौन रोक सकता है ? वे आपके अनंत गुण तीनों लोकों मंे व्याप्त होकर आपकी ही प्रभावना कर रहे हैं।

हे त्रिजगपति, पूरन कलाधर की कला ज्यों ऊजरे।
गुन-गुन तिहारे विमल अतिशय, भुवन तीनहु में भरे।
जे परम प्रभु के आसरे में रहें, नित सेवा करें।
तिनकौ निवारन को करै, चाहे जहाँ विचरें फिरे।।१४।।

O Lord! Your illuminating virtues as bright as the silvery moon outstep the three worlds. How can those who have been patronized by the singular and matchless Almighty of the three Worlds be impeded by any body in their free movement.

निर्विकार-निष्कंप प्रभो
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि-
र्नोतं मनागपि मनो न विकारमार्गम्।
कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन,
किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित्।।१५।।

पदच्छेद - चित्रम् किम् अत्र यदि ते त्रि दशांगनाभिः, नीतं मनाक् अपि मनः न विकारमार्गम्, कल्पान्त-काल मरुता चलिता-अचलेन, किम् मन्दर-आद्रि शिखरम् चलितम् कदाचित्।

शब्दार्थ - चित्रम् = आश्चर्य, किम् = क्या है, अत्र = इसमें, यदि = यदि, ते = आपका, त्रिदशांगनाभिः= देवांगनाओं द्वारा। नीतं = प्राप्त कराया गया, मनाक् = थोडा, अपि = भी, मनः = मन, न = नहीं, विकारमार्गम् = विकार भाव को, बुरी भावनाओं को। कल्पान्तकाल = प्रलयकाल, मरुता = वायुवेग से, चलिता-अचलेन = अचल पहाड़ों को हिला देनेवाली। किम् = क्या, मन्दराद्रि = मेरु पर्वत, शिखरम् = शिखर, चलितम् = हिलाया गया, कदाचित् = कभी।।१५।।

अन्वय - यदि त्रिदशांगनाभिः ते मनः मनाक् अपि विकारमार्गम् न नीतं अत्र किम् चित्रं चलिताचलेन कल्पान्तकालमरुता किम् मन्दराद्रिशिखरं कदाचित् चलितं।

श्लोकार्थ- प्रलयकाल की तेज आँधी छोटे-मोटे पर्वतों को भले कम्पायमान कर दे किन्तु सुमेरु पर्वत जैसे पर्वत को चलायमान करने की शक्ति उसमें नहीं है उसी प्रकार स्वर्ग की अनुपम अप्सराएँ अपने सौन्दर्य से अन्य देवों का चिŸा चलायमान कर सकती हैं किन्तु आपके चित्त को किंचित् भी चलायमान या विकारग्रस्त करने में समर्थ न हो सकती। अर्थात् आपका चिŸा सुमेरु की भाँति अडिग है, दृढ़ है।

अचरज कहो इसमें कहा, यदि अप्सराएँ स्वर्ग की।
तुव अचल दृढ़ मन को न तनिक हु, सुपथ सों च्युत कर सकीं।
जिहि ने चलाये अचल ऐसो, प्रलय को मारुत महा।
गिरिराज मंदर के शिखर कहं, सो चलाय सकैै कहा।।१५।।

It is not wonder if the celestial goddesses could not deflect your mind even a bit towards carnal inclinations. Can the gales of the Doom’s Day (world’s final Annihilation) shaking all the mountains, ever shake the peak of Mount Sumeru?

