।। नयवाद : सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर ।।

जिसके द्वारा पदार्थों के एक अंश का ज्ञान हो उसे नय कहते हैं । किसी वस्तु में अन्य धर्मों का निषेध करके अपने अभीष्ट एकान्त अस्तित्व को सिद्ध करने को दुर्नय कहते हैं। जैसे—यह घट ही है, वस्तु में अभीष्ट धर्म की प्रधानता से अन्य धर्मों का निषेध करने के कारण दुर्नय को मिथ्यानय भी कहा गया है । इसके विपरीत किसी वस्तु में अपने इष्ट धर्म को सिद्ध करते हुए अन्य धर्मों में उदासीन होकर वस्तु के विवेचन करने को नय (सुनय) कहते हैं, जैसे--यह घट है। नय में दुर्नय की तरह एक धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जा सकता, इसलिए नय को दुर्नय नहीं कहा जा सकता तथा नय में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग न होने से इसे प्रमाण भी नहीं कह सकते । वस्तु को नाना दृष्टियों को कथंचित् सत् रूप विवेचन करने को प्रमाण कहते हैं ? -जैसे-कथंचित् घट सत् है (स्थात् कथंचित् घटः) । नय और प्रमाण के द्वारा दुर्नयवाद का निराकरण किया जाता है। नयों से वस्तु के सम्पूर्ण अंशों का ज्ञान नहीं होता; अतः नय को पूर्ण रूप से सत्य नहीं कह सकते।

विशेषावश्यक भाष्य में जिनभद्र क्षमाश्रमण ने नयों को प्रमाण के समान कहा है। उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय-ये चार अनुयोग महानगर में पहुँचने के दरवाजे हैं। प्रमाण से निश्चित किये हए पदार्थों के एक अंश के ज्ञान करने को नय करते हैं। वस्तु का प्रमाण द्वारा निश्चय होने पर उसका नय से ज्ञान होता है। वस्तुओं में अनंतधर्म होते हैं। अत: नय भी अनंत होते हैं। वस्तु के अनंत धर्मों में से वक्ता के अभिप्राय के अनुसार एक धर्म के कथन करने को नय कहते हैं। घट में कच्चापन, पक्कापन, मोटापन, चौड़ापन आदि अनंत धर्म होते हैं, अत: नाना नयों की अपेक्षा से शब्द और अर्थ की अपेक्षा प्रत्येक पदार्थ में अनंतधर्म विद्यमान हैं। नय का उद्देश्य है माध्यस्थ बढ़े । अतः लोकव्यवहार में भी नय का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है।

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१ तम्हा सव्वे वि भिच्छादिट्ठी सपकखपडिबद्धा ।
अण्णोणमिस्सिया उण हवन्ति सम्मत्तसम्मावा ।
-सम्मतीतर्क

भेदाभेदात्मके झंये भेदाभेदाभिसन्धयः ।
ये तेऽपेक्षानपेक्षाभ्यां लक्ष्यन्ते नय दुर्नयाः ।।
--लधीय. का० ३०

२ यथा हि समुद्रकदेशो न समुद्रो नाप्यसमुद्रस्तथा नया अपि न प्रमाणं न वा अप्रमाणमिति ।
-जैन तर्कभाषा

३ प्रमाणपरिच्छिन्नस्यानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकदेशग्राहिणस्तदितरांशाप्रतिक्षेपिणोऽध्यवसायविशेषा नया:।
-जैन तर्कभाषा

शाब्दिक, आर्थिक, वास्तविक, व्यावहारिक, द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक के अभिप्राय से आचार्यों ने नय के मूलतः सात भेद किये हैं----यथा नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभि- रूप तथा एवंभूत । बौद्ध कहते हैं--रूप आदि अवस्था ही वस्तुद्रव्य है । वेदांत का कहना है कि द्रव्य ही वस्तु है, रूपादि गूण तात्त्विक नहीं हैं । भेद और अभेद के द्वन्द्व का एक निदान है । नयवाद अभेद-भेदइन दो वस्तुधर्मों पर टिका हुआ है।

