।। पुण्य और पाप ।।

पुण्य के भेद

पुण्य दो प्रकार का है ।

द्रव्य पुण्य और भाव पुण्य के भेद से पुण्य के दो प्रकार हैं। दान, पूजा, भक्ति, दया, परोपकार आदि शुभ परिणाम भाव पुण्य है। शुभ परिणामों के निमित्त से जो शुभ कर्मों का बन्ध होता है, वह द्रव्य पुण्य है। द्रव्य पुण्य के ४२ भेद हैं

साता वेदनीय, देवायु, मनुष्यायु, तिर्यञ्चायु, उच्चगोत्र, देवगति, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, पाँच शरीर, तीन अंगोपांग, समचतुरस्र-संस्थान, वज्रवृषभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप-उद्योत, प्रशस्त विहायो-गति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, सुभग, शुभ, सुस्वर, स्थिर, आदेय, यश:कीर्ति, निर्माण और तीर्थङ्कर।

यहाँ पाँच बन्धन व पाँच संघात को पाँच शरीरों में तथा स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण के उपभेदों को मूलभेदों में सम्मिलित किया गया है। उपभेदों सहित द्रव्य पुण्य की कुल ६८ प्रकृतियाँ हैं।

आगम में पुण्यक अन्य प्रकार से भी दो भेद निर्दिष्ट हैं- पुण्यानुबन्धी पुण्य और पापानुबन्धी पुण्य। भोगाकांक्षा और निदान से रहित मोक्ष की अभिलाषा से किया जानेवाला शुभ कर्मानुष्ठान पुण्यानुबंधी पुण्य कहलाता है। यह पुण्य सदा पुण्य रूप ही फलता है, पाप का कारण कभी नहीं बनता। अत: पुण्यानुबंधी पुण्य कहलाता है। सम्यग्दृष्टि का पुण्य पुण्यानुबंधी पुण्य कहलाता है। यह परम्परा से मोक्ष का कारण है। भोगाकांक्षा निदान आदि से प्रेरित होकर किया जानेवाला शुभ कर्मानुष्ठान, पापानुबन्धी पुण्य कहलाता है। यह मिथ्यादृष्टियों को होता है। पापानुबन्धी पुण्य स्वल्प इन्द्रिय सुख प्रदानकर आत्मा को भोगों में आसक्त करता है। इसी भोगासक्ति के कारण यह भवान्तर में दुर्गति का कारण है।

पुण्य और पाप सर्वथा समान नहीं

पुण्य की परिभाषा बताते हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने कहा है"पुनात्यात्मानम् पूयते अनेनेतिपुण्यम्"- जो आत्मा को पवित्र करता है अथवा जिससे आत्मा पवित्र होता है, वह पुण्य है। पुण्य मोक्षमार्ग में बाधक नहीं साधक है। कतिपय लोग पुण्य को एकान्तत: संसार का कारण बताते हुए पाप और पुण्य को समान बताते हैं। यह अवधारणा ठीक नहीं है, क्योंकि न तो पुण्य और पाप दोनों सर्वथा समान हैं, न ही वह संसार का कारण है। यदि पुण्य और पाप दोनों सर्वथा समान ही होते तो नौ पदार्थों में उन्हें पृथक्-पृथक् परिगणित क्यों किया जाता ? आचार्यों ने पुण्य और पाप दोनों में भेद का कारण बताते हुए कहा है-

हेतुकार्यविशेषाभ्यां विशेष: स्यात् पुण्यपापयोः ।
हेतुशुभाशुभौ भावी कार्ये च सुखासुखे ।।

तत्त्वार्थ सार ४/१०३

हेतु और कार्य की विशेषता से पुण्य और पाप में अन्तर है। पुण्य का हेतु शुभभाव है, पाप का हेतु अशुभ भाव है। पुण्य का कार्य अनुकूलता और भौतिक सुख प्रदान करना है, जबकि पाप प्रतिकूलता और दुःख का कारण है। अत: शुभ और अशुभ भावों से उत्पन्न होनेवाले पुण्य और पाप को समान नहीं कहा जा सकता। आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य को पाप से श्रेष्ठ बताते हुए कहा है-

वर-वयतवेहिं सग्गो मा होइ इयरेहिं णिरइगइ दुक्खं ।
छाया तवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं ।।२५।।