अक्षय-अकंप-दीपक
निर्धूम-वर्तिपवर्जित-तैलपूरः,
कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि।
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां,
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाशः।।१६।।

पदच्छेद - निर्धूम वर्तिः अपवर्जित तैलपूरः, कृत्स्नम् जगत् त्रयम् इदम् प्रकटीकरोषि, गम्यः न जातु मरुताम् चलित-अचलानाम्, दीपः अपरः त्वम् असि नाथ जगत् प्रकाशः।

शब्दार्थ - धुआँरहित, वर्तिः = बत्ती, द्वीप, अपवर्जित = शून्य, रहित, तैलपूरः = तैल की पूर्णता से। कृत्स्नम् = समस्त, जगत्त्रयम् = तीन जगत को, इदम् = यह, इस, प्रकटीकरोषि = प्रकाशित करते हो। गम्यः = जाने योग्य, जाने में समर्थ, न = नहीं, जातु = कभी, मरुताम् = वायु को, चलित-अचलानाम् = पहाड़ों को हिलानेवाली, दीपः = दीपक, अपरः = अनन्य, अपूर्व, त्वम् = तुम, असि = हो, नाथ = स्वामी, जगत्प्रकाशः = जगत में उजाला करनेवाले।।१६।।

अन्वय - नाथ त्वं निर्धूमवर्तिः अपवर्जिततैलपूरः चलिताचलानां मरुता जातु न गम्यः इदं कृत्स्नं जगत्त्रयम् प्रकटी करोषि जगत्प्रकाशः अपरः दीपः असि।

श्लोकार्थ- संसार में जो दीपक (प्रकाशक) दिखाई देते हैं उनमें बत्ती होती है, धुआँ (कालिमा) होती है परंतु (जगत को प्रकाशित करनेवाले) आपमें न कामनारूपी बत्ती है न द्वेषरूपी धुआँ है। दीपक में स्नेह (तेल) होता है परंतु आपमें स्नेह (राग) नहीं है। दीपक हवा के जरा से झौंके से बुझ जाता है परंतु आप प्रलयकाल की हवा से भी चलित नहीं होते। दीपक एक घर को ही प्रकाशित करता है जबकि आप तीन जगत के सम्पूर्ण पदार्थों को प्रकाशित करते हैं अर्थात् आप जगत को प्रकाशित करनेवाले अपूर्व दीपक है।

नहिं मेल बाती तेल को, नहिं नेकु जामें धूम हू।
अरु करत है परगट निरंतर, जो जगत ये तीन हू।
जापै पवन-बल चलत नहिं, चल करत अचलन को अहो।
हे नाथ! तुम ऐसे अपूरब, जग-प्रकाशक दीप हो।।१६।।

O Lord! You are the super-natural lamp of rare splendor illuminating the entire Universe (diffusing right knowledge) with no smoke (hatred), no wick (sensual desires), no oil (attachment) and unaffected by the storms (heretical one sided dogmatisms).

असीम-अबाध उजास

नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः,
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति।
नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महाप्रभावः,
सूर्यातिशायि महिमाऽसि मुनीन्द्र लोके।।१७।।

पदच्छेद - नास्तम् (न अस्तम्) कदाचित् उपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपत् जगन्ति, न अम्भेधर उदर निरुद्ध महाप्रभावः, सूर्यं अतिशायि महिमा असि मुनीन्द्र लोके।

शब्दार्थ - न = नहीं, अस्तम् = अस्त दशा को, कदाचित् = कभी, उपयासि = प्राप्त होते हो, न = नहीं, राहुगम्यः = राहु के द्वारा ग्रस्त होने योग्य। स्पष्टीकरोषि = प्रकाशित करते हो, सहसा = शीघ्र ही, युगपत् = एकसाथ, जगन्ति = तीनलोक को। न = नहीं, अम्भोधर = जलधर, मेघ, उदर = गर्भ, निरुद्ध = छिपा हुआ, महाप्रभावः = महान् तेजशाली। सूर्य = सूरज, अतिशायि = अतिक्रम करनेवाली, महिमा = प्रभाव, असि = हो, मुनीन्द्र = मुनिराज, लोके = जगत में।।१७।।

अन्वय - मुनीन्द्र लोके सूर्यातिशायिमहिमा असि न कदाचित् अस्तं उपयासि न राहुगम्यः न अम्भोधर-उदरनिरुद्ध-महाप्रभावः सहसा जगन्ति युगपत्।

