।। मेवाड़ और जैनधर्म ।।

श्री बलवन्तसिंह मेहता उदयपुर

मेवाड़ में जैन धर्म उतना ही प्राचीन है जितना कि उसका इतिहास । मेवाड़ और जैन धर्म का मणिकाञ्चन का संयोग है। मेवाड़ आरम्भ ही से जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र रहा है । मेवाड़ भारत वर्ष के प्राचीनतम स्थानों में से है और आरम्भ से ही शौर्य प्रधान रहा है। भारतवर्ष में सिन्धुघाटी सभ्यता काल के और पूर्व ऐतिहासिक काल के यदि कहीं नगर मिलेंगे तो मेवाड़ में ही पाये जायेंगे और उनके नामकरण भी जैन धर्म की मूल भाषा अर्धमागधी में और वे भी सुन्दर रूप में । आयड़ की सभ्यता महेन्जादोरा के समान प्राचीन और चित्तौड़ के पास मज्झिमिका महाभारत कालीन नगर पाये गये हैं जो जैन धर्म के बड़े केन्द्र रहे हैं । शारदापीठ बसन्तगढ़ जैनियों का प्राचीन सांस्कृतिक शास्त्रीय नगर रहा है । संसार के प्रथम सहकार एवं उद्योग केन्द्र जावर का निर्माण और उसके संचालन का श्रेय प्रथम जैनियों को ही मेवाड़ में मिला है । दशार्णपुर जहाँ भगवान महावीर के पदार्पण, आर्य रक्षित की जन्म भूमि और आचार्य महागिरी के तपस्या करने के शास्त्रीय प्रमाण हैं और नाणादियाणा और नादियों में भगवान महावीर की जीवन्त प्रतिमाएँ मानी गई हैं वे सब इसी मेवाड़ की भूमि के अंग रहे हैं । आज भी ऋषभदेव केसरियाजी जैसा तीर्थ भारतवर्ष में अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा । और राणकपुर जैसा गोठवण शिल्पयोजना का भव्य विशाल व कलापूर्ण मन्दिर अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा। चित्तौड़गढ़ जो भारतवर्ष का एकमात्र क्षात्रधर्म का तीर्थ माना जाता है मौर्य जैन राजा चित्रांग का बसाया हुआ है और बौद्धो और जैनियों का समान रूप से वन्दनीय तीर्थ स्थान ही नहीं रहा किन्तु प्रायः सब ही जैनाचार्यों की कर्मभूमि, धर्मभूमि और उनकी विकास भूमि भी रही है । भारत के महानतत्त्व विचारक, समन्वय के आदि पुरस्कर्ता, अद्वितीय साहित्यकार एवं महान शास्त्रकार हरिभद्र सूरि और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति की एकमात्र विदुषी एवं तपस्विनी साध्वी याकिनी महत्तरा की यह जन्म भूमि है ।

जैन जगत के मार्तण्ड सिद्धसेन चित्तौड़ की साधना के बाद ही दिवाकर के रूप में प्रगट हुए । जैन धर्म में फैले हुए अनाचार को मिटा उसे शुद्ध रूप में प्रकट करने के लिए जिन वल्लभ सूरि ने गुजरात से आकर यहीं से आन्दोलन आरम्भ किया जो सफल हो, देश में सर्वत्र फैल गया है । हरिभद्रसूरि और जिनदत्त सूरि ने लाखों व्यक्तियों को प्रति बोधित कर उन्हें अहिंसक बनाया, उसका आरम्भ भी यहीं से हुआ। अशोक के समान बौद्ध धर्म का प्रचार करने वाला यदि जैन धर्म में कोई हुआ तो वह था उसका पौत्र संप्रति । मेवाड, मालवा और सम्पूर्ण पश्चिमी भारत उसके हिस्से में होने से पूर्ण रूप से जीव हिंसा का निषेध था और चित्तौड़ में ७वीं शताब्दी तक उसी के वंशज मौर्यों का ही राज्य रहा है। किन्तु मेवाड़ के शैव राजाओं पर भी जैन धर्म का प्रभाव बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ गया था कि चित्तौड़ के रावल तेजसिंह ने तो परम भट्टारक की जैन पदवी धारण की और उसके पुत्र समरसिंह ने, अंचल गच्छ के अमितसिंह सूरि के उपदेश से सम्पूर्ण मेवाड़ राज्य में जीव हिंसा निषेध की आज्ञा इसी चित्तौड़ भूमि से निकाली गई । आयड़ में घोर तपस्या करने वाले जगतचन्द्र सूरि को तपा का विरुद दे, तपागच्छ की स्थापना करने वाले, महाप्रतापी चित्तौड़ के ही राजा जैत्रसिंह थे।