मोक्ष पाहुड़

अव्रत और अतप के कारण नरक जाने की अपेक्षा व्रत और तपजन्य पुण्य से स्वर्ग जाना श्रेष्ठ है। धूप में खड़े होकर थकान मिटाने की चेष्टा करने की अपेक्षा किसी पेड़ की छाया में बैठकर विश्राम करना श्रेष्ठ है।

पुण्य सर्वथा संसार का कारण नहीं है। आचार्य विद्यानन्द ने अष्ट सहस्री में लिखा है--

"मोक्षस्यापि परमपुण्यातिशयचारित्रविशेषात्मकपौरूषाभ्यामेव सम्भवात्।।"

अष्टसहस्री श्लोक ८८ की टीका

मोक्ष की उपलब्धि परम पुण्य के अतिशय और चारित्र विशेषात्मकपुरुषार्थ के द्वारा ही सम्भव है। पुण्य के अभाव में मोक्ष पुरुषार्थ नहीं हो सकता।

आगम में पुण्य दो प्रकार का बताया गया है- सातिशय पुण्य और निरतिशय पुण्य । सम्यग्दृष्टि का पुण्य सातिशय पुण्य कहलाता है। यह पुण्य के बन्ध के साथ पाप की निर्जरा भी कराता है, अत: परम्परा से मोक्ष का कारण है। मिथ्यादृष्टि का पुण्य निरतिशय पुण्य है। निरतिशय पुण्य मात्र पुण्य बंध का कारण होने से संसार का हेतु है। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए आचार्य देवसेन ने भावसंग्रह में लिखा है-

सम्मादिस्सि पुण्णं ण होइ संसार कारणं णियमा ।
मोक्खस्स होइ हेउ जइ वि णियाणं ण सो कुणइ ।।

अकय णियाणो सम्मो पुण्णं काउण णाण चरणहो ।
उनज्जइ दिनलोए सुहपरिणामो सुलेसोबि ।।

लद्धं जइ चरमतणु चिरकय पुण्णेण सिझए णियमा ।
पानइ के गलणाणं जहाखाहय संयमं सुखं ।।

तम्हा सम्माविठ्ठस्स पुण्णं मोक्खस्स कारणं हवइ ।
इयणाउण गिहत्थो पुण्णं चायरउ पयत्तेण ।।

सम्यग्दृष्टि का पुण्य मोक्ष का ही कारण है, वह नियमत: संसार का कारण नहीं होता, क्योंकि वह निदान नहीं करता। निदान रहित सम्यादृष्टि ज्ञान और चारित्रपूर्वक पुण्य करके शुभ परिणाम और शुभ लेश्या के साथ स्वर्ग में उत्पन्न होता है। जब वह चरम शरीर को प्राप्त करता है, तब चिरकालीन पुण्य से यथाख्यात संयम और केवलज्ञान को पाकर नियमत: सिद्ध होता है। इसलिए “सम्यग्दृष्टि का पुण्य मोक्ष का कारण होता है।" ऐसा जानकर हे गृहस्थो! तुम प्रयत्नपूर्वक पुण्य का आदर करो।

इसी कारण आगम में अनेक स्थलों पर पुण्य करने की प्रेरणा दी गई है। सम्यग्दृष्टि निरन्तर पुण्य की क्रिया में संलग्न होता हुआ अपनी आत्मा को विशुद्ध बनाता है। यहाँ यह बात अवश्य ध्यातव्य है कि पुण्य की क्रिया का ध्येय पुण्य फल की प्राप्ति नहीं, अपितु आत्मा की शुद्धि होनी चाहिए। तभी वह कर्मनिर्जरा का कारण बनता है, अन्यथा नहीं । वस्तुत: पुण्य नौका के लिए अनुकूल वायु की तरह है, जो हमें भवसागर के पार ले जाती है।

पाप के भेद

पाप भी दो प्रकार का है ।

पाप के दो प्रकार हैं- भाव पाप और द्रव्य पाप। आत्मा में उत्पन्न होने वाले मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा आदि रूप मनोविकारों को भावपाप कहते हैं तथा पाप में प्रवृत्त करानेवाले मिथ्यात्वादि पाप कर्मों को द्रव्य पाप कहते हैं। द्रव्य पाप की ८४ प्रकृतियाँ हैं-

ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की नौ, मोहनीय की अट्ठाईस, अन्तराय की पाँच, नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियादि चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त-वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त-विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति, नरकायु, असाता वेदनीय, और नीच गोत्र, ये ८४ पाप प्रकृतियाँ हैं। स्पर्श, रस, गंध आदि के उपभेदों को मिलाने पर पाप कर्म के कुल भेद ८४ + १६ = १०० हो जाते हैं।

स्पर्श, रस, गंध और वर्ण प्रशस्त भी होते हैं और अप्रशस्त भी। इस आशय से वे पुण्य और पाप दोनों में सम्मिलित हैं। इसी कारण कर्म के कुल भेद ६८ + १०० = १६८ होते हैं।

संवर, निर्जरा और मोक्ष

संवर के भेद

संवर के भी दो भेद हैं ।

संबर दो प्रकार का है- भावसंवर, द्रव्यसंवर आत्मा के जिन विशुद्ध परिणामों से कमों का आस्रव रुकता है, वह भावसंवर है तथा कर्मों का आगमन रुक जाना, द्रव्यसंवर कहलाता है। भावसंवर के ६२ भेद हैं- पाँच व्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परिषहजय और पाँच चारित्र।

संवर का मोक्ष मार्ग में महत्वपूर्ण स्थान है। संवरपूर्वक होनेवाली निर्जरा ही मोक्ष का कारण है। सभी जीवों को संवर एक-सा नहीं होता, जो आत्मा जितना विशुद्ध होता है, वह उतना अधिक संवर का अधिकारी होता है। कर्मों के संवर से चौदह गुणस्थानों के विकास के क्रम का ज्ञान होता है।

निर्जरा के भेद और स्थान

निर्जरा के ग्यारह स्थान हैं ।

कर्मों के आंशिक रूप से झड़ने को निर्जरा कहते हैं। निर्जरा के भी दो भेद हैं- द्रव्य निर्जरा और भाव निर्जरा। कर्म परमाणुओं का आत्मा से झड़कर अलग हो जाना द्रव्य निर्जरा है तथा आत्मा के जिन विशुद्ध भावों के कारण कर्म परमाणु आत्मा से पृथक् होते हैं, वह भाव निर्जरा है।

द्रव्य निर्जरा दो प्रकार की है-सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा।

सविपाक निर्जरा - स्थिति के पूर्ण होने पर, कर्मों के सुख-दुःखात्मक फल देकर विलग होने को सविपाक निर्जरा कहते हैं। जैसे आम आदि फल पककर झड़ जाते हैं, वैसे ही यह निर्जरा, केवल फलोन्मुख होते हुए कर्मों की होती है। इसे यथाकाल निर्जरा भी कहते हैं। यह प्रतिसमय होती रहती है, क्योंकि बंधे हुए कर्म अपने-अपने समय पर अपना फल देकर निर्जीण होते ही रहते हैं। मोक्षमार्ग में इस प्रकार की निर्जरा का कोई महत्त्व नहीं है, क्योंकि इस निर्जरा में राग-द्वेष युक्त होने के कारण निर्जरा के साथ-साथ नवीन कर्मों का बंध भी होता है। संवरपूर्वक होनेवाली निर्जरा ही मोक्षमार्ग में उपादेय है।

अविपाक निर्जरा- तपादि साधनों द्वारा समय से पूर्व ही कमों के क्षय से होनेवाली निर्जरा अविपाक निर्जरा है। यह सविपाक निर्जरा के विपरीत है। जैसे माली कच्चे आमों को तोड़कर पाल आदि में रखकर उन्हें समय से पूर्व ही पका लेता है, वैसे ही अविपाक निर्जरा परिपाक काल से पूर्व ही कर्मों को गला देती है। मोक्षमार्ग में अविपाक निर्जरा ही उपादेय मानी गयी है। यह व्रतधारी सम्यग्दृष्टियों के ही होती है।

