।। जैनदर्शन में आत्मवाद ।।

डॉ. श्री पन्नालाल साहित्याचार्य

आत्मा स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द से रहित होने के कारण इन्द्रियगम्य नहीं है अतः उसके अस्तित्व में न केवल चार्वाक दर्शन भ्रान्त हुआ है अपितु आज का वैज्ञानिक भी भ्रान्त हो रहा है । जितने परलोकवादी दर्शन हैं उन सभी में शरीर से पृथक आत्मा के अस्तित्व को स्वीकृत किया गया है, 'आत्मा वा रे श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो' आदि उपनिषद् वाक्यों ने आत्मा को ही सुनने मनन करने और चिन्तन करने की प्रेरणा दी है।

जैनाचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने प्रायः अपने सभी ग्रंथों में आत्मा का स्वरूप एक ही गाथा के द्वारा स्पष्ट किया है –

"अरसमरूबमगंधं अव्वत्तं चेदणा गुणमसदं ।
का जाण अलिंग्गहणं जीव मणिद्धिट्ठसंठाणं ।।" (स.सा.)

जो रस, रूप, गंध और शब्द से रहित हो, और स्पर्श से वर्जित हो, इन्द्रिय ग्राह्य नहीं हो, जिसका संस्थान-आकार अनिर्देश्य हो और चेतना गुण से सहित हो तो उसे जीव-आत्मा जानो । यहाँ स्वरूपोपादान की अपेक्षा जीव का 'चेतना गुण' ही लक्षण है क्योंकि अरस, अरूप आदि तो धर्म अधर्म आकाश और काल भी है।

कुन्दकुन्द ग्रंथों के प्रमुख टीकाकार अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा-

"अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विवर्जितः स्पर्शगंधरसवर्णैः ।
गुणपर्यायसमवेतः समाहितः समुदयब्वय ध्रौव्यैः ॥" (पु.सि.)

पुरुष-आत्मा चैतन्य स्वरूप है स्पर्शादि से रहित है ज्ञान दर्शनादि गुण और नरनारकादि पर्यायों से सहित है तथा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से समाहित है । पूज्यपादाचार्य ने लिखा है –

नाभावः सिद्धिरिष्टा न निजगुण स्तत्तपोभिर्न युक्तैः
अस्त्यात्मानादिबद्धः स्वकृतज फलभुक् तत्क्षयान्मोक्षगामी ।
ज्ञाता द्रष्टा स्वदेहप्रमितिरुपसमाहारविस्तारधर्मा
ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मा स्वगुणयुत इतोनान्यथा साध्य - सिद्धिः ॥

(सि.म.)

आत्मा है, अनादिकाल से कर्मबद्ध है, स्वकृत कर्मफल का । भोक्ता है, कर्मक्षय से मोक्ष को प्राप्त होता है, ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव वाला है, शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्त शरीर के प्रमाण रहता है संकोच विस्तार स्वभाव वाला है, उत्पाद, व्यय ध्रौव्य से युक्त है, स्वकीय गुणों से सहित है, मुक्तिदशा में बौद्धदर्शन की मान्यता के अनुसार उसका नाश नहीं होता और वैशेषिक दर्शन के अनुसार स्वकीय गुणों का नाश नहीं होता।

स्वकीय शरीर में आत्मा का अस्तित्व स्वसंवेदन से होता है और परकीय शरीर में अनुमान प्रमाण से होता है । स्पर्शनादि इन्द्रियां कारण हैं अतः आत्मा रूपकर्ता के बिना स्वयं क्रिया शील नहीं हो सकतीं । स्तनपान आदि का संस्कार इस जीव की भव शृंखला को सूचित करता है | जातिस्मरण आदि के अनेक प्रकरण सामने आते रहते हैं जो परीक्षण के बाद सत्य सिद्ध हुए हैं इन सबसे आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है । मृत्यु के बाद जीव का पार्थिव शरीर यहीं पड़ा रहता है संचालक-आत्मा के निकल जाने से वह निश्चेष्ट हो जाता है।

