।। जैन साहित्य का इतिहास: एक समीक्षा ।।

महामहोपाध्याय डॉ० हरीन्द्रभूषण, उज्जैन

जैन साहित्यके इतिहास लेखनकी ओर जैन विद्याके पण्डितोंने उतना ध्यान नहीं दिया जितना आवश्यक था । यही कारण है कि भारतीय साहित्यमें जैन साहित्यका अतिशय महत्त्व होते हुए भी इसके प्रति भारतीय विद्याके विद्वानोंका झुकाव कम रहा है ।

सबसे पहले जर्मन भारतविद् डॉ. विण्टरनित्सने जर्मन भाषामें भारतीय भाषाका इतिहास लिखा जिसके एक संक्षिप्त अध्यायमें जैन साहित्यका विवरण है । इस ग्रन्थका अंग्रेजी तथा हिन्दी भाषाओं में अनुवाद हआ है। श्री मोहनचन्द्र दलीचन्द देसाईने गुजराती भाषामें 'जैन साहित्य नो इतिहास' नामक ग्रन्थ लिखा जो जैन वेताम्बर कान्फरेन्स बम्बईसे प्रकाशित है। आजकल कुछ जैन साहित्यके और भी इतिहास प्रकाशित हुए हैं। किन्तु इन सभी ग्रन्थोंमें श्वेताम्बर जैन साहित्यको ही प्रधान रूपमें अपनाया गया है। अभी तक दिगम्बर जैन साहित्यका कोई क्रमबद्ध इतिहास नहीं था।

पं० कैलाश चन्द्र जी ने लिखा है, "दिगम्बर जैन समाजमें सर्वप्रथम इस विषयकी ओर पं० नाथू राम प्रेमी तथा पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारका ध्यान गया । इन दोनों आदरणीय व्यक्तियोंने अपने परुषार्थ और लगनके बलपर अनेक जैनाचार्यो और जैन ग्रन्थोंके इतिवृत्तोंको खोजकर जनताके सामने रखा। आज के जैन विद्वानोंमेंसे यदि किन्होंको इतिहासके प्रति अभिरुचि है तो, उसका श्रेय इन्हीं दोनों विद्वानोंको है। कमसे कम मेरी अभिरुचि तो इन्हीं के लेखोंसे प्रभावित होकर इस विषयकी ओर आकृष्ट हई।"

हमें यह सूचित करते हुए प्रसन्नता और गौरवका अनुभव होता है कि जैनधर्म और दर्शनके प्रसिद्ध विद्वान पण्डितप्रवर श्री कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीने दि० जैन साहित्यका इतिहास तीन भागोंमें लिखकर उस कमीको बहुत कुछ पूरा किया। ये तीन भाग है : (१) जैन साहित्यका इतिहास-पूर्वपीठिका, (२) जैन साहित्यका इतिहास-प्रथम भाग तथा (३) जैन साहित्यका इतिहास द्वितीय भाग । ये तीनों ग्रन्थ श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमालासे क्रमशः १९६३, १९७५ तथा १९७६ में प्रकाशित हुए हैं ।

जैन साहित्य का इतिहास पूर्वपीठिका विवरण

सन् १९५४ में जैन साहित्यके इतिहासको लिखे जानेकी एक रूप-रेखा स्व० पं० महेन्द्र कुमारजी तथा पं० फूलचन्द्रजी शास्त्रीके साथ पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने तैयार की थी जो पुस्तिकाके रूपमें प्रकाशित कर दी गयी थी। प्रस्तुत ग्रन्थ उसी रूपरेखाके अनुसार लिखा गया है । इसका खोजपूर्ण प्राक्कथन भारतीय विद्याओंके प्रसिद्ध विद्वान डॉ० वासूदेवशरण अग्रवालने लिखा है। इस ग्रन्थमें जैनधर्मकी मल स्थापनासे लेकर संघभेद तकके सुदीर्घ काल तकका इतिहास लिखा गया है। इसमें श्रमण-परम्पराका इस देशमें जिस प्रकार विकास हुआ, उसका विवेचन किया गया है ।

डॉ. अग्रवालने अपने 'प्राक्कथन में जिन महत्त्वपूर्ण तथ्योंकी ओर संकेत किया है, वे इस प्रकार हैं :