निर्जरा के स्थान

सभी जीवों के सब अवस्थाओं में एक सी निर्जरा नहीं होती। निर्जरा का सम्बन्ध विशुद्धि से है। जो जीव जितने अधिक विशुद्ध होते हैं, उनके उतनी ही अधिक निर्जरा होती है। प्रस्तुत सूत्र में इसी अपेक्षा से निर्जरा के ग्यारह स्थान बताए गए हैं। वास्तव में ये मोक्षाभिमुख विशिष्ट आत्मा की विविध अवस्थाएँ हैं, जो एक जीव को प्राप्त हो सकती हैं। यथार्थ मोक्षाभिमुखता सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से ही प्रारम्भ होती है और वह 'जिन' अवस्था में पूरी होती है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से लेकर सर्वज्ञता तक मोक्षाभिमुखता के ग्यारह विभाग किये गये हैं, जिनमें पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर विभाग में परिणामों की विशुद्धि अधिक होती है। परिणामों की विशुद्धि जितनी अधिक होगी, कर्म निर्जरा भी उतनी ही अधिक होगी। अत: प्रथम-प्रथम अवस्थाओं में जितनी कर्म निर्जरा होती है, उनकी अपेक्षा आगे-आगे की अवस्थाओं (स्थानों) में परिणाम विशुद्धि की विशेषता के कारण कर्म निर्जरा भी असंख्यात गुणी बढ़ जाती है। इस प्रकार बढ़ते-बढ़ते अन्त में केवली समुद्घात' अवस्था में निर्जरा का प्रमाण सबसे अधिक हो जाता है। कर्म निर्जरा के इस तरतम भाव में सबसे कम कर्म निर्जरा सम्यग्दृष्टि की और सबसे अधिक निर्जरा समुद्घात-गत केवली की होती है। इन ग्यारह अवस्थाओं का स्वरूप इस प्रकार है-

१. सम्यग्दृष्टि- जिस अवस्था में मिथ्यात्व दूर होकर सम्यक्त्व का आविर्भाव होता है।

२. श्रावक- पंचम गुणस्थानवी संयमासंयमी।

३. विरत- महाव्रती साधु (प्रमत्त-अप्रमत्त)।

४. अनन्त वियोजक- अनन्तानुबंधी की विसंयोजना में प्रवृत्त सम्यग्दृष्टि।

५. दर्शनमोह क्षपक- दर्शनमोह की क्षपणा में प्रवृत्त सम्यग्दृष्टि।

६. उपशामक- उपशमश्रेणी में आरूढ़ अपूर्वकरण से सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानवर्ती साधक।

७. उपशान्त मोह- ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती साधक।

८. क्षपक- क्षपकश्रेणी में आरूढ़ अपूर्वकरण से सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानवी।

९. क्षीण मोह- बारहवें गुणस्थानवर्ती।

१०. जिन- सयोग केवली भगवान्।

११. समुद्घात केवली- समुद्घात में प्रवृत्त केवली भगवान्।

सम्यग्दृष्टि से आगे के दस स्थानों में पूर्व-पूर्व के स्थानों की अपेक्षा असंख्यात-असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। सम्यग्दृष्टि की निर्जरा दर्शनमोह का उपशमन करनेवाले जीव से असंख्यात गुणी अधिक होती है, किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्दृष्टि की निर्जरा सम्यक्त्व की उत्पत्ति के उपरान्त मात्र अन्तर्मुहूर्त तक ही होती है। इनमें सम्यग्दृष्टि प्रथम अवस्था है और समुद्घातस्थ जिन अंतिम अवस्था है। अर्थात् सम्यग्दृष्टि से यह असंख्यात गुणी निर्जरा का क्रम प्रारम्भ होकर समुद्घातस्थ जिन अवस्था के प्राप्त होने तक जारी रहती है। परिणामों की उत्तरोत्तर विशुद्धि ही इसका कारण है। जिसके जितनी अधिक परिणामों की विशुद्धि होगी उसके उतने ही अधिक कमों की निर्जरा भी होगी । इस हिसाब से सम्यग्दृष्टि के सबसे कम और समुद्घातस्थ जिन के सबसे अधिक परिणामों की विशुद्धि होती है। इसी कारण सम्यग्दृष्टि के सबसे कम और समुद्घातस्थ जिन को सर्वाधिक निर्जरा होती है।

मोक्ष और उसके साधन

त्रिविधो मोक्षहेतुः ।।३।।
द्विविधो मोक्षः ।।६४।।
मोक्ष के तीन हेतु हैं।।६३।।
मोक्ष दो प्रकार का होता है।।६४ ।।