(१) नैगमनय- यह नय सत्ता रूप सामान्य को द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व रूप अवान्तर सामान्य को, असाधारण रूप विशेष को, तथा पर रूप से व्यावृत्त और सामान्य से भिन्न अवान्तर विशेषों को जानता है अर्थात् यह नय सामान्य विशेष को ग्रहण करता है। केवल नैगमनय का अनुकरण करने वाले न्याय-वैशेषिक परस्पर भिन्न और निरपेक्ष सामान्य और विशेष दोनों को स्वीकार करते हैं। नंगमनय के अनुसार अभिन्न ज्ञान का कारण सामान्यधर्म विशेषधर्म से भिन्न है। दो धर्म अथवा दो धर्मी अथवा एक धर्म और एक धर्मी में प्रधान और गौणता की विवक्षा को 'नैकगम' अथवा नैगमनय कहते हैं । परन्तु दो धर्म, दो धर्मी अथवा एक धर्म और एक धर्मी में सर्वथा भिन्नता दिखाने को 'नैगमाभास' कहते हैं । 'निगम' शब्द का अर्थ है--देश, संकल्प और उपचार । इनमें होने वाले अभिप्राय को नैगम कहते हैं । अर्थात इसमें तादात्म्य की अपेक्षा से ही सामान्य-विशेष की भिन्नता का समर्थन किया जाता है।

निलयन और प्रस्थ-ये नैगमनय के दो दृष्टांत प्रसिद्ध हैं। निलयन शब्द का अर्थ हैनिवासस्थान-जैसे—किसी ने किसी से पूछा----'आप कहाँ रहते हैं ?' उसने जवाब दिया कि मैं लोक में रहता हूँ। लोक में भी जंबूद्वीप--मरत क्षेत्र--मध्यखंड, अमुक देश---अमुक नगर-अमुक घर में रहता हूँ । नैगमनय इन सब विकल्पों को जानता है। दूसरा दृष्टांत प्रस्थ का है-धान्य को नापने के लिए पांच सेर के परिमाण को प्रस्थ कहते हैं। किसी ने किसी आदमी को कुठार लेकर जंगल में जाते हुए देखकर पूछा, 'आप कहाँ जाते हैं ?' उस आदमी ने जवाब दिया कि मैं प्रस्थ लेने के लिए जाता हूँ। ये दोनों नंगमनय के उदाहरण हैं 1 नैगमनय के अनुसार द्रव्य और पर्याय का समस्थिति में युगपत् ग्रहण नहीं होता।

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४ (क) नस्थि नएहि विहूणं, सुत्तं अत्थो य जिणमए किंचि ।
आसज्जउ सोयारं, नए नयविसारओ बूआ ॥
-आव०नि० गा० ७६२
(ख) अनिराकृतेतरांशो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नयः ।
--जैनसिद्धांतदीपिका प्र०६

५ सामान्यविशेषाद्यनेकधर्मोपनयनपरोऽध्यवसायो नैगमः ।
--जैनतर्कभाषा

६ नंगमनयानुरोधिन: कणादा आक्षपादाश्च ।
-स्याद्वादमंजरी, श्लोक १४, टीका

७ णेगेहि माणेहि भिणइति गमस्स य निरुत्ती ।
-अनुयोगद्वार सूत्र

८ हरिभद्रीयावश्यकटिप्पणे नयाधिकारः।

(२) संग्रहनय- विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य रूप से जानने को संग्रहनय कहते हैं । अस्तित्व धर्म को न छोड़कर संपूर्ण पदार्थ अपने अपने स्वमाव में उपस्थित हैं। इसलिए संपूर्ण पदार्थों के सामान्य रूप से ज्ञान करने को 'संग्रहनय' कहते है। वेदांती और सांख्य दर्शन केवल संग्रहनय को मानते हैं। विशेष रहित सामान्य मात्र जानने वाले को संग्रहनय कहते हैं। पर और अपर सामान्य के भेद से संग्रह के दो भेद हैं। संपूर्ण विशेषों में उदासीन भाव रखकर शुद्ध सार मात्र को जानना पर-संग्रह है, जैसे सामान्य से एक विश्व ही सत् है । सत्ताद्वैत को मानकर संपूर्ण विशेषों का निषेध करना संग्रहाभास है । जैसे---सत्ता ही एक तत्त्व है। द्रव्यत्व, पर्यायत्वादि अवान्तर सामान्य को मानकर उनके भेदों में माध्यस्थ भाव रखना अपर संग्रह कहलाता है-जैसे द्रव्यत्व की अपेक्षा धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुदगल और जीव एक हैं। धर्मादि को केवल द्रव्यत्व रूप से स्वीकार करके उनके विशेषों के निषेध करने को अपर संग्रहाभास कहते हैं ।