सिसोदिया साडैयरा, चौदसिया, चौहान ।
चैत्यवासिया चावड़ा, कुलगुरु एह प्रमाण ।।

सेडरगच्छ को अपना कुल गुरु ही नहीं माना किन्तु इसके बहुत काल पहले इस राजवंश के कई राजपुत्र जैन धर्म में प्रवजित हो धर्म प्रचार में निकल पड़े जिनमें छठी शताब्दी के समुद्रविजय बहुत ही प्रभावकारी साधु हुए । छठी शताब्दी से १३ शताब्दी तक का काल जैन धर्म का स्वर्णकाल माना जा सकता है । कुभा के समय जैन स्थापत्य पहँच चकी थी। राणकपूर का त्रिलोक्य दीपक के समान कला और गोठवण का मन्दिर भारत में अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा । चित्तौड़ तथा नागदा और एकलिंगजी आदि स्थानों में जितने भी भव्य और विशाल हिन्दू मंदिर दिखाई पड़ेंगे उनमें जैन मूर्ति अंकित मिलेगी। कुंभा के समय कुछ ऐसे मन्दिरों और स्थानों के निर्माण हुए हैं जिनके निर्माण कराने में बड़े-बड़े राज्य भी कर्नल टाड के अनुसार हिचकते थे। दशवीं शताब्दी का जैन कीर्ति स्तम्भ तो भारतवर्ष में अपने ढंग की एक ही कला कृति है। मेवाड़ में आज भी जितने जैन मन्दिर हैं उस परिमाण में सब धर्मों के मिलाकर भी नहीं मिलेंगे। कला और भव्यता में तो इनके सानी के बहुत ही कम मिलेंगे। कुंभा ने तो अपने जैन कुलगुरु के अतिरिक्त एक और जैन साधु को अपना गुरु बनाया। भारत के अन्तिम सम्राट सांगा का धर्मगुरु रत्नसूरि की अगवानी के लिए अपने पूरे लवाजमें के साथ कई कोसों दूर जाना इतिहास प्रसिद्ध घटना है । क्षात्र धर्म की प्रतिमूर्ति महाराणा फतहसिंह का ऋषभदेव को हीरों की, लाखों रुपयों की आंगी चढ़ाना ऐतिहासिक तथ्य है। बिजौलिया का चढ़ान का उन्नत शिखर प्रमाण भी भारत में एक ही है । मेवाड़ मानव सभ्यता के आदिकाल से ही शौर्य प्रधान रहा है जिसे जैनधर्म ने अहिंसा की गरिमा से अनुप्राणित कर अपनी मूल मान्यता कम्मेसूरा सो धम्मेसूरा के अनुकूल बना लिया । यही कारण है कि मेवाड़ में जैन धर्म के उत्कर्ष का जो वसंत खिला, वैसा अन्यत्र मुश्किल से मिलेगा। यहां जैन के सब ही संप्रदायों ने पुर जोर से अहिंसा व धर्म-प्रचार में हाथ बँटाया । तपागच्छ और तेरापंथ सम्प्रदाय का तो उद्गम स्थान ही मेवाड़ रहा । स्थानकवासी समाज का आरम्भ से ही प्रभाव पाया जाता है । श्वेताम्बर समाज में आज भी सबसे अधिक संख्या उन्हीं की है। उनकी मेवाड़ शाखा अलग ही एक शाखा रूप में कार्य कर रही है।