१. जैनधर्मको परम्परा अत्यन्त प्राचीन है ।
२. भागवतमें इस बातका उल्लेख है कि महायोगी भरत, ऋषभके शतपुत्रोंमें जेष्ठ थे और उन्हीं के नामसे यह देश भारत वर्ष कहलाया ।
३. जैन और कुछ जैनेतर विद्वान भी सिन्धुघाटी सभ्यताकी पुरुषमूर्तिकी नग्नता और कायोत्सर्ग मुद्राके आधारपर उसे ऐसी प्रतिमा समझते हैं जिसका सम्बन्ध किसी तीर्थकरसे रहा है ।
४. इस देशमें प्रवृत्ति और निवृत्ति को दो परम्परायें ऋषभदेवके समयमें प्रचलित थीं। निवृत्ति परम्पराको मुनि परम्परा कहा जाता था । ऋग्वेद (१०-१७) में सात वातरशना मुनियोंका वर्णन है । वातरशनाका वही अर्थ है जो दिगम्बरका है ।
५. श्रमण परम्पराके कारण ब्राह्मण धर्ममें वानप्रस्थ और संन्यासको प्रश्रय मिला ।

पूरे ग्रन्थको चार खण्डोंमें विभाजित किया गया है (१) जैनधर्मके इतिहासकी खोज, (२) प्राचीन स्थितिका अन्वेषण, (३) ऐतिहासिक युगमें तथा (४) श्रुतावतार ।

'जैन धर्मके इतिहासकी खोज' नामक खण्डमें पाश्चात्य विद्वानोंमें जैन धर्मके सम्बन्धमें मतभेद, याकोबी और बहलरकी खोजें तथा जैन धर्मकी प्राचीनतापर प्रकाश डाला गया है। पाश्चात्य विद्वानोंमें कोलबुक, स्टीवेन्सन और थामसका विश्वास था कि बुद्ध, जैन धर्मके संस्थापकका विद्रोही शिष्य था । किन्तु उससे भिन्न मत एच० एन० विलसन, बेवर और लार्सनका था। उनके मतानुसार जैनधर्म बौद्ध धर्मको एक प्राचीन शाखा थी।

'प्राचीन स्थितिका अन्वेषण' नामक खण्डमें वेद, आरण्यक, उपनिषद् और सिन्धुघाटीकी सभ्यतामें श्रमण-संस्कृतिके तत्त्वोंका अन्वेषण किया गया है जिनमें ऋग्वेदमें प्राप्त पणि, वातरशना ( दिगम्बर ), शिश्नदेव, हिरण्यगर्भ ( जिसकी तुलना ऋषभदेवसे की गयी है ) आदिकी समीक्षा की गयी है । डॉ० राधाकृष्णन्के अनुसार वेदोंमें ऋषभदेव आदि तीर्थकरोंके नाम पाये जाते हैं । भागबतमें ऋषभदेवका चरित्र वर्णित है । इस खण्डमें जैन पुराणों में श्री कृष्ण, बाइसवें तीर्थकर नेमिनाथकी ऐतिहासिकता, द्रविड़ सभ्यता और जैनधर्म आदिका विस्तारके साथ वर्णन है ।

'ऐतिहासिक युग' नामक खण्डमें भगवान् पार्श्व एवं महावीरके जीवनका सम्पूर्ण विवरण, भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त, अर्द्धफालक सम्प्रदाय, संघ भेदके मूल कारण वस्त्रपर विचार, गोशालकका जीवनवृत्त आदिका सविस्तार वर्णन है।

'श्रुतावतार' नामक खण्डमें, आगमसंकलना, जैन आगम और दिगम्बर परम्परा, बारह अंग, दृष्टिवाद अंगका लोप, दृष्टिवादमें वर्णित विषय, ३६३ मत, श्वेताम्बर परम्परामें श्रुत भेद, एकादश अंगोंका परिचय, पूर्वोसे अंगोंकी उत्पत्ति, उपांग, छदसूत्र , मूलसूत्र तथा पइन्ना आदिका वर्णन है ।

इस प्रकार जैन साहित्यके इतिहासको पूर्व पीठिकामें जैन साहित्यका निर्माण जिस पृष्ठभूमिपर हुआ है, उसका चित्रण करनेके लिये जनधर्मके प्राग इतिहासको खोजनेका प्रयत्न किया गया है ।

