।। सम्यग्दर्शन के दो रूप - व्यवहार और निश्चय ।।

अशोक मुनि

जीव की सम्यगदर्शन, सम्यगज्ञान और सम्यगचारित्र रूप विशुद्धि को अणगार धर्मामृत में धर्म कहा गया है। परन्तु इस धर्म का आचरण केवल आत्मा से नहीं हो सकता। वैसे ही आत्मा से रहित केवल शरीर से भी नहीं हो सकता। इसलिए जीवन के बाहा और आभ्यान्तर इन दो रूपों की तरह सम्यग्दर्शन के भी बाहा और आभ्यान्तर ये दो रूप है।

आभ्यान्तर रूप सम्यगदर्शन की आत्मा है और बाह्य रूप है - सम्यग्दर्शन का अंगोंपांगयुक्त शरीर सम्यगदर्शन के इन दोनों रूपों की साधक-जीवन में आवश्यकता है। सम्यगदर्शन के आभ्यान्तर रूप के बिना आत्म शुद्धि नहीं हो सकती और बाह्य रूप के बिना व्यक्ति की व्यवहार शुद्धि नहीं हो सकती।

यों देखा जाय तो सम्यग्दर्शन आत्म शुद्धि, आचरण शुद्धि तथा ज्ञानशुद्धि के मार्ग पर चलने की पहली सीढ़ी है। इसी को सम्यक्त्व कहा जाता है।

सम्यक्त्व का अर्थ है ठीक मार्ग को प्राप्त करना। जो जीव इधर-उधर भटकना छोड़कर आत्मविकास के सही रास्ते को प्राप्त कर लेता है। आत्म शुद्धि का पावन पथ प्राप्त कर लेता है उसे सम्यगदृष्टि या सम्यक्त्वी कहते है। ठीक मार्ग को प्राप्त करने का अर्थ है मन में पूरी श्रद्धा होना कि यही मार्ग कल्याण की ओर ले जाने वाला है। उस मार्ग पर चलने की रुचि और प्रतीति होना साथ ही विपरीत मार्गा का परित्याग करना। यही कारण है कि जीव के अन्तर और बाह्य दोनों की शुद्धि के लिए निश्चय सम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन जैन शास्त्रों में बताया गया है।

सम्यगदर्शन का बाह्य रूप है-देव/गुरु और धर्म में श्रद्धा रखना अथवा सात तत्वों या नी पदार्थों पर श्रद्धा रखना। इसका आभ्यन्तर रूप है-निश्चय, सम्यग्दर्शन, जिसका अर्थ होता है-आत्मा की वह विशुद्धता, जिससे सत्य या तत्व को जानने और निश्चय पूर्वक श्रद्धा करने को स्वाभाविक अभिरुचि जागृत हो जाये।

वास्तव में देखा जाये तो बाह्यरूप आभ्यन्तर रूप की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। जब आत्मा में विशेष प्रकार की शुद्धि आती है तो जीव में सत्य को जानने की स्वाभाविक रुचि प्रकट होती है। उस शुद्धि से पहले जीव सांसारिक सुखों में फंसा रहता है।

जीव की सर्वप्रथम शुद्धि कैसे किससे ?

प्रश्न होता है जीव में पहले पहल उस प्रकार की शुद्धि कैसे किस प्रकार होती है? इस प्रश्न के लिए संक्षेप में आत्मा का स्वरूप और उस के संसार में भटकने के कारणों को जानना आवश्यक है।

आत्मा अनादि अनन्त है। तथा वह अपने स्वाभाविक गुण, ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य (शक्ति) की अनन्तता से युक्त है। वह अजर अमर है। वस्तुतः वह अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त भाक्ति का भंडार है। परन्तु कर्म बंध के कारण आत्मा के ये गुण दब गये है। कर्मों के आवरण के कारण अल्पज्ञ. अल्पद्रष्टा, अल्प सुखी और आत्म शुद्धि वाला बना हुआ है। कर्मो के आवरण दूर होते ही आत्मा शुद्ध हो जाता है। उसके स्वाभाविक गुण पूर्णतया प्रगट हो जाते है। कर्म दो प्रकार के होते है। एक द्रव्यकर्म जो पुदगल द्रव्य के वे परमाणु (कार्मण वर्गनाएं हैं। जो आत्मा के साथ संबद्ध होकर उसकी विविध-शक्तियों को कृठित कर देते है। दूसरे भाव कर्म (रागद्वेष मोहादि) है। जो क्रोधादि कषायों के संस्कारों के कारण आत्मा को बहुमुखी बनाये रखते है। उसे अपने स्वरूप का भान नहीं होने देते।

आत्मा की अनन्त शक्तियों को आवृत कर देने वाला कर्मावरण इतना विचित्र और विकट है कि वह आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्रकट नहीं होने देता। सूर्य का प्रखर प्रकाश मेघाच्छन्न होने से जैसे अप्रकट रहता है। वैसे ही कर्मों के आवरण के कारण आत्मा की अनन्त शक्ति भी प्रकट नहीं हो पाती। किन्तु जैसे सघन मेघावरण होने पर भी सूर्य की आभा अत्यन्त क्षीण रूप से प्रकट रहती ही है, उसी प्रकार कर्मावरण होते हुए भी आत्मा की शक्ति का सूक्ष्म अंश तो प्रकट रहता ही है उसी के कारण जीव की पहचान होती है। वास्तव में बात यह है कि अनादिकालीन कर्म-बंधन और अपनी संसाराभिमुखी प्रवृत्ति के कारण आत्मा अपने स्वरूप को भूल बैठा है। उसे अपने पर विश्वास नहीं रहा, कर्म की शक्ति के समक्ष दीनता-हीनता का अनुभव करता है।

आत्मा अपने स्वरूप और शक्ति को कैसे भूल गया ? इस तथ्य को समझने के लिए एक रूपक लीजिये। मान लो, एक वेश्या है, या कोई रूपवती स्त्री है। उसके मनमोहक रूप से आकृष्ट एवं विमुग्ध होकर एक पुरुष उसके वशीभूत हो जाता है। वह इतना परवश हो जाता है कि अपनी शक्ति को भूल कर उस नारी को ही सर्वस्व समझता है। उसी के चंगुल में फंसता रहता है। लेकिन एक दिन उसे अपने और उस नारी के असली स्वरूप का भान हुआ, अपनी शक्ति पर विश्वास हुआ और वह नारी के मोहपाश से छूट गया।

यही स्थिति जीव और कर्म पुद्गल की है। जीव पर मोह/ममत्व-बुद्धि/अहंत्व- बुद्धि का आवरण इतना जबरदस्त है कि इसके कारण वह कर्म पुद्गलों के अधीन हो जाता है। अपनी शक्ति और स्वरूप को भूल जाता है। परन्तु जिस क्षण वह अपने स्वरूप और अनन्त शक्ति को पहचान लेता है, उसे स्व स्वरूप की उपलब्धि हो जाती है। उसी क्षण वह कर्म पुदगलों के चंगुल से छूट जाता है। फिर वह बंधन बद्ध नहीं रहता।

निश्चय - सम्यग्दर्शनः कब क्या कैसे ?