पूज्य श्री रोड़ जी स्वामी (तपस्वीराज) पूज्य श्री मान जी स्वामी, पूज्य श्री मोतीलाल जी महाराज इसी शाखा के ज्योतिर्मय संत रत्न थे । मेवाड़ में स्थानकवासी सम्प्रदाय को पल्लवित पूष्पित करने का सर्वाधिक श्रेय इस शाखा को ही है।

जैन मुनि आचार्य श्री जवाहरलाज जी व उनके शिष्य पं० रत्न श्री घासीलाल जी द्वारा यहाँ काफी साहित्य का निर्माण हुआ और अहिंसा धर्म का पालन रहा। जैन दिवाकर मुनि श्री चौथमल जी महाराज ने हजारों व्यक्तियों को मांस मदिरा का त्याग करा उनके जीवन को उन्नत किया । भामाशाह और ताराचंद लोंकामत के अनुयायी होने से उन्होंने हजारों व्यक्तियों को अहिंसा में प्रवृत्त किया। दिगम्बर सम्प्रदाय का आठवीं शताब्दी से १३वीं तक बड़ा प्राबल्य रहा । एलाचार्य आदि बड़े-बड़े मुनियों के यहाँ चित्तौड़ आ अहिंसा व साहित्य साधना के उल्लेख पाये जाते हैं। इसके बाद इनका प्रभाव क्षेत्र बागड़ बन गया । और बागड़ को पूरा अहिंसक क्षेत्र बना डाला।

जब शैव और जैन, बौद्ध धर्म के बीच इतना विषम वैमनस्य व्याप्त हो गया कि दक्षिण में शैव बौद्धों के साथ जैनियों की भी हत्या कर रहे थे वहाँ मेवाड़ में शैव और जैन धर्म में इतना आश्चर्यजनक सौमनस्य था कि राजा शैव थे तो उनके हाथ जैनी थे अर्थात शासन प्रबन्ध के सभी पदों का संचालन जैनियों द्वारा होता था। यही नहीं राजा की आत्मा शैव थी तो देह जैन थी।

मेवाड़ में जैन धर्म का इतना वर्चस्व बढ़ा कि राजद्रोही, चोर, डाकू और बंदीगृह से भागे कैदी भी यदि जैन उपाश्रय में शरण ले लेते तो उन्हें बंदी नहीं कर सकने की राजाज्ञा थी। वध के लिये ले जाया जा रहा पशु यदि जैन उपाश्रय के सामने आ जाता तो उसे अभयदान दे दिया जाता था।

मेवाड़ की भूमि ऐसी सौभाग्यशालिनी भूमि रही है जहाँ जैन धर्म के तीन-तीन तीर्थंकरों, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और भगवान महावीर के पद पद्मों से इस भूमि के पावन होने की सम्भावना शोध से फलवती हो सकती है। आवश्यक चूणिका के अनुसार महावीर के पट्टधर गौतम स्वामी का अपनी शिष्य मंडली सहित मेवाड़ में आने का उल्लेख है । जैन धर्म की दूसरी संगति के अध्यक्ष स्कण्डिलाचार्य के पट्टधर सिद्धसेन दिवाकर ने तो अवन्तिका का त्याग कर मेवाड़ को ही अहिंसा धर्म प्रसार की कर्मभूमि बनाया । दूसरी शताब्दी पूर्व के 'भूतानाम् दयार्थ' के जैन शिलालेख से इस मेवाड़ भूमि का अहिंसा की आदि भूमि होना प्रमाणित है। दूसरी संगति में मेवाड़ का प्रतिनिधित्व करने वाले जैनाचार्यों को 'मज्झनिया शाखा' से संबोधित कर विशेष सम्मान प्रदान करना और महावीर के निर्वाण के केवल ८४ वर्ष बाद का शिलालेख मज्झनिका में पाया जाना भी मेवाड़ के आदि जैन केन्द्र होने के प्रमाण हैं।

