।। कर्मवाद ।।

प्रत्येक कार्य के पीछे कारण होता है, प्राणियों की परिस्थितियों में वैषम्य का भी एक अदृश्य कारण है, जो कर्म है। कर्म-बंधन और कुछ नहीं, एक क्रिया की प्रतिक्रिया है। जैसे अंकुर का मूल कारण बीज है और उसे जमीन एवं जल आदि मिलने से अंकुर फूटता है वैसे ही विभिन्नतायें परिस्थिति से अवश्य प्रभावित होती हैं, परन्तु परिस्थिति उसका मूल कारण नहीं है, मूल कारण तो कर्म है।

कर्म - विभिन्न अर्थ

आध्यात्मिक क्षेत्र में कर्मवाद एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है, कर्म सिद्धान्त लगभग सभी दर्शनों में दृष्टिगोचर होता है, विभिन्न दर्शनों के अनुसार कर्म के अनेक अर्थ होते हैं।

कर्म का शाब्दिक अर्थ-कार्य-प्रवृत्ति अथवा क्रिया है अर्थात् जो कुछ भी किया जाता है वह कर्म है। प्रसिद्ध व्याकरणकार पाणिनि के अनुसार-“कर्ता के लिए अत्यन्त इष्ट जो हो वह कर्म है। कर्म का तात्पर्य मीमांसा-दर्शन में क्रिया-काण्ड या यज्ञादि अनुष्ठान बताया है। वैशेषिक दर्शन में कर्म की परिभाषा है-“जो एक द्रव्य में समवाय से रहता हो, जिसमें कोई गुण न हो, और संयोग का विभाग में कारणान्तर की अपेक्षा न करे। सांख्य दर्शन में कर्म का 'संस्कार' अर्थ है। गीता में कर्मशीलता (कर्तव्य) के लिए कर्म शब्द प्रयुक्त है। न्यायशास्त्र में उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण तथा गमनरूप पाँच क्रियाओं को कर्म कहा है।

पुराणों में मुख्यतः दो अर्थों में कर्म प्रयुक्त है-(१) धार्मिक व्रत-नियम आदि क्रियाएँ तथा (२) प्राचीन कर्म संस्कार । जैन दर्शन में भी कर्म का मुख्यतः अर्थ-प्राचीन कर्म संस्कार है तथा कहीं-कहीं क्रिया (आचार, कर्तव्य) के लिए भी कर्म शब्द का प्रयोग किया गया है। कर्म का तात्पर्य कर्मग्रन्थ के अनुसार यह है-जीव की अपनी शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक क्रिया द्वारा अथवा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग कारणों से प्रेरित होकर रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति से चुम्बक की तरह आत्मा जो करता है, वह “कर्म".कहलाता है।

कर्मविपाक

कर्म के नाना प्रकार के पाक (उदय) को विपाक कहते हैं-“विपाको अनुभव शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप जो परिणाम प्राप्त होता है, वही कर्मविपाक कहलाता है। इन शुभाशुभ कर्मों का तथा उनके परिणामों का पुराण तथा जैन धर्म में प्रचुर विवेचन है।

कर्म ही सुख-दुःख आदि सांसारिक विविधताओं का कारण है। जैनागम आचारांग सूत्र का यह स्पष्ट कथन है-“कम्मुणा उवाही जायई अर्थात् कर्म से समग्र उपाधियां-विकृतियाँ पैदा होती हैं। इसीलिए कहा गया है कि “एको दरिद्रो एको हि श्रीमानिति च कर्मणः ।

राजा - रंक, बुद्धिमान् - मूर्ख, सुरूप - कुरूप, धनिक - निर्धन, सबल - निर्बल, रोगी -निरोगी, भाग्यशाली - अभागा इन सबमें मनुष्यत्व समान होने पर भी जो अन्तर दिखाई देता है वह सब कर्मकृत है। वह कर्म जीव (आत्मा) के बिना नहीं हो सकता। कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है? सभी प्राणी अपने कृत कर्मों के कारण नाना योनियों में भ्रमण करते हैं।

जैन धर्म के समान ही पुराणों में भी वैषम्य का कारण कर्म को स्वीकार किया है। उनके अनुसार- यह आत्मा न तो देव है, न मनुष्य है और न पशु है, न ही वृक्ष है- ये भेद तो कर्मजन्य शरीर रूपी कृतियों का है। जीव स्वकर्मानुसार ही उत्पन्न होता है और कर्म से ही मृत्यु को प्राप्त होता है। सुख-दुःख, भय-शोक कर्म से ही होता है। कर्म के बल पर प्राणी इन्द्र, ब्रह्मपुत्र आदि बनता है। वह स्वकर्म से सालोक्यादि, मुक्ति चतुष्टय, सर्वसिद्धत्व तथा अमरत्व को भी प्राप्त कर सकता है। ब्राह्मणत्व, देवत्व, मनुजत्व, इत्यादि योनियों को प्राप्त करता है।

कर्मणा जायते जन्तु कर्मण्येव प्रलीयते।
सुखं दुःखं भयं शोकं कर्मण्येव प्रपद्यते ॥

स्वकृत कर्मों का फल व्यक्ति को अवश्य भोगना पड़ता है। जैनागमों के अनुसार अतीतकाल में जैसा भी कुछ कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी रूप में उपस्थित होता है। सुख या दुःख व्यक्ति के किये गये कार्य के पारिश्रमिक के रूप में अवश्य मिलता है। उनके (कृतकों का) फल भोगे बिना छुटकारा नहीं है।

कडाण कम्माण न मोक्ख अत्वि ।

जैनागमों के इस मन्तव्य का पुराणों में पर्याप्त समर्थन है। कर्म के फलभोग की अवश्यंभाविता वर्णित करते हुए गरूड़पुराणकार का कथन है जिस कर्म ने ब्रह्मा को एक कुम्हार की भांति नियत कर दिया है, विष्णु को अवतार धारण कर महान् संकट में डाल दिया है, रूद्र को भिक्षुक बना दिया है, तथा जिस कर्मवश सूर्य नित्यप्रति गगन में भ्रमण करते हैं, उस परम प्रबल कर्म के लिए हमारा बारम्बार नमस्कार है। यह कर्मों की रेखा, विधि के वश से अच्छों-अच्छों को भी भ्रमित कर देती है। कर्मों का फल भोगे बिना उनका सैंकड़ों कल्पों में भी क्षय नहीं होता है। अपने किये हुए शुभ या अशुभ कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है।"

कर्म के मुख्यतः दो प्रकार शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप. कुशल-अकशल. धर्म-अधर्म सभी को मान्य हैं। पण्यकर्म से अनकलताएँ प्राप्त होती हैं जबकि पापकर्म से प्रतिकूलताएँ मिलती हैं। जैनागमों में वर्णित पुण्य-प्रकृतियों एवं पाप-प्रकृतियों में इन्हीं शुभाशुभ परिणामों का वर्णन है। बुद्धि, उत्तम गति, आयु-गोत्र, शरीर आदि पुण्य प्रकृतियाँ हैं जबकि अज्ञान, मिथ्यात्व, अशुभ गति, आयु, शारीरिक संरचना आदि पाप के परिणाम हैं।

पुण्य तथा पाप के परिणामों को पुराणों में भी बताया गया है। कर्म के अनुसार ही चिरकाल तक जीवित रहने वाला तथा कर्म के प्रभाव से क्षण भर की आयु वाला होता है। कर्म से करोड़ों कल्पों की आयु हो जाती है और कर्म से ही क्षीणायु वाला होता है। अकरणीय कर्म से जीव रोगी होता है और शुभकर्म से वह रोग रहित रहता है। कुत्सित कर्म से अंधे और अंगहीन होते हैं। शुभ कर्म से स्वर्गादि की प्राप्ति होती है तथा अशुभ कर्मों से नरकों में भ्रमण करते हैं।

कर्म का कर्तृत्व तथा भोक्तृत्व

जैन दर्शन एवं वैदिक दर्शन में कर्म के कर्तृत्व के विषय में भिन्न विचारधाराएँ हैं। जैन दर्शन के अनुसार जीव को अपने किये कर्मों का फल कोई ईश्वर नाम की विशिष्ट चैतन्यशक्ति नहीं देती। कर्मों में स्वयं में ही वह शक्ति है जिसके कारण जीव को प्राकृतिक रूप से उसके कर्मों का फल मिलता रहता है. इसी सिद्धान्त की पुष्टि गीता में भी हुई है। जगत के जीवों का कर्तृत्व या उसके कर्मों का सर्जन प्रभु (ईश्वर) नहीं करता,न ही उनसे कर्मफल का संयोग कराता है। यह सब स्वभावतः चलता रहता है।

इसके विपरीत ईश्वर कर्तृत्ववादी दर्शनों की धारणा है कि जीवों के शुभाशुभ कर्मों का फल देना ईश्वर के अधीन है, उनके द्वारा कई युक्तियाँ रखी गईं, जिनका खण्डन भी जैन दर्शन में किया गया है।

ईश्वर कर्तृत्ववादियों के मुख्य तर्क हैं.