निश्चय - सम्यक्त्व तब होता है जब अनन्तानुबंधी 1क्रोध, 2 मान, 3. माया और 4.लोभ तथा 5. मिथ्यात्व मोहनीय, 6. सम्यक्त्व मोहनीय और 7. मिश्र मोहनीय। मोह कर्म की इन 7 प्रकृतियों का क्षय/क्षयोपशम अथवा उपक्षम हो जाता है।

शुद्ध जीव (आत्मा) का अनुभव - निश्चय हो जाना, निश्चय सम्यग्दर्शन है। शुद्ध आत्मा (जीव) के अनुभव को रोकने वाला मोहनीय कर्म, खास तौर से दर्शन मोहनीय (सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-मिश्रमोहनीय) और अनन्तानुबंधी (कषाय) कर्म है। इसलिए दर्शन मोहनीय (त्रिक) कर्म और अनन्तानुबंधी कषाय के उपशम, क्षय और क्षयोपशम होने से शुद्ध आत्मा अनुभव, साक्षात्कार या प्रत्यक्षीकरण होता है। इस आत्मानुभव को स्वरूपाचरण चारित्र कहा गया है। यह स्वरूपाचरण चारित्र या आत्मा अनुभव ही निश्चय-सम्यग्दर्शन का हार्द है।

निश्चय-सम्यग्दर्शन को पहचानने के ये लक्षण हैं- 'आत्मा को अपने आत्मतत्व का भान हो जाता है, अर्थात आत्मा- अनात्मा (चेतन-जड़ या जीव-अजीव) का भेद विज्ञान हो जाता है। आत्मा जब अनादि सुषुप्त अवस्था से जागृत होकर अपना वास्तविक स्वरूप पहचान जाता है, तब पर पदार्थों से मोह छूटने लगता है। स्व-स्वरूप में रमण होने लगता है। धीरे धीरे देह में रहते हुआ भी देहध्यान छूट जाता है।

निश्चय - सम्यगदर्शन की स्थिति को समझने के लिए एक रूपक लीजिये- एक बार एक गडरिया भेड़ बकरियां चराने के लिए जंगल में गया। संध्या के झुटपुटे में जब वह भेड़ों को गाँव की ओर वापस लौटा रहा था, तभी उसने एक झाड़ी के पास एक सिंह- शिशु को बैठे हुए देखा। उसकी माँ (शेरनी) उस समय वहां नहीं थी। उसने करुणावश बच्चे को उठा लिया और भेड़ बकरियों के साथ रख लिया। उसको दूध पिला पिला कर बड़ा किया। सिंह का बच्चा भी अपने वास्तविक स्वरूप को न जानने के कारण भेड़ बकरियों की तरह चेष्टाएँ करने लगा। उन्हीं की तरह खाता - पीता सोता और चलता था।

एक बार जिस जंगल में भेड़ बकरियां और यह सिंह शिशु विचरण कर रहे थे. उसी जंगल में एक बब्बर शेर आ गया। उसने जोर से गर्जना की, जिसे सुनकर सभी भेड़-बकरियां भयभीत होकर भाग खड़ी हुई। उनके साथ वह सिंह शिशु भी भाग गया।

एक दिन वह सिंह शिशु उन भेड़ बकरियों के साथ नदी के किनारे पानी पी रहा था तभी अचानक अपनी परछाई पानी में देखकर सोचने लगा कि मेरा आकार और रंग रूप तो मेरे इन साथियों से मिलता ही नहीं, दूसरी तरह का है। जैसा कि गर्जना करने वाले उस शेर का था। क्या मैं भी उसी तरह गर्जना कर सकता हूँ? यह सोचकर उसने अपनी पूरी ताकत लगाकर जोर से गर्जना की। उसकी गर्जना सुनते ही भेड़-बकरियां भाग गई। वह सिंह शिशु अकेला ही रह गया। अब उसकी समझ में आया कि 'मैं तो प्रचण्ड शक्ति का धनी वनराज हूं ये सब मुझसे डरते है। अतः वह अब अकेला ही निर्भय होकर वन में रहने लगा। आत्मा भी सिंह शिशु के समान है। वह भी पुद्गल पर्यायों के साथ रहते रहते पुद्गलमय बन गया। अपने शरीर को ही आत्मा तथा अपना स्वरूप समझने लगा। शरीर के उत्पन्न होने को अपना जन्म और शरीर छटने को ही अपनी मृत्यु मानने लगा। वह पौद्गलिक पर्यायों में अपनापन मानने लगा। किन्तु जब उसकी मोह-मूर्छा दूर हुई, अपने शुद्ध स्वरूप और बल का भान हुआ तब पुनः सिंह शिशु की तरह अपने असली स्वरूप को पहचान गया तथा स्वतंत्र विचरण करने लगा।

शुद्ध आत्मा का यह अनुभव बिना किसी उपाधि या उपचार के होता है। इसलिए निश्चय सम्यग्दर्शन भेद रहित एक ही प्रकार का है। निश्चय सम्यग्दर्शन वाला अपना आदर्श स्वयं होता है। अपनी ही विशुद्ध आत्मा को वह देव उसी को गुरु और उसकी की स्वाभाविक परिणति को धर्म मानता है। अथवा अरिहंत और सिद्ध में जो ज्ञान स्वरूप निश्चल आत्म द्रव्य है, उसीको वह शुद्ध देव मानता है। आचार्य, उपाध्याय और साधु में जो उनका शुद्ध आत्मा है उसे ही शुद्ध गुरु जानता है। तथा रत्नत्रय में एक अभेद रत्नत्रयमयी स्वात्मानुभूति को ही शुद्ध धर्म मानता है। उसे ऐसा दृढ़ विश्वास हो जाता है कि मेरा शुद्ध स्वरूप अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुखमय है। पर भाव में रागद्वेषादि ही बंधन का तथा स्वस्भाव में रमण ही मोक्ष का हेतु है। इस प्रकार आत्म केन्द्रित हो जाना ही निश्चय सम्यग्दर्शन है।

वास्तव में जिसे निश्चय सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है वही सच्चे देव, गुरु और धर्म को पहचानता है। वही अपनी आत्मा को जानता है। उसकी रुचि एक मात्र स्वात्मानुभूति में होती है। वही उसे देव, गुरु और धर्म में भी प्रतिभासित होती है।

इसीलिए प्रश्न व्याकरण सूत्र में निश्चय सम्यक्त्व का लक्ष्य बताया है -

मिथ्यात्वमोहनीय समोपचमादिसमुत्वे विशुद्ध जीव परिणामें सम्यक्त्वम्।

'मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षमोपशम आदि से उत्पन्न बीज के विशुद्ध परिणामों को (निश्चय) सम्यक्त्व कहते है।

