।। श्रुतज्ञान का वर्णन उत्पत्ति का कर्म तथा उसके भेद ।।

श्रुतज्ञान, ज्ञानगुण की पर्याय है; उसके होने में मतिज्ञान निमित्तमात्र है । श्रुतज्ञान से पूर्व ज्ञानगुण की मतिज्ञानरूप पर्याय होती है और उस उपयोगरूप पर्याय का व्यय होने पर श्रुतज्ञान प्रगट होता है, इसलिए मतिज्ञान का व्यय, श्रुतज्ञान का निमित्त है; वह 'अभावरूप निमित्त' है, अर्थात् मतिज्ञान का जो व्यय होता है, वह श्रुतज्ञान को उत्पन्न नहीं करता; किन्तु श्रुतज्ञान तो अपने उपादानकारण से उत्पन्न होता है। (मतिज्ञान से श्रुतज्ञान अधिक विशुद्ध होता है।)

प्रश्न - जगत में कारण के समान ही कार्य होता है; इसलिए मतिज्ञान के समान ही श्रुतज्ञान होना चाहिए?

उत्तर - उपादानकारण के समान कार्य होता है; निमित्तकारण के समान नहीं । जैसे घट की उत्पत्ति में दण्ड, चक्र, कुम्हार, आकाश इत्यादि निमित्तकारण होते हैं; किन्तु उत्पन्न हुआ घट उन दण्ड चक्र कुम्हार आकाश आदि के समान नहीं होता; किन्तु वह भिन्न स्वरूप ही (मिट्टी के स्वरूप ही) होता है। इसी प्रकार श्रुतज्ञान के उत्पन्न होने में मति नाम (केवल नाम) मात्र बाह्य कारण है और उसका स्वरूप श्रुतज्ञान से भिन्न है।

एक बार श्रुतज्ञान के होने पर, फिर जब विचार प्रलम्बित होता है, तब दूसरा श्रुतज्ञान, मतिज्ञान के बीच में आए बिना भी उत्पन्न हो जाता है।

प्रश्न - ऐसे श्रुतज्ञान में 'मतिपूर्वं' इस सूत्र में दी गई व्याख्या कैसे लागू होती है ?

उत्तर - उसमें पहिला श्रुतज्ञान, मतिपूर्वक हुआ था, इसलिए दूसरा श्रुतज्ञान भी मतिपूर्वक है-ऐसा उपचार किया जा सकता है। सूत्र में पूर्व' पहिले 'साक्षात्' शब्द का प्रयोग नहीं किया है, इसलिए यह समझना चाहिए कि श्रुतज्ञान, साक्षात् मतिपूर्वक और परम्परामतिपूर्वक - ऐसे दो प्रकार से होता है।

(श्री धवल पुस्तक १३, पृष्ठ २८३-२८४)

भावश्रुत और द्रव्यश्रुत- श्रुतज्ञान में तारतम्य की अपेक्षा से भेद होता है और उसके निमित्त में भी भेद होता है। भावश्रुत और द्रव्यश्रुत इन दोनों में दो, अनेक और बारह भेद होते हैं। भावश्रुत को भावागम भी कह सकते हैं और उसमें द्रव्यागम निमित्त होता है। द्रव्यागम (श्रुत) के दो भेद हैं; (१) अङ्ग प्रविष्ट और (२) अङ्ग बाह्य । अङ्ग प्रविष्ट के बारह भेद हैं।

अनक्षरात्मक और अक्षरात्मक श्रुतज्ञान – अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान के दो भेद हैं - पर्यायज्ञान और पर्यायसमास । सूक्ष्मनिगोदिया जीव के उत्पन्न होते समय जो पहिले समय में सर्व जघन्य श्रुतज्ञान होता है, सो पर्यायज्ञान है। दूसरा भेद पर्यायसमास है। सर्वजघन्यज्ञान से अधिक ज्ञान को पर्यायसमास कहते हैं। [उसके असंख्यात लोक प्रमाण भेद हैं] । निगोदिया जीव के सम्यक् श्रुतज्ञान नहीं होता; किन्तु मिथ्याश्रुत होता है; इसलिए यह दो भेद सामान्य श्रुतज्ञान की अपेक्षा से कहे हैं, ऐसा समझना चाहिए।