तीर्थंकरों के पद पद्म के पावन परस से उपकृत होकर मेवाड़ की भूमि ने अपनी कोख से ऐसी-ऐसी जैन विभूतियों को जन्म दिया जिनके कृतित्व-व्यक्तित्व ने समूचे भारत के जनजीवन को प्रेरित-प्रभावित किया और जैन धर्म की मूल प्राण शक्ति अहिंसा के प्रचार-प्रसार के साथ अपनी चमत्कारिणी धर्मपरायणता, दर्शन, साहित्य, कला, काव्य, व्यापार, वाणिज्य, वीरता, शौर्य, साहस व कर्मठता की ऐसी अद्भुत देन दी जिससे उनकी कीर्ति प्रादेशिक सीमाओं के पार पहुँच कर भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों की गौरव गाथाएँ बन गयीं।

जैन जगत के मार्तण्ड सिद्धसेन ने विक्रमादित्य की राज सभा का नवरत्न पद त्याग कर मेवाड़ में जीवन . के कृतित्व-व्यक्तित्व से जन जगत द्वारा दिवाकर की पदवी प्राप्त की। आयड़ में भारत भर के जैन व्यापारियों ने इसे व्यापार का केन्द्र बना कर कई मन्दिरों के निर्माण से जैन धर्म को लोक धर्म बनाया। प्रद्य म्नसूरि ने आयड़ के राजा अल्लट से श्वेताम्बर संम्प्रदाय को राज्याश्रय प्रदान करवाया । अल्लट ने सारे राज्य में विशिष्ट दिनों में जीव हिंसा तथा रात्रि भोजन निषेध कर दिया । उसकी रानी हुण राजकुमारी हरियादेवी ने आयड़ में पार्श्वनाथ का विशाल मन्दिर बनवाया । अल्लट के बाद राजा वीरसिंह के समय आयड़ में जैन धर्म के बड़े बड़े समारोह हुए और ५०० प्रमुख जैनाचार्यों की एक महत्त्वपूर्ण संगति आयोजित हुई । वैरिसिंह के काल में असंख्य लोगों को जैन धर्म में दीक्षित कर अहिंसा जीवन की शिक्षा दी तथा सहस्रों विदेशियों को जैन धर्म में दीक्षित कर उनका भारतीयकरण किया गया। आयड़ में महारावल जैत्रसिंह के अमात्य जगतसिंह ने ऐसी घोर तपस्या की कि जैत्रसिंह ने उन्हें तपाकी उपाधी दी और यहीं से 'तपागच्छ' निकला है। जिसके आज भी श्वेताम्बर मूर्ति पूजकों के सर्वाधिक अनुयायी हैं।

बसंतपुर में आराधना के लिए आये हेमचन्द्राचार्य और विद्यानन्द ने यहाँ सिद्धि प्राप्त की और अपने व्याकरण ग्रन्थ लिखे ।

मज्झमिका, आयड, बसंतपुर के साथ ही जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र चित्तौड था । यहाँ श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय के भारत प्रसिद्ध आचार्य आये और इसी भूमि को जैनधर्म के प्रचार-प्रसार का केन्द्र बनाकर कीर्ति अजित की।

जैन साहित्य

सर्व दर्शन समुच्चय, शास्त्र वार्ता समुच्चय, समराईच्चकहां, धर्मबिन्दु, योग बिन्दु, अनेकांतवाद-प्रवेश, अनेकांतजयपताका, प्राकृत में प्रकरण ग्रन्थ एवं संस्कृत के अन्य ग्रन्थ व लेख-हरिभद्रसूरि की महान साहित्यिक देन तथा जैन धर्म के प्रमुख ग्रन्थ हैं। षडशीति सार्द्धशतक, स्वप्न सप्तति, प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक, अष्ट सप्तति आदि जिन. दत्त सूरि के प्रमुख ग्रन्थ हैं । प्रत्येक बुद्ध चरित्र, वाग्भटालंकार वृत्ति तथा तीर्थमाला जिनवर्द्धन सूरि के प्रमुख ग्रन्थ हैं।