शुद्ध आत्मा की निर्विकल्प परिणति ही निश्चय सम्यग्दर्शन है।

यथार्थ निश्चय सम्यग्दर्शन जिसको होता है वह शुद्ध आत्मा की शक्ति को प्राप्त कर लेता है। उसको आत्मा के निर्दोष स्वाभाविक सुख का स्वाद अनुभव मिल जाता है। उसे आत्मिक आनन्द अमृत तुल्य और विषय सुख विषवत प्रतीत होता है। ऐसा सम्यगदर्शन निर्विकल्प है, सत्य स्वरूप है और आत्म प्रदेशों में परिगमन करने वाला है। सूर्य की किरणों से जिस प्रकार अंधेरे का नाश हो जाता है, सब दिशाएँ निर्मल लगने लगती है उसी प्रकार निश्चय सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होते ही आत्मा प्रकाश से भर जाता है। निश्चय सम्यगदृष्टि पर पदार्थावलंबी नहीं, किन्तु स्वभावावलंबी होता है। कोई भी देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच आदि उसे सम्यग्दर्शन से विचलित नहीं कर सकता। जैसे अर्हन्नक और कामदेव अपने सम्यक्त्व पर दृढ़ रहे. सम्यक्त्व की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए. देवों को भी उनके समक्ष हार माननी पड़ी।

व्यवहार सम्यक्त्व के बिना निश्चय सम्यक्त्व संभव नहीं। किन्तु एक बात निश्चित है कि आत्म स्वरूप का विशिष्ट प्रकार से दृढ़ निश्चय तब तक नहीं हो सकता जब तक आत्मा और कर्मों के संबंध से जिन तत्वों की सृष्टि हुई है उनके प्रति तथा उनके उपदेष्टा देव, शास्त्र और गुरुओं के प्रति दृढ़ श्रद्धा न हो। क्योंकि परम्परा से सभी आत्म श्रद्धा के कारण है। इन पर श्रद्धा हुए बिना, इनके द्वारा बताये हुए तत्वों पर श्रद्धा नहीं हो सकती। इनके बताये हए तत्वों पर अद्धा-निश्चय हुए बिना आत्मा की ओर उन्मुखता, उसकी पहचान और विनिश्चिति संभव नहीं है। इसीलिए पंचास्तिकाय में व्यवहार सम्यक्त्व को आत्म तत्व के विनिश्चय बीज बताते हुए कहा है-

"तेशां मिष्यादर्शनो दयापादिता श्रद्धानाभावस्वभाव भावन्तर श्रदान सम्यगदर्शनं, शुद्धचैतन्यरूपात्म तत्व विनिश्चय बीजम् ।

इन भावों (नौ पदार्थो) का, मिथ्यादर्शन के उदय से प्राप्त होने वाला जो अश्रद्धा, इसके अभाव स्वभाव वाला जो भावान्तर यानी (नौ पदार्थो) पर श्रद्धान है, वह (व्यवहार) सम्यग्दर्शन है जो कि शुद्ध चैतन्य रूप आत्म तत्व के विनिश्चय (निश्चय सम्यग्दर्शन) का बीज है।

सम्यग्दर्शन के दोनों रूपों का सन्तुलन आवश्यक

इसीलिए निश्चित है कि निश्चय - सम्यग्दर्शन साध्य (लक्ष्य) है और व्यवहार सम्यगदर्शन उस निश्चय सम्यगदर्शन को प्राप्त करने के लिए साधन है। अतः जो व्यवहार से विमुख होकर निश्चय को प्राप्त करना चाहता है वह विवेक मूढ़ बीज, खेत, पानी आदि के बिना ही अन्न उत्पन्न करना चाहता है। जैसे केवल निश्चय ठीक नहीं है वैसे केवल व्यवहार भी अच्छा नहीं। दोनों का समन्वय और संतुलन अभिष्ट है।

यद्यपि व्यवहार नय को अभूतार्थ कहा गया है. तथापि इसे सर्वथा निषिद्ध नहीं माना गया। धर्म के पहले सोपान पर पैर रखने के लिए व्यक्ति को व्यवहार सम्यग्दर्शन का अवलंबन लेना ही पड़ता है। जैसे नट एक रस्सी पर स्वछंदता पूर्वक चलने के लिए पहले पहल बांस का सहारा लेता है किन्तु जब उसमें अभ्यस्त हो जाता है तब बांस का सहारा छोड़ देता है। इसी प्रकार धीर मुमुक्षु को निश्चय की सिद्धि के लिए पहले व्यवहार का अवलंबन लेना पड़ता है। जब निश्चय में निरालंबन पूर्वक रहने में समर्थ हो जाता है तब व्यवाहार स्वयमेव छूट जाता है। फिर भी व्यवहार सम्यग्दर्शन का लक्ष्य निश्चय सम्यग्दर्शन होना चाहिए। जैसे किसी ऊपर की मंजिल तक जाने के लिए सीढ़ियां चढ़ना आवश्यक होता है, मंजिल तक पहुँचने पर सीढ़ियां अपने आप पीछे छूट जाती है वैसे ही व्यवहार सम्यक्त्व सीढ़ी है और निश्चय सम्यक्त्व मंजिल है।

नदी के उस पार तक जाने के लिए नाव का सहारा आवश्यक है। यात्री नाव का आश्रय तब तक लेता है, जब तक किनारा नहीं आ जाता। इसी प्रकार व्यवहार सम्यक्त्व नाद है और निश्चय सम्यक्त्व किनारा| किनारा आने पर नाव सहज रूप में छूट जाती है यही स्थिति व्यवहार सम्यक्त्व से निश्चय सम्यक्त्व में आने की है।

सर्वप्रवम व्यवहार सम्यक्च आवश्यक

अनादि काल से अज्ञान में पड़ा हुआ जीव व्यवहार के उपदेश के बिना समझता नहीं है। अतः गुरुदेव उसे समझाते हैं- "आत्मा चैतन्य स्वरूप है, किन्तु वर्तमान में कर्म जनित पर्याय से युक्त है। इसलिये व्यवहार में उसे देव, मनुष्यादि कहते है। इस प्रकार कहने से वह समझ जाता है. निश्चय से तो आत्मा चैतन्य स्वरूप ही है। किन्तु स्थूल बुद्धि पुरुष को समझाने के लिए गति-जाति के द्वारा आत्मा का कथन किया जाता है। जो निश्चय बुद्धि से विमुख या निर्पेक्ष व्यवहार का आश्रय लेता है. वह शुद्ध चैतन्य रूप आत्मा के श्रद्धानुरूप निश्चय सम्यग्दर्शन से विमुख होकर केवल व्यवहार सम्यग्दर्शन में ही रचा-पचा रहने वाला मोक्ष स्वरूपी परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है। शुद्धोपयोग- मोक्ष - मार्ग से प्रमादी हो जाता है। शुभोपभोग में संतुष्ट रहता है। ऐसा व्यवहार जो निश्चयोन्मुख न हो, व्यवहाराभास कहलाता है।