समस्त साधना का मूल लक्ष्य मोक्षोपलब्धि है। मोक्षोपलब्धि के तीन साधन हैं- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। इन तीनों की एकता को मोक्षमार्ग कहते हैं। 'सम्यक्' शब्द समीचीनता-यथार्थता का द्योतक है। यहाँ दर्शन का अर्थ श्रद्धा है। तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहते हैं। तत्त्वों का यथार्थज्ञान सम्यग्ज्ञान है तथा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान-पूर्वक किया जानेवाला सदाचरण सम्यक्चारित्र कहलाता है। ये तीनों रत्नों के समान बहुमूल्य हैं, अत: इन्हें रत्नत्रय कहते हैं।

सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है। ये तीनों मिलकर ही मोक्षमार्ग कहलाते हैं। पृथक्-पृथक् तीनों से मोक्षमार्ग नहीं बनता, न ही किन्ही दो के मेल से। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने इस बात को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र पृथक्-पृथक् मोक्षमार्ग नहीं हैं। रोगी का रोग दवा में विश्वास करने मात्र से दूर न होगा। जब तक उसे दवा का ज्ञान न हो और वह चिकित्सक के कहे अनुसार आचरण न करे, तब तक रोग का विनाश नहीं होगा। इसी तरह दवा की जानकारी-भर से ही रोग दूर नहीं होता, जब तक कि रोगी उस पर विश्वास न करे और उसका विधिवत् सेवन न करे। इसी प्रकार दवा में रुचि और उसके ज्ञान के बिना उसके सेवन मात्र से भी रोग दूर नहीं हो सकता। रोग तभी दूर हो सकता है जब दवा में श्रद्धा हो, उसकी जानकारी हो और चिकित्सक के कहे अनुसार उसका सेवन किया जाए। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की समष्टि से ही मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। इसकी तुलना हम लकड़ी के जीने से कर सकते हैं। जिस प्रकार लकड़ी के जीने में उसके दोनों ओर दो पाये लगे रहते हैं तथा बीच में कुछ आड़ी लकड़ियाँ लगी होती हैं, जो दोनों पायों को जोड़े रहती हैं। दोनों ओर के पाये सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के प्रतीक हैं, बीच की आड़ी लकड़ियाँ सम्यकचारित्र की प्रतीक हैं जिनके सहारे हम आध्यात्मिक ऊँचाइयों का स्पर्श कर पाते हैं। बीच की लकड़ियों के अभाव मे दोनों ओर के पाये कुछ काम नहीं कर पाते तथा दोनों पायों के अभाव में बीच की लकड़ियाँ भी निरर्थक सिद्ध होती है। तीनों के योग से ही सीढ़ी तैयार हो सकती है। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के योग से ही मोक्ष-मार्ग बनता है।

श्रद्धा, ज्ञान और आचरण क्रमश: हमारे मस्तिष्क, आँख और चरण के प्रतीक हैं। व्यक्ति को चलने के लिए इनका सम्यक् उपयोग करना पड़ता है। पैरों से हम चलते हैं, आँखों से देखते हैं तथा मस्तिष्क से यह निर्णय लेते हैं कि हमें कहाँ पहुँचना है, तभी हम सही चल पाते हैं। यदि हम आँख बन्द कर चलते रहे तो गर्त में गिरेंगे। आँखें खुली हों, किन्तु पैर काम नहीं दे रहे हों, तो हम अपने घर नहीं पहुँच सकते। पैर भी सही हों, आँखें भी खुली हों, पर हमें यही पता न हो कि हमें पहुँचना कहाँ है, तो निरन्तर गतिशील रहने के बाद भी हम लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकते। इसी प्रकार श्रद्धा, ज्ञान और आचरण तीनों के संयोग से ही हम मोक्षमार्ग पर चल सकते हैं।

मोक्षमार्ग के भेद

मोक्षमार्ग दो प्रकार का है- निश्चय और व्यवहार। जीवादि सात तत्त्वों का श्रद्धान और ज्ञानपूर्वक रागादिक पर भावों के परिहार रूप चारित्र की एकता को व्यवहार मोक्षमार्ग कहते हैं। इसमें दर्शन ज्ञान और चारित्र तीनों ही आत्मा से पृथक् पर द्रव्यों के आश्रित हैं, इसलिये इसे भेद रत्नत्रय भी कहते हैं। यह शुभोपयोग और सराग चारित्र भी कहलाता है। निज शुद्धात्मा का श्रद्धान, ज्ञान और उसमें ही रमण-रूप चारित्र की एकता को निश्चय मोक्षमार्ग कहते हैं। यह ध्यानात्मक परिणति है। इसमें दर्शन, ज्ञान और चारित्र तीनों आत्माश्रित होते हैं, इसीलिये यह अभेद रत्नत्रय भी कहलाता है। यही शुद्धात्मानुभूति या शुद्धोपयोग है।