यदि सम्यक् और मिथ्या ऐसे दो भेद न करके - सामान्य मतिश्रुतज्ञान का विचार करें तो प्रत्येक छद्मस्थ जीव के मति और श्रुतज्ञान होता है। स्पर्श के द्वारा किसी वस्तु का ज्ञान होना सो मतिज्ञान है और उसके सम्बन्ध से ऐसा ज्ञान होना कि 'यह हितकारी नहीं है या है', सो श्रुतज्ञान है, वह अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है। एकेन्द्रियादि असैनी जीवों के अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान ही होता है। सैनीपञ्चेन्द्रिय जीवों के दोनों प्रकार का श्रुतज्ञान होता है।

प्रमाण के दो प्रकार-प्रमाण दो प्रकार का है - (१) स्वार्थप्रमाण, (२) परार्थप्रमाण । स्वार्थप्रमाण ज्ञानस्वरूप है और परार्थप्रमाण वचनरूप है। श्रुत के अतिरिक्त चार ज्ञान स्वार्थ प्रमाण हैं। श्रुतप्रमाण स्वार्थ-परार्थ - दोनों रूप हैं; इसलिए वह ज्ञानरूप और वचनरूप है। श्रुत उपादान है और वचन उसका निमित्त है। [विकल्प का समावेश वचन में हो जाता है।] श्रुतप्रमाण का अंश 'नय' है।

[पञ्चाध्यायी भाग १, पृष्ठ ३४४, पण्डित देवकीनन्दनजी कृत और जैन सिद्धान्त दर्पण, पृष्ठ २२, राजवार्तिक पृष्ठ १५३, सर्वार्थसिद्धि-अध्याय एक, सूत्र ६ पृष्ठ ५६]

श्रुत' का अर्थ- श्रुत का अर्थ होता है, सुना हुआ विषय अथवा 'शब्द'। यद्यपि श्रुतज्ञान, मतिज्ञान के बाद होता है, तथापि उसमें वर्णनीय तथा शिक्षा योग्य सभी विषय आते हैं, और वह सुनकर जाना जा सकता है। इस प्रकार श्रुतज्ञान में श्रुत का (शब्द का) सम्बन्ध मुख्यता से है, इसलिए श्रुतज्ञान को शास्त्रज्ञान (भावशास्त्रज्ञान) भी कहा जाता है। (शब्दों को सुनकर जो श्रुतज्ञान होता है, उसके अतिरिक्त अन्य प्रकार का भी श्रुतज्ञान होता है।) सम्यग्ज्ञानी पुरुष का उपदेश सुनने से पात्र जीवों को आत्मा का यथार्थ ज्ञान हो सकता है, इस अपेक्षा से उसे श्रुतज्ञान कहा जाता है।

रूढ़ि के बल से भी मतिपूर्वक होनेवाले इस विशेष ज्ञान को 'श्रुतज्ञान' कहा जाता है।

श्रुतज्ञान को वितर्क - भी कहते हैं। [अध्याय ९, सूत्र ३९]

अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य -

अङ्गप्रविष्ट के बारह भेद हैं - (१) आचाराङ्ग, (२) सूत्रकृताङ्ग, (३) स्थानाङ्ग, (४) समवायाङ्ग, (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति अङ्ग, (६) ज्ञातृधर्म कथाङ्ग, (७) उपासकाध्ययनाङ्ग, (८) अन्तःकृतदशाङ्ग, (९) अनुत्तरौपपादिकाङ्ग, (१०) प्रश्नव्याकरणाङ्ग, (११) विपाकसूत्राङ्ग, और (१२) दृष्टिप्रवादाङ्ग।

अङ्गबाह्य श्रुत में - चौदह प्रकीर्णक होते हैं। इन बारह अङ्ग और चौदह पूर्व की रचना, जिस दिन तीर्थङ्कर भगवान की दिव्यध्वनि खिरती है, तब भावश्रुतरूप पर्याय से परिणत गणधर भगवान एक ही मुहूर्त में क्रम से करते हैं।

यह सब शास्त्र निमित्तमात्र है, भावश्रुतज्ञान में उसका अनुसरण करके तारतम्य होता है - ऐसा समझना चाहिए।

मति और श्रुतज्ञान के बीच का भेद -

प्रश्न - - जैसे मतिज्ञान इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार श्रुतज्ञान भी इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होता है, तब फिर दोनों में अन्तर क्या है?