१. पुरुषकृत कर्म बहुधा निष्फल होते हैं। अतः कर्मफल का कारण ईश्वर है।

२. सांसारिक प्राणी अज्ञ है, यह अपने आप में सुख-दुःख रूप फल को स्वयं पाने में असमर्थ है, अतः ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर ही स्वर्ग या नरक में जाता है।

३. अपने आप में जड़ होने से कर्म फल नहीं दे सकते, अतः उनका फलदाता ईश्वर है।

४. “जीव अपने बुरे कर्मों का फल स्वयं नहीं भोगना चाहते, अतः भोगवाने वाली विशिष्ट शक्ति ईश्वर होना चाहिए।

इन मतों का जैन दर्शन में खण्डन एवं समाधान किया है कि पुरुषकृत कर्म कई बार निष्फल प्रतीत होते हैं, अत: ईश्वर को फलदाता बनाने की आवश्यकता नहीं, फल के सम्बन्ध में क्या देर नहीं हो सकती? आज का बोया बीज तत्काल फल नहीं देता। इसी प्रकार कर्म का परिपाक होने पर उनका फल अवश्य ही प्राप्त होता है। कर्म और कर्मफल में कार्य-कारण का व्यभिचार कदापि नहीं हो सकता। वस्तुतः कर्म का सिद्धान्त बड़ा विलक्षण है। धर्मात्मा के दुःखी तथा पापात्मा के सुखी दीखने में भी क्रमशः उनके पुण्यानुबन्धी पापकर्म तथा पापानुबन्धी पुण्यकर्म कारण है। उनकी धार्मिकता और पापकर्म निष्फल नहीं होते, इस जन्म में नहीं तो भवान्तर में अवश्य फलित होते हैं।

पद्मपुराणकार का भी इस सन्दर्भ में यही आशय है कि “यहाँ (संसार में) जो भी भला-बुरा कर्म मनुष्य करता है, तदनुसार फल वह परलोक में जाकर अवश्य भोगा करता है। पुण्यकर्म करने वाले पुरुष को भी यदि कोई दुःख उत्पन्न होता है तो उस • दुःख के समय में किसी भी प्रकार का संताप नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह दुःख तो उसको पूर्व जन्म के देह के द्वारा किये हुए कर्मों के कारण ही उत्पन्न हुआ है। इसी भाँति पापों का आचरण करने वाले पुरुष को भी संसार में सुख की समुत्पत्ति हुआ करती है, उस सुख से उसे हर्ष नहीं करना चाहिए अर्थात् पापकर्म का कुछ भी बुरा फल नहीं होता इस प्रम में पड़कर हर्ष में फूलना नहीं चाहिए।

ईश्वर को कर्म फलदाता मानने पर अनेक दोष आएँगे यथा-ईश्वर प्रेरणा से ही व्यक्ति सब कछ करता है तो वह दोषी नहीं होगा। जैसे शिकारी चोर आदि के लिए ईश्वर ने जो निश्चित किया. वही वे करते हैं तो फिर उन्हें दोषी क्यों कहा जाता है? ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो उसे पहले ही दुष्कर्मों को रोक देना चाहिए। वह अपराधकर्मियों को कर्म करते ही फल क्यों नहीं दे देता? ईश्वर कृतकृत्य है, दयालु है, उसे सांसारिक झंझटों में पड़ने का लोभ या राग क्यों लगा। उसके द्वारा भयंकर हिंसात्मक दण्ड दिये जाने पर उसकी दयालुता में बाधा आती है। संसार में अनन्त जीव हैं, प्रत्येक जीव मन-वचन-काया से प्रतिक्षण कोई न कोई कर्म करता रहता है, इन सबका लेखा-जोखा रखना, उनका फल देना इतना दुष्कर है कि वह अपने आत्मभाव में कभी स्थिर नहीं रह सकेगा। वस्तुतः इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है। भले ही कोई स्वयं के कटु कमों का परिणाम नहीं भोगना चाहता है किन्तु उसे नियत समय पर भोगना ही पड़ता है। जैसे किसी स्वादलोलुप द्वारा अस्वास्थ्यकर भोजन कर लेने पर रोग हो जाते हैं, उसे इच्छा विस्ट व्याधि भोगनी पड़ती है।

अतः प्राणी के स्वकृत कर्मों का फल देने वाली ईश्वर नामक शक्ति-विशेष को न मानते हुए उस शरीर को माना है, जो आत्मा के साथ परलोक जाते समय भी साथ रहता है, वह समस्त कर्मफलदाता, कर्मपुदूल के अतिसूक्ष्म परमाणुओं से बना कार्मण शरीर है। जैन दर्शन की भांति ही मीमांसा दर्शन, सांख्य दर्शन आदि ईश्वर कर्तृत्व को अमान्य करते हैं।

आत्मा के कर्तृत्व को सिद्ध करते हुए हरिभद्रसूरि का यह कथन है कि “कर्म में आत्मा के परिणामों के अनुरूप परिणत होने की योग्यता है, इसी कारण आत्मा पर कर्तृत्व घटित होता है। यदि ऐसा न होता तो अतिप्रसंग दोष आता है; यह लोक में प्रसिद्ध ही है। यदि इसे अन्यथा अन्य प्रकार से माना जाए तो वह सब, जो हमारे जीवन में घटित होता है, औपचारिक मात्र होगा, वास्तविकता के न होने से वह अशोभन-अनिष्ट या अवांछित होगा। जैनागमों का यही मन्तव्य है कि कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता स्वयं कर्मबद्ध आत्मा है। अन्य किसी के द्वारा उसके कर्म करने, भोगने का कार्य सम्भव नहीं। एक के बदले दूसरा, उस कर्म का फल नहीं भोग सकता। अतः स्वकृत कर्मों का भोग स्वयं को ही करना पड़ता है-

एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खें"

स्वयं आत्मा ही अपने सुख या दुःख का कर्ता है। प्राणी स्वकृत कर्मों को ही भोगता है, अतएव किसी को, दूसरे के सुख-दुःख का, बीवन-मरण का कारण मानना मात्र एक कल्पना है, अज्ञान है। आचार्य अमितगति के अनुसार व्यक्ति स्वकृत कर्म द्वारा ही शुभाशुभ फल प्राप्त करता है। दूसरों के द्वारा दिया गया (किया गया) यदि प्राप्त होता हो तो उसके स्वकृत कर्म निरर्थक ही साबित हो जाते हैं। स्वकृत कर्मों को छोड़कर आत्मा को कोई कुछ नहीं देता। इस प्रकार जैनदर्शन के कर्मवाद का यह निश्चित मत है-

सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता

जैन दर्शन के इस मन्तव्य का समर्थन पुराणों में भी दृष्टिगत होता है। पुराणों के अनुसार भी-"सुख-दुःख का देने वाला या इनके हरण करने वाला कोई भी नहीं है। मनुष्य अपने ही किये हुए कमों के अनुसार, चाहे वह पहिले जन्मान्तरों के किये हों या इस जन्म के हों, सुख-दुःख का भोग करते हैं-

न दाता सुख-दुःखानां, न हस्ति कश्चन
स्वकृतान्येव भुञ्जन्ते, दुखानि च सुखानि च।

जैन दर्शनवत् ही कर्मस्वातन्त्र्य सम्पादित करते हुए ब्रह्मवैवर्त पुराण में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि देही (बात्मा) ही कर्मों का कर्ता तथा भोक्ता है-

कर्ता भोक्ता व देही

पुराणों में स्थान-स्थान पर कहा गया है कि शुभ या अशुभ जैसा भी फल व्यक्ति प्राप्त करता है, वह उसके स्वकृत कमों के परिणामस्वरूप ही मिलता है, अतः उसमें उसे व्याकुल नहीं होना चाहिए।

इसी प्रकार कमों के कर्तृत्व भोक्तृत्व के सम्बन्ध में उपनिषदों में भी जीन के लिए कर्ता और भोक्ता का प्रयोग हुआ है।

कर्म का असंविभाग

जैन दर्शन की कर्म सम्बन्धित विचारधारा का यह स्पष्ट मत है कि एक व्यक्ति के कर्म के फल दूसप नहीं प्राप्त कर सकता अथवा एक के लिए दूसरा कर्म नहीं कर सकता है। वस्तुतः वात्मा ही स्वयं अपना उत्थान-पतन करता है। विभावदशा में रमण करने वाला आत्मा ही वैतरणी नदी और कूटशाल्मली वृक्ष है और स्वभाव दशा में रमण करने वाला आत्मा ही कामधेनु और नन्दनवन है। शुभ मार्ग पर चलने वाला आत्मा ही स्वयं का मित्र है और उमार्ग पर चलने वाला आत्मा स्वयं ही अपना शत्रु है।

इसके विपरीत वैदिक विचारधारा के अनुसार एक व्यक्ति का कर्म दूसरे व्यक्ति में विभक्त किया जा सकता है अर्थात् एक व्यक्ति अपने कर्मफल दूसरे को दे सकता है। श्राद आदि प्रसंगों से यही निष्कर्ष निकलता है कि स्मार्त धर्मानुसार एक के कर्म का फल दूसरे को मिल सकता है। परन्तु जैन दर्शन इस विचारधारा का खण्डन करता है। वैदिक दर्शन तथा बौद्ध दर्शन की तरह वह कर्मफल के संविभाग में विश्वास नहीं करता। यदि विभाग को स्वीकार किया जाये तो पुरुषार्थ और साधना का मूल्य ही क्या है? इसलिए कहा गया है कि कर्म सदा कर्ता के पीछे-पीछे (साथ) चलते हैं। अपने स्वयं के कर्मों से ही आत्मा बंधन में पड़ता है।

इस मन्तव्य का समर्थन पुराणों में भी दृष्टिगत होता है यद्यपि श्राद्ध आदि का वर्णन भी उनमें है, किन्तु फिर भी यह तो माना ही है कि-"पहले किया हुआ कर्म उसके करने वाले के साथ ही रहता है। जिस तरह सहस्रों धेनुओं में बछड़ा अपनी माता के पास ही पहुंच जाता है। इसी प्रकार से स्वकृत कर्म उसके करने वाले के समीप पहुंचता है और वह कहता है कि हे मूढ! अपने स्वकृत कर्म-फल भोगने में ही क्या परिवाप कर रहा है?

यह जो कुछ भी पापकर्म करता है, उसका कुफल भी यह अकेला ही भोगता है। इस भोग में और आवागमन में कोई भी अन्य साथी नहीं होता है।

पद्मपुराण में वैदिक धर्म के विरोध में मायामोह द्वारा दैत्यों को समझाया गया है। उसमें तीर्थ, वेद, यज्ञ, श्राद्ध आदि कई प्रमुख वैदिक सिद्धान्तों की आलोचना भी की गई है। इस सन्दर्भ में वहाँ कहा गया है कि “यज्ञ में वध किये हुए पशु से जो स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा की जाती है। यदि ऐसा ही है तो यजमान के द्वारा वहाँ पर अपने पिता का हनन क्यों नहीं किया जाता है? यदि अन्य के द्वारा खाये हुए से पितृगण की तृप्ति होती है तो प्रवास में रहने वाले को भी श्राद्ध दिया जाने से वह प्रवासी भी उसे प्राप्त कर तृप्त हो जाना चाहिए।

भाग्य-पुरुषार्थ

कर्मवाद के स्थान पर अन्य भी कुछ कारणों की कल्पना दार्शनिकों द्वारा की गई है। उनमें मुख्यतः हैं कालवाद, स्वभाववाद, यदृच्छावाद, नियतिवाद, भूतवाद, पुरुषवाद, अज्ञानवाद आदि । इनको भी विश्ववैचित्र्य का एकमात्र कारण माना गया था।" जैन परम्परा के दार्शनिक काल में कर्म के साथ कालादि कारणों के समन्वय का प्रयल किया गया। कर्म को मुख्य कारण मानते हुए कालादि (काल, स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ) को उसके सहकारी कारण माना है। आचार्य सिद्धसेन के अनुसार-“काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ, इन पाँच कारणों में से किसी एक को ही कारण माना जाए और शेष कारणों, की उपेक्षा की जाए, यह मिथ्यात्व है।