व्यवहार प्रवृत्तिपरक है, निश्चय निर्वृत्तिपरक। व्यवहार मोक्षमार्ग सराग अवस्था में होता है, निश्चय वीतराग दशा है। व्यवहार पराश्रित है, निश्चय स्वाश्रित। निश्चय साध्य है, व्यवहार उसका साधन है। जैसे फूल के अभाव में फल नहीं मिलता, वैसे ही व्यवहार मोक्षमार्ग के अभाव में निश्चय मोक्षमार्ग की उपलब्धि नहीं होती। फूल ही विकसित होकर फलों में रूपान्तरित होते हैं। इसलिये प्राथमिक भूमिका में व्यवहार मोक्षमार्ग का आलम्बन लिया जाता है। यह व्यवहार ही आगे चलकर (ध्यान अवस्था में) निश्चय में ढल जाता है।

वस्तुतः मोक्षमार्ग एक ही है, दो नहीं। मोक्षमार्ग के दो भेद साधन अलग-अलग अवस्थाओं की अपेक्षा किये गये हैं। व्यवहार मोक्षमार्ग प्रार अवस्था है और निश्चय परम अवस्था। व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमा पूर्व भूमिका है।

मोक्ष के भेद

मोक्ष दो प्रकार का है- द्रव्य मोक्ष और भाव मोक्ष

बन्धन से मुक्ति को मोक्ष कहते हैं। मोक्ष का अर्थ है 'मुक्त र संसारी आत्मा कमों के बंधन से युक्त होता है। अत: आत्मा और कर्मबन अलग-अलग हो जाना ही मोक्ष है। मोक्ष शब्द संस्कृत के 'मोक्ष-आसने' बना है, जिसका अर्थ है- 'छूटना' या 'नष्ट होना'। अत: समस्त कर आत्मा से आत्यन्तिक रूप से पृथक् होना, समूल उच्छेद होना मोह 'आत्यन्तिक क्षय' का अर्थ है- जहाँ पुरातन कमों का पूर्णरूप से नाश हु और नये कर्मों के आगमन की कोई सम्भावना न हो। संवर द्वारा नवीन का आगमन रोकने तथा निरन्तर चलनेवाली निर्जरा द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों के ना यह स्थिति उत्पन्न होती है। इसी को परिलक्षित करते हुए आचार्य 'उमास ने मोक्ष का लक्षण करते हुए कहा है- "बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्र मोक्षः"। अर्थात् बन्ध के हेतुओं के अभाव और निर्जरा द्वारा समस्त का आत्मा से अलग होना या उनका आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है।

हमारी साधना का प्रमुख उद्देश्य मोक्ष ही है। इसीलिए जैन-दप मुक्त जीवों को 'सिद्ध' कहा गया है, क्योंकि उन्होंने अपने समस्त कर्मों क करके अपने साध्य को सिद्ध कर लिया है। कर्मों के बंधन के कारण ही : दुःखी होता है। कर्मों के नष्ट हो जाने पर वह शुद्ध-बुद्ध-निरंजन हो जा उसके आत्मिक गुणों का परम विकास हो जाता है और उसकी अनेक आत्मिक शक्तियाँ पूरे तेज के साथ व्यक्त हो जाती हैं। वह बंधन-मुक्त पक्षि स्वतन्त्र आह्लाद की तरह उन्मुक्त आनन्द एवं अनुपम सुख का अनुभव है। आनन्द भी कैसा ! चिरन्तन, शाश्वत, कभी न नष्ट होनेवाला ।

सिद्धों के अनुयोगद्वार

सिद्धस्य द्वादशानुयोगद्वाराणि ।।६५।।
सिद्धों के बारह अनुयोग द्वार हैं ।।६५।।

क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्ध, बोधितबुद्ध, ज्ञान, अवगाहना, संख्या और अल्प बहुत्व ये सिद्धों के बारह अनुयोगद्वार हैं। इनके आधार पर सिद्धों के विषय में विशेष जानकारी उपलब्ध होती है, अत: इन्हें अनुयोग द्वार कहते हैं।