शङ्काकार के कारण - इन्द्रिय और मन से मतिज्ञान की उत्पत्ति होती है, यह प्रसिद्ध है; श्रुतज्ञान, वक्ता के कथन और श्रोता के श्रवण से उत्पन्न होता है, इसलिए वक्ता की जीभ और श्रोता के कान तथा मन, श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में कारण है; इस प्रकार मति-श्रुत दोनों के उत्पादक कारण इन्द्रिय और मन हुए, इसलिए उन दोनों को एक मानना चाहिए।

उत्तर - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को एक मानना ठीक नहीं है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों इन्द्रियों और मन से उत्पन्न होते हैं, यह हेतु असिद्ध है; क्योंकि जीभ और कान को श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में कारण मानना भूल है। जीभ तो शब्द का उच्चारण करने में कारण है, श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में नहीं। कान भी जीव के होनेवाले मतिज्ञान की उत्पत्ति में कारण है, श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में नहीं, इसलिए श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में दो इन्द्रियों को कारण बताना और मति तथा श्रुतज्ञान दोनों को इन्द्रियों और मन से उत्पन्न कहकर दोनों की एकता मानना मिथ्या है। वे दो इन्द्रियाँ श्रुतज्ञान में निमित्त नहीं है। इस प्रकार मति और श्रुतज्ञान की उत्पत्ति के कारण में भेद है। मतिज्ञान इन्द्रियों और मन के कारण उत्पन्न होता है और जिस पदार्थ का इन्द्रियों तथा मन के द्वारा मतिज्ञान से निर्णय हो जाता है, उस पदार्थ का मन के द्वारा जिस विशेषता से ज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञान है, इसलिए दोनों ज्ञान एक नहीं किन्तु भिन्न-भिन्न हैं।

विशेष स्पष्टीकरण –

१- इन्द्रिय और मन के द्वारा यह निश्चय किया कि यह घट' है, सो यह मतिज्ञान है, तत्पश्चात् उस घड़े से भिन्न, अनेक स्थलों और अनेक काल में रहनेवाले अथवा विभिन्न रङ्गों के समानजातीय दूसरे घड़ों का ज्ञान करना श्रुतज्ञान है। एक पदार्थ को जानने के बाद समानजातीय दूसरे प्रकार को जानना, सो श्रुतज्ञान का विषय है। अथवा –

२- इन्द्रिय और मन के द्वारा जो घट का निश्चय किया, तत्पश्चात् उसके भेदों का ज्ञान करना, सो श्रुतज्ञान है। जैसे - अमुक घड़ा, अमुक रङ्ग का है, अथवा घड़ा मिट्टी का है, ताँबे का है, पीतल का है। इस प्रकार इन्द्रिय और मन के द्वारा निश्चय करके उसके भेद-प्रभेद को जाननेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान है। उसी (मतिज्ञान के द्वारा जाने गए) पदार्थ के भेद-प्रभेद का ज्ञान भी श्रुतज्ञान है। अथवा –