श्लोकार्थ- हे देव! आपके सूर्य की उपमा भी नहीं दी जा सकती, क्योंकि सूर्य सन्ध्या को अस्त हो जाता है, आप सदाकाल प्रकाशित रहते हैं। सूर्य एक जम्बूद्वीप को ही प्रकाशित करता है, आप तीन जगत के सम्पूर्ण पदार्थों को प्रकाशित करते हैं। सूर्य राहु के द्वारा ग्रस लिया जाता है, उसका प्रताप मेघ द्वारा ढक लिया जाता है, उसका प्रकाश कंदरा-गुफाओं को प्रकाशित नहीं कर पाता परंतु आपको न कोई राहु ग्रस्त कर पाता, न कोई आपके ज्ञानगुण को ढक सकता-इस प्रकार आपकी महिमा सूर्य से भी अधिक अतिशयवाली है।

क्षिति तैं छुपत नहिं छिनहु, छाया राहु की नहिं परत है।
तिहुँ जगत को जुगपत सहज ही, जो प्रकाशित करत है।
धारा धरन के उदर में परि, जिहि प्रभाव न घटत है।
यों मुनिष, तव महिमा जगत में, भानुहू तैं महत है।।१७।।

As You never set, you are neither affected by the Rahu (eclipse), nor your supernatural grandeur ever overshadowed by the cumulous of the clouds and as you simultaneously enlighten the entire universe, you, therefore, O Supreme Sage! excel the grandeur of the Sun.

प्रशांत प्रकाशक
नित्योदयं दलित-मोह-महान्धकारं,
गम्यं न राहुवदनस्य न-वारिदानाम्।
विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति,
विद्योतयज्जगदपूर्व- शशांक-बिम्बम्।।१८।।

पदच्छेद - नित्य उदयम् दलित मोह-महा-अन्धकारम्, गम्यम् न राहु-वदनस्य न वारिदानाम्, विभ्राजते तव मुख-आब्जम् अनल्प-कान्ति, विद्योतयत् जगत् अपूर्व शशांक-बिम्बम्।

शब्दार्थ - नित्य = सतत्, चिरकाल तक, उदयम् = उदित रहने वाला, दलित = नष्ट, मोह-महान्धकारम् = मोहरूपी गहन अन्धकार को। गम्यम् = ग्रसने के योग्य, न = नहीं, राहुवदनस्य = राहु के मुख के, न = नहीं, वारिदानाम् = मेघों के द्वारा। विभ्राजते = शोभित होता है, तव = आपका, मुखाब्जम् = मुख-कमल-रूपी, अनल्पकान्ति = अधिक सुन्दरतावाला, विद्योतयत् = प्रकाशित करनेवाला, जगत = संसार को, अपूर्व = जैसा पूर्व मंे कहीं नहीं हुआ, शशांकबिम्बम् = चनद्रमण्डल को।।१८।।

अन्वय - तव मुखाब्जम् नित्योदयं दलितमोहं महान्धकारं अनल्पकांति न राहुवदनस्य गम्यं न वारिदानां, जगत विद्योतयत् अपूर्वशंशाक बिम्बं विभ्राजते।

श्लोकार्थ- हे जिनेन्द्र! आपका मुख चन्द्रमा से भी अधिक विलक्षण है। चन्द्रमा तो केवल रात्रि में ही उदित होता है परंतु आपका मुख सदा ही उदयरूप होता है। चन्द्रमा साधारण अंधकार का नाश करता है परंतु आपका मुख मोहरूपी अज्ञान के अंधकार का नाश करता है। चन्द्रमा को राहु ग्रस लेता है, बादल अपनी ओट में छिपा लेता है परंतु आपको ग्रसनेवाला-ढकनेवाला कोई भी नहीं है। चन्द्रमा पृथ्वी के एक भाग को ही प्रकाशित करता है पर आपका मुख तीन जगत को प्रकाशित करता है। चन्द्रमा की कान्ति कृष्णपक्ष में घट जाती है पर आपके मुख की कांति सदा समानरूपी से देदीप्यमान रहती है।