(३) व्यवहारनय- लोक-व्यवहार के अनुसार उपचरित अर्थ को बताने वाले विस्तृत अर्थ को 'व्यवहार' कहते हैं। जितनी वस्तु लोक में प्रसिद्ध हैं, अथवा लोक-व्यवहार में आती हैं, उन्हीं को मानना और अदृष्ट, अव्यवहार्य वस्तुओं की कल्पना न करने को व्यवहारनय कहते हैं। संग्रहनय से जाना हुआ अनाद्यनिधन रूप सामान्य व्यवहारनय का विषय नहीं हो सकता; क्योंकि इस सामान्य का सर्वसाधारण को अनुभव नहीं होता। इसी प्रकार क्षण-क्षण में बदलने वाले परमाणु रूप विशेष भी व्यवहार मय के विषय नहीं हो सकते, क्योंकि परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ हमारे इन्द्रिय प्रत्यक्षादि प्रमाण के बाह्य होने से हमारी प्रवृत्ति के विषय नहीं हैं। अतएव व्यवहारनय की अपेक्षा कुछ समय तक रहने वाली स्थूल पर्याय को धारण करने वाली और जल धारण आदि क्रियाओं के करने में समर्थ घटादि वस्तु ही पारमार्थिक और प्रमाण से सिद्ध है। क्योंकि इनके मानने में कोई लोकविरोध नहीं आता। इसलिए घट का ज्ञान करते समय घट की पूर्वोत्तरकाल की पर्यायों का विचार व्यर्थ है। निष्कर्ष यह हुआ कि संग्रहनय से जानी हुई सत्ता को प्रत्येक पदार्थ में भिन्नभिन्न रूप से मानकर व्यवहार करने को व्यवहारनय कहते हैं। चार्वाक लोग ब्यवहारनयवादी हैं ।

कहने का तात्पर्य यह है कि संग्रहनय से जाने हुए पदार्थों में योग्य रीति से विभाग करने को व्यवहारनय कहते हैं, जैसे जो सत् है वह द्रव्य का पर्याय है। यद्यपि संग्रहनय की अपेक्षा द्रव्य और पर्याय सत् से अभिन्न हैं परन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा द्रव्य और पर्याय को सत् से भिन्न माना गया है।५१ द्रव्य और पर्याय के एकांत भेद प्रतिपादन करने को व्यवहाराभास कहते हैं- जैसे चार्वाकदर्शन । चार्वाक लोग द्रव्य के पर्यायादि को मानकर केवल भूतचतुष्टय को मानते हैं अतः उन्हें व्यवहाराभास कहा गया है। यह व्यवहारनय उपचारबहल और लौकिक दृष्टि को लेकर चलता है।

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६ (क) सामान्यप्रतिपादनपरः संग्रहनयः ।
-जैनतर्कभाषा
(ख) संगहियपिंडिअत्थं, संगहवयणं समासओविति ।
-अनुयोगद्वार
(ग) सामान्यमात्र ग्राही संगहः ।।
-जैनसिद्धान्तदीपिका प्र०६

१० (क) संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसंधिना क्रियते स व्यवहारः ।
--प्रमाणनय० ७/२३
(ख) संगृहीतार्थानां यथाविधिभेदको व्यवहारः ।
-जैनसिद्धांतदीपिका प्र०

११ लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार (नयः) ।
-तत्त्वार्थमाष्य १/३५