जैन साहित्यके इतिहासका चित्रण तो आगेके दो भागोंमें है ।

जैन साहित्य का इतिहास-प्रथम भाग

इस ग्रन्थमें दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थोंका विस्तारके साथ परिचय दिया गया है । यह ग्रन्थ दो भागोंमें विभक्त है। प्रथम भागके चार अध्याय है और द्वितीय भागको पंचम अध्यायके रूपमें निबद्ध किया गया है।

प्रथम अध्यायके तीन परिच्छेदमेंसे प्रथम परिच्छेदमें 'कसाय पाहुड', उसके रचयिता आचार्य गुणधर, उनके उत्तराधिकारी आर्यमंक्षु और नागहस्ती, कसायपाहुडको गाथा संख्या, शैली, विषय परिचय तथा कर्म सिद्धान्तका वर्णन है।

द्वितीय परिच्छेदमें छक्खण्डागम ( षट्खण्डागम ), उसका रचनाकाल, रचनास्थान, रचयिता आचार्य पुष्पदन्त और भूतबली, ग्रन्थका नाम सतकर्म प्राभृत, तीर्थंकर महावीर की वाणीसे इसका सम्बन्ध और स्रोतका विवरण हैं । इस ग्रन्थमें निम्न पाँच खण्डोंका विषय परिचय दिया गया है :

१. जीवट्ठाण, २. खुद्दाबन्ध, ३. बन्धसामित्तविचय, ४. वेदनाखण्ड तथा ५. वर्गणाखण्ड । ततीय परिच्छेदमें महाबन्ध नामक छठे खण्डका विस्तारके साथ परिचय दिया गया है।

द्वितीय अध्यायमें चूणि साहित्यका वर्णन है। दिगम्बर परम्परामें मूल सिद्धान्त ग्रन्थोंके कुछ ही समय पश्चात् चूणि साहित्य लिखा गया । बीज पदरूप गाथा सूत्रोंपर ये चूर्णिसूत्र, वृत्तिका कार्य करते हुए भी अनेक नये तथ्योंको सूत्र रूपमें प्रस्तुत करते हैं । उदाहरणार्थ, 'कसाय पाहुड', पर आचार्य यतिवृषभने चूणिसूत्र लिखे हैं। इस अध्यायमें चूर्णिसूत्रोंकी रचना और व्याख्यान शैली, उनका ऐतिहासिक महत्व, यतिवृषभकी रचनायें, चूणिसूत्रोंकी विषयवस्तु आदिपर अच्छी तरह प्रकाश डाला गया है ।

तृतीय अध्याय के दो परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेदमें आचार्य वीरसेन द्वारा रचित छह खण्डोंपर बहत्तर हजार श्लोक प्रमाण संस्कृतमिश्रित प्राकृत भाषामें धवला नामक टीकाका विस्तारके साथ वर्णन है । टीकाका नामकरण, महत्त्व, प्रामाणिकता, व्याख्यान शैली, विषय-परिचय, आचर्य वीरसेनका परिचय, उनका समय और उनकी रचनायें आदिका इसमें समहार है । द्वितीय परिच्छेदमें जयधवला नामक टीकाका विवरण है । यह टीका धवला टीकाके पश्चात् महत्त्वपूर्ण टीका है। यह टीका कसायपाहुड़ पर लिखी गई है और इसके टीकाकार हैं आचार्य वीरसेन और उनके योग्य शिष्य आचार्य जिनसेन । जयधवला टीकाको साठ हजार श्लोकप्रमाण बतलाया गया है। उसे तीन स्कंधोंमें विभाजित किया गया है। प्रदेश विभक्ति पर्यन्त प्रथम स्कन्ध; संक्रम, उदय और उपयोग पर्यन्त द्वितीय स्कन्ध तथा शेष भाग तृतीय स्कन्ध ।

तृतीय परिच्छेद में छक्खंडागम की अन्य टीकाओं का विवरण है। वीरसेन स्वामीकी प्रसिद्ध धवला टीकाके अतिरिक्त छक्खंडागम पर अन्य टीका भी लिखी गईं। कुन्द-कुन्दने परिकर्म टीका, शामकुण्डने पद्धति टीका, तु बलूसाचार्यने चूड़ामणि टीका, वप्पदेवने व्याख्याप्रज्ञप्ति और सुप्रसिद्ध तार्किक समन्तभद्रने संस्कृत टीका लिखी है ।