३- 'यह जीव है' या 'यह अजीव' ऐसा निश्चय करने के बाद जिस ज्ञान से सत्संख्यादि द्वारा उसका स्वरूप जाना जाता है, वह श्रुतज्ञान है, क्योंकि उस विशेष स्वरूप का ज्ञान इन्द्रिय द्वारा नहीं हो सकता, इसलिए वह मतिज्ञान का विषय नहीं किन्तु श्रुतज्ञान का विषय है। जीव-अजीव को जानने के बाद उसके सत्संख्यादि विशेषों का ज्ञान मात्र मन के निमित्त से होता है। मतिज्ञान में एक पदार्थ के अतिरिक्त दूसरे पदार्थ का या उसी पदार्थ के विशेषों का ज्ञान नहीं होता; इसलिए मतिज्ञान और श्रुतज्ञान भिन्न-भिन्न हैं। अवग्रह के बाद ईहाज्ञान में उसी पदार्थ का विशेष ज्ञान है और ईहा के बाद अवाय में उसी पदार्थ का विशेष ज्ञान है; किन्तु उसमें (ईहा या अवाय में) उसी पदार्थ के भेद-प्रभेद का ज्ञान नहीं है, इसलिए वह मतिज्ञान है-श्रुतज्ञान नहीं। (अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा मतिज्ञान के भेद हैं।)

सूत्र ११ से २० तक का सिद्धान्त

जीव को सम्यग्दर्शन होते ही सम्यक्मति और सम्यक्श्रुतज्ञान होता है। सम्यग्दर्शन कारण है और सम्यग्ज्ञान कार्य, ऐसा समझना चाहिए। यह जो सम्यक्मति और श्रुतज्ञान के भेद दिए गए हैं, वे ज्ञान की विशेष निर्मलता होने के लिये दिए गए हैं; उन भेदों में अटककर राग में लगे रहने के लिए नहीं दिए गए हैं; इसलिए उन भेदों का स्वरूप जानकर जीव को अपने त्रैकालिक अखण्ड अभेद चैतन्यस्वभाव की ओर उन्मुख होकर निर्विकल्प होने की आवश्यकता है

अवधिज्ञान का वर्णन

भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम्

अर्थ - - [भवप्रत्ययः ] भवप्रत्यय नामक [अवधिः ] अवधिज्ञान [देवनारकाणाम् ] देव और नारकियों के होता है।

टीका-

(१) अवधिज्ञान के दो भेद हैं (१) भवप्रत्यय, (२) गुणप्रत्यय । प्रत्यय, कारण और निमित्त तीनों एकार्थ वाचक शब्द हैं। यहाँ 'भवप्रत्यय' शब्द बाह्य निमित्त की अपेक्षा से कहा है, अन्तरङ्ग निमित्त तो प्रत्येक प्रकार के अवधिज्ञान में अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है।

(२) देव और नारक पर्याय के धारण करने पर जीव को जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, वह भवप्रत्यय कहलाता है। जैसे पक्षियों में जन्म का होना ही आकाश में गमन का निमित्त होता है, न कि शिक्षा, उपदेश, जप-तप इत्यादि। इसी प्रकार नारकी और देव की पर्याय में उत्पत्ति मात्र से अवधिज्ञान प्राप्त होता है। [यहाँ सम्यग्ज्ञान का विषय है, फिर भी सम्यक् या मिथ्या का भेद किए बिना सामान्य अवधिज्ञान के लिए 'भवप्रत्यय' शब्द दिया गया है।]

(३) भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव, नारकी तथा तीर्थङ्करों के (गृहस्थदशा में) होता है, वह नियम से देशावधि होता है। वह समस्त प्रदेश से उत्पन्न होता है।

(४) 'गुणप्रत्यय' - किसी विशेष पर्याय (भव) की अपेक्षा न करके जीव के पुरुषार्थ द्वारा जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, वह गुणप्रत्यय अथवा क्षयोपशमनिमित्तक कहलाता है॥२१॥

क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान के भेद तथा उनके स्वामी -

क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्प: शेषाणाम्

अर्थ - [क्षयोपशमनिमित्त:] क्षयोपशमनैमित्तिक अवधिज्ञान [षडविकल्पः ] अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित - ऐसे छह भेदवाला है, और वह [ शेषाणाम् ] मनुष्य तथा तिर्यञ्चों के होता है।

टीका- (१) अनुगामी - जो अवधिज्ञान सूर्य के प्रकाश की भाँति जीव के साथ ही साथ जाता है, उसे अनुगामी कहते हैं।

अननुगामी - जो अवधिज्ञान जीव के साथ ही साथ नहीं जाता, उसे अननुगामी कहते हैं।

वर्धमान - जो अवधिज्ञान शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की कला की भाँति बढ़ता रहे, उसे वर्धमान कहते हैं।