(४) ऋजसवनय- वस्तु की अतीत और अनागत पर्यायों को छोड़कर वर्तमान क्षण की पर्यायों को जानना 'ऋजुसूत्र' नय का विषय है । 3 वस्तु को अतीत पर्याय नष्ट हो जाती है और अनागत पर्याय उत्पन्न नहीं होती, इसलिए अतीत और अनागत पर्याय खरविषाण की तरह, संपूर्ण सामान्य से रहित होकर कोई अर्थक्रिया नहीं कर सकती, इसलिए अवस्तु है। क्योंकि अर्थक्रिया करने वाला ही वास्तव में सत् कहा गया है। (यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थ सत्) अपने स्वरूप में स्थित परमाणु ही परस्पर के संयोग से कथंचित् समूहरूप होकर सम्पूर्ण कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा स्थूल रूप को धारण न करने बाले स्वरूप में स्थित परमाणु ही यथार्थ में सत् कहे जा सकते हैं । अतएव ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा निज स्वरूप ही वस्तु है, पर स्वरूप को अनुपयोगी होने के कारण वस्तु नहीं कह सकते । वर्तमान क्षण की पर्यायमात्र की प्रधानता से वस्तु का कथन करना ऋजूसूत्रनय है।४ जैसे- इस समय मैं सूख की पर्याय भोगता है । द्रव्य । के सर्वथा निषेध करने को ऋजुसूत्रनयामास कहते हैं, जैसे-बौद्ध लोग । बौद्ध लोग क्षण-क्षण में नाश होने वाली पर्यायों को ही वास्तविक मानकर पर्यायों के आश्रित द्रव्यों का निषेध करते हैं, इसलिए उनका मत ऋजुसूत्रनयाभास है ।

(५) शन्दनय - रूढ़ि से सम्पूर्ण शब्दों के एक अर्थ में प्रयुक्त होने को 'शब्दनय' कहते हैं । १५ जैसे शक, पुरन्दर, इन्द्र आदि एक अर्थ के द्योतक हैं। जैसे शब्द अर्थ से अभिन्न है, वैसे ही उमे एक और अनेक भी मानना चाहिए । इन्द्र, शक, पुरन्दर आदि पर्यायवाची शब्द कमी मिन्न अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते। क्योंकि उनसे एक ही अर्थ का ज्ञान होता है। अतः इन्द्रादि पर्यायवाची शब्दों का एक ही अर्थ है । जिस अभिप्राय से अर्थ कहा जाय उसे शब्द कहते हैं। अतः सम्पूर्ण पर्यायवाची शब्दों से एक ही अर्थ का ज्ञान होता है। 'तट:, तटी, तटम' परस्पर विरुद्ध लिंग वाले शब्दों से पदार्थों के भेद का ज्ञान होता है। इसी प्रकार संख्या---एकत्वादि, काल-~-अतीतादि, कारक –कर्ता आदि और पुरुष---प्रथम पुरुष आदि के भेद से शब्द और अर्थ में भेद समझना चाहिए। परस्पर विरोधी लिंग, संख्यादि के भेद से वस्तु में भेद मानने को शब्दनय कहते हैं। वैयाकरण लोग शब्द आदि का अनुकरण करते हैं। कालादि के भेद से शब्द और अर्थ को सर्वथा अलग मानने को शब्दाभास कहते हैं, जैसे सुमेरु था, सुमेरु है और सुमेरु होगा--आदि भिन्न-भिन्न काल के शब्द मिन्न काल के शब्द होने से भिन्न-भिन्न अर्थों का ही प्रतिपादन करते हैं।

(६) समभिरूढ़नय- यह नय पर्यायवाची शब्दों में भिन्न अर्थ को द्योतित करता है-जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर शब्दों के पर्यायवाची होने पर भी इससे परम ऐश्वर्यवान् (इन्दनात् इन्द्रः), शक्र से सामर्थ्यवान् (शकनात शक्रः) और पुरन्दर से नगरों के विदारण करने वाले (पृरणात पुरन्दरः) भिन्न-भिन्न अर्थों का ज्ञान होता है। भिन्न-भिन्न व्युत्पत्ति से पर्यायवाची शब्द भिन्नभिन्न अर्थों के द्योतक हैं। जिन शब्दों की व्युत्पत्ति भिन्न-भिन्न होती है वे भिन्न-भिन्न अर्थों के द्योतक होते हैं, जैसे-इन्द्र, पुरुष, पशु । पर्यायवाची शब्द भी भिन्न-भिन्न व्युत्पत्ति होने के कारण भिन्नमिन्न अर्थ को सूचित करते हैं । क्षणस्थायी वस्तु को भिन्न-भिन्न संज्ञाओं के भेद से भिन्न मानना समभिरूढ़नय है।१७ पर्यायवाची शब्दों में निरुक्ति के भेद से भिन्न अर्थ को कहना समभिरूढनय है। पर्यायवाची शब्दों को सर्वथा भिन्न मानना समभिरूढ़नयाभास है।१८ जैसे करि, कुरंग, तुरंग शब्द परस्पर भिन्न हैं वैसे ही इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्दों को सर्वथा भिन्न मानना समभिरूढ़नयाभास है।