पूर्वोक्त कारणों में से नियतिवाद का ही अपर पर्याय भाग्यवाद अथवा दैववाद है। भाग्यवाद पोषक अनेक उक्तियाँ भारतीय साहित्य में प्रचलित हैं। यथा “भाग्यं फलति सर्वत्र न विद्या, न च पौरुषम्” “भाग्यहीनाः न पश्यन्ति बहुरत्ना वसुंधरा, “यद् भाव्यं तद् भविष्यति ।” गरुडपुराण में भाग्य को सर्वोपरि मानते हुए कहा गया है कि इसके आगे किसी का वश नहीं चलता है। जिस अवस्था में, जिस समय में, जिस दिन, जिस रात, जिस मुहूर्त और जिस क्षण में जो भी जैसा होने वाला है, वही होकर रहता है, चाहे अन्तरिक्ष में चला जाये या महीतल में प्रवेश करे अथवा किसी भी दिशा में चला जाये। जो नहीं दिया है वह कहीं भी नहीं मिल सकता। पहले जन्म में जो विद्या का अध्ययन किया है, जो धर दान दिया है तथा जो कर्म किये हैं, वे सभी आगे दौड़कर चलते हैं। जिसका समय नहीं आया, वह सैकड़ों बाणों से भी नहीं मरता, अन्यथा एक कुशा के अग्र भाग से भी मर जाता है और किसी उपाय से वह जीवित नहीं रहता। मृत्यु का एक नियत समय होता है। शेष सब तो केवल निमित्त मात्र होते हैं। वास्तव में होता वही है जो होना है-

लब्धव्यमेव लभते, गन्तव्यमेव गच्छति
प्राप्तव्यमेव प्राप्नोति, दुःखानि च सुखानि च

जैन दर्शन में नियतिवाद तो है परन्तु वह एकान्त नहीं है। कर्म में कई प्रकार के परिवर्तन की सम्भावना भी व्यक्त की गई है। सामान्यतया यही निश्चित है-“कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि” अर्थात् जैसे कर्मों का व्यक्ति ने अर्जन किया है, उन्हें भोगे बिना छुटकारा नहीं होगा। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति कुछ भी पुरुषार्थ नहीं कर सकता। व्यक्ति के जीवन में भाग्य और पुरुषार्थ दोनों ही स्पष्टतः समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। यही मानना वास्तव में युक्तियुक्त है।

भाग्य वास्तव में और कुछ भी नहीं है, प्राचीनकाल का पुरुषार्थ मात्र है, पूर्व जन्म या भूतकाल में किया गया कर्म दैव या भाग्य कहा जाता है तथा वर्तमान जीवन में जो कर्म किया जाता है, वह पुरुषकार या पुरुषार्थ कहा जाता है। कभी ऐसा होता है कि थोड़ा सा प्रयत्न करते ही सफलता मिल जाती है और कभी बहुत प्रयत्न करने पर भी सफलता प्राप्त नहीं होती। इसका कारण अतीत में किये गये विभिन्न प्रकार के कर्म हैं, जो वर्तमान में हितकर या अहितकर, सद्भाग्य और दुर्भाग्य, सफलता या विफलता के रूप में प्रकट होते हैं।

जीवन में किये जाने वाले अनेक प्रकार के कार्य पुरुषार्थ रूप हैं जो अवश्य ही कालान्तर में फल देते हैं। तात्पर्य यही है कि भाग्य तथा पुरुषार्थ दोनों अन्योन्याश्रित-एक दसरे पर टिके हए हैं। अत: एकान्तत: भाग्य पर ही आश्रित न सकर यदि कोई अपने परुषार्थ को बलवान करे तो कछ परिवर्तन हो सकता है। यदि पुरुषार्थ का कुछ महत्त्व न होता तो आत्माएँ, जो अनादिकाल से कर्मबद्ध होती हैं, कभी भी मुक्त नहीं होती, किन्तु ऐसा होता नहीं। पौराणिक एवं जैन दोनों ही मान्यताओं में पुरुषार्थ द्वारा व्यक्ति के कर्ममल का दर होना स्वीकत है। पुराणों में नियतिवाद वर्णित है परन्तु फिर भी जैन दर्शन के समान पुरुषार्थवाद भी मान्य है। महर्षि मनु के प्रश्न के समाधान में दैव तथा पुरुषार्थ में बड़ा कौन है यह बताते हए मत्स्यावतार का कथन है कि देव नामक जो है. वह अपना ही कर्म समझना चाहिए क्योंकि वह वही अपना किया हुआ कर्म है जो अन्य (पूर्व) देह के द्वारा अर्जित किया गया है, इसलिए मनीषी लोग संसार में पौरुष को ही श्रेष्ठ कहते हैं। यदि दैव प्रतिकूल भी होता है तो उसका पौरुष के द्वारा हनन हो जाता है। ऐसा देखा जाता है कि जो मंगल आचरण से युक्त और नित्य ही उत्थानशील लोग होते है वे पौरुष से प्रतिकूल दैव को विनष्ट कर देते हैं। जिन पुरुषों का पूर्व जन्मों में किया हआ सात्विक कर्म होता है. ऐसे कछ परुषों का अच्छा फल बिना पौरुष किये ही देखने में आता है। पौरुष के द्वारा भी मनष्यों को आर्थिक फल की प्राप्ति हो जाती है। जो पौरुष से वर्जित होते हैं, वे तो केवल एक दैव को ही जानते हैं। अत: त्रिकाल से संयुक्त दैव सफल (फलदाता) होता है तथा पौरुष दैव को सम्मति से समय पर फल दिया करता है।

इसीलिए विष्णुपुराण में कहा गया है कि कौन किसके द्वारा मारा जाता है या रक्षित होता है? शुभाशुभ आचरणों से यह आत्मा स्वयं अपनी रक्षा अथवा विनाश करने में समर्थ है। कमों के कारण ही सबका जन्म तथा शुभाशुभ गतियां होती हैं। अतः शुभ कर्म (कार्य) करने का ही प्रयल करना उचित है।

इस प्रकार पुरुषार्थ का महत्त्व पुराण तथा बैन दर्शन दोनों में प्रतिपादित है। पुरुषार्थ के बल पर व्यक्ति कर्मों के उदय के रूप को भी परिवर्तित कर सकता है। उदाहरणस्वरूप हम जैनागमों में वर्णित कर्म की अन्य अवस्थाएँ-अपवर्तना, उद्वर्तना, उदीरणा, निर्जरा आदि में इसकी सार्थकता देख सकते हैं तथा पुराण साहित्य में योगी द्वारा योगसाधना द्वारा कर्म करते हुए भी कर्मबद्ध न होना तथा प्राचीन कर्मों का ध्वंस करना भी यही बताता है।

आत्मा और कर्म का सम्बन

आत्मा तथा कर्म में पहले कौन था तथा इनका सम्बन्ध कब से हुआ, यह जामने के लिए उनके प्रारम्भ सम्बन्धी धारणाएँ जान लेना रचित है। - वैदिक परम्पय में मान्य “वेद और उपनिषदों तक को सृष्टि-प्रक्रिया के अनुसार बड़ और चेतन सृष्टि अनादि न होकर सादि है। यह भी माना गया था कि वह सृष्टि किसी एक या किन्हीं अनेक बड़ः अथवा चेतन तत्वों से उत्पन्न हुई। इससे विपरीत कर्म सिद्धान्त के अनुसार यह मानना पड़ता है कि बड़ अकवा बीव को सृष्टि अनादि काल से चली का रही है। उपनिषदों के अनन्दरकालीन वैदिक मतों में भी बीव का अस्तित्व इसी प्रकार अनादि स्वीकार किया गया है। यह कर्मक्ल की मान्यता की देन है। जिस अनादि कर्मसिद्धान्त को बाद में सभी वैदिक दर्शनों ने स्वीकार किया, वह इन दर्शनों की उत्पति के पूर्व ही जैन परम्परा में विद्यमान था। इन अनन्तरकालीन परिवर्तित विचारधाराओं के सम्बन्ध में हिरियन्ना आदि का मत है कि इनमें ऐसे नवीन विचार उपलब्ध होते हैं, जो वेदों व ब्राह्मण-ग्रंथों में नहीं थे। उनमें संसार और कर्म-अदृष्ट विषयक नूतन विचार भी दृष्टिगोचर होते हैं। कर्म कारण है ऐसा वाद भी उपनिषदों का सर्वसम्मत वाद हो, यह भी नहीं कहा जा सकता।" समस्त इतिहास को दृष्टि सन्मुख रखे तो वैदिकों पर जैनपरम्परा के कर्मवाद का व्यापक प्रभाव स्पष्टतः प्रतीत होता है।

इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि सृष्टि की अनादिता बाद में सभी को स्वीकृत हो गई। अत: आत्मा और कर्म के सम्बन्ध में यही मान्य है कि ये दोनों अनादि हैं एवं इनका सम्बन्ध भी अनादि है। आत्मा (कर्मणात्मक) कमों के साथ बद्ध होकर अनादिकाल से चला आ रहा है। पंचाध्यायी में इसको स्पष्ट किया है:

यथानादि स जीवात्मा
यथानादिश्च पुद्गलः
द्वयोर्बन्धोऽप्यनादि स्यात्
सम्बन्धो जीवकर्मणः ।।

कर्म सन्तति की अपेक्षा से आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादि है, व्यक्तिशः नहीं। किसी एक कर्म विशेष का अनादिकाल से सम्बन्ध नहीं है। पूर्वबद्ध कर्म स्थिति के पूर्ण होने पर आत्मा से पृथक् हो जाते हैं, नवीन कर्म का बंध होता रहता है, इस प्रकार प्रवाह रूप से यह सम्बन्ध अनादि है। परन्तु यह सम्बन्ध अनादि होते हुए सान्त भी है। कर्म व आत्मा का पुरुषार्थ द्वारा पृथक्करण हो सकता है।

इस जैन विचारधारा के समान ही पुराणों का भी मत है कि “आत्मा के साथ मल का संयोग अनादि है, किन्तु आत्मा की मुक्ति के साथ इस संयोग का विनाश अवश्य होता है-"