जो उदयरूप रहे सदा, पुनि मोह-तम को हनत है।
मुख राहु के न परै कबहुँ, वारिद न जिहि को ढकत है।
हे नाथ, सो मुख-कमल तुव, धारत प्रकाश अमंद है।
सोहत जगत-उद्योतकारी, अति अपूरब चंद है।।१८।।

O Lord! your splendent lotus-like face which always remain risen, has destroyed the darkness of delusion, can never be affected by the Rahu nor shadowed by the clouds, and which has always illuminated the Universe, shines like the disc of a singular and peerless Moon.

निष्प्रभ-निष्प्रयोज्य सूर्य-चन्द्र
किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा,
युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तमः सु नाथ।
निष्पन्न-शालि-वन-शालिनि जीवलोके,
कार्यं कियज्जलधरैर्जलभार-नम्रैः।।१९।।

पदच्छेद - किं शर्वरीषु शशिना-अह्नि विवस्वता-वा, युष्मन् मुखेन्दु दलितेषु, तमः सु नाथ, निष्पन्न शालिवन शालिनि जीवलोके, कार्यम् कियत् जलधरैः जलभार-नमै्रः।

शब्दार्थ - जिस प्रकार पके हुए धान्यवाले खेत में वर्षा की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, वहाँ बादलों का बरसना व्यर्थ व हानिप्रद होता है उसी प्रकार जहाँ आपके मुखरूपी चन्द्रमा से अज्ञानरूपी अंधकार का नाश हो चुका है वहाँ दिन में सूर्य की और रात में चन्द्रमा की क्या आवश्यकता रहती है!

हे नाथ, यदि तुव तमहरन वर, मुख मयंक अमंद है।
तो व्यर्थ ही सूरज दिवस में, और निशि में चंद है!
चहुँ ओर शोभित शालि के, बहु बनन सों जो हैव रहो।
तिहि देश में जलभरे मेघन सों, कहा कारज कहो।।१९।।

O Lord! when your moon-like face can destroy the darkness and illuminate the entire universe, there is no need of the Moon in the night and the Sun during the day, just as one wonders, of what use are the clouds heavy with the weight of water on the rice fields in the country after the Rice grains have ripened?

केवलज्ञान-ज्योतिधारी
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति-कृतावकाशं,
नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु।
तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्व,
नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि।।२॰।।

पदच्छेद - ज्ञानम् यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं (कृत-अवकाशं), नैवं (न-एवं) तथा हरि-हर आदिषु नायकेषु, तेजः स्फुरन् याति यथा महत्वम्, नैवं तु काच-शकले किरणाकुले अपि।

शब्दार्थ - ज्ञानम् = ज्ञान, यथा = जिस प्रकार, त्वयि = आपमें, विभाति = शोभायमान होता है, प्रकाशित होता है, कृत = प्राप्त, अवकाशम् = स्थान, अवसर को। न = नहीं, एवं तथा = उस प्रकार, हरिहरादिषु = विष्णु-शंकर आदि, नायकेषु = देवों में। तेजः = तेज, प्रकाश, स्फुरत् = चमकते हुए, मणिषु = मणियों में, याति = प्राप्त होता है, यथा = जैसे, महत्वम् = महत्व को। न = नहीं, एवं = वैसे, तु = निश्चय से, काचशकले = काँच के टुकड़े में, किरणाकुले = किरणों से व्याप्त, अपि = भी।।२॰।।

अन्वय - कृतावकाशं ज्ञानं यथा त्वयि विभाति तथा हरिहरादिषु नायकेषु नैव स्फुरन्मणिषु तेजः यथा महत्व याति किरणाकुले अपि काचशकले तु न एवम्।