हीयमान - जो अवधिज्ञान कृष्ण पक्ष के चन्द्रमा की कला की तरह घटता रहे, उसे हीयमान कहते हैं।

अवस्थित - जो अवधिज्ञान एक-सा रहे, न घटे न बढ़े, उसे अवस्थित कहते हैं।

अनवस्थित - जो पानी की तरङ्गों की भाँति घटता-बढ़ता रहे, एक-सा न रहे, उसे अनवस्थित कहते हैं।

(२) यह अवधिज्ञान मनुष्यों को होता है, ऐसा कहा गया है। इसमें तीर्थङ्करों को नहीं लेना चाहिए, उनके अतिरिक्त अन्य मनुष्यों को समझना चाहिए, वह भी बहुत थोड़े से मनुष्यों को होता है। इस अवधिज्ञान को 'गुणप्रत्यय' भी कहा जाता है । वह नाभि के ऊपर शंख, पद्म, वज्र, स्वस्तिक, कलश, मछली आदि शुभ चिह्नों के द्वारा होता है।

(३) अवधिज्ञान के प्रतिपाति, अप्रतिपाति', देशावधि, परमावधि और सर्वावधि भेद हैं।

(४) जघन्य देशावधि संयत तथा असंयत मनुष्यों और तिर्यञ्चों के होता है। (देवनारकी को नहीं होता) उत्कृष्ट देशावधि संयत भावमुनि के ही होता है - अन्य तीर्थङ्करादि गृहस्थ मनुष्य, देव, नारकी के नहीं होता; उनके देशावधि होता है।

(५) देशावधि उपरोक्त (पैरा १ में कहे गए) छह प्रकार तथा प्रतिपाति और अप्रतिपाति ऐसे आठ प्रकार का होता है।

परमावधि-अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, अवस्थित, अनवस्थित और अप्रतिपाति होता है।

(६) अवधिज्ञान रूपी-पुद्गल तथा उस पुद्गल के सम्बन्धवाले संसारी जीव (के विकारी भाव) को प्रत्यक्ष जानता है।

** १. प्रतिपाति-जो गिर जाता है। २. अप्रतिपाति-जो नहीं गिरता। ३. जघन्य-सबसे कम।

(७) द्रव्य अपेक्षा से जघन्य अवधिज्ञान का विषय - एक जीव के औदारिकशरीर सञ्चय के लोकाकाश-प्रदेशप्रमाण खण्ड करने पर उसके एक खण्ड तक का ज्ञान होता है।

द्रव्यापेक्षा से सर्वावधिज्ञान का विषय - एक परमाणु तक जानता है [देखो सूत्र २८ की टीका]

द्रव्यापेक्षा से मध्यम अवधिान का विषय - जघन्य और उत्कृष्ट के बीच के द्रव्यों के भेदों को जानता है।

क्षेत्रापेक्षा से जघन्य अवधिज्ञान का विषय - उत्सेघाङ्गल के [आठ यब मध्य के] असंख्यातवें भाग तक के क्षेत्र को जानता है।

क्षेत्र अपेक्षा से उत्कृष्ट अवधिज्ञान का विषय - असंख्यात लोकप्रमाण तक क्षेत्र को जानता है।

क्षेत्र अपेक्षा से मध्यम अवधिज्ञान का विषय - जघन्य और उत्कृष्ट के बीच के क्षेत्रभेदों को जानता है।

कालापेक्षा से जघन्य अवधिज्ञान का विषय - आवली के असंख्यात भाग प्रमाणभूत और भविष्य को जानता है।

कालापेक्षा से उत्कृष्ट अवधिज्ञान का विषय - असंख्यात लोकप्रमाण अतीत और अनागत काल को जानता है।

कालापेक्षा से मध्यम अवधिज्ञान का विषय - जघन्य और उत्कृष्ट के बीच के कालभेदों को जानता है।

भाव अपेक्षा से अवधिज्ञान का विषय - पहिले द्रव्यप्रमाण निरूपण किए गए, द्रव्यों की शक्ति को जानता है।