चतुर्थ अध्यायमें अन्य कर्म साहित्यका वर्णन है। छक्खंडागम, कसायपाहुड आदि मूल आगम अन्धोंके अतिरिक्त कर्मविषयक अन्य प्राचीन साहित्य भी उपलब्ध है। यह साहित्य आगमानुसारी है और इसका रचनाकाल विक्रमकी पांचवीं शताब्दीसे लेकर नवम शताब्दी तकका है। इस अध्याय में प्राचीन कर्म साहित्यका इतिहास प्रस्तुत है । यहाँपर कर्म प्रकृति, बृहत्कर्मप्रकृति, शतक चूर्णि सित्तरी, कर्मस्तव, प्राकृत पंचसंग्रह आदि ग्रन्थोंका विचार किया गया है।

इस ग्रन्थके द्वितीय भाग रूप पंचम अध्यायमें उत्तरकालीन कर्मसाहित्यपर विचार किया गया है जो इस प्रकार है : लक्ष्मणसुत डड्ढ़ा कृत पंचसंग्रह, अमितगतिकृत संस्कृतपंचसंग्रह, विक्रमको ११वीं शताब्दीके दक्षिणके आचार्य नेमिचन्द्रकृत गोम्मट्टसार, (दो भाग : जीवकाण्ड तथा कर्मकाण्ड) तथा लब्धिसार क्षपणा सार, देवसेनकृत भावसंग्रह, गोविन्दाचार्य रचित कर्मस्तववृत्ति जिनवल्लभगणि रचित षड्शीति, देवेन्द्रसूरि रचित नवीन कर्मग्रन्थ (कर्म विषाक, कर्मस्तव, बन्धस्वामित्व', षडशीति और शतक), श्रुतमुनिकी रचनायें भावत्रिभंगी तथा आस्रवत्रिभंगी, पंचसंग्रहको प्राकृत टोका, सिद्धान्तासार, सकल कीर्तिका कर्मविपाक आदि ।

जैन साहित्यका इतिहास द्वितीय भाग

इस ग्रन्थमें भूगोल, खगोल तथा द्रव्यानुयोग (अध्यात्म और तत्त्वार्थ) विषयक साहित्यका इतिहास है। इसे पाँच अध्यायोंमें विभक्त किया गया है । प्रथम अध्यायमै भूगोल-खगोल विषयक साहित्य, द्वितीय अध्यायमें द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूल साहित्य, तृतीय अध्याय में अध्यात्म विषयक टीका साहित्य, चतुर्थ अव्यायमें तत्वार्थ विषयक मूल साहित्य तथा पंचम अध्यायमें तत्त्वार्थ विषयक टीका साहित्यका विस्तारके साथ वर्णन है।

भगोल-खगोल विषयक साहित्यमें तिलोयपण्णात्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, ज्योतिष्करण्डक, बृहत्क्षेत्र समास, बृहत्संग्रणी, नेमिचन्द्रकृत त्रिलोकसार, माधवचन्द्र विद्यकृत त्रिलोकसार टीका, जम्बूदीप पण्णत्तिसंग्रह, सिंहमूरिरचित संस्कृतलोकविभाग, तथा प्रवचनसारोद्वार का वर्णन है ।

द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक साहित्यमें आचार्य कुन्दकुन्द और उनकी रचनायें--दर्शनप्राभूत, चारित्रप्राभत, सुत्रप्राभत, बोधप्राभत, रयणसार. बारह अणवेक्खा, समयसार. प्रवचनस और नियमसार, पूज्यपाद देवनन्दि और उनकी रचनायें--इष्टोपदेश और समाधितंत्र, जो-इन्दु योगोन्दु और उनकी रचनायें-परमात्मप्रकाश तथा योगसारका वर्णन है ।