अनादिमल भोगान्त

आत्मा की यह मलिनता अनादि होते हुए भी इसका विनाश आत्मा के द्वारा अपनी सत्य प्रकृति के पहचान लेने पर ही होता है।

कर्म के प्रकार

जैनागमों के अनुसार कर्मों के मुख्य भेद आठ हैं-

१. जो कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को आच्छादित करे, उसे ज्ञानावरण कर्म कहते हैं। यह जगत् के बौद्धिक विभिन्नता का कारण है।

२. जो कर्म आत्मा के दर्शन गुण को आच्छादित करे, उसे दर्शनावरण कर्म कहते हैं।

३. जिस कर्म के द्वारा जीव को सांसारिक इन्द्रिय-जन्य सुख-दुःख का अनुभव -हो, वह वेदनीय कर्म कहलाता है।

४. जो कर्म जीव को स्व-पर-विवेक में तथा स्वरूप-रमण में बाधा पहुँचाता है अथवा चारित्रगुण का घात करता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। इसके ... कारण जीव विपरीत बुद्धि वाला बनकर शरीर को आत्मा तथा आत्मा को शरीरं रूप मानकर दुःखी होता है।

५. जिस कर्म के अस्तित्व से जीव जीता है और क्षय होने से मरता है, उसे आयुकर्म कहते हैं। इसके द्वारा जीव की मनुष्य, पशु-पक्षी आदि योनियों में नियत काल पर्यन्त अवस्थिति होती है।

६. जिस कर्म के उदय से जीव नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव आदि कहलाये, उसे नामकर्म कहते हैं। एकेन्द्रिय से लगाकर पंचेन्द्रिय तक चौरासी लाख योनियों में जो जीवों की अनन्त आकृतियाँ हैं, उसका निर्माता नामकर्म है। आचार्य भगवज्जिनसेन ने “इस नामकर्म को वास्तविक ब्रह्मा, सृष्टा अथवा विधाता कहा है।"

७. जो कर्म जीव को उच्च, नीच कुल में जन्मावे अथवा जिस कर्म के उदय से पूज्यता-अपूज्यता का भाव उत्पन्न हो, जीव उच्च-नीच कहलाये, उसे गोत्र कर्म कहते हैं।

८. जो कर्म आत्मा की दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य रूपी शक्तियों का घात करता है या दानादि में अन्तराय रूप हो, उसे अन्तराय कर्म कहते हैं।

इनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय ये चार कर्म आत्मा के ४ मूल गुणों (ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य-शक्ति) का घात करने से घाती कहलाते हैं। शेष चार अघाती कर्म-प्रकतियाँ आत्मा के किसी गण का घात नहीं करती हैं किन्त वे आत्मा को एक ऐसा रूप प्रदान करती है.जो उसका निजी नहीं है अपित पौलिक भौतिक है।

कर्म के प्रकारों का वर्णन अन्यरूप में भी उपलब्ध होता है, जिसके अनुसार कर्म के प्रमुखतः तीन प्रकार हैं-अशुभ, शुभ एवं शुद्ध, जिन्हें पौराणिक भाषा में क्रमशः विकर्म, कर्म तथा अकर्म कहा गया है। जैन दर्शन में इन्हें पापकर्म, पुण्यकर्म तथा ईर्यापथिक कर्म कहा जाता है।

(१) पापकर्म/विकर्म

जैनागमों में पाप कर्म के १८ प्रकार बताये हैं-

(१) प्राणातिपात (हिंसा),(२) मृषावाद (असत्य भाषण),(३) अदत्तादान (चौर्यकर्म), (४) मैथुन (काम-विकार), (५) परिग्रह (ममत्व या संचयवृत्ति), (६) क्रोध, (७) मान (अहंकार), (८) माया (कपट), (९) लोभ, (१०) राग (आसक्ति), (११) द्वेष (घृणा, तिरस्कार, ईर्ष्यादि), (१२) क्लेश (संघर्ष, कलह), (१३) अभ्याख्यान (दोषारोपण), (१४) पिशुनता (चुगली), (१५) परपरिवाद (परनिन्दा), (१६) रति-अरति (हर्ष और शोक), (१७) माया मृषा (कपटसहित असत्य भाषण), (१८) मिथ्यादर्शन शल्य (अयथार्थ दृष्टि)।

पाप की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो आत्मा को बंधन में डाले, जिसके कारण आत्मा का पतन हो, जो आत्मा के आनन्द का शोषण करे-आत्म शक्तियों को क्षय करे, वह पाप है।

पुराणों में भी विकर्म अर्थात् पापकर्मों का वर्णन “पापाय परपीड़नम्” कहकर किया है अर्थात् व्यक्ति की जिस क्रिया के द्वारा किसी को पीड़ा पहुँचे, वही पाप है।

भविष्यपुराणकारानुसार-मनुष्य के अधम कार्यों से ही उसका अध: पतन होता है-अर्थात् जिनसे अध: पतन हो वे ही अधम अथवा नीचकर्म हैं। जिन कर्मों से नर्क के समुद्र की यातना भोगनी पड़े, वह पाप कहलाता है। अधम या पापकर्मों की संख्या का निर्धारण नहीं किया जा सकता है। स्थूल, सूक्ष्म अथवा अतिसूक्ष्म आदि भेदों की दृष्टि से पाप असंख्य हो सकते हैं। स्थूल दृष्टि से पाप तीन प्रकार के होते हैं

(१) मानसिक- परस्त्री चिंतन, पर अनिष्ट चिंतन, पर धनहरण की इच्छा, अकार्य करने का विचार आदि मानसिक पाप हैं।

(२) वाचिक- झूठ बोलना, परनिन्दा, अप्रिय वचन तथा पैशुन्य (चुगली करना) आदि वाचिक पाप हैं।

(३) कायिक अभक्ष्य- भक्षण, हिंसा, परधन हरण तथा मिथ्या (झूठे) कार्य करना आदि कायिक पाप हैं।

(२) पुण्यकर्म/कर्म

जैन तत्त्वज्ञान के अनुसार “पुण्य कर्म वे शुभ पुद्गल परमाणु हैं जो शुभ वृत्तियों एवं क्रियाओं के कारण आत्मा की ओर आकर्षित हो, बंध करते हैं और अपने विपाक के अवसर पर शुभ अध्यवसायों, शुभ विचारों एवं क्रियाओं की ओर प्रेरित करते हैं तथा आध्यात्मिक, मानसिक एवं भौतिक अनुकूलताओं के संयोग प्रस्तुत कर देते हैं। आत्मा की वे मनोदशाएँ एवं क्रियाएँ भी पुण्य कहलाती हैं जो शुभ पुद्गल परमाणु को आकर्षित करती हैं। साथ ही दूसरी ओर वे पुद्गल परमाणु जो इन शुभ वृत्तियों एवं क्रियाओं को प्रेरित करते हैं और अपने प्रभाव से आरोग्य, सम्पत्ति एवं सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान एवं संयम के अवसर उपस्थित करते हैं, पुण्य कहे जाते हैं। शुभ मनोवृत्तियाँ भाव पुण्य हैं और शुभ पुदल परमाणु द्रव्य पुण्य हैं ।

भगवतीसूत्र में अनुकम्पा, सेवा, परोपकार आदि शुभ प्रवृत्तियों को पुण्योपार्जन का कारण कहा है। स्थानांगसूत्र में नौ प्रकार के पुण्यों का निरूपण है-

(१) अन्नपुण्य-भोजनादि देकर क्षुधार्त की क्षुधा निवृत्ति करना।

(२) पानपुण्य-तृषा (प्यास) से पीड़ित व्यक्ति को पानी पिलाना।

(३) लयनपुण्य-निवास के लिए स्थान देना।

(४) शयनपुण्य-शय्या बिछौना आदि देना।

(५) वस्त्रपुण्य-वस्त्र का दान देना।

(६) मनपुण्य-मन से शुभ विचार करना।

(७) वचनपुण्य-प्रशस्त एवं सन्तोष देने वाली वाणी का प्रयोग करना।

(८) कायपुण्य-रोगी, दुःखित एवं पूज्य जनों की सेवा करना।

(९) नमस्कारपुण्य-गुरुजनों के प्रति आदर प्रकट करने के लिए उनका अभिनन्दन करना।

पुण्य के सन्दर्भ में पुराणों के लिए यह कथन विख्यात है:

अष्टादश पुराणेषु, व्यासस्य वचन द्वयम्।
परोपकारो पुण्याय, पापाय परपीडनम् ।।

पुण्य से यहाँ भी तात्पर्य परोपकार लिया गया है। सेवा, दानादि के द्वारा पुण्य प्राप्ति का उल्लेख पुराणों में कई जगह उपलब्ध होता है।

(३) ईर्यापथिक कर्म/अकर्म

जैन दर्शन के अनुसार-राग, द्वेष एवं कषाय ही किसी क्रिया को कर्म बना देते हैं जबकि कषाय एवं आसक्ति से रहित होकर किया हुआ कर्म, अकर्म बन जाता है। ईर्यापथिक क्रियाएँ निष्काम वीतराग व्यक्ति की क्रियाएँ हैं, जो बंधनकारक नहीं हैं। जबकि साम्परायिक कियाएँ आसक्त व्यक्ति की होती हैं जो कषाय सहिद होने से बन्धनकारक होती है। कर्म-अकर्म के विषय को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि "कर्म का अर्थ शरीरादि की चेष्टा एवं अकर्म का अर्थ शरीरादि की चेष्टा का अभाव-ऐसा नहीं मानना चाहिए। वस्तुतः प्रमाद कर्म है, अप्रमाद अकर्म है।* "जो आस्रव या बन्धनकारक क्रियाएँ हैं वे ही अनासक्ति एवं विवेक से समन्वित होकर मुक्ति के साधन बन जाती है । ७° उदाहरणस्वरूप दशवैकालिक सूत्र में यह प्रश्न पूछे जाने पर कि आवश्यक क्रियाएँ (जो कि करना जरूरी हैं जैसे चलना, ठहरना, बैठना, सोना, खाना, बोलना आदि) कैसे करे ताकि उनसे पापकर्म का बंध न हो? उत्तर इस प्रकार दिया गया है:

जयं चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए।
जयं भुंजतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधई ।।