अतः एकांत व्यवहार का आश्रय लेकर व्यवहाराभास व्यवहार के चक्कर में पड़कर अपने आत्म लक्ष्य को भूल बैठना ठीक नहीं। इसी प्रकार एकांत निश्चय सम्यग्दर्शन का अवलंबन लेकर शुद्ध व्यवहार - सम्यग्दर्शन को छोड़ बैठना भी हितकर नहीं। निश्चय और व्यवहार सम्यगदर्शन दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों का समन्वित और संतुलित रूप ही शास्त्रीय दृष्टि से श्रेयष्कर है। लेकिन व्यवहार भी तभी तक ग्राह्य है, जब तक कि वह परमार्थ दृष्टि से साधना में सहायक हो। सही स्थिति तो यह है कि भिन्न भिन्न भूमिकाओं की दृष्टि से सम्यगदर्शन के ये दोनों ही रूप ग्राह्य है।

सम्यग्दर्शन के विभिन्न लयाण : विभिन्न प्रयोजनों से

पृथक-पृथक मुख्य प्रयोजन की अपेक्षा से सम्यगदर्शन के ये विभिन्न लक्षण कहे गये है। जहां तत्वार्थ अद्धान लक्षण कहा गया है, वहां प्रयोजन यह है कि जीव आदि तत्वों को पहचाने। यर्थात वस्तु स्वरूप तथा अपने हिताहित को श्रद्धान करके मोक्ष मार्ग में आगे बढ़े।

'स्व-पर भेद अद्धान' लक्षण कहने का प्रयोजन है। पर द्रव्य में रागादि न करें किन्तु जहां "आत्म अद्धान' लक्षण कहा है, वहां भी प्रयोजन यह है कि स्व को स्व जाने और स्व में पर का विकल्प न करें।

जहां 'देव, गुरु, धर्म का अद्धान लक्षण बताया है, वहां बाह्य साधन की प्रधानता है। अरहंत देव आदि का श्रद्धान सच्चे तत्वार्थ अद्धान का कारण है।

इस प्रकार भिन्न भिन्न प्रयोजनों को लेकर सम्यगदर्शन के ये पृथक-पृथक लक्षण कहे है। किन्तु सब का लक्ष्य एक ही है-शुद्धात्म स्वरूप का निश्चय एवं अद्धान करके मोक्ष प्राप्त करना, आत्मा का कर्म बंधन से सर्वथा मुक्त एवं शुद्ध होना।

ज्ञानवाद और प्रमाण शास्त्र

-उपप्रवर्तक सुभाष मुनि सुमन

ज्ञान आत्मा का स्वाभविक गुण है। जैन दर्शन ज्ञान को आत्मा का मौलिक धर्म मानता है। आत्मा का स्वरूप समझने के लिए ज्ञान का स्वरूप सम्झना बहुत आवश्यक है।

आगमों में ज्ञानवाद

आगमों में ज्ञान सम्बन्धी जो मान्यताएँ मिलती है वे बहुत प्राचीन है। सम्भवतः ये मान्यताएँ भगवान महावीर के पहले की हैं। पंचज्ञान की चर्चा आगम साहित्य में मिलती है। उसके विषय में राजप्रश्नीय सत्र में एक वृत्तान्त मिलता है। अमण केशीकुमार अपने मुख से कहते है-हम अमण निधि पाँच प्रकार के ज्ञान मानते है-आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान, मन, पर्यायज्ञान, केवलज्ञान। केशीकुमार पार्श्वनाथ की परम्परा के साधु थे। उन्होंने अपने मुख से पाँच ज्ञानों का नाम लिया है। ठीक वे ही पांच ज्ञान महावीर की परम्परा में भी प्रचलित हआ। महावीर ने ज्ञान विषयक कोई नवीन प्ररूपणा नहीं की। यदि पार्श्वनाथ की परम्परा से महावीर का एतद्विषयक कुछ भी मतभेद होता तो वह आगमों में अवश्य मिलता। पंचज्ञान की मान्यता श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में प्रायः एक सी है। इस विषय पर केवलज्ञान और केवल दर्शन आदि की एक दो बातों के अतिरिक्त कोई विशेष मतभेद नहीं है।

मतिज्ञान

आगमों में मतिज्ञान को आभिनिबोधिक ज्ञान कहा गया है। उमास्वाति ने मति, स्मृति, संज्ञा चिन्ता और अभिनिबोध को एकार्थक बताया है। भद्रबाहु ने मतिज्ञान के लिए निम्नलिखित शब्दों को प्रयोग में लिया है - ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति, प्रज्ञा। नंदीसूत्र में भी ये ही शब्द है। मतिज्ञान का लक्षण बताते हुए तत्वार्थसूत्र में कहा गया है कि इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। स्वोपज्ञ भाष्य में मतिज्ञान के दो प्रकार बताये गये है- इन्द्रिय जन्य ज्ञान और मनो जन्य ज्ञान। ये दो भेद उपर्युक्त लक्षण से ही फलित होते हैं। सिद्धसेनगणि की टीका में तीन भेदों का वर्णन है। इन्द्रिय जन्य, अनिन्द्रियजन्य (मनोजन्य) और इन्द्रियानिन्द्रियजन्य। इन्द्रियजन्य ज्ञान केवल इन्द्रियों से उत्पन्न होता है। अनिन्द्रियजन्य ज्ञान केवल मन से पैदा होता है। इन्द्रियानिन्द्रियजन्य ज्ञान के लिए इन्द्रिय और मन दोनों का संयुक्त प्रयत्न आवश्यक है। ये तीन भेद भी उपयुक्त सूत्र से ही फलित होते है।

अकलंक ने सम्यग्ज्ञान के दो भेद किये हैं - प्रत्यक्ष और परोक्ष। पत्यक्ष दो प्रकार का है - मुख्य और साव्यवहारिक। मुख्य को अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष और साव्यवहारिक को इन्द्रियानिन्द्रिय प्रत्यक्ष का नाम भी दिया है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष के चार भेद किये गये हे- अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष को स्मृति संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध में विभक्त किया है श्रुत, अर्थापत्ति, अनुमान, उपमान आदि परीक्षान्तर्गत है इन्द्रियप्रत्यक्ष के चार भेद बताये गये है - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष के स्मृति, संज्ञा आदि भेद है।

श्रुतज्ञान

अतज्ञान का अर्थ है, वह ज्ञान जो भूत अर्थात शास्त्रनिबद्ध है। आप्त पुरुष द्वारा प्रणीत आगम या अन्य शास्त्रों से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है, तज्ञान मतिपूर्वक होता है। उसके दो भेद हैं - अंग बाहा और अंगप्रविष्ट। जिन ग्रन्थों के रचयिता स्वय गणधर हैं वे अंगप्रविष्ट हैं और जिनके रचयिता उसी परम्परा के अन्य आचार्य हैं वे अंग बाहा ग्रन्थ हैं। अंगबाह्य ग्रन्थ कालिक, उत्कालिक आदि अनेक प्रकार के है। अंगप्रविष्ट के 12 भेद है। ये बारह अंग कहलाते है। श्रुत वास्तव में ज्ञानात्मक है। किन्तु उपचार से शास्त्रों को भी अत कहते हैं, क्योंकि वे ज्ञानोत्पत्ति के साधन है। श्रुतज्ञान के 14 मुख्य प्रकार है अक्षर संज्ञी, सम्यक, सादिक, सपर्यवसित, गमिक और अंगप्रविष्ट ये सात और अनक्षर, असंज्ञी, मिथ्या, अनादिक, अपर्यवसित, अगमिक और अबाह्य ये सात विपरीत। नन्दीसूत्र में इन भेदों का स्वरूप बताया गया है।