अध्यात्म विषयक टीका साहित्य में, टीकाकार अमृतचन्द्रसूरि और उनकी रचनाएँ--पुरुषार्थ सिद्धघुपाय, तत्वार्थसार, समयसार-टीका (आत्मख्याति), प्रवचनसार-टीका (तत्वदीपिका तथा पञ्चास्तिकाय-टीका (तत्वप्रदीपिका-वृत्ति), पद्मनन्दिकृत निश्चयपञ्चाशत्, टीकाकार जयसेन और कुन्दुकुन्दुके समयसार तथा पञ्चास्तिकायपर रचित उनकी टीकायें, प्रभाचन्द्रकृत समयसार टीका, टीकाकार पद्मप्रभ मलधारिदेव और कुन्दकुन्दके नियमसारपर उनकी टीका, आशाधरकी इष्टोपदेश टीका, टीकाकार ब्रह्मदेव और उनकी परमात्मप्रकाश-दीका तथा बृहद्द व्यसंग्रह-टीका एवं अध्यात्म रसिक उपाध्याय यशोविजय तथा उनके अध्यात्मसार और अध्यात्मोपनिषद्का वर्णन !

तत्त्वार्थ विषयक मूल साहित्यमें आचार्य कुन्दकुन्दके पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार तथा नियमसार एवं आचार्य गृद्धपिच्छ और उनके तत्त्वार्थसूत्रका वर्णन है ।

तत्त्वार्थविषयक टीका साहित्यमें आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि और उनकी रचनाएँ-जैनेन्द्र व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि, जैनाभिषेक, छन्दःशास्त्र और समाधिशतक, आचार्य अकलंकदेव और उनका तत्त्वार्थवातिक, आचार्य सिद्धसेनगणि और उनकी तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति, मुनि नेमिचन्द्र रचित द्रव्यसंग्रह, प्रभाचन्द्र कृत तत्त्वार्थवृत्तिटिप्पण, टीकात्रय (प्रवचनसार, मंचास्तिकाय तथा समयसार पर टीकाएँ) और द्रव्यसंग्रहवृत्ति, आचार्य नरेन्द्रसेन और उनका सिद्धान्तसार-संग्रह, बृहत्प्रभाचन्द्रकृत लघुतत्त्वार्थसूत्र, प्रभाचन्द्ररचित अर्हतप्रवचन, माघनन्दि योगीन्द्र रचित शास्त्रसारसमुच्चय, ब्रह्मदेवकृत द्रव्यसंग्रह-टीका, भास्करनन्दि कृत तत्त्वार्थसूत्रवृत्ति, तत्त्वार्थसूत्रकी दो अप्रकाशित टोकायें, तत्वार्थसूत्रकी हरिभद्रीय टीका तथा श्रुतसागर सूरि और तत्त्वार्थसूत्र पर उनकी श्रुतसागरीवृत्तिका विवरण है।

इस प्रकार तीन भागोंमें निबद्ध जैन साहित्यके इस सम्पूर्ण इतिहास में जैनधर्मकी मूल स्थापनासे लेकर संघभेद, जैनागम साहित्य-कसायपाहुड़, षट्खण्डागम, महाबन्ध, चूणियाँ, उनकी धवला और जयधवला तथा अन्य टीकायें, अन्य कर्मसाहित्य, भूगोल, खगोल, द्रव्यानुयोग, तत्वार्थसाहित्य और उनकी टीकाओं-प्रटीकाओं पर विस्तारके साथ विचार किया गया है।

इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थमें अभी तक यत्र-तत्र बिखरे हुए सूत्रोंको जोड़कर दिगम्बर जैन साहित्यका जो एक क्रमबद्ध इतिहास लगभग १६०० पृष्ठोंमें प्रस्तुत किया गया है, वह इतिहास, साहित्य और शोध साहित्यसभी दृष्टियोंसे अत्यन्त महनीय है। पण्डितजीको भाषा अत्यन्त सरल एवं शैली सीधी विषयका प्रतिपादन करनेवाली है । जो भी कथन इस ग्रन्थमें निबद्ध हैं, वे सभी अत्यन्त प्रामाणिक रूपसे प्रस्तुत किये गए हैं । यत्र-तत्र समान श्वेताम्बर साहित्यकी भी तुलना की गई है। ग्रन्थके अन्तमें अकारादि क्रमसे ग्रन्थ एवं ग्रन्थकर्ताओंकी सूची भी दी गई है।

आदरणीय कैलाशचन्द्र शास्त्रीने प्रथमवार जो दि जैन साहित्यका व्यवस्थित इतिहास प्रस्तुत किया है, उसके लिये वे न केवल जैन साहित्यके इतिहासमें प्रत्युत भारतीय साहित्यके इतिहासमें सदैव स्मरण किये जाते रहेंगे।