धर्म प्रचारक साहित्यानुरागी श्रावक

लल्लिग, जिसने हरिभद्रसूरि के कई ग्रन्थों का आलेखन कराया। आशाधर श्रावक बहुत बड़े विद्वान थे। लोल्लाक श्रावक ने बिजौलिया में उन्नत शिखर पुराण खुदवाया। धरणाशाह ने जिवाभिगम सूत्रावली, ओधनियुक्ति सटीक, सूर्य प्रज्ञप्ति, सटीक अंग विद्या, कल्प भाष्य, सर्व सिद्धान्त विषम पद पर्याय व छंदोनुशासन की टीका करवायी। चित्तौड़ निवासी श्रावक आशा ने 'कर्म स्तव विपाक' लिखा । डूंगरसिंह (श्रीकरण) ने आयड़ में “ओघनियुक्ति” पुस्तिका लिखी । उद्धरसुन हेमचन्द्र ने “दशवैकालिक पाक्षिक सूत्र" व ओघनियुक्ति लिखी। वयजल ने आयड़ में पाक्षिक वृत्ति लिखी।

जैन वीर

अलवर निवासी भारमल जैन कावड़िया को राणा सांगा ने रणथम्भौर का किलेदार व अपने पुत्र विक्रमादित्य तथा उदयसिंह का अभिभावक नियुक्त किया। इन्होंने बाबर की कूटनीति से मेवाड़ राज्य के प्रवेश द्वार रणथम्भौर की रक्षा की तथा चित्तौड़ के तीसरे साफे में वीरगति प्राप्त की । इनके पुत्र भामाशाह राणा प्रताप के सखा, सामंत, सेनापति व प्रधानमन्त्री थे। इन्होंने मेवाड़ के स्वतन्त्रता संग्राम में तन, मन, धन सर्वस्व समर्पण कर दिया । ये हल्दी घाटी व दिवेर के युद्धों में मेवाड़ के सेनापति रहे तथा मालवा व गुजरात की लूट से इन्होंने प्रताप के युद्धों का आर्थिक संचालन किया। भामाशाह के भाई ताराचन्द हल्दीघाटी के युद्ध की वाँयी हरावल के मेवाड़ सेनापति थे । इन्होंने जैन ग्राम के रूप में वर्तमान भींडर की स्थापना की तथा हेमरत्नसूरि से पद्मणि चरित्र की कथा को पद्य में लिखवाया और संगीत का उन्नयन किया। दयालदास अन्य जैन वीर हुए जिन्होंने अपनी ही शक्ति से मेवाड़ की स्वतन्त्रता के शत्रुओं का इतिहास में अनुपम प्रतिशोध लिया। मेहता जलसिंह ने अलाउद्दीन के समय चित्तौड़ हस्तगत करने में महाराणा हम्मीर की सहायता की। मेहता चिहल ने बलवीर से चित्तौड़ का किला लेने में महाराणा उदयसिंह की सहायता की । कोठारी भीमसिंह ने महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय द्वारा मुगल सेनापति रणबाज खाँ के विरुद्ध लड़े गये युद्ध में वीरता के उद्भुत जोहर दिखाकर वीरगति प्राप्त की। महता लक्ष्मीचन्द ने अपने पिता मेवाड़ी दीवाननाथजी मेहता के साथ कई युद्धों में भाग लेकर वीरता दिखायी और खाचरोल के घाटे के युद्ध में वीरगति प्राप्त की। मांडलगढ़ के किलेदार महता अगरचन्द ने मेवाड़ राज्य के सलाहकार व प्रधानमन्त्री के रूप में सेवा की तथा मराठों के विरुद्ध हुए युद्ध में सेनापति के रूप में वीरता के जौहर दिखाये और महाराणा अरिसिंह के विषम आर्थिक काल में मेवाड़ की सुव्यवस्था की। इनके पुत्र मेहता देवीचन्द ने मेवाड़ को मराठों के आतंक से मुक्त कर मांडलगढ़ में उन्हें अपनी वीरता से करारा जवाब दिया।