श्लोकार्थ- जैसा तेज (प्रकाश) महारत्नों में प्रकाशित होता है वैसा तेज (प्रकाश) काँच के टुकड़ों में सूर्य-किरणों के समूह के होने पर भी नहीं होता इसी प्रकार हे भगवन्! अवसर (स्थान) पाकर ज्ञान जिस प्रकार आपमें शोभायमान है उस प्रकार अन्य देवों में नहीं है। अर्थात् जैसा स्व-पर-प्रकाशक ज्ञान आप में है वैसा स्व-पर प्रकाशक ज्ञान अन्य देवों में नहीं पाया जाता।

जो स्व-पर-भावप्रकाशकारी, ज्ञान तुममें लसत है।
सो हरिहरादिक नायकों में, नाहि किंचित दिसत है।
जैसो प्रकाश महान मणि में, महतता को लहत है।
तैसो न कबहुँ कांतिजुत हू, काच में लख परत है।।२॰।।

Just as the magnificence of the light of the glittering jewels cannot be procured by a piece of glass even abounding in the rays of the Sun, so also omniscience (that throws light on the various phenomena of any subject) having found accommodation in you, glows with such splendor that it is not perceptible in other gods like Hari, Har etc.

अद्भुत वीतरागता
मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति।
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः,
कश्चिन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि।।२१।।

पदच्छेद - मन्ये वरम् हरि-हरादयः एव दृष्टाः, दृष्टेषु येषु हृदयम् त्वयि तोषम् एति, किम् वीक्षितेन भवता भुवि येन न अन्यः, कश्चित् मनः हरति नाथ भवान्तरे अपि।

शब्दार्थ - मन्ये = मैं मानता हूँ, वरम् = श्रेष्ठ, हरिहरादय = विष्णु-महादेव आदि देव, एव = ही, दृष्टा = देखे गये। दृष्टेषु = देखे जाने पर, येषु = जिनके, हृदयम् = मन, चित्त, त्वयि = आपके सम्बंध में, तोषम् = संतोष को, एति = प्राप्त होता है। किम् = क्या प्रयोजन है, वीक्षितेन = देखने से, भवता = आपसे, भुवि = पृथ्वी पर, येन = जिससे, न = नहीं, अन्यः = दूसरा कोई। कश्चित् = कोई भी, मनः = चित्त को, हरति = हरण करता है, नाथ = स्वामी, भवान्तरे = दूसरे भव में, जन्म में, अपि = भी।।२१।।

अन्वय - नाथ! मन्ये हरिहरादयः दृष्टा एव वरं येषु दृष्टेषु हृदयं त्वयि तोषं एति भवता वीक्षितेन किं येन भुवि अन्यः कश्चित् भवान्तरे अपि मनः न हरति।

श्लोकार्थ- मैं इस बात को अच्छा मानता हूँ कि मैंने अन्य देवों को पहले देख लिया। उन्हें देखने के बाद आपके वीतराग रूप को देखा तो उससे चित्त को परम संतोष मिला। अब अन्य देवों को देखने का कोई प्रयोजन नहीं रहा। आपकी वीतरागता देखने के बाद अब तो अन्य जन्मों में भी मेरा मन अन्यत्र संतुष्ट नहीं हो सकता, वह केवल आपके (वीतराग के) दर्शन से ही संतुष्ट व तृप्त होगा।

हरिहर आदिक देवन को ही, अवलोकन मोहि भावै।
जिनहिं निरखकर जिनवर, तुममें, हृदय तोष अति पावै।
पै कहा तुम दरसनसों भगवन्, जो इस जग के माहीं।
परभव में हू अन्य देव मन हरिवे समरथ नाहीं।।२१।।

O Lord! I consider it better that I have seen Hari, Har and other gods first, because after seeing them my heart finds satisfaction in you. What good is to look at your first? After seeing you, there is no other god to captivate my heart on the Earth even in the future births.