अर्थात् चलना आदि क्रियायें विवेकपूर्वक करने से पापकर्म का बंध नहीं होता। तात्पर्य यही है कि बंधकत्व मात्र क्रियाओं पर ही निर्भर नहीं है। अप्रमत्त अवस्था में क्रियाशीलता भी अकर्म हो जाती है जबकि प्रमत्तदंशा में निष्क्रियता भी कर्म (बंधन) बन जाती है। अतः क्रिया के पीछे रहे हुए कषाय-भाव या आसक्ति भाव ही बंधन का कारण है; जो अन्तर से राग-द्वेषरूप भावकर्म नहीं करता, उसे नये कर्म का बंध नहीं होता।

आसक्ति रहित निष्काम कर्म का, अकर्म के रूप में पुराणों में भी वर्णन है। योगी जनों में इस अवस्था की प्राप्ति को दिखाते हुए मार्कण्डेय पुराण का कथन है-“पुण्यों और अपुण्यों के उपभोग के पश्चात् निष्काम भाव से नित्यकर्म करने चाहिए, इससे पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षय एवं नवीन कर्मों का असंचय होने से शरीर बार बार कर्मबन्धन प्राप्त नहीं करता। इस प्रकार के निष्काम कर्म करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है और इसके विपरीत आचरण करने से पुनः जन्म होता है।" वस्तुतः बंध का कारण मानसिक आसक्ति है:

मन एव मनुष्याणां, कारणं बन्धमोक्षयोः ।
बन्धाय विषयासक्तं, मुक्त्यै-निर्विषयं स्मृतम् ।।

अर्थात् विषयों में आसक्त मन द्वारा बंध होता है तथा निर्विषय (विषयों में अनासक्त निष्काम) मन द्वारा मुक्ति प्राप्त होती है। पद्मपुराण में निष्काम कर्म से अबंध का निरूपण करते हुए कहा गया है-कुछ लोग मन से ही तरित हो जाते हैं और कुछ लोग मन से ही पतित हो जाया करते हैं। योगी अन्दर से सबका (मन से सभी आसक्तियों का) परित्याग तथा बाह्य में कर्म का समाचरण करते हुए भी लिप्त नहीं होता है, जिस प्रकार नीर के लेशों से भी पद्म का पात्र लिप्त नहीं हुआ करता है।

कर्म की विविध अवस्थाएँ

जैन कर्मशास्त्र में कर्म की विविध अवस्थाओं का वर्णन मिलता है, मुख्यतः उन्हें ग्यारह भागों में विभक्त किया गया है-

(१) बंधन- आत्मा के साथ कर्म परमाणुओं का बंधन अर्थात् नीरक्षीरवत् एकरूप हो जाना बंधन कहलाता है। बंधन चार प्रकार का है प्रकृतिबंध = बद्ध कर्म परमाणुओं का आत्मा के ज्ञान आदि गुणों के आवरण रूप में परिणत होना। प्रदेशबंध = गृहीत पुद्गल परमाणुओं के समूह का कर्मरूप से आत्मा के साथ बद्ध होना। अनुभागबंध = कर्मरूप गृहीत पुद्गल परमाणुओं के फल देने की शक्ति व उसकी तीव्रता-मंदता का निश्चय करना अनुभागबंध है। स्थिति बंध = कर्मविपाक (कर्मफल) के काल की मर्यादा को बताना स्थितिबंध है।

(२) सत्ता- बद्ध परमाणु अपनी निर्जरा अर्थात् क्षयपर्यन्त आत्मा में सम्बद्ध रहते हैं. इस अवस्था का नाम सत्ता है। इस अवस्था में कर्म अपना फल प्रदान न करते हुए भी विद्यमान रहते हैं।

(३) उदय- कर्म की फल प्रदान करने की अवस्था को उदय कहते है उदय में आने वाले कर्म पुद्गल अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार फल देकर नष्ट हो जाते हैं।

(४) उदीरणा - नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना उदीरणा कहलाता है। जिस प्रकार प्रयत्न द्वारा नियत समय से पहले फल पकाये जा सकते हैं, उसी प्रकार प्रयलपूर्वक नियत समय से पहले बद्ध कर्मों को भोगा जा सकता है।

(५) उद्वर्तना- बद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग। इसका निश्चय बंध के साथ विद्यमान कषाय की तीव्रता और मन्दता के अनुसार होता है। उसके बाद की स्थिति-विशेष, अथवा भाव-विशेष, अध्यवसाय-विशेष के कारण उस स्थिति के अनुभाग में वृद्धि हो जाना उद्वर्तन (उत्कर्षण) कहलाता है।

(६) अपवर्तना- यह अवस्था उद्वर्तना से बिल्कुल विपरीत है। बद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग में अध्यवसायविशेष से कमी कर देने का नाम अपवर्तना (अपकर्षणा) है।

(७) संक्रमण- एक प्रकार के कर्म परमाणुओं की स्थिति आदि का दूसरे प्रकार के परमाणुओं की स्थिति आदि में परिवर्तन अथवा परिणमन होना संक्रमण कहलाता है।

(८) उपशमन- कर्म की जिस अवस्था में उदय अथवा उदीरणा संभव नहीं होती, उसे उपशमन कहते हैं। इस अवस्था में भी उद्वर्तना, अपवर्तना और संक्रमण की संभावना का अभाव नहीं होता । उपशमन अवस्था में रहा हुआ कर्म उस अवस्था के समाप्त होते ही अपना कार्य प्रारम्भ कर देता है अर्थात् उदय में आकर फल प्रदान करना शुरू कर देता है।

(९) निधत्ति- कर्म की उदीरणा और संक्रमण के सर्वथा अभाव की स्थिति को निधत्ति कहते हैं। इस स्थिति में उद्वर्तना और अपवर्तना की संभावना रहती है।

(१०) निकाचन- उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण और उदीरणा-इन चार अवस्थाओं के न होने की स्थिति का नाम निकाचन है। इस अवस्था का अर्थ हैकर्म का जिस रूप में बंध हुआ, उसी रूप में उसे अनिवार्यतः भोगना इस अवस्था को “नियति” भी कह सकते हैं। किसी-किसी कर्म की यह अवस्था भी होती है।

(११) अबाध - कर्म के बंधन के बाद अमुक समय तक किसी प्रकार का फल न देना अबाध अवस्था है । यद्यपि कर्मवाद का जितना सयुक्तिक, विस्तृत, सूक्ष्म एवं व्यवस्थित विश्लेषण जैन दर्शन में है, उतना अन्यत्र दुर्लभ है; किन्तु फिर भी कर्म सिद्धान्त का वर्णन करते हुए पुराणों में भी कर्म की कुछ अवस्थाओं का वर्णन है जिनका साम्य उपर्युक्त अवस्थाओं से है।

पौराणिक साहित्य में कर्म की तीन अवस्थाएँ मानी गई हैं-संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण। वर्तमान क्षण के पूर्व तक किये गये समस्त कर्म संचित कर्म कहे जाते हैं। संचित कर्म के जिस भाग का फलभोग शुरू हो जाता है, उसे प्रारब्ध कर्म कहा जाता है। नवीन कर्म संचय को क्रियमाण कर्म कहते हैं। इनमें से संचित कर्म की तुलना जैन दर्शन वर्णित कर्म की सत्ता अवस्था से, प्रारब्ध कर्म की तुलना उदयकर्म से तथा क्रियमाण कर्म की तुलना बंधमान कर्म से हो सकती है। जैनदर्शन वर्णित निकाचित अवस्था पुराणों में वर्णित नियतिवाद (दैववाद) के तुल्य है स्था कर्मों में परिवर्तन सम्बन्धी अवस्थाओं की तुलना मुरुषार्थवाद से हो सकती है।

कर्मबंध

कर्ममल का सम्बन्ध आत्मा के साथ अनादि है किन्तु कर्म विशेष का सम्बन्ध अनादि न होने से पूर्वबद्ध कर्म अपनी स्थिति पूर्ण हो जाने पर आत्मा से पृथक् हो जाते हैं तथा नये कर्मों का बन्ध चलता रहता है। कर्मबन्ध के प्रमुख दो कारण जैन धर्म में बताये गये हैं कषाय एवं योग। इनमें से भी कषाय ही कर्मबन्ध का मुख्य हेतु है। कषाय के अभाव में कर्म आत्मा से सम्बद्ध नहीं रह सकते। जैसे सूखे वस्त्र पर धूल अच्छी तरह से न चिपकते हुए उसका स्पर्श कर अलग हो जाती है वैसे ही आत्मा में कषाय की आर्द्रता न होने पर कर्म परमाणु भी सम्बद्ध न होते हुए उसका स्पर्श कर अलग हो जाते हैं। वैसे तो कषाय चार प्रकार का होता है-क्रोध, मान, माया और लोभ; किन्तु संक्षिप्त में इसके दो भेद हैं-राग और द्वेष, जिनके द्वारा कर्म बंध होता रहता है।

कर्म के दो भेद हैं-भावकर्म तथा द्रव्यकर्म । जीव के जिन राग-द्वेषरूप भावों का निमित्त पाकर अचेतन कर्मद्रव्य आत्मा की ओर आकृष्ट होता है, उन भावों का नाम भावकर्म है और जो अचेतन कर्मद्रव्य आत्मा के साथ सम्बद्ध होता है, उसे द्रव्यकर्म कहते हैं। ये दोनों परस्पर एक-दूसरे के कारण हैं । जीव अपने मन-वचन-काय की प्रवृत्तियों से कर्मवर्गणा के पुद्गलों को आकर्षित करता है। त्रियोग की प्रवृत्ति तभी होती है जब जीव कर्म-सम्बद्ध हो। इस तरह प्रवृत्ति से कर्म और कर्म से प्रवृत्ति अर्थात् द्रव्यकर्म से भावकर्म एवं भावकर्म से द्रव्यकर्म की परम्परा (बीज-वृक्ष के समान) चलती रहती है।

राग-द्वेष मय आन्तरिक परिणामों से बंध होता है-“परिणामे बंधः” राग-द्वेष में निरत मन कर्मबंध का कारण है। मन एक ऐसी प्रचण्ड शक्ति है जिसका उपयोग दोहरा होता है अर्थात यह दुधारी तलवार है; जिसके सदुपयोग से सफलता मिलती है, वहीं दुरुपयोग से विनाश, हास एवं पतन की प्राप्ति होती है। मन को दुष्ट घोड़े की उपमा दी गई है, जिसे धर्मशिक्षा और स्वविवेक द्वारा वशीभूत किया जा सकता है। मनोविजय के सम्बन्ध में हेमचन्द्राचार्य का यह कथन है निरंकुशमनराक्षस है-जो निःशंक होकर दौड़-धूप करता रहता है और तीनों जगत् के जीवों को संसार रूपी गड्ढे में गिराता है। ३ मिथ्यात्व या अज्ञान की अवस्था में आन्तरिक विवेक प्रसुप्त हो जाता है।