जैन दर्शन में आत्मा के भव्य और अभव्य के रूप से दो भेद माने हैं । अभव्य वह है जो कभी भी सम्यक्त्व आदि गुणों को प्राप्त न होने से मुक्त नहीं हो सकता और भव्य वह है जो सम्यक्त्व आदि गुणों को प्रकट कर मुक्त हो सकता है । भव्य जीवों के भीतर भी 'दुरानु दूर भव्य' नामक एक ऐसा भेद है जो कभी मुक्त नहीं हो सकता ।

संसार का जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चारों गतियों अथवा इन्हीं गतियों के विस्तृत भेद स्वरूप चौरासी-लाख योनियों में भटकता रहता है । संसारी अवस्था में इस जीव ने तेंतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु प्राप्त की है और श्वास के अठारहवें भाग प्रमाण सर्व जघन्य आयु भी प्राप्त की है | इस जीव ने एक मुहूर्त के भीतर छयासठ हजार तीनसौ छत्तीस बार जन्म मरण किया है।

जैनदर्शन में न केवल शरीर से पृथक् आत्मा का अस्तित्व स्वीकृत किया है अपितु उसके क्रमिक विकास का वर्णन करते हुए उसे मोक्ष तक पहुंचाया है । इस क्रमिक विकास को पूर्वाचार्यों ने मिथ्यादृष्टि आदि १४ गुण स्थानों में विभाजित किया है । मिथ्यादृष्टि, भूमि का स्वरूप प्रथम गुणस्थान है । यह भव्य और अभव्य दोनों को होता है पर सासादन आदि गुणस्थान भव्यजीव को ही प्राप्त होते हैं । इन गुणस्थानों के माध्यम से यह जीव श्रावक और मुनिपद को धारण कर क्रमशः कर्मक्षय करता हुआ अरिहन्त और सिद्ध पद को प्राप्त होता है । इन गुणस्थानों में रहने वाले जीवों को पूर्वाचार्यों ने बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा के भेद से तीन भेदों में विभक्त किया है।

बहिरात्मा उसे कहा है जो शरीर को ही सबकुछ समझ रहा है, शरीर से अतिरिक्त आत्मा के अस्तित्व को स्वीकृत नहीं करता । यह बहिरात्मा अवस्था प्रारंभ के तीन गुणस्थानों में रहती है । अन्तरात्मा वह है जो शरीर के अन्दर रहनेवाले आत्मा के अस्तित्व को स्वीकृत करता है । इसके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट की अपेक्षा तीन भेद हैं चतुर्थ गुणस्थान वाला जीव, जो आत्म तत्त्व की श्रद्धा तो रखता है परन्त व्रताचरण नहीं करता जघन्य अन्तरात्मा है । पंचम गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक के जीव मध्यम अन्तरात्मा हैं और बारहवें गुणस्थान वर्ती उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं। १. परमात्मा के दो भेद हैं -

(१) सकल परमात्मा (२) विकल परमात्मा ।

त्रयोदश एवं चतुर्दश गुणस्थान वती अरिहन्त परमेष्ठी, जिनके कि चार घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं - सकल परमात्मा हैं एवं जिनके ज्ञानावरणादि आठों द्रव्य कर्म, रागादिक भाव कर्म और शरीर रूप नौ कर्म नष्ट हो चुके हैं वे सिद्ध भगवान विकल परमात्मा हैं | चतुर्दश गुणस्थान तक की भूमिका संसारी जीव की है और उसके बाद मुक्त जीव - शुद्ध जीव की भूमिका है । जैन दर्शन के अनुसार मुक्त जीव लोकाग्र पर १५७५ धनुष प्रमाण तनुवातवलय के उपरितन ५२५ धनुष के क्षेत्र में रहते हैं और संसार में कभी वापस नहीं आते ।

जैन दर्शन के अनुसार मुक्ति प्राप्त करने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की युगपत् पूर्णता आवश्यक रहती है । यह पूर्णता चौदहवें गुण-स्थान में ही होती है अतः वहीं मुक्ति प्राप्त होती है | शरीर आदि से भिन्न ज्ञाता द्रष्टा स्वभाववाले आत्म तत्व का श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है उसी आत्मतत्व का समीचीन ज्ञान होना सम्यक्ज्ञान है और हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म तथा । परिग्रह से विरक्त हो आत्मस्वरूप में सुस्थिर होना सम्यक्चारित्र है।