श्रुतज्ञान का मुख्य आधार शब्द है। हस्त संकेत आदि अन्य साधनों से भी यह ज्ञान होता है। वहां पर यह साधन शब्द का ही कार्य करते है। अन्य शब्दों की तरह उनका स्पष्ट उच्चारण कानों में नहीं पड़ता मौन उच्चारण से ही वे अपना कार्य करते है। श्रुतज्ञान जब इतना अभ्यस्त हो जाता है कि उसके लिए संकेत स्मरण की आवश्यकता नहीं रह जाती जब वह मतिज्ञान के अन्तर्गत आ जाता है। अतज्ञान के लिए चिन्तन और संकेत स्मरण अत्यन्त आवश्यक है। अभ्यास दशा में ऐसा न होने पर वह ज्ञान अत की कोटि से बाहर निकलकर मति की कोटि में आ जाता है।

मति और श्रुत

जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार प्रत्येक जीव में कम से कम ज्ञान मति और श्रुत आवश्यक होते है। केवलज्ञान के समय इन दोनों की स्थिति के विषय में मतभेद है। कुछ लोग उस समय भी मति और श्रुत की सत्ता मानतें है और कहते हैं कि केवल ज्ञान के महाप्रकाश के सामने उनका अल्प प्रकाश दब जाता है। कुछ लोग यह बात नहीं मानते। उनके मत से केवलज्ञान अकेला ही रहता है मति, अतादिक्षायोपशमिक है। जब सम्पूर्ण ज्ञानावरण का क्षय हो जाता है जब क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रह सकता यह मत जैन दर्शन की परम्परा के अनुकूल है। केवलज्ञान का अर्थ ही अकेला ज्ञान है। वह असहाय ही होता है। उसे किसी की सहायता अपेक्षित नहीं है। मति और श्रुत ज्ञान मतिपूर्वक ही होता है जबकि मतिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह अत पूर्वक ही हो।

नन्दीसूत्र का मत है कि जहां अभिनिबोधिक ज्ञान (मति) है वहां श्रुतज्ञान भी है और जहां श्रुतज्ञान है वहां मतिज्ञान भी है। स्वार्थसिद्धि और तत्वार्थराजवार्तिक में भी इसी मत का समर्थन है। यहां प्रश्न यह है कि क्या ये दोनों मत परस्पर विरोधी हैं। एक मत के अनुसार श्रुतज्ञान के लिए मतिज्ञान अनिवार्य है, जबकि मतिज्ञान के लिए अतज्ञान आवश्यक नहीं। दूसरा मत कहता है कि मति और श्रुत दोनों सहचारी है। हम समझते हैं कि ये दोनों मत परस्पर विरोधी नहीं है। उमास्वाति जब यह कहते हैं कि भूत के पूर्व मति आवश्यक है तो उसका अर्थ केवल इतना ही है कि जब कोई विशेष श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है तब वह तविषयक मतिपूर्वक ही होता है। पहले शब्द सुनाई देता है और फिर उसका अतज्ञान होता है। मतिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं कि पहले श्रुतज्ञान हो फिर मतिज्ञान हो। क्योंकि मति ज्ञान पहले होता है और श्रुतज्ञान बाद में। यह भी आवश्यक नहीं कि जिस विषय का मतिज्ञान हो उसका श्रुतज्ञान भी हो। ऐसी दशा में दोनों सहचारी कैसे हो सकते है। नंदीसूत्र में जो सहचारित्व है वह किसी विशेष ज्ञान की उपेक्षा में नहीं है। वह तो एक सामान्य सिद्धान्त है। सामान्यतया मति और श्रुत सहचारी है। क्योंकि प्रत्येक जीव में यह दोनों ज्ञान साथ-साथ रहते है।

अवधि ज्ञान

अवधिज्ञान के अधिकारी दो प्रकार के होते है - भवाप्रत्ययी और गुणप्रत्ययी। भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारक को होता है। गुणप्रत्ययी का अधिकारी मनुष्य या तिर्यच होता है। भवप्रत्ययी का अर्थ है जन्म से प्राप्त होने वाला। जो अवधिज्ञान जन्म के साथ ही प्रकट होता है वह भवप्रत्ययी है। देव और नारक को पैदा होते ही अवधि ज्ञान प्राप्त होता है। इसके लिए उन्हें व्रत नियमादि का पालन नहीं करना पड़ता। उनका भव ही ऐसा है कि वहां पैदा होते ही अवधिज्ञान हो जाता है। मनुष्य और अन्य प्राणियों के लिए ऐसा नियम नहीं है। मति और श्रुत ज्ञान तो जन्म के साथ ही होते है किन्तु अवधिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं है। व्यक्ति के प्रयत्न से कर्मों का क्षयोपशम होने पर ही यह ज्ञान पैदा होता है। देव और नारक की तरह मनुष्यादि के लिए यह ज्ञान जन्म सिद्ध नहीं है, अपितु व्रत, नियम, आदि गुणों के पालन से प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए उसे गुणप्रत्यय और या क्षायोपशमिक कहते हैं।

आवश्यक नियुक्ति में क्षेत्र संस्थान, अवस्थित, तीव्र, मंद आद 14 दृष्टियों से अवधिज्ञान का लम्बा वर्णन है। विषेशावश्यक भाष्य में सात प्रकार के निक्षेप से अवधिज्ञान को समझने की सूचना है। यह सात निक्षेप है - नाम स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव।

मन:पर्ययज्ञान

मनुष्यों के मन के चिन्तित अर्थ को प्रकट करने वाला ज्ञान मनाय ज्ञान है। यह मनुश्य क्षेत्र तक सीमित है। गुण के कारण उत्पन्न होता है और चरित्रवान व्यक्ति ही उसका अधिकारी है यह मनःपर्यय ज्ञान की व्याख्या आवश्यक नियुक्तिकार ने की है। मन एक प्रकार का पौद्गलिक द्रव्य है। जब व्यक्ति किसी विषय का विचार करता है तब उसके मन का विविध पर्यायों में परिवर्तन होता है। उसका मन तद्तद पर्यायों में परिणत होता है। मनःपर्ययज्ञानी उन पर्यायों का साक्षात्कार करता है। उस साक्षात्कार के आधार पर वह यह जान सकता है कि यह व्यक्ति उस समय यह बात सोच रहा है। अनुमान कल्पना से किसी के विषय में यह सोचना कि 'अमुक व्यक्ति अमुक विचार कर रहा है। मनःपर्यय ज्ञान नहीं है । मन के परिणमन का आत्मा से साक्षात् प्रत्यक्ष करके मनुष्य के चिन्तित अर्थ को जान लेना मनः पर्ययज्ञान है। यह ज्ञान आत्मपूर्वक होता है न कि मनपूर्वक । मन तो विषय मात्र होता है। ज्ञाता साक्षात् आत्मा है।