बाद में ये भी अपने पिता की भाँति मेवाड़ के दीवान बनाये गये और उन्होंने भी आर्थिक संकट की स्थिति में राज्य की सुव्यवस्था की। तोलाशाह महाराणा सांगा के परम मित्र थे। इन्होंने मेवाड़ के प्रधानमन्त्री पद के सांगा के प्रस्ताव को विनम्रता से अस्वीकार किया किन्तु अपने न्याय, विनय, दान, ज्ञान से बहुत कीर्ति अजित की। इन्हें अपने काल का कल्पवृक्ष कहा गया है । इनके पुत्र कर्माशाह सांगा के प्रधानमन्त्री थे। इन्होंने शहजादे की अवस्था में बहादुरशाह को उपकृत कर शत्रुञ्जय के जीर्णोद्धार की आज्ञा प्राप्त की और करोड़ों रुपया व्यय कर शत्रुञ्जय मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया। इनके अतिरिक्त और कई जैन प्रधानमन्त्री हुए जिन्होंने मेवाड़ राज्य की अविस्मरणीय सेवाएँ की । महाराणा लाखा के समय नवलाखा गोत्र के रामदेव जैनी प्रधानमन्त्री थे। महाराणा कुम्भा के समय बेला भण्डारी तथा गुणराज प्रमुख धर्मधुरीण व्यापारी व जैन वीर थे। इसी समय रत्नसिंह ने राणपुर का प्रसिद्ध मन्दिर बनवाया । महाराणा विक्रमादित्य के समय कुम्भलगढ़ के किलेदार आशाशाह ने बाल्य अवस्था में राणा उदयसिंह को संरक्षण दिया । मेहता जयमल बच्छावत व मेहता रतनचन्द खेतावत ने हल्दीघाटी के युद्ध में वीरता दिखाकर वीरगति प्राप्त की। महाराणा अमरसिंह का मन्त्री भामाशाह का पुत्र जीताशाह था और महाराणा कर्मसिंह का मन्त्री जीवाशाह का पुत्र अक्षयराज था। महाराणा राजसिंह का मन्त्री दयालशाह था । भीमसिंह के मन्त्री सोमदास गाँधी व मेहता मालद मालदास थे। सोमदास के बाद उसके भाई सतीदास व शिवदास मेवाड़ राज्य के प्रधानमन्त्री रहे। महाराणा भीमसिंह के बाद रियासत के अन्तिम राजा महाराणा भूपालसिंह तक सभी प्रधानमन्त्री जैनी रहे।

इस प्रकार हम देखते हैं कि मेवाड़ राज्य के आरम्भ से अन्त तक सभी प्रधानमन्त्री जैनी थे। इन मन्त्रियों ने न केवल मेवाड़ राज्य की सीमा की कार्यवाहियों के संचालन तक अपने को सीमित कर राज्य की सुव्यवस्था की बल्कि अपने कृतित्व-व्यक्तित्व से जन-जीवन की गतिविधियों को भी अत्यधिक प्रभावित किया और इस राज्य में जैन मन्दिरों के निर्माण व अहिंसा के प्रचार प्रसार के भरसक प्रयत्न किये । हम पाते हैं कि जिन थोड़े कालों में दो-चार अन्य प्रधानमन्त्री रहे उन कालों में मेवाड़ राज्य में व्यवस्था के नाम पर बड़ी विषम स्थितियाँ उत्पन्न हुई । इसलिये मेवाड़ के इतिहास में स्वर्णकाल में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले जैन अमात्यों के वंशधरों को महाराणाओं ने इस पद के लिये पुनः आमन्त्रित किया और बाद में यह परम्परा ही बन गई कि प्रधानमन्त्री जैनी ही हो।