कर्मबंध के कारण पर पुराणों में भी चिन्तन किया गया है। पूर्ववत् कर्मबंध का प्रमुख कारण अज्ञान को माना है-

अदिभराप्लावितं क्षेत्रं जनयत्यंकरं यथा।
अज्ञानाप्लावितं कर्म देहं जनयते तथा ।।

अर्थात् जिस प्रकार जल से आप्लावित क्षेत्र अंकुर को उत्पन्न करता है उसी प्रकार अज्ञानाप्लावित (अज्ञानपूर्वक किया गया) कर्म ही जन्म का कारण होता है।"

मानसिक कषाय विकारों द्वारा बन्धन का प्रतिपादन करते हुए पुराणों का भी यही मन्तव्य है कि मन द्वारा बद्ध पापकर्म वज्रलेप के समान होते हैं, जो कई कल्पों तक पीछा नहीं छोड़ते, ऐसा पाप केवल ध्यान से ही नष्ट होता है। इसीलिए विषयों में आसक्त मन को बंधन का कारण माना है।

जिस प्रकार जैन दर्शन में कर्म को पौगलिक मानते हुए उसे कार्मण शरीर कहा जाता है, जो ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के पुद्गल-समूह से बनता है; वैसे ही पुराणों में कर्मदेह को सूक्ष्म शरीर कहा गया है, जो जड़ है।

आश्रव

शुभाशुभ कर्मों के आगमन द्वार को आश्रव कहते हैं। आश्रव के दो भेद हैं-द्रव्याश्रव तथा भावाश्रव; शुभ-अशुभ परिणामों को उत्पन्न करने वाली अथवा शुभाशुभ परिणामों से स्वयं उत्पन्न होने वाली प्रवृत्तियों को द्रव्याश्रव और कमों के आने के द्वाररूप जीव के शुभ-अशुभ परिणामों को भावास्रव कहते हैं। मन, वचन, काय की क्रिया को योग कहते हैं। यह नीन प्रकार का योग आश्रव है। शुभयोग पुण्य कर्म का तथा अशुभयोग पापकर्म का आश्रव है, कषाय-सहित जीव के सांपरायिक आश्रव और कषाय रहित के ईर्यापथ आश्रव होता है।

आश्रव का नाम से तो नहीं किन्तु कर्मों के आगमन के रूप में उल्लेख पुराणों में भी पाया जाता है। भावरूप राग-द्वेषादि विकार के कारण तथा अज्ञान-मोहादि से कर्म का शुभ या अशुभ रूप में आगमन होता रहता है, जो सूक्ष्म शरीर के रूप में आत्मा के साथ रहता है।

संवर

आश्रव का निरोध संवर है। संवर के दो भेद हैं-भाव संवर, द्रव्य संवर। आते हुए नये कर्मों को रोकने वाले आत्मा के परिणाम को भाव संवर तथा कर्म पुदलों के आगमन के रुक जाने को द्रव्य संवर कहते हैं अर्थात् जिन कारणों से आश्रव होता था, उन कारणों को दूर कर देने से जो कर्मों का आना बन्द हो जाता है, उसे संवर कहते हैं। यह तीन गुप्ति, पाँच समिति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परिषहजय और पाँच चारित्र से होता है।" पुराणों में आश्रव के समान ही संवर का भी नामशः उल्लेख न होकर कर्मों का आगमन रुकने के रूप में वर्णन इस प्रकार है-"जो अपनी आसक्ति का परित्याग कर देते हैं, वे आवश्यक कर्म करते हुए भी कर्मलिप्त नहीं होते अर्थात् संयम, इन्द्रिय संवरण आदि द्वारा आने वाले नवीन कर्म उनमें प्रवेश नहीं कस्ते हैं।

निर्जरा

आत्मा के साथ नीर-क्षीर की तरह आपस में मिले हुए कर्मपुद्गलों का एकदेश क्षय होने को निर्जरा कहते हैं। आत्मप्रदेशों से कर्मों का एकदेश पृथक् होना द्रव्यनिर्जरा और द्रव्यनिर्जरा के जनक अथवा द्रव्यनिर्जरा-जन्य आत्मा के शुद्ध परिणाम को भावनिर्जरा कहते हैं। निर्जरा के दो भेद हैं-सविपाक निर्जरा = फल देकर स्थिति पूर्ण हो जाने पर आत्मा से कर्म का पृथक् होना सविपाक निर्जरा कहलाती है। अविपाक निर्जरा = उदयकाल प्राप्त न होने पर भी तप आदि उपायों से कर्मों के क्षय करने को अविपाक निर्जरा कहते हैं। इसके अनशन, उनोदर आदि बारह प्रकार भी जैनागमों में वर्णित हैं।

पुराणों में वर्णित कर्मों का निर्मूलन जैन धर्म वर्णित निर्जरा के सदृश ही है। योगी द्वारा तप तथा ध्यानादि योग मार्ग से पूर्वबद्ध शुभाशुभ कर्मों का क्षय किया जाना अर्थात् मुक्ति के लिए समस्त कर्मों को नष्ट करने का यही तात्पर्य है।

मोक्ष

चारों पुरुषार्थों में से अन्तिम तथा परम पुरुषार्थ मोक्ष को प्राप्त करने के हेतुओं का निर्देश लगभग सभी कर्मवादी दर्शनों में दृष्टिगोचर होता है। असत् कर्मों का भयंकर परिणाम तथा सत्कर्मों का सुन्दर विपाक सामने रखकर ही दार्शनिक सन्तुष्ट नहीं हुए। इससे भी आगे के लक्ष्य प्राप्ति का ध्येय सामने रखते हुए सुख एवं दुःख दोनों को नश्वर मानते हुए शुद्ध-स्वरूप की प्राप्ति पर बल दिया। कर्म-संलग्न आत्मा अशुद्ध है। जैन दर्शन के अनुसार “संवर के द्वारा नये कर्मों का आगमन रुक जाने पर तथा निर्जरा के द्वारा समस्त पुरातन कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा की जो निष्कर्म शुद्धावस्था है, वही मोक्ष है-“कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः' अर्थात् समस्त कर्मों का क्षय होना मोक्ष है। कर्मक्षय या नाश का अर्थ यहाँ पृथक्करण है।

भारत के अन्य दर्शनों ने भी मोक्ष के विषय में यही चिन्तन प्रस्तुत किया है। सांख्य दर्शनकार ने “प्रकृति वियोगो मोक्षः” कहकर आत्मा रूप पुरुषत्व से प्रकृति रूप अचेतन तत्त्व का अलग हो जाना मोक्ष कहा है। वेदान्तिक आचार्य के अनुसार-परब्रह्म स्वरूप ईश्वरीय शक्ति में आत्मा का लीन हो जाना मुक्ति है- आत्मण्येव लयो मुक्तिर्वेदान्तिक मते मताः।

जैनाचार्य हेमचन्द्र ने संसार एवं मोक्ष को परिभाषित किया है-“कषायों और इन्द्रियों से पराजित आत्मा ही संसार है और उनको विजित करने वाला आत्मा ही प्रबुद्ध पुरुषों द्वारा मोक्ष कहा जाता है । “मुच्” धातु से निष्पन्न मोक्ष का शाब्दिक अर्थ-मुक्ति, स्वतन्त्रता, छुटकारा एवं निवृत्ति है। इसके लिए अनेक पर्यायवाची शब्द प्रचलित हैं-मुक्ति, सिद्धि, निर्वाण, अमृतत्त्व, बोधि, विमुक्ति, विशुद्धि, कैवल्य आदि।

जिस प्रकार जैन धर्म में सम्पूर्ण कर्म क्षय को मोक्ष कहा गया है, वैसे ही पुराणों में मोक्ष की प्राप्ति का सम्पूर्ण कर्मों के क्षय होने पर ही उल्लेख है। पूर्वजन्मों में अर्जित शुभ या अशुभ कर्मों के प्रभाव से स्वर्गादि या नरकादि में भ्रमण होता है। कर्मों का निर्मूलन होने पर ही मुक्ति होती है। पुण्य-पापमय जो कर्म हैं, वे मोक्ष के प्रतिबंधक हैं अतः योगी पुरुष योग के द्वारा पुण्यापुण्य का परित्याग कर दें, जब शुभ तथा अशुभ दोनों ही कर्मों का क्षय हो जाता है तभी जीव को सच्चा मोक्ष प्राप्त होता है। योगी लोग पुण्य-पाप से विनिर्मुक्त होकर उसको प्राप्त करके फिर पुनर्जन्म नहीं लेते हैं।

मोक्ष प्राप्ति के साधन

मुक्ति प्राप्ति के मार्ग अथवा हेतु अथवा साधनों पर विभिन्न दर्शनों के विभिन्न विचार हैं। जैन दर्शन में मोक्ष-मार्ग का निर्देश इस प्रकार से है-

सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः

सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकूचारित्र- ये मोक्ष प्राप्ति के साधन हैं। मात्र ज्ञान अथवा मात्र दर्शन या चारित्र से ही मुक्ति प्राप्त नहीं होती अपितु ये तीनों संयुक्त रूप से मोक्ष के हेतु हैं। अतः इन्हें रत्नत्रय कहा जाता है। इन तीनों की परस्पर सापेक्षता महात्मा भगवानदीन के शब्दों में इस प्रकार से है-“कोरा एतकाद (श्रद्धा) कुछ नहीं कर सकता; न अकेले इल्म (ज्ञान) से कुछ बन सकेगा। सिर्फ अमल से तो कुछ होता ही नहीं, विश्वास और ज्ञान मिलकर अमल न होने से कोई फायदा नहीं। विश्वास और अमल बिना ज्ञान के न मालूम कहाँ पटक दे। ज्ञान और अमल बिना विश्वास के बेस्टीम (भाप रहित) के इंजन हैं। विश्वास एक जोर है जो काम में लगाता ही नहीं, आगे ढकेलता रहता है। गरज कामयाबी के लिए तीनों ही जरूरी हैं।