मनापर्ययज्ञान के दो प्रकार हैं-ऋजुमति और विपुलमति। ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति का ज्ञान विशुद्धतर होता है क्योंकि विपुलमति ऋजुमति की अपेक्षा मन के सूक्ष्मतर परिणामों को भी जान सकता है। दूसरा अंतर यह है कि ऋजुमति प्रतिपाती है अर्थात उत्पन्न होने के बाद चला भी जाता है किन्तु विपुलमति नष्ट नहीं हो सकता। वह केवलज्ञान की प्राप्ति पर्यन्त अवश्य रहता है।

अवधि और मनःपर्ययज्ञान

अवधि और मनःपर्ययज्ञान दोनों ज्ञान रूपी द्रव्य तक सीमित है तथा अपूर्ण अर्थात विकल प्रत्यक्ष हैं। इतना होते हुए भी दोनों में अन्तर है। यह अन्तर चार दृष्टियों से है - विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय। मनःपर्ययज्ञान अपने विषय को अवधिज्ञान की अपेक्षा विशदरूप से जानता है अतः उससे विशुद्धतर है। यह विशुद्धि विषय की न्यूनाधिकता पर नहीं, किन्तु विषय की सूक्ष्मता पर अवलम्बित है। अधिक मात्रा में विषय की सूक्ष्मता पर अवलम्बित है। अधिक मात्रा में विषय का ज्ञान होना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना विषय की सूक्ष्मताओं का ज्ञान होना। मनःपर्ययज्ञान से रूपी द्रव्य का सूक्ष्म अंश जाना जाता है। अवधिज्ञान उतनी सूक्ष्मता तक नहीं पहुंच सकता। अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर सारा लोक है। मनःपर्ययज्ञान का क्षेत्र मनुष्य लोक (मानुषोतर र्वत पर्यन्त है)। अवधिज्ञान का स्वामी देव, नरक, मनुष्य और तिर्यच किसी भी गति का जीव हो सकता है। मनःपर्ययज्ञान का स्वामी केवल चरित्रवान् मनुष्य ही हो सकता है। अवधिज्ञान का विषय सभी रूपी द्रव्य है(सब पर्यायनहीं) । किन्तु मनःपर्ययज्ञान का विषय केवल मन है जो कि पीद्रव्य का अनन्तवां भाग है।

अवधिज्ञान ओर मनापर्ययज्ञान में कोई ऐसा अंतर नहीं जिसके आधार पर दोनों ज्ञान स्वतन्त्र सिद्ध हो सकें। दोनों में एक ही ज्ञान की दो भूमिकाओं से अधिक अन्तर नहीं है। एक ज्ञान कम विशुद्ध है दूसरा ज्ञान अधिक विशुद्ध है। दोनों के विषयों में भी समानता ही है। दोनों ज्ञान आंशिक आत्म प्रत्यक्ष की कोटि में है।

केवलज्ञान

यह ज्ञान विशुद्धतम है। मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय के क्षय से कैवल्य प्रकट होता है। मति. श्रुत, अवधि और मनःपर्यय क्षायोपशमिक ज्ञान हैं। केवल्यज्ञान क्षायिक है। केवलज्ञान के चार प्रतिबंधक कर्म है - मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय। यद्यपि इन चारों कर्मो के क्षय से चार भिन्न भिन्न शक्तियां उत्पन्न होती हैं किन्तु केवलज्ञान उन सब में मुख्य है। केवलज्ञान का विषय सर्वद्रव्य और सर्वपर्याय है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं हो जिसको केवलज्ञानी न जानता हो, कोई भी पर्याय ऐसा नहीं है जो केवलज्ञान का विषय न हो, जितने भी द्रव्य है और उनके वर्तमान भूत और भविष्य के जितने भी पर्याय है सब केवलज्ञान के विषय है। आत्मा की ज्ञानशक्ति का पूर्ण विकास या आविर्भाव केवलज्ञान है। इस ज्ञान के होते ही जितने छोटे मोटे क्षायोपशमिक ज्ञान है, सब समाप्त हो जाते हैं। मति आदि क्षायोपशमिक ज्ञान आत्मा के अपूर्ण विकास के द्योतक हैं। जब आत्मा का पूर्ण विकास हो जाता है तब इनकी स्वतः समाप्ति हो जाती है। पूर्णता के साथ अपूर्णता नहीं टिक सकती। दूसरे शब्दों में पूर्णता के अभाव के साथ अपूर्णता है। पूर्णता का सद्भाव अपूर्णता के सद्भाव का द्योतक है। केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है - सम्पूर्ण है। अतः उसके साथ मति आदि अपूर्णज्ञान नहीं रह सकते। जैन दर्शन की केवलज्ञान विषयक मान्यता व्यक्ति के ज्ञान के विकास का अंतिम सोपान है।

दर्शन और ज्ञान

उपयोग दो प्रकार का होता है - अनाकार व साकार। अनाकार का अर्थ है निर्विकल्पक और साकार का अर्थ है सविकल्पक। जो उपयोग सामान्यभाव का ग्रहण करता है वह निर्विकल्पक है और जो विशेष का ग्रहण करता है वह सविकल्पक है। सत्ता सामान्य की सर्वोत्कृष्ट भूमिका है। सत्ता में भेद होते ही विशेष प्रारम्भ हो जाता है।

जैन दर्शन में दर्शन और ज्ञान की मान्यता बहुत प्राचीन है कर्मों के आठ भेदों में पहले के दो भेद ज्ञान और दर्शन से सम्बन्धित है। कर्म विषयक मान्यता जितनी प्राचीन है, ज्ञान दर्शन की मान्यता भी उतनी ही प्राचीन है। ज्ञान को आच्छादित करने वाले कर्म का नाम ज्ञानावरण कर्म है। दर्शन की शक्ति को आवृत करने वाले कर्म को दर्शनावरण कर्म कहते है। इन दोनों प्रकार के आवरणों के क्षयोपशम से ज्ञान और दर्शन का आविर्भाव होता है। आगमों में ज्ञान के लिए जाणई (जानाति) अर्थात जानता है और दर्शन के लिए पासई (पश्यति) अर्थात देखता है का प्रयोग हुआ है।

'दर्शन और ज्ञान युगपद न होकर क्रमशः होते है। इस बात का जहां तक छदमस्थ अर्थात सामान्य व्यक्ति से संबंध है सभी आचार्य एक मत है किन्तु केवली के प्रश्न को लेकर आचार्यों में मतभेद है। केवली में दर्शन और ज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है? इस प्रश्न के विषय में तीन मत है। एक मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान क्रमशः होतें है। दूसरी मान्यता के अनुसार दर्शन और ज्ञान युगपद होते है। तीसरा मत यह है कि ज्ञान और दर्शन में अभेद है दोनों एक है।