यहाँ जैन लोगों ने इतिहास के निर्माण में भी बड़ी सही भूमिका निभायी। राजपूताने के मुणहोत नैणसि के साथ कर्नलटाड के गुरु यति ज्ञानचन्द, नैणसि के इतिहास के अनुवादक डूंगरसिंह व मेहता पृथ्वीसिंह का नाम इतिहासज्ञों में उल्लेखनीय है, तो अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरातत्त्ववेत्ता मुनि जिनविजयी ने ऐतिहासिक सत्यों-तथ्यों के संग्रह से इतिहास के मूल्यों का सुरक्षात्मक भंडारण कर शोधार्थियों के लिये वरदान स्वरूप महान कार्य किया। आपको गांधीजी ने साग्रह गुजरात विद्यापीठ का प्रथम कुलपति बनाया। आप जर्मन अकादमी के अकेले भारतीय फेलो हैं। आपकी सेवाओं के उपलक्ष्य में आपको राष्ट्रपतिजी ने पद्मश्री प्रदान कर समादृत किया। विज्ञान के क्षेत्र में श्री दौलतसिंह कोठारी अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक है। आपने स्वेच्छा से भारत के शिक्षामन्त्री का पद नहीं स्वीकार किया। आप भारत की सैनिक अकादमी के प्रथम अध्यक्ष बनाये गये और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष पद से आपने अवकाश प्राप्त किया। आपको राष्ट्रपतिजी ने पद्मविभूषण प्रदान कर समाहत किया । डा० मोहनसिंह मेहता को भी विदेशों में भारतीय प्रशासनिक सेवा व शिक्षा में सेवाओं के उपलक्ष्य में पद्विभूषण से समादृत किया गया है । श्री देवीलाल सांभर ने भारतीय लोक कलाओं के उन्नयन में महान कार्य किया है । आपने अन्तर्राष्ट्रीय कठपुतली प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व कर विश्व का प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया । आप भारतीय लोककला मंडल के संचालक एवं राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष हैं।

इस प्रकार हम पाते हैं कि मेवाड़ के इतिहास व जैन धर्म तथा मेवाड़ के जीवन क्षेत्रों व जैनियों की कृषि, वाणिज्य, वीरता व प्रशासन कुशलता की चतुर्मुखी गतिविधियों में इतना सगुम्फन है कि इन्हें हम पृथक कर ही नहीं पाते । जैनियों में मेवाड़ के धर्म, अर्थ, कर्म, ज्ञान, भक्ति, शक्ति सभी को चरम सीमा तक प्रभावित किया है और अपने अहिंसाजीवी जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में ये लोग पूर्ण पराकाष्ठा पर पहुंचे हैं।

मेवाड़ ही देश भर में एक ऐसा राज्य कहा जा सकता है जो पूर्ण अहिंसा राज्य रहा है । यहाँ के राजाओंमहाराणा कुम्भा, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप, महाराणा जगतसिंह, महाराणा राजसिंह ने अपने शासनकाल में अहिंसा के प्रचार-प्रसार व हिंसा की रोकथाम की जैन धर्मानुकूल राजाज्ञायें प्रसारित की हैं। यही नहीं राजस्थान शासन तक ने विशिष्ट दिनों में जीव हत्या व हिंसा का निषेध तथा अहिंसा के सम्मान के राजाज्ञायें स्वराज्य के लागू होते ही सन् १६५० में ही प्रसारित की हैं ।

अतः हम कह सकते हैं कि मेवाड़ राज्य पूर्ण अहिंसा राज्य था। इसके मूल स्वर शौर्य को जैन धर्म ने अहिंसा की व्यावहारिक अभिव्यक्ति दी । मेवाड़ न केवल जैन धर्म के कई मतों, पंथों, मार्गों व गच्छों का जनक है बल्कि मेवाड़ में जैन धर्म के चारों ही सम्प्रदाय इसके समान रूप से सुदृढ़ स्तम्भ हैं ।

तुम स्वाद को नहीं, पथ्य को देखो।
तुम वाद को नहीं, सत्य को देखो
तुम नाद को नहीं, कथ्य को देखो,
तुम तादाद को नहीं, तथ्य को देखो।

--'अम्बागुरु-सुवचन'