ऊपर कहा जा चुका है कि परलोकवादी समस्त दर्शन आत्मा को मुक्त मानते हैं । यह बात भिन्न है कि उनमें मुक्ति के स्वरूप और मुक्ति के उपायों के विषय में विभिन्न मान्यताएँ है । उन मान्यताओं को गौणकर इतना माना जा सकता है कि आत्मा का पर से संबंध छूट जाना मुक्ति है । जैसे सांख्य दर्शन में प्रकृति से संबंध छूट जाना पुरुष का मोक्ष है, माया से ब्रह्म का संबंध छूट जाना वेदांत दर्शन का मोक्ष है और समस्त कर्म प्रकृतियों से आत्मा का छूट जाना जैन दर्शन का मोक्ष है।

चार्वाक दर्शन पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के संसर्ग से उत्पन्न हुई शक्ति विशेष को आत्मा मानता है, स्वतन्त्र आत्मा के - अस्तित्व को स्वीकृत नहीं करता इसलिए दृष्टि में परलोक - स्वर्ग, नरक मोक्ष आदि का भेद अस्तित्व नहीं है । पर अचेतन उपादान से चेतन की उत्पत्ति संभव नहीं है । आस्तिक दर्शनों में सभी ने इस मान्यता का खंडन किया है ।

कुन्दकुन्द स्वामी ने अपने समयसार, प्रवचनसार नियमसार, पंचास्तिकाय तथा अष्ट पाहुड आदि ग्रंथों में इस आत्म तत्त्व का मनोहारी वर्णन किया है । शरीर मेरा नहीं है, ज्ञानावरणादि कर्म मेरे नहीं है | रागादिक भाव कर्म मेरे नहीं है, ज्ञान में प्रतिफलित होनेवाला ज्ञेय का आकार मेरा नहीं है । गुणस्थान मार्गणा, जीव समास पर्याप्ति और प्राण भी मेरे नहीं है । मेरा तो एक ज्ञान दर्शन स्वभाव ही है । इस तरह पर से भिन्न और स्वकीय गुण पर्याय से भी भिन्न आत्मा का जिसे बोध हो जाता है, श्रद्धान हो जाता है और उसीमें जो अविचलित हो जाता है तभी वह प्रतिबुद्धज्ञानी कहलाता है और जबतक शरीरादि पर द्रव्यों में अहंबुद्धि रहती है तबतक अप्रतिबुद्ध-अज्ञानी रहता है । जीव की यह अज्ञान दशा ही चतुर्गति - परिभ्रमण का कारण है।

सब गतियों एवं योनियों में मनुष्यगति एवं मनुष्य योनि को ही यह योग्यता प्राप्त है कि वह पुरुषार्थ करे तो आत्मा के समस्त गुणों का पूर्ण विकास कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है । जैसे नदी नाले को पार करने के लिए तीर्थ-घाट की आवश्यकता होती है, उसके बिना उन्हें पार नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार संसार सागर को पार करने के लिए तीर्थ-घाट की आवश्यकता है और वह घाट कर्मभूमिज मनुष्य का औदारिक शरीर ही है । तात्पर्य यह है कि मनुष्य को रागपरिणति से मुड़कर स्वकीय वीतराग परिणति से तन्मय होने का पुरुषार्थ करना चाहिए | पं. दौलतरामजी की निम्न पंक्तियों का बार बार चिन्तन करने से वीतराग परिणति प्राप्त की जा सकती है –

यह राग आग दहै सदा तातें समामृत सेइये,
चिर भजै विषय कषाय अब तो त्याग निजपद वेइये ।
कहा रच्यो पर पद में न तेरो पद यह क्यों दुख सहें,
अब 'दौलत' होऊ सुखो स्वपद रुचि दाव मत चूको यहै ।।

(छह ढाला)

अतः साम्य-भाव रूपी अमृत का सेवन करना चाहिए । विषय कषाय का सेवन तो चिर काल से करता चला आ रहा है अब तो उन्हें छोड़ निज स्वभाव का वेदन अनुभव करना चाहिए । हे प्राणी । तूं पर-पदार्थों में क्यों रम रहा है । उन्हें छोड़, तेरा पद-स्थान ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव तो यह है अब स्वपद-स्वकीय स्वभाव में रचकर लीन होकर सुखी हो जा । इस अवसर को मत छोड़ । मनुष्य पर्याय का मिलना सुलभ नहीं है।