आगमों में प्रमाणचर्चा

प्रमाणचर्चा केवल तर्कयुग की देन नहीं है आगमयुग में भी प्रमाण विषयक चर्चा होती थी। आगमों में कई स्थलों पर स्वतन्त्र रुप से प्रमाण चर्चा मिलती है और ज्ञान और प्रमाण दोनों पर स्वतन्त्र रूप से चिन्तन होता था, ऐसा कहने के लिए हमारे पास याप्त प्रमाण है।

भगवतीसूत्र में महावीर और गौतम के बीच एक संवाद है। गौतम महावीर से पूछते है भगवन्! जैसे केवली अंतिम शरीरी (जो इसी भव में मुक्त होने वाले है) को जानते हैं वैसे ही क्या छद्मस्थ भी जानते है। ? महावीर उत्तर देते है - गौतम! वे अपने आप नहीं जान सकते या तो सुनकर जानते है या प्रमाण से। किससे सुनकर? केवली से ...! किस प्रमाण से? प्रमाण चार प्रकार के कहे गए - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम। इनके विषय में जैसा अनुयोगद्वार में वर्णन है वैसा यहां भी समझना चाहिए।

स्थानांग सूत्र में प्रमाण और हेतु दोनों शब्दों का प्रयोग मिलता है। निक्षेप पद्धति के अनुसार प्रमाण के निम्न भेद किए गए हैं-द्रव्य प्रमाण, क्षेत्र प्रमाण, काल प्रमाण और भावप्रमाण। हेतु शब्द का जहां प्रयोग है वहां भी चार भेद मिलते हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम। कहीं कहीं पर प्रमाण के तीन भेद भी मिलते है। स्थानांग सूत्र में व्यवसाय को तीन प्रकार का कहा है-प्रत्यक्ष, प्रात्ययिक, और अनुगमिक । व्यवसाय का अर्थ होता है निश्चय। निश्चयात्मक ज्ञान ही प्रमाण है।

सम्यक् चारित्र

आचार्यवर कुन्दकुन्दस्वामी ने प्रमाण वाक्य रूप में 'प्रवचनसार' ग्रन्थ के आरम्भ में धर्म को चारित्र स्वरूप कहा है।

चारित्तं खल धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिद्रिो।
मोह क्खोह विहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो॥7॥

अर्थात् चारित्र वास्तव में धर्म है। जो धर्म है वह साम्य है, ऐसा कहा है। और साम्य मोह-क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम है।

'दर्शन पाहुड़' में उपदिष्ट 'धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है' (दसण मूलो धम्मो) इस लक्षण को पढ़कर जागरुकता के अभाव में अज्ञानता वश भ्रम पैदा होता है कि धर्म सम्यग्दर्शन रूप है या सम्यक्चारित्र रूप है? किन्तु यदि शब्द प्रयोग को जागरुकता पूर्वक देखा जाए तो भ्रम स्वयमेव नष्ट हो जाता है।

दर्शन के साथ प्रयुक्त 'मूल' शब्द नींव रूप धर्म का उद्घोषक है और चारित्र के साथ 'खलु' शब्द 'वास्तव में धर्म है' कह कर निर्देश किया है कि सम्यग्दर्शन पूर्वक होने वाला चारित्र ही सम्यकुचारित्र रूप होता है। सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि, फलागम में से कुछ भी सम्भव नहीं है। आचार्य उमास्वामी महाराज ने भी 'तत्त्वार्थ सूत्र' में 'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः'में सम्यग्दर्शन को प्रथम कारण रूप ही प्रस्तुत किया है। सम्यग्दर्शन पूर्वक ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होते हैं। और सम्यक्चारित्र को अन्त में रखने का कारण यह है कि वह सम्यक्चारित्र मोक्ष की प्राप्ति का साक्षात् कारण है। अर्थात् जैसे सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक्चारित्र नहीं होता, उसी प्रकार सम्यक्चारित्र के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती।

इस प्रकार सम्यक्चारित्र ही यथार्थ में धर्म है। उसकी आराधना में सब आराधनाएँ समाविष्ट हैं। किन्तु जगत् दृष्टि का चारित्र धारण कर लेने से ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो जाती। जैसे यदि किसी ने मुनिदीक्षा ले ली। वह मुनिदीक्षा ले लेने मात्र से अपने आपको सम्यग्दर्शन की भी प्राप्ति हुई मान ले तो यह अज्ञान ही है। इसी से समस्त जिनागम में सम्यक्चारित्र धारण करने से पहले सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना आवश्यक बतलाया है। सम्यग्दर्शन के बिना धारण किया गया जैनाचार भी सम्यक्चारित्र नहीं कहलाता।

चारित्र धारण से पूर्व यह निश्चय कर लेना चाहिए कि हम इस चारित्र को क्यों धारण कर रहे हैं। उसका लक्ष्य या उद्देश्य क्या है? धर्म का लक्ष्य तो पंचपरावर्तन रूप दु:खमयी संसार से छुड़ाकर उत्तम, अविनाशी, स्वाधीन सुख अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति है। और वह संसार के दुःखों के मूलकारण कर्मबन्धन रूप मोह-अज्ञान भाव को नष्ट किये बिना सम्भव नहीं है। अत: सच्चा, यथार्थ धर्म वही है जिससे कर्मबन्धन कटते हैं। ऐसी दृष्टि से जो धर्माचरण करता है, वही यथार्थ में धर्मात्मा होता है। ऐसी दृष्टि के लिए मोक्ष का श्रद्धान होना आवश्यक है। यदि मोक्ष का ही श्रद्धान न हो तो मोक्ष के उद्देश्य से धर्माचरण की भावना कैसे हो सकती है? मोक्ष के श्रद्धान के लिए आत्मा के शुद्ध स्वरूप का श्रद्धान होना आवश्यक है।

जो आत्मा के इस शुद्ध स्वरूप की श्रद्धा करके उसकी प्राप्ति की भावना से धर्माचरण करता है, वह संसार के विषय जन्य सुख में उपादेय बुद्धि नहीं रखता है।

स्व-पर पदार्थों के भेद विज्ञान पूर्वक जैसे-जैसे उत्तम तत्त्व अर्थात् शुद्ध आत्मा का स्वरूप जानने, अनुभव में आने लगता है, वैसे-वैसे ही सहज उपलब्ध रमणीय पंचेन्द्रिय विषय भी अरुचिकर प्रतीत होने लगते हैं।

यदि जीव की विषय-भोगजन्य सुख में उपादेय बुद्धि है अर्थात् वे अच्छे लगते हैं तो यह जीव तो आस्रव-बन्ध को अच्छा समझता है, संसार रुचि वाला है, वह मोक्षसुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्न ही नहीं कर रहा है। और ऐसी स्थिति में समस्त धर्माचरण संसार की प्राप्ति, वृद्धि एवं दुःखरूप फल का ही कारण है।

आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी ने 'समयसार' में कहा है-

सद्दहदि य पत्तेदि य, रोचेदि य तह पणो य फासेदि।
धम्म भोग णिमित्तं, ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥ 275॥