अद्भुत माता-अनुपम पुत्र
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।
सर्वाः दिशो दधति भानि सहस्त्ररश्मिं,
प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालम्।।२२।।

पदच्छेद - स्त्रीणाम् शतानि शतशः जनयन्ति पुत्रान्, न अन्य सुतं त्वदुपम् (त्वत् उपम्) जननी प्रसूता, सर्वाः दिशः दधति भानी सहस्र-रश्मिम्, प्राचो एव दिक् जनयति स्फुरत् अंशुजालम्।

शब्दार्थ - स्त्रीणाम् = स्त्रियों के, शतानि = सैकड़ांे, शतशः = सैकड़ों, जनयन्ति = पैदा करती हैं, जन्म देती हैं, पुत्रान् = पुत्रों को। न = नहीं, अन्य = दूसरा, सुतम् = पुत्र को, त्वदुपम् = आप जैसा, जननी = माता, प्रसूता = जन्म देनेवाली। सर्वाः = सकल, सब, दिशः = दिशाएँ, दधति = धारण करती हैं, भानी = तारागणों को, सहस्त्ररश्मिम् = सूर्य को। प्राची = पूर्व दिशा, एव = ही, दिक् = दिशा, जनयति = प्रकट करती है, स्फुरत् = चमकता है, अंशुजालम् = किरणमाला।।२२।।

अन्वय - स्त्रीणां शतानि शतशः पुत्रान् जनयन्ति अन्या जननी त्वदुपमं सुतं न प्रसूता सर्वा दिशः भानि दधति प्राचीदिक् एव स्फुरत् अंशुजालं सहस्त्ररश्मिं जनयति।

श्लोकार्थ- इस जगतीतल में कोटि-कोटि माताएँ हुई हैं जिन्होंने समय-समय पर सैकड़ों पुत्रों को जन्म दिया है। किन्तु इस लोक में आप जैसे अद्वितीय पुत्र को जन्म देनेवाली अन्य माता आज तक दृष्टिगोचर ही नहीं हुई। सत्य है कि दीप्तिमान किरण समूहवाले सूर्य को जन्म देनेवाली तो केवल एक पूर्व दिशा ही है। शेष दिशाएँ तो टिमटिमाते नक्षत्रों को ही जन्म दिया करती हैं।

अहैं सैकड़ों सुभगा नारी, जो बहु सुत उपजावैं।
पै तुमसम सुपूत की जननी, यहाँ न और दिखावैं।
यद्यपि दिशि-विदिशाएँ सिगरी, धरैं नछत्र अनेका।
पै प्रतापि रवि को उपजावै, पूर्व दिशा ही एका।।२२।।

Hundreds of women give birth to sons hundreds of times, but no mother has given birth to a son like you. All the (eight) directions may hold the planets, but it is the East only which can produce the Sun with its cumulus of thousands of flashing rays.

मोक्षमार्ग-प्रणेता
त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस-
मादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात्।
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्युं,
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्रपन्थाः।।२३।।

पदच्छेद - त्वाम् आमनन्ति मुनयः परमम् पुमांसम्, आदित्य-वर्णम् अमलम् तमसः पुरस्तात्, त्वाम् एव सम्यक् उपलभ्य जयन्ति मृत्युम्, न अन्यः शिवः शिव-पदस्य मुनीन्द्र-पंथाः।

शब्दार्थ - त्वाम् = आपको, आमनन्ति = मानते हैं, मुनयः = मुनिजन, परमम् = श्रेष्ठ, पुमांसम् = पुरुष को। आदित्य = सूर्य, वर्णम् = तरह, अमलम् = मलरहित, निर्मल, तमसः = अंधकार से, पुरस्तात् = दूर रहनेवाले। त्वाम् = आपको, एव = ही, सम्यक् = विशेष रूप से, उपलभ्यः = प्राप्त कर, जयन्ति = जीत लेते हैं, मृत्युम् = मरण को। न = नहीं, अन्यः = दूसरा, शिव = अच्छा, शिवपदस्य = मोक्ष का, मुनीद्रं = मुनियों मंे श्रेष्ठ, पंथा = रास्ता।।२३।।