(७) एवंभूतनय- जिस समय व्युत्पत्ति के निमित्तरूप अर्थ का व्यवहार होता है, उसी समय अर्थ में शब्द का व्यवहार होता है अर्थात जिस क्षण में किसी शब्द में व्युत्पत्ति का निमित्तकारण सम्पूर्ण रूप में विद्यमान हो, उसी समय उस शब्द का प्रयोग करना उचित है--यह एवंभूतनय की मान्यता है । वस्तु अमुक क्रिया करने के समय ही अमुक नाम से कही जा सकती है, वह सदा एक शब्द का वाच्य नहीं हो सकती, इसे एवंभूतनय कहते हैं 1१६ कहने का तात्पर्य यह है कि जिस समय पदार्थों में जो क्रियायें होती हैं, उस समय उस क्रिया के अनुरूप शब्दों से अर्थ के प्रतिपादन करने को एवंभूतनय कहते हैं, जैसे परम ऐश्वर्य का अनुभव करते समय इन्द्र, समर्थ होने के समय शक्र, नगरों का नाश करने के समय पुरन्दर होता है । पदार्थ में अमुक क्रिया होने के समय को छोड़कर दूसरे समय उस पदार्थ को उसी शब्द से नहीं कहना, एवंभूतनयाभास है । जैसे, जल लाने आदि की क्रिया का अभाव होने से पट को घट नहीं कहा जा सकता वैसे ही जल लाने आदि क्रिया के अतिरिक्त समय घट को घट नहीं कहना-एवंभूतनयाभास है।

संक्षेप में द्रव्याथिक और पर्यायाथिक भेद से नय के दो भेद हैं। द्रव्याथिकनय के नंगम, संग्रह, व्यवहार-ये तीन भेद हैं । ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत-ये चार पर्यायाथिक नय के भेद हैं। इन नयों में पहले-पहले नय अधिक विषय वाले हैं और आगे आगे के नय परिमित विषयवाले है । संग्रहनय सत् मात्र को जानता है जबकि नैगमनय सामान्य और विशेष दोनों को जानता है, इसलिए संग्रहनय की अपेक्षा नैगमनय का अधिक विषय है। व्यवहारनय संग्रहनय से जाने हए पदार्थों को विशेष रूप से जानता है जबकि संग्रह समस्त सामान्य पदार्थों को जानता है, इसलिए संग्रहनय का विषय व्यवहारनय की अपेक्षा अधिक है। व्यबहारनय तीनों कालों के पदार्थों को जानता है और ऋजुसूत्रनय से केवल वर्तमान पर्याय का ज्ञान होता है अतएव व्यवहारनय का विषय ऋजुसूत्र से अधिक है। इसी प्रकार शब्दनय से ऋज़सूत्रनय का, समभिरूढ़ से शब्दनय का, एवंभूतनय २२ से समभिरूढनय का अधिक विषय है।

प्रमाण के सात भंगों की तरह अपने विषय में विधि और प्रतिषेध की अपेक्षा नय के भी सात भंग होते हैं ।

सभी पदार्थ द्रव्याथिकनय की अपेक्षा नित्य और पर्यायाथिक तय की अपेक्षा अनित्य हैं। केवल द्रव्याथिकनय को मानने वाले अद्वैतवादी, कोई मीमांसक और सांख्यक सामान्य को ही सत् (बाच्य) कहते हैं। केवल पर्यायाथिकनय को मानने वाले बौद्ध लोग विशेष को सत् कहते हैं। केवल नैगमनय का अनुकरण करनेवाले न्याय वैशेषिक परस्पर भिन्न और निरपेक्ष सामान्य और विशेष-दोनों को स्वीकार करते हैं।

सम्मतितर्क में कहा है-

उप्पज्जति वियति य भावा नियमेण पज्जवणयस्स ।
दव द्वियस्स सव्वं सया अणप्पन्नमविण ॥२१॥