उपासना के तीनों साधनों का निरूपण पुराणों में भी है। शिव पुराण के अनुसार-ज्ञानयोग, क्रियायोग तथा भक्तियोग, ये तीन उपासना के मार्ग हैं। कर्म से भक्ति तथा भक्ति से ज्ञान और ज्ञान से मुक्ति होती है। इसमें तीनों का समन्वय भी स्पष्ट है। तीनों की परस्पर निर्भरता इस प्रकार है-“कर्म तथा ज्ञान का मध्यवर्ती पदार्थ भक्ति है और ज्ञान का प्रधान सम्बन्ध आत्मा से है। शुद्ध सात्विक ज्ञान के उदय होने पर आत्मा शाश्वतिक सुख प्राप्त कर सकता है। सात्विक ज्ञान के उदय में विहित कर्मानुष्ठान कारण बनता है।

पूर्ववर्णित तीनों साधनों का यहाँ वर्णन किया जा रहा है-

(१) सम्यग्दर्शन

जो महत्त्व नगर के लिए द्वार का, चेहरे के लिए चक्षु का, वृक्ष के लिए मूल का है, वही महत्त्व धर्म के लिए सम्यग्दर्शन का है। दर्शनपूर्वक ही ज्ञान, चारित्र, वीर्य और तप होता है। संसार में ऐसा कोई रन नहीं, जो सम्यक्त्वरल से बढ़कर हो। सम्यक्त्व से बढ़कर कोई मित्र, बंधु या लाभ हो ही नहीं सकता। ज्ञान तथा चारित्र से रहित होने पर भी सम्यग्दर्शन प्रशंसा के योग्य है, किन्तु मिथ्यात्व विष से दूषित ज्ञान और चारित्र प्रशंसित नहीं होते। सम्यग्दर्शन ज्ञान तथा चारित्र का बीज है, व्रत, महाव्रत और उपशम के लिए जीवनस्वरूप है, तप और स्वाध्याय का आश्रयदाता है। इस प्रकार शमादि सभी को यह सफल करने वाला है। वस्तुतः दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और जिसमें ज्ञान नहीं, उसमें चारित्रिक गुण नहीं होते, ऐसे गुणहीन पुरुष की मुक्ति नहीं होती एवं मुक्ति के बिना शाश्वत सुख की प्राप्ति भी नहीं होती।

सम्यग्दर्शन की परिभाषा उमास्वाति के अनुसार इस प्रकार है-"तत्त्वार्थ का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है।" यहाँ श्रद्धा, विश्वास का तात्पर्य अन्धश्रद्धा से नहीं, सम्यग्दृष्टि से है। उत्तराध्ययन में सम्यग्दर्शन को स्पष्ट करते हुए कहा है स्वयं ही अपने विवेक से अथवा किसी के उपदेश से सद्भूत तत्त्वों के अस्तित्व में आन्तरिक श्रद्धा या विश्वास करना सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व की एक परिभाषा यह भी है-देव के विषय में देवबुद्धि रखना, गुरु के प्रति गुरुबुद्धि रखना तथा धर्म में शुद्ध धर्मबुद्धि सम्यक्त्व कहलाती है। सम्यक्त्व से विपरीत मिथ्यात्व को परम शल्य, परम विष तथा बंध का कारण बताते हुए लिखा है कि मिथ्यात्वरूपी महादोष जीवन के लिए जितना भयंकर दुःखदायी है, उतनी न अग्नि भयकारक है, न हलाहल विष और न विषधर कृष्ण भुजंग ही है। जितने उत्कृष्ट लाभ सम्यक्त्व से हैं, उतनी ही निकृष्ट हानियाँ मिथ्यात्व से हैं।

सम्यग्दर्शन-सम्पन्न व्यक्ति मूढ़ताओं (लोक मूढ़ता, देव मूढ़ता, पाखण्डी मूढ़ता), अंधविश्वासों से मुक्त रहता है, उसके पाँच लक्षण बताये गये हैं-(१) शम (उत्तेजित होते हुए क्रोधादि कषाय भावों को शांत करना), (२) संवेग (मोक्ष की अभिलाषा), (३) निर्वेद (संसार से उदासीनता, वैराग्य), (४) अनुकंपा (दुःखियों के दुःख मिटाने की भावना) तथा (५) आस्था (धर्म में दृढ़ विश्वास)।

सम्यग्दर्शन के कारण आसक्ति घटती जाती है। व्यक्ति निराकांक्षी होता जाता है। सूत्रकृतांग के अनुसार-"व्यक्ति विद्वान, भाग्यवान तथा पराक्रमी होने पर भी यदि उसका दृष्टिकोण मिथ्या (असम्यक्) है, तो उसका दान तप समस्त पुरुषार्थ फलाकांक्षा से होने के कारण अशुद्ध ही होगा। वह उसे मुक्ति की ओर न ले जाकर बंधन की ओर ही ले जायेगा। सम्यग्दर्शन के अभाव में व्यक्ति में आत्मा में अनात्मबुद्धि तथा अनात्मा में आत्मबुद्धि एवं इस प्रकार के अनेक वैपरीत्य दृष्टिगत होते हैं।

सम्यग्दर्शन का महत्त्व जैन संस्कृति के अतिरिक्त वैदिक संस्कृति में भी स्वीकृत है। महर्षि मनु के अनुसार सम्यग्दर्शन के अभाव में संसार में भ्रमण होता है। पुराणों में सम्यग्दर्शन का सत्यदृष्टि (विवेक), श्रद्धा (आस्था), समत्व (शम), वैराग्य (निर्वेद), अनुकम्पा तथा मोक्षाभिलाषा (संवेग) इन लक्षणों के रूप में प्रचुर वर्णन है।

विवेक- विवेक की प्राप्ति होना परम दुर्लभ है । अनात्मा में आत्मज्ञान की प्राप्ति तथा आत्मा में अनात्मज्ञान से ही व्यक्ति दु:खी होता है, सुख-दुःख की यथार्थता न समझते हुए तथा उन्हें अपना मानते हुए वास्तविक तथ्य से वंचित रह जाता है।

आस्था- श्रद्धा का महत्त्व इतना है कि उसके अभाव में किये गये सभी धार्मिक कार्य व्यर्थ हो जाते हैं। श्रद्धा बिना दिया गया दान फलशून्य तथा तपस्या मात्र अपने देह को कष्ट देती है।

समत्व- समत्व मोक्ष का एकमात्र उपाय है, अतः चित्त को समदर्शी बनाना चाहिए। मिथ्या प्रवर्तित न होने वाला जो मन इष्ट-संयोग में प्रसन्न एवं अनिष्ट-संयोग में उद्विग्न न हो-यही शम का लक्षण है।

वैराग्य- क्षय होने के स्वभाव वाली वस्तु में रुचि न होना वैराग्य है । जगत् के सुख भी वस्तुतः दुःखरूप हैं, अत: वैराग्य से बढ़कर कोई सुख नहीं है ।

अनुकम्पा सज्जनों में दया स्वभावतः होती है। वे शत्रु-मित्र का भेद मिटाकर सभी के लिए दया का स्रोत प्रवाहित करते हैं। सहनशील, सब पर दया करने वाले, सबके प्रिय, जिनका कोई शत्रु नहीं, ऐसे शान्त स्वभाव साधु सब साधुओं के आभूषण रूप हैं।

मोक्षाभिलाषा- समस्त शुभाशुभ कर्मों का निर्मूलन करके उस मुक्ति रूपी परम-पद को अमूढ़ व्यक्ति ही प्राप्त करता है । इतना ही नहीं, सम्यग्दर्शन का नामश: भी उल्लेख है-“सम्यग्दर्शन सम्पन्नः स योगी भिक्षुरुच्यते ।

(२) सम्यग्ज्ञान

जो पदार्थ को न्यूनता, अधिकता विपरीतता-सन्देहरहित जानता है, वह सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्दर्शन का लक्षण यथार्थ श्रद्धान है तथा सम्यग्ज्ञान का लक्षण यथार्थ जानना है। सम्यग्ज्ञान कार्य है तथा सम्यग्दर्शन कारण है, क्योंकि सम्यग्दर्शन के अभाव में भी मति, श्रुतज्ञान पदार्थ को जानते थे पर वे कुमति और कुश्रुत थे। यद्यपि दीपक का जलना और प्रकाश एक ही साथ होता है, जब तक दीपक जलता रहता है तब तक ही उसका प्रकाश रहता है, परन्तु दीपक का जलना प्रकाश का कारण है और प्रकाश कार्य है। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान एक ही समय में होते हुए भी कारण तथा कार्य हैं। ज्ञान की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहा है “पढम नाणं तओ दया अर्थात् चारित्र-पालन से पूर्व ज्ञान आवश्यक है। वस्तुतः सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के बीच की कड़ी है, उससे इन दोनों में निखार आता है। जिस प्रकार धागे में पिरोई सुई गिर जाने पर गुम नहीं होती, वैसे ही ज्ञानरूप धागे से युक्त आत्मा संसार में भटकती नहीं। ज्ञानी आत्मा ही स्व एवं पर के कल्याण में समर्थ होता है ।

ज्ञान का महत्त्व पुराणों में वर्णित है। समस्त बाह्याचरणों से ज्ञान को श्रेष्ठ बताते हुए कहा है-समस्त दान, अशन, व्रत, उपवास-तप तथा तीर्थस्नान ये सब किसी अज्ञानी को ज्ञान के दान की सोलहवीं कला के भी समान योग्य नहीं है। ज्ञान ही परब्रह्म हैं । इस संसार रोग की औषध एक मात्र ज्ञान ही है। अज्ञान मलपूर्वक होने से पुरुष मलिन कहा गया है। उस अज्ञान के क्षय होने से मुक्ति होती है अन्यथा करोड़ों जन्मों में भी मुक्ति नहीं हो सकती है। ज्ञान के अभ्यास से बुद्धि निर्मल हो जाती है। ज्ञान सहित योगी का इस लोक और परलोक में कुछ भी कर्तव्य शेष नहीं रहता, ब्रह्मवेत्ता परमार्थ रूप से जीवन्मुक्त हो जाता है। ज्ञान से बढ़कर पापों का विनाश करने वाला अन्य कोई साधन नहीं है। ज्ञानी पुरुष के समस्त पाप जीर्ण हो जाते हैं। ज्ञानी पुरुष कर्म करता हुआ भी नाना प्रकार के पापों से बद्ध नहीं होता। जैसा ज्ञान होता है, वैसा ही ध्यान होता है। ज्ञान से ही वैराग्य की उत्पत्ति होती है तथा वैराग्य से परमज्ञान होता है। सत्वनिष्ठ ज्ञान तथा वैराग्ययुक्त. योगी योग-सिद्धि प्राप्त करता है।३

जैनागमों में ज्ञान के पाँच प्रकारों का वर्णन आता है।

मतिज्ञान- मन तथा इन्द्रियों की सहायता से होने वाले पदार्थ के ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं।