अन्वय - मुनीन्द्र मुनयः त्वाम् आदित्यवर्णम् अमलं तमसः पुरस्तात् परमं पुमांसं आमनन्ति त्वाम् एव सम्यक् उपलभ्य मृत्युं जयन्ति शिवपदस्य अन्यः शिवः पन्थाः न।

श्लोकार्थ- साधु-मुनियों के समूह आपको परमपुरुष मानते हैं। आप राग-द्वेषरूपी मल से रहित हैं इसलिए आपको निर्मल मानते हैं। आप मोह-अंधकार का नाश करनेवाले हैं, इस कारण सूर्य के समान मानते हैं। आपको पाकर मृत्यु पर (जन्म-मरण पर) विजय पा लेते हैं इसलिए मृत्युंजय मानते हैं। मोक्ष का आपके अतिरिक्त अन्य कोई कल्याणकारी-निरूपद्रव मार्ग नहीं है इस कारण वे आपको ही मोक्ष का मार्ग मानते हैं।

हे मुनीश, मुनिजन तुमकहँ नित, परम पुरुष परमानैं।
अंधकार नाशन के कारन, निर्मल दिनकर जानैं।
तुम पाये तैं भलीभाँतिसों, नीच-मीच जय होई।
यासों तुमहिं छाँडि शिवपद-पथ, विघनरहित नंहिं कोई।।२३।।

O the best amongst the sages! The saints consider you the supreme being, the sun in having overcome the darkenss of ignorance, also hold you pure purged of impurities. They overcome Death after having duly obtained you. There is no other beneficial way to Bliss, tranquisty and salvation except through you.

अनन्तगुणसागर
त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्यं,
ब्रह्याणमीश्वरमनन्तमनंगकेतुम्।
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं,
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः।।२४।।

पदच्छेद - त्वाम् अव्ययम् विभुम् अचिन्त्यम् असंख्यम्-आद्यम्, ब्रह्मााणम् ईश्वरम् अनन्तम् अनंग-केतुम्, योगीश्वरम् विंदितयोगम् अनेकम् एकम्, ज्ञान-स्वरूपम् अमलम् प्रवदन्ति सन्तः।

शब्दार्थ - त्वाम् = आपको, अव्ययम् = जिनका विनाश न हो, विभुम् = सर्वोपरि, समर्थ, अचिन्त्यम् = चिन्तन से परे, असंख्यम् = गणनारहित गुणवान्, आद्यम् = आदि। ब्रह्माणम् = शुद्धात्म, ईश्वरम् = आत्म ऐश्वर्य से पूर्ण, अनन्तम् = अनन्त गुणयुक्त, अनंगकेतुम् = काम को जीतनेवाला, कामजयी। योगीश्वरम् = योगियों में श्रेष्ठ, विदितयोगम् = योग के ज्ञाता, अनेकम् = बहु, एकम् = एक। ज्ञानस्वरूपम् = ज्ञानवान, ज्ञानमूर्ति, अमलं = निर्मल, प्रवदन्ति = कहते हैं, सन्तः = सज्जन पुरुष।।२४।।

अन्वय = सन्तः त्वाम् अव्ययं विभुं विभिन्न गुणों की अपेक्षा से अक्षय, अव्यय, सर्वोपरि, समर्थ, परम वैभव-सम्पन्न, वचन-अगोचर, गुणातीत, चतुर्विंशति तीर्थंकरों में आद्य स्मरणीय, ब्रह्मा, ईश्वर, अनन्त, अनंगकेतु, योगीश्वर, योगवेत्ता, अनेक, एक, ज्ञानस्वरूप, अमल आदि विविध सार्थक नामों से सम्बोधित करते हुए स्तुति करते हैं।