सिद्ध जीवों के स्वरूप को विशेष रूप से जानने के लिये बारह बातों का निर्देश किया गया है। यहाँ प्रत्येक बात के आधार पर सिद्धों के स्वरूप का विचार अभिप्रेत है। यद्यपि सभी सिद्ध जीवों में गति, लिंग आदि सांसारिक भाव न होने से कोई विशेष भेद नहीं रहता। फिर भी उनके अतीत जीवन की अपेक्षा से उनमें भी भेद की कल्पना और विचार किया जा सकता है। यहाँ क्षेत्र आदि जिन बारह बातों से विचार किया गया है, उनमें से प्रत्येक के विषय में यथासम्भव भूत और वर्तमान दृष्टि लगा लेनी चाहिए।

१. क्षेत्र- वर्तमान भाव की दृष्टि से सभी सिद्ध जीवों के सिद्ध होने का स्थान एक ही है, सिद्ध क्षेत्र अर्थात् आत्मप्रदेश या आकाशप्रदेश, भूतकाल की दृष्टि से इनके सिद्ध (मुक्त) होने का क्षेत्र एक नहीं है, क्योंकि जन्म की दृष्टि से पन्द्रह कर्मभूमियों से सिद्ध होते हैं और संहरण की दृष्टि से संपूर्ण मनुष्यलोक सिद्ध क्षेत्र है।

२. काल- वर्तमान की दृष्टि से जिस समय कर्मों से मुक्त हुए, सिद्ध होने का वही काल है तथा अतीत की अपेक्षा सामान्य रूप से उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में जीव सिद्ध होते हैं। विशेष रूप से अवसर्पिणी काल में सुषमा-दुःषमा के अन्त में और दुःषमा-सुषमा में उत्पन्न होनेवाले जीव सिद्ध हैं। दुःषमा-सुषमा काल में उत्पन्न जीव दुःषमा काल में भी सिद्ध हो सकते हैं, किन्तु दुःषमा काल में उत्पन्न हुये जीव दुःषमा में सिद्ध नहीं होते। संहरण की अपेक्षा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के सब कालों में सिद्ध होते हैं।

३. गति- वर्तमान की अपेक्षा सिद्ध गति में ही जीव होते हैं। अतीत की दृष्टि से यदि अन्तिम भव की अपेक्षा से विचार करें, तो मनुष्य गति से सिद्ध होते हैं। अन्तिम से पहले के भव को लेकर विचार करने पर चारों गतियों से सिद्ध होते हैं।

४. लिंग- लिंग का अर्थ वेद नोकषाय और स्त्री-पुरूष आदि का बाह्य चिह्न है। वेद नोकषाय को भाव वेद और स्त्री-पुरूष आदि चिह्नों को द्रव्य वेद कहते हैं। भाव वेद की दृष्टि से वर्तमान की अपेक्षा अपगत वेदी सिद्ध होते हैं। अतीत की अपेक्षा तीनों भाववेदी सिद्ध हो सकते हैं, किन्तु द्रव्य वेदी की अपेक्षा मात्र पुरूष ही सिद्ध हो सकते हैं। दूसरे अर्थ के अनुसार वर्तमान की अपेक्षा निर्ग्रन्थ लिंग से ही सिद्धि होती है और अतीत की दृष्टि से निर्ग्रन्थ और सग्रन्थ दोनों ही लिंगों से सिद्ध हो सकते हैं।

५. तीर्थ- कोई तीर्थङ्कर के रूप में और कोई अतीर्थङ्कर के रूप में सिद्ध होते हैं। अतीर्थङ्करों में कोई किसी तीर्थङ्कर के सद्भाव में सिद्ध होते हैं। कोई तीर्थङ्करों के असद्भाव में सिद्ध होते हैं।

६. चारित्र- वर्तमान की दृष्टि से सिद्ध जीव न तो चारित्री होते हैं न अचारित्री। सिद्ध होने के समय की अपेक्षा से देखे तो सभी सिद्ध यथाख्यात चारित्र से सिद्ध होते हैं और उसके पूर्व के चारित्र को ले तो पाँच चारित्रों में कोई चार और कोई पाँच चारित्रों से सिद्ध होते हैं। सामायिक छेदोपस्थापना, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात ये चार तथा सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात ये पाँच चारित्र जानने चाहिए।