श्रुतज्ञान- जो ज्ञाम श्रुतानुसारी हो, जिसमें शब्द तथा अर्थ का सम्बन्ध भासित होता है, जो मतिज्ञानपूर्वक होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं।

अवधिज्ञान- इन्द्रियादि की सहायता के बिना आत्मा के द्वारा सीमा को लिए हुए पदार्थ के विषय में अन्तःसाक्ष्य-रूपज्ञान अवधिज्ञान है। इससे रूपी पदार्थों का ज्ञान होता है।

मन:पर्ययज्ञान- संज्ञी (समनस्क) जीवों के मनोगत भावों को जानने वाला ज्ञान मनःपर्यय ज्ञान है।

केवलज्ञान- ज्ञानावरण कर्म का पूर्ण रूप से क्षय हो जाने पर जिस ज्ञान के द्वारा भूत, वर्तमान तथा भावी (त्रिकालवर्ती) समस्त द्रव्य और उनकी समस्त पर्यायें एक साथ जानी जायें, उसे केवलज्ञान कहते हैं।

इनमें से प्रथम दो ज्ञान मति और श्रुत परोक्ष ज्ञान हैं जो इन्द्रियों तथा मन की सहायता से उत्पन्न होते हैं। शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान हैं जो मात्र आत्मा पर आधारित है।

ज्ञान के इन प्रकारों में से कुछ समानता रखते हुए पुराणों में ज्ञान के विभिन्न प्रकारों का अधोलिखित रूप से वर्णन है-

श्रुति, स्मृति (स्मृति भी मति का पर्यायवाची शब्द है) ये वित्रों के दो नेत्र हैं। यदि इनमें से एक का ज्ञान हो तो काना तथा एक का भी ज्ञान न हो तो वह अन्धा है। योग-साधन के अन्तर्गत योगी द्वारा समस्त पदार्थों को जान लेने का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त सर्वश्रेष्ठ एवं अन्तिम मुक्ति के रूप में ज्ञानमयी कैवल्यमुक्ति का वर्णन है, जिसकी प्राप्ति पूर्ण वासना क्षय होने पर ही होती है तथा स्थायी होती है।

सम्यक्चारित्र

“चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम्”९३९ तथा “चयरित्तकरं चारित्तं होइ आहियं कर्मरूपी संचय को रिक्त करने वाला चारित्र है अर्थात् आत्मा की मलिनता को समाप्त करने वाला चारित्र है। निश्चयं दृष्टि से चारित्र समत्व की उपलब्धि, आत्मरमण है। व्यवहार चारित्र का सम्बन्ध मानसिक, वाचिक्र, कायिकशुद्धि एवं शुद्धि कारक नियमों से है। “यह नैतिक अनुशासन के नियमों का प्रतिनिधित्व करता है, उत्तम व्यवहार का नियमन करता है और मन-वचन-काय की गतिविधियों की संरचना करता है। चारित्र से पहले सम्यग्ज्ञान नहीं हो तो वह सम्यक्चारित्र नहीं हो सकता। जैसे बिना जानी औषधि सेवन से मरण संभव है वैसे ही बिना ज्ञान के चारित्र से संसार में वृद्धि होना संभव है। बिना जीव के मृत शरीरस्थ इन्द्रियों के आकार जैसे निष्प्रयोजन हैं; वैसे ही बिना ज्ञान के वेष, क्रिया-कांड साधन, शुद्धोपयोग प्राप्ति के साधक नहीं हो सकते । इसी प्रकार मात्र ज्ञान से भी कुछ नहीं होता. यदि धर्म सिद्धान्तों को जानते हुए भी कोई उनका पालन न करे। चारित्र के दो प्रकार जैन धर्म में बताये गये हैं-

(१) देशविरति चारित्र- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह धर्म का एकदेश अर्थात् सम्पूर्ण रूप से पालन न करने से गृहस्थ का चारित्र देश चारित्र कहा जाता है।

(२) सर्वविरति चारित्र- उन्हीं व्रतों को पूर्ण रूप से धारण करने से श्रमण का चारित्र सकलचारित्र, सर्वदेश चारित्र अथवा सर्वव्रती चारित्र कहा जाता है।

आचार को ही परम धर्म, परम धन, परम विद्या तथा परम गति बताते हैं। पुराणों के अनुसार भी ज्ञान का फल ही सदाचार है। जीवन में उतारे बिना मात्र पण्डिताई के लिए, दिखावे के लिए प्राप्त किया गया ज्ञान कभी भी मुक्ति प्रदान नहीं करता है। आचरण भेद की अपेक्षा से प्रत्येक वर्णाश्रम के पृथक्-पृथक् आचार घोषित किये गये हैं तथा कुछ सामान्य आचारों का भी विधान है जिनका पालन सभी के लिए आवश्यक है।

कर्मवाद का महत्त्व

जैनदर्शन में कर्म की चर्चा ही नहीं, कर्म सम्बन्धी अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थ भी जैन दार्शनिकों द्वारा लिखे गये हैं। बंधन तथा मुक्ति के कारण स्वयं आत्मा में ही बताये गये हैं “बंध-प्पमोक्खो अज्झत्येव । ऐसी कोई अन्य शक्ति नहीं है जो उसे राजा से रंक और रंक से राजा बना दे। पराश्रय की प्रवृत्ति से विपरीत स्वनिग्रह को महत्त्व दिया गया है, जिससे दुःख विमुक्त होकर आत्मस्थ बना जा सके। इस प्रकार आत्मविश्वास पैदा करते हुए जैन संस्कृति का कथन है- “पुरिसा! तुमं मेव तुमं मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि” अर्थात् हे मानव! तू स्वयं ही अपना मित्र है, बाहर सहायकों की खोज में क्यों भटक रहा है? कर्म सिद्धान्त की महत्ता प्रतिपादित करते हुए हिरियन्ना का कथन है “कर्म के सिद्धान्त के अनुसार हमारा भविष्य पूरी तरह से हमारे ही हाथों में रहता है। फलतः यह सिद्धान्त सदा सम्यक् आचरण के लिए प्रोत्साहन देता है ।

इसी दृष्टि को सम्मुख रखते हुए पुराणों में भी असत्कार्यों से बचने की प्रेरणा दी गई है। उनके अनुसार “प्रत्येक कार्य विचारपूर्वक करना चाहिए क्योंकि अपने द्वारा किये गये पाप-पुण्य का फल सभी प्राणियों को भोगना होता है। किसी को सताना कदापि उचित नहीं है क्योंकि पीड़ित करने वाले को सुख की प्राप्ति नहीं होती। जो मनुष्य दूसरों का बुरा नहीं करना चाहता, उसका अकारण ही कभी अनिष्ट नहीं होता। संसार के कारणभूत कर्म की प्रभुता व्यक्त करते हुए पद्मपुराणकार का आशय है कि कुछ लोग ग्रहों की प्रशंसा करते हैं, और कुछ प्रेत तथा पिशाचों की तारीफ करते हैं, कुछ देवों के प्रशंसक हैं, तो कुछ लोग औषधियों की प्रशंसा का बखान करते हैं। कुछ मंत्र की, कुछ सिद्धि की, कुछ लोग बुद्धि की, तो कुछ लोग पराक्रम की तारीफ किया करते हैं। उद्यम-साहस-धैर्य-नीति और बल के विषय में कुछ-कुछ लोग प्रशंसा के पुल बाँधते हैं, ऐसा भिन्न दिमागों का विचार भी विभिन्न होता है। किन्तु मैं तो सर्वोपरि विराजमान एक कर्म की ही प्रशंसा करता हूँ कि सभी कर्मों के अनुवर्ती हुआ करते हैं।

वस्तुतः पुराणों में वर्णित कर्म सिद्धान्त का जैन दर्शन वर्णित कर्म सिद्धान्त से कई प्रकार का साम्य परिलक्षित होता है। जिस प्रकार से जैन दर्शन में कर्म एवं आत्मा का संयोग अनादि माना गया हैं; उसी प्रकार से आत्मा को पुराणों में भी अनादिकालीन कर्मबद्ध कहा है तथा उन कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता भी जैन दर्शन के समान स्वयं आत्मा को माना है।

इस प्रकार कर्म सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन पुराण तथा जैन धर्म में है। इस कर्म-तत्त्व ज्ञान द्वारा वे विश्व-वैचित्र्य का समाधान तर्कानुकूल पद्धति से करते हैं। कर्म सिद्धान्त इनका अविभाज्य अंग है। कर्म सिद्धान्त को न केवल भारतीय धर्मों ने अपनाया बल्कि पाश्चात्य धर्मों ने भी माना है। एक सुप्रसिद्ध अंग्रेज लेखक का कथन है-“कर्म एक वैज्ञानिक नियम है। इसे एशियाई धर्मों ने अपनाया था और यूरोप की धार्मिक श्रद्धा में भी उसका स्थान था, परन्तु ईसा के पाँच सौ वर्ष बाद कुस्तुन्तुनिया की धर्म संगति ने ईसा के उपदेशों से उसे निकाल दिया। इस प्रकार कुछ मूर्ख मनुष्यों के मण्डल ने पश्चिम को इस वैज्ञानिक सिद्धान्त से वंचित किया।

इस समझ से नैतिक जीवन स्वतः उद्भूत होगा। पश्चिम को पूर्वजन्म और कर्म के सिद्धान्त शीघ्र ही अपनाने की अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि ये सिद्धान्त व्यक्ति एवं राष्ट्र को अपने उत्तरदायित्व का जो भान कराते हैं, वह कोई भी असंगत वाद या मत नहीं करा सकता।

कर्म विज्ञान का महत्त्व यद्यपि कई धर्मों में स्वीकृत है परन्तु जैन धर्म में इसकी विशेष व्याख्या को देखकर किसी ने कहा है “जैन धर्म मनुष्य को पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता देने में हर अन्य धर्म से बढ़कर है। जो कुछ कर्म हम करते हैं और उनके जो फल हैं उनके बीच कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। एक बार कर लिए जाने के बाद कर्म हमारे प्रभु बन जाते हैं और उनके फल भोगने ही पड़ेंगे। मेरा स्वातन्त्र्य जितना बड़ा है उतना ही बड़ा दायित्व भी है। मैं स्वेच्छानुसार चल सकता हूँ, पर मेरा चुनाव अन्यथा नहीं हो सकता और उसके परिणामों से मैं बच नहीं सकता।