अर्थात् पर्यायाथिक नय की अपेक्षा सर्व भाव उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं अर्थात् प्रतिक्षण भाव उत्पाद और विनाश स्वभाव वाले हैं। द्रव्याथिकनय की अपेक्षा सर्व वस्तु अनुत्पन्नअनष्ट हैं अर्थात प्रत्येक भाव स्थिर स्वभाव वाले हैं।

तित्थयरवयणसंगह विसेसपत्थारमूलवागरणी।
दव्वढिओ य पज्जवणओ य सेसा वियप्यासि ॥३॥

अर्थात् तीर्थंकर के वचन के विषयभूत (अभिधेयभूत) द्रव्य-पर्याय हैं, उनका संग्रहादि नय के द्वारा जो विस्तार करने में आते हैं उनका मूल वक्ता द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नय है । नेगमादि नय उनके विकल्प हैं, भेद हैं। शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा द्रव्याथिक नय समस्त पदार्थों को केवल द्रव्य रूप जानता है क्योंकि द्रव्य और पर्याय सर्वथा भिन्न नहीं हैं।

संपूर्ण पदार्थ सामान्य-विशेष रूप से ही अनुभव में आते हैं। अत: अनेकवाद में ही वस्तु का अर्थक्रियाकारित्व लक्षण सम्यग् प्रकार से घटित हो सकता है। सामान्य और विशेष परस्पर सापेक्ष हैं। बिना सामान्य के विशेष और विशेष के बिना सामान्य कहीं भी ठहर नहीं सकते । अतः विशेष निरपेक्ष सामान्य को अथवा सामान्य निरपेक्ष विशेष को तत्त्व मानना केवल प्रलाप मात्र है । जिस प्रकार जन्मांध मनुष्य हाथी का स्वरूप जानने की इच्छा से हाथी के भिन्नभिन्न अवयवों को टटोलकर हाथी के केवल कान, सूंड, पैर आदि को ही हाथी समझ बैठते हैं उसी प्रकार एकांत व्यक्ति वस्तु के सिर्फ एकांश को जानकर उस वस्तु के एक अंश रूप ज्ञान को ही वस्तु का सर्वांशात्मक ज्ञान समझने लगते हैं। संपूर्ण नय स्वरूप स्याद्वाद के बिना किसी भी वस्तु का सम्यक प्रकार से प्रतिपादन नहीं किया जा सकता ।

सिद्धांत में लोकिक व्यवहार के अनुसार मी नय का प्रतिपादन उपलब्ध होता है। निश्चय नय के साथ व्यबहारनय का भी उल्लेख मिलता है। निश्चयनय-तात्त्विक अर्थ का प्रतिपादन करता है ।२४ व्यवहारनय लोकप्रसिद्ध अर्थ का अनुसरण करता है । २५ निश्चयनय की मान्यता है कि भ्रमर का शरीर पांच वर्णवाला होता है अत: भ्रमर को पांच वर्णवाला मानता है तथा व्यवहारनय की मान्यता है कि भ्रमर कृष्णवर्णवाला है क्योंकि उसका शरीर कृष्ण वर्ग का है। कहीं कहीं उपरोक्त दोनों नयों की यह भी परिभाषा उपलब्ध होती है--सर्वनयों के अभिमत अर्थ को ग्रहण करने को निश्चय नय कहते हैं (सर्वनयमतार्थग्राही निश्चयः) तथा किसी भी एक नय के अभिप्राय को अनुसरण करने को व्यवहारनय कहते हैं, (एकनयमतार्थ नाही व्यवहारः) ।

अस्तु प्रमाण इन्द्रिय और मन—सब से हो सकता है किन्तु नय सिर्फ मन से ही होता है क्योंकि अंशों का ग्रहण मानसिक अभिप्राय से हो सकता है। जब हम अंशों की कल्पना करने लग जाते हैं तब वह ज्ञान 'नय' कहलाता है ।