७. प्रत्येकबुद्ध और बोधितबुद्ध - प्रत्येक बुद्ध और बोधित बुद्ध दोनों सिद्ध होते हैं। जो किसी उपदेश के बिना स्वयं अपनी ज्ञान शक्ति से ही बोध पाकर सिद्ध होते हैं, वे प्रत्येकबुद्ध या स्वयंबुद्ध कहलाते हैं और जो दूसरे प्राणी से उपदेश पाकर सिद्ध होते हैं, वे बोधितबुद्ध कहलाते हैं।

८. ज्ञान- वर्तमान की दृष्टि से एक मात्र केवलज्ञानी ही सिद्ध होते हैं। अतीत की दृष्टि से दो, तीन और चार ज्ञानवाले भी सिद्ध होते हैं। दो अर्थात् मति और श्रुत, तीन अर्थात् मति, श्रुत, अवधि अथवा मति, श्रुत, मन:पर्यय, चार अर्थात् मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इन चार ज्ञानों से सिद्ध होते हैं।

९. अवगाहना - अवगाहना का अर्थ है सिद्धों का आकार। वर्तमान की दृष्टि से सभी सिद्ध जीवों की अवगाहना उनके चरम शरीर से कुछ कम होती है। अतीत की दृष्टि से जघन्य अवगाहना साढ़े तीन हाथ और उत्कृष्ट अवगाहना पाँच सौ पच्चीस धनुष होती है।

१०. अन्तर- सिद्ध दो प्रकार के होते हैं- सान्तर सिद्ध और निरन्तर सिद्ध । किसी एक के सिद्ध होने के तत्काल बाद जब कोई दूसरा सिद्ध होता है, तो उसे निरन्तर सिद्ध कहते हैं। कुछ समय के अन्तराल से सिद्ध होनेवाले सिद्ध सान्तर सिद्ध कहलाते हैं। निरन्तर सिद्धि का जघन्य काल दो समय और उत्कृष्ट काल आठ समय है, तथा सान्तर सिद्धि का जघन्य अन्तर एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तर छह माह है।

११. संख्या- एक समय में कम से कम १ और अधिकतम १०८ जीव सिद्ध होते हैं। छह माह आठ समय में छह सौ आठ जीवों के सिद्धि का नियम है।

सिद्धि के उत्कृष्ट अन्तर की अपेक्षा विचार करें तो आठ समय में छह सौ आठ जीव सिद्ध हो सकते हैं, किन्तु एक समय में सिद्ध होनेवाले जीवों की संख्या एक सौ आठ से अधिक नहीं होती।

१२. अल्पबहुत्व- क्षेत्र और काल आदि जिन ग्यारह बातों को लेकर विचार किया गया है, उनके विषय में संभाव्य भेदों की परस्पर में न्यूनाधिकता का विचार करना अल्पबहुत्व है। जैसे, क्षेत्रसिद्ध दो प्रकार के होते हैं- जन्मसिद्ध और संहरणसिद्ध। जो जिस क्षेत्र में जन्मते हैं, उसी क्षेत्र से उनके सिद्ध होने पर वे जन्म सिद्ध कहलाते हैं और अन्य क्षेत्र में जन्मे हुए जीवों को अपहरण करके अन्य क्षेत्र में ले जाने पर यदि वे उसी क्षेत्र से सिद्ध होते हैं, तो वे संहरणसिद्ध कहलाते हैं। इनमें से संहरणसिद्ध थोड़े होते हैं और जन्मसिद्ध संख्यात गुणे होते हैं। इसी प्रकार उर्ध्वलोक सिद्ध सबसे कम होते हैं, अधोलोक सिद्ध उनसे संख्यात गुणे होते हैं और तिर्यग्लोक सिद्ध उनसे संख्यात गणे होते हैं। समुद्र सिद्ध सबसे कम होते हैं और द्वीप सिद्ध उनसे संख्यात गुणे हैं। इसी तरह काल आदि की अपेक्षा भी अल्पबहुत्व का विचार किया जाता है।

सिद्धों के गुण

अष्टौ सिद्धगुणाः ।।६६।।
सिद्धों के आठ गुण होते हैं।।६६।।

क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तवीर्य, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व और अव्याबाधत्व सिद्धों के ये आठ गुण हैं। ये आठों गुण क्रमश: मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म के क्षय से प्रकट होते हैं। वैसे तो सिद्धों में अनन्त गुण होते हैं, तथापि उनमें ये आठ गुण प्रधान हैं, इन्हें सिद्धों के मूलगुण भी कहा जाता है।