[श्री धवला पुस्तक १, पृष्ठ ९३-९४]

(८) कर्म का क्षयोपशम निमित्तमात्र है अर्थात् जीव अपने पुरुषार्थ से अपने ज्ञान की विशुद्धि अवधिज्ञानपर्याय को प्रगट करता है, उसमें 'स्वयं ही कारण है। अवधिज्ञान के समय अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम स्वयं होता है, इतना सम्बन्ध बताने को निमित्त बताया है। कर्म की उस समय की स्थिति कर्म के अपने कारण से क्षयोपशमरूप होती है, इतना निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है। वह यहाँ बताया है।'

क्षयोपशम का अर्थ - (१) सर्वघातिस्पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय, (२) देशघातिस्पर्द्धकों में गुण का सर्वथा घात करने की शक्ति का उपशम, सो क्षयोपशम कहलाता है। तथा

(९) क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन में वेदक सम्यक्त्वप्रकृति के स्पर्द्धकों को क्षय' और मिथ्यात्व तथा सम्यक् मिथ्यात्व प्रकृतियों के उदयाभाव को उपशम कहते हैं। प्रकृतियों के क्षय तथा उपशम को क्षयोपशम कहते हैं।

(श्री धवला पुस्तक ५, पृष्ठ २००, २११-२२१)

(१०) गुणप्रत्यय अवधिज्ञान सम्यग्दर्शन, देशव्रत अथवा महाव्रत के निमित्त से होता है, तथापि वह सभी सम्यग्दृष्टि, देशव्रती या महाव्रती जीवों के नहीं होता, क्योंकि असंख्यात लोकप्रमाण सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयमरूप परिणामों में अवधिज्ञानवरण के क्षयोपशम के कारणभूत परिणाम बहुत थोड़े होते हैं [श्री जयधवला १, पृष्ठ १७] गुण प्रत्यय सुअवधिज्ञान सम्यग्दृष्टि जीवों के ही हो सकता है, किन्तु वह सभी सम्यग्दृष्टि जीवों के नहीं होता।

सूत्र २१-२२ का सिद्धान्त

यह मानना ठीक नहीं है कि 'जिन जीवों को अवधिज्ञान हुआ हो, वे ही जीव अवधिज्ञान का उपयोग लगाकर दर्शनमोहकर्म के रजकणों की अवस्था को देखकर उस पर से यह यथार्थतया जान सकते हैं कि हमें सम्यग्दर्शन हुआ है' क्योंकि सभी सम्यग्दृष्टि जीवों को अवधिज्ञान नहीं होता, किन्तु सम्यग्दृष्टि जीवों में से बहुत थोड़े से जीवों को अवधिज्ञान होता है। अपने को 'सम्यग्दर्शन हुआ है' यदि यह अवधिज्ञान के बिना निश्चय न हो सकता होता तो जिन जीवों के अवधिज्ञान नहीं होता, उन्हें सदा तत्सम्बन्धी शङ्का-संशय बना ही रहेगा, किन्तु निःशङ्कित्व सम्यग्दर्शन का पहिला ही आचार है; इसलिए जिन जीवों को सम्यग्दर्शन सम्बन्धी शङ्का बनी रहती है, वे जीव वास्तव में सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकते, किन्तु मिथ्यादृष्टि होते हैं। इसलिए अवधिज्ञान का, मन:पर्ययज्ञान का तथा उनके भेदों का स्वरूप जानकर, भेदों की ओर के राग को दूर करके अभेद ज्ञानस्वरूप अपने स्वभाव की ओर उन्मुख होना चाहिए ॥

मनःपर्ययज्ञान के भेद

ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः

अर्थ - [ मन:पर्ययः ] मन:पर्ययज्ञान [ ऋजुमतिविपुलमतिः ] ऋजुमति और विपुलमति

दो प्रकार का है।

टीका- (१) मन: पर्ययज्ञान की व्याख्या नववें सूत्र की टीका में की गई है। दूसरे के मनोगत मूर्तिक द्रव्यों को मन के साथ जो प्रत्यक्ष जानता है, सो मन:पर्ययज्ञान है।