अर्थात् वह (अभव्यजीव) भोग के निमित्तरूप धर्म की ही श्रद्धा करता है, उसी की प्रतीति करता है। उसी की रुचि करता है और उसी का स्पर्श करता है, परन्तु कर्मक्षय में निमित्त रूप धर्म की नहीं (अर्थात् कर्मक्षय के निमित्त रूप धर्म की न तो श्रद्धा करता है, न उसकी प्रतीति करता है, न रुचि करता है, और न ही उसका स्पर्श करता है।)

किन्तु इसका मतलब यह भी नहीं है कि धर्म करने से सांसारिक सुख प्राप्त नहीं होता। अरे! जिस धर्म की आराधना से पारमार्थिक मोक्ष सुख प्राप्त होता है उससे क्या सांसारिक सुख प्राप्त नहीं हो सकता? जिस खेती के करने से अन्न प्राप्त होता है उससे क्या भूसा भी प्राप्त नहीं होगा? प्राप्त तो होगा, किन्तु कोई किसान भूसे की इच्छा से खेती नहीं करता। भूसे की इच्छा किसान को नहीं अपितु पशुओं को ही होती है। क्योंकि किसान तो यह जानता है कि अन्न की उपज पर भूसा तो स्वयमेव/अनायास ही मिल जाता है। खेती का मुख्य फल अन्न है, भूसा नहीं। उसी प्रकार धर्म पुरुषार्थ का भी मुख्य फल मोक्ष है। इस मोक्ष पुरुषार्थरत जीव के अबुद्धिपूर्वक हिंसादि पापों के तथा क्रोधादि कषायों के अभाव होने की दशा में बिना प्रयास-पुरुषार्थ के उत्कृष्ट पुण्य का संचय स्वयमेव होता रहता है। जिससे अनुकूल लगने वाले सांसारिक सुख स्वयमेव मिलते रहते हैं। ज्ञानी धर्मात्मा इस सांसारिक सुख की प्राप्ति के लिए धर्म नहीं करता। सांसारिक, काल्पनिक सुख की इच्छा मोक्षार्थी जीव को नहीं होती अपितु संसारवृद्धि इच्छुक जीव को ही होती है।

स्वस्वरूप में रमना सो चारित्र है। स्व समय में अर्थात् स्वभाव में प्रवृत्ति करना यह इसका अर्थ है। यह वस्तु (आत्मा) का स्वभाव होने से धर्म है।

भेद

इस पूज्य सम्यक् चारित्र को ही निश्चय चारित्र-व्यवहार चारित्र रूप से या अन्तरंगबहिरंग चारित्र रूप से तथा सराग-वीतराग चारित्र के भेद से दो-दो प्रकार का कहा गया है।

सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात के रूप में अवस्थागत भेद से पाँच प्रकार का भी वर्णित किया गया है। तथा अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह रूप पंच महाव्रत, ईर्या, भाषा, ऐषणा, आदान निक्षेपण तथा प्रतिष्ठापन रूप पाँच समिति तथा मन-वचन-काय (इन्द्रियमन) की प्रवृत्ति का निग्रह रूप तीन गुप्ति। इस तरह 5+5+3=13 प्रकार का चारित्र भी आगम में निर्दिष्ट है।

उक्त भेदों में प्रथम निश्चय तथा अन्तरंग रूप चारित्र तो निज आत्माधीन स्थायी, आनन्द भोग रूप परिणाम है यह विधि रूप या प्रवृत्ति रूप स्वकार्य है। यही करणीय है, इसके होने पर ही जीव चारित्रवन्त होता है और इसके बिना चारित्र की उत्पत्ति ही नहीं, फिर वृद्धि, स्थिति और फलागम की कल्पना ही बेमानी है।

सामायिक आदि पंचभेद युक्तता का स्वरूप निम्न प्रकार से ज्ञातव्य, ध्यातव्य है-

(1) सामायिक-शत्रु-मित्र व बन्धुवर्ग में, सुख-दुख में, प्रशंसा-निन्दा में, स्वर्णलोहपाषाण में, जीवन-मरण में, संयोग-वियोग में, प्रिय-अप्रिय में राग-द्वेष के अभाव रूप समता के परिणामों में सामायिक होती है। आत्म स्वभाव में स्थिरता रूप परिणामों में, सर्व सावध (पाप) योग से निवृत्ति रूप सामायिक होती है। तीनों ही संन्ध्याओं में, या पक्ष और मास के सन्धि दिनों में या अपने इच्छित समय में बाह्य और अन्तरंग समस्त कषायों का निरोध करना सामायिक है।

(2) छेदोपस्थापना-निर्विकल्प सामायिक संयम की प्रतिज्ञाबद्धता में, जिसमें कि विकल्पों का सेवन नहीं होता, ऐसी दशा में जीव टिक नहीं पाता है तब व्रत, समिति, गुप्ति रूप छेद के द्वारा पुनः स्वयं को सामायिक में स्थापित करना या विकल्पात्मक चारित्र का नाम छेदोपस्थापना है।

(3) परिहार विशुद्धि-मिथ्यात्व, रागादि विकल्प मलों का प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग करके, विशेष रूप से आत्म शुद्धि अथवा निर्मलता ही परिहार विशुद्धि है।

(4) सूक्ष्म साम्पराय-स्थूल-सूक्ष्म प्राणियों के वध के परिहार में जो पूरी तरह अप्रमत्त हैं, जागरुक हैं। अत्यन्त निर्वाध, उत्साहशील, अखण्डित चारित्र जिसने कषाय के विष रूप अंकुरों को खोंट दिया है, सूक्ष्म मोहनीय कर्म के बीज को भी जिसने नाश के मुख में ढकेल दिया है, उस परम सूक्ष्म लोभ वाले साधु के सूक्ष्म साम्पराय होता है।

(5) यथाख्यात-अशुभ रूप मोहनीय कर्म के उपशान्त अथवा क्षीण हो जाने पर 'जैसा निष्कम्प सहज शुद्ध स्वभाव से कषाय रहित आत्मा का स्वरूप है' वैसा ही आख्यात अर्थात् कहा गया है, सो यथाख्यात चारित्र है। यथाख्यात चारित्र उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ, क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ, सयोग केवली तथा अयोगी केवली इन चार गुणस्थानों में होता है।

उक्त रूप से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमयी एक मोक्षमार्ग द्वारा ही समस्त कर्मजाल रूप दुख का नाश होकर स्वाधीन, अविनाशी, यथार्थ सुख मोक्ष प्रगट होता है।

आचार्य कुन्दकुन्द ने 'समयसार' में संक्षेप में यही बात कही है-

जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं।
रायादी परिहरणं चरणं ऐसो हु मोक्ख पहो।।

जीव आदि तत्त्व का श्रद्धान् सम्यग्दर्शन, जीव आदि तत्त्व का ज्ञान सम्यग्ज्ञान एवं रागादि का परिहार रूप सम्यक्चारित्र, यही मोक्षपथ, मोक्षमार्ग है।