अन्य वादी परस्पर पक्ष और प्रतिपक्ष भाव रखने के कारण एक दुसरे से ईर्ष्या करते हैं परन्तु सम्पूर्ण नयों को एक समान देखने वाले हे भगवान् आपके शास्त्रों में पक्षपात नहीं है। आपका सिद्धान्त ईर्ष्या से रहित है क्योंकि आप नैगमादि सम्पूर्ण नयों को एक समान देखते हैं। जिस प्रकार बिखरे हुए मोतियों को एक सूत्र में पिरो देने से मोतियों का सुन्दर हार बनकर तैयार हो जाता है । उसी प्रकार भिन्न-भिन्त नयों को स्याद्वाद रूपी सूत्र में पिरो देने से सम्पूर्ण नय 'श्रत प्रमाण' कहे जाते हैं। परस्पर विवाद करते हुए वादी लोग किसी मध्यस्थ न्यायी के द्वारा न्याय किये जाने पर विवाद करना बन्द करके आपस में मिल जाते हैं वैसे ही परस्पर विरुद्ध नय सर्वज्ञ भगवान् के शासन की शरण लेकर 'स्यात्' शब्द से विरोध के शान्त हो जाने पर परस्पर मैत्रीभाव से एकत्र रहने लगते हैं । अतः भगवान् महावीर के शासन के सर्व नयस्वरूप होने से उनका शासन संपूर्ण दर्शनों से अविरुद्ध है क्योंकि प्रत्येक दर्शन नयस्वरूप है ।

हे भगवन्! आप सम्पूर्ण नयस्वरूप दर्शनों को मध्यस्थभाव से देखते हैं अतः आप ईर्ष्यालु नहीं हैं। क्योंकि आप एक पक्ष का आग्रह करके दूसरे पक्ष का तिरस्कार नहीं करते हैं। हे भगवन् ! आपने केवलज्ञान से समस्त पदार्थों को यथार्थ रीति से जानकर नय और प्रमाण के द्वारा दुर्नयवाद का निराकरण किया है। अन्यान्य तैथिक रागद्वेषादि दोषों से युक्त होने के कारण यथार्थदर्शी नहीं हैं । अतः दुर्नयों का निराकरण नहीं कर सकते हैं ।

आचार्य हेमचन्द्र २६ ने कहा है कि एकान्तवादी लोग दुर्नयवाद में आसक्तिरूप खङ्ग से सम्पूर्ण जगत का नाश करते हैं । जिस प्रकार शत्रु खङ्ग के द्वारा समस्त संसार का नाश करते हैंसंहार करते हैं उसी प्रकार परवादियों ने दुर्नयवाद का प्ररूपण करके सत् ज्ञान का नाश कर दिया है। एक दूसरे का नाश करने वाले सुन्द और उपसुन्द नाम के दो राक्षस भाइयों के समान क्षुद्र शत्रु एकान्तवादी रूप कंटकों का परस्पर नाश हो जाने पर नयस्वरूप स्याद्वाद का प्ररूपण करने वाला आपका द्वादशांग प्रवचन किसी के द्वारा भी पराभूत नहीं किया जा सकता। अपेक्षा दृष्टियां उम विरोध को मिटाती हैं, जो तर्कवाद से उद्भूत होता है।

जो एक अंश को लेकर वस्तु के स्वरूप का वर्णन करता है वह वस्तुतः ज्ञाननय है । आचारांग में कहा है कि जिसको सम्यग ज्ञान अथवा सम्यग रूप देखो-उसी को संयम रूप देखो और जिसको संयमरूप देखो-उसी को सम्यग् रूप देखो ।' सम्यक् जानकर ही ग्रहण करने वाले अर्थ में और अग्रहणीय अर्थ में भी होता है उसे इहलोक तथा परलोक से सम्बन्धित अर्थ के विषय में यत्न करना चाहिए । इस प्रकार जो सद्व्यवहार के ज्ञान के कारण का उपदेश है-वह प्रस्तावतः ज्ञाननय कहा जाता है । भगवान् ने साधुओं को लक्ष्य करके कहा है—

णयंमि मिहिअव्वं अगिहिअव्वंमि अत्यमि ।
जई अश्वमेव इह जो, उवएसो सो नओ नाम ।
सम्वेसि पि नयाणं बहविहवत्तव्वं निसामित्ता।
तं सवनविसुद्ध, जं चरणगुणहिओ साहू ॥

-अनुयोगद्वार-उत्तरार्ध

अर्थात जो सभी नयों के नाना प्रकार की वक्तव्यताओं को सुनकर सब नयों में विशुद्ध है वही साधु चारित्र और ज्ञान के विषय में अवस्थित है।

इस प्रकार नयवाद सिद्धांत और व्यवहार की तुला पर टिका हुआ है।