(२) द्रव्यापेक्षा से मनःपर्ययज्ञान का विषय - जघन्यरूप से एक समय में होनेवाले औदारिकशरीर के निर्जरारूप द्रव्य तक जान सकता है; उत्कृष्टरूप से आठ कर्मों के एक समय में बन्धे हुए समयप्रबद्धरूप द्रव्य के अनन्त भागों में से एक भाग तक जान सकता है।

क्षेत्रापेक्षा से इस ज्ञान का विषय - जघन्यरूप से दो, तीन कोस तक के क्षेत्र को जानता है और उत्कृष्टरूप से मनुष्यक्षेत्र के भीतर जान सकता है। [यहाँ विष्कम्भरूप मनुष्यक्षेत्र समझना चाहिए।]

कालापेक्षा से इस ज्ञान का विषय - जघन्यरूप से दो तीन भवों का ग्रहण करता है; उत्कृष्टरूप से असंख्यात भवों का ग्रहण करता है।

भावापेक्षा से इस ज्ञान का विषय - द्रव्यप्रमाण में कहे गये द्रव्यों की शक्ति को (भाव को) जानता है।

[श्री धवला पुस्तक १, पृष्ठ ९४]

इस ज्ञान के होने में मन अपेक्षामात्र (निमित्तमात्र) कारण है; वह उत्पत्ति का कारण नहीं। इस ज्ञान की उत्पत्ति आत्मा की शुद्धि से होती है। इस ज्ञान के द्वारा स्व तथा पर दोनों के मन में स्थित रूपी पदार्थ जाने जा सकते हैं।

[श्री सर्वार्थसिद्धि, पृष्ठ ४४८-४५१-४५२]

दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को भी मन कहते हैं; उनकी पर्यायों (विशेषों) को मन:पर्यय कहते हैं, उसे जो ज्ञान जानता है, सो मनःपर्ययज्ञान है। मन:पर्ययज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति - ऐसे दो भेद हैं।

ऋजुमति - मन में चिन्तित पदार्थ को जानता हैं, अचिन्तित पदार्थ को नहीं और वह भी सरलरूप से चिन्तित पदार्थ को जानता है। [देखो, सूत्र २८ की टीका]

** १. समयप्रबद्ध - एक समय में जितने कर्म परमाणु और नो कर्म परमाणु बंधते हैं, उन सबको समयप्रबद्ध कहते हैं।

विपुलमति - चिन्तित और अचिन्तित पदार्थ को तथा वक्रचिन्तित और अवक्रचिन्तित पदार्थ को भी जानता है। [देखो, सूत्र २८ की टीका]

मन:पर्ययज्ञान विशिष्ट संयमधारी के होता है [श्री धवला पुस्तक ६, पृष्ठ २८-२९] 'विपुल' का अर्थ विस्तीर्ण-विशाल-गम्भीर होता है। [उसमें कुटिल, असरल, विषम, सरल इत्यादि गर्भित हैं] विपुलमतिज्ञान में ऋजु और वक्र (सरल और पेचीदा) सर्वप्रकार के रूपी पदार्थों का ज्ञान होता है। अपने तथा दूसरों के जीवन-मरण, सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, इत्यादि का भी ज्ञान होता है।

(श्री धवला पुस्तक १३, पृष्ठ ३२८ से ३४४ एवं सूत्र ६० से ७८)

विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी व्यक्त अथवा अव्यक्त मन से चिन्तित या अचिन्तित अथवा आगे जाकर चिन्तवन किए जानेवाले सर्व प्रकार के पदार्थों को जानता है।

(सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ ४४८-४५१-४५२)

कालापेक्षा से ऋजुमति का विषय - जघन्यरूप से भूत-भविष्यत के अपने और दूसरे के दो-तीन भव जानता है और उत्कृष्टरूप से उसी प्रकार सात-आठ भव जानता है।

क्षेत्रापेक्षा से - यह ज्ञान जघन्यरूप से तीन से ऊपर और नौ से नीचे कोस, तथा उत्कृष्टरूप से तीन से ऊपर और नौ से नीचे योजन के भीतर जानता है। उससे बाहर नहीं जानता।

कालापेक्षा से विपुलमतिका विषय - जघन्यरूप से अगले-पिछले सात-आठ भव जानता है और उत्कृष्टरूप से अगले-पिछले असंख्यात भव जानता है।

क्षेत्रापेक्षा में - यह ज्ञान जघन्यरूप से तीन से ऊपर और नौ से नीचे योजन प्रमाण जानता है और उत्कृष्टरूप से मानुषोत्तरपर्वत के भीतर तक जानता है, उससे बाहर नहीं।

(सर्वार्थसिद्धि, पृष्ठ ४५४)

विपुलमति का अर्थ-इंग्लिश तत्त्वार्थसूत्र में निम्न प्रकार दिया है -

Complex direct knowledge of complex mental thing. e.g. of what a man is thinking of now along with what he has thought of it in the past and will think of it in the future.

(पृष्ठ ४०)

अर्थ - मन में स्थित पेचीदा वस्तुओं का पेचीदगी सहित प्रत्यक्षज्ञान, जैसे एक मनुष्य वर्तमान में क्या विचार कर रहा है, उसके साथ भूतकाल में उसने क्या विचार किया है और भविष्य में क्या विचार करेगा, इस ज्ञान का मनोगत विकल्प मन:पर्ययज्ञान का विषय है।

(बाह्य वस्तु की अपेक्षा मनोगतभाव एक अति सूक्ष्म और विजातीय वस्तु है।)

ऋजुमति और विपुलमति में अन्तर

विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः

अर्थ - [विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां] परिणामों की विशुद्धि और अप्रतिपात अर्थात् केवलज्ञान होने से पूर्व न छूटना [ तद्विशेष: ] इन दो बातों से ऋजुमति और विपुलमति ज्ञान में विशेषता (अन्तर) है।

टीका- ऋजुमति और विपुलमति यह दो मन:पर्ययज्ञान के भेद सूत्र २३ की टीका में दिए गए हैं। इस सूत्र में स्पष्ट बताया गया है कि विपुलमति विशुद्ध शुद्ध है और वह कभी नहीं छूट सकता, किन्तु वह केवलज्ञान होने तक बना रहता है। ऋजुमति ज्ञान होकर छूट भी जाता है। यह भेद चारित्र की तीव्रता के भेद के कारण होते हैं। संयम परिणाम का घटनाउसकी हानि होना प्रतिपात है, जो कि किसी ऋजुमतिवाले के होता है ॥

अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान में विशेषता

विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्यययोः

अर्थ - [अवधिमन:पर्यययोः] अवधि और मनःपर्ययज्ञान में [विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्यः ] विशुद्धता, क्षेत्र, स्वामी और विषय की अपेक्षा विशेषता होती है।

टीका- मनः पर्ययज्ञान उत्तम ऋद्धिधारी भाव-मुनियों के ही होता है और अवधिज्ञान चारों गतियों के सैनी जीवों के होता है, यह स्वामी की अपेक्षा से भेद है।

उत्कृष्ट अवधिज्ञान का क्षेत्र असंख्यात लोक-प्रमाण तक है और मनःपर्ययज्ञान का ढाई द्वीप मनुष्यक्षेत्र है। यह क्षेत्रापेक्षा से भेद है।

स्वामी तथा विषय के भेद से विशुद्धि में अन्तर जाना जा सकता है, अवधिज्ञान का विषय परमाणुपर्यन्त रूपी पदार्थ है और मनःपर्यय का विषय मनोगत विकल्प है।

विषय का भेद सूत्र २७-२८ की टीका में दिया गया है तथा सूत्र २२ की टीका में अवधिज्ञान का और २३ की टीका में मनःपर्ययज्ञान का विषय दिया गया है, उस पर से यह भेद समझ लेना चाहिए ॥

मति-श्रुतज्ञान का विषय

मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु

अर्थ - [ मतिश्रुतयोः ] मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का [निबन्धः ] विषयसम्बन्ध [ असर्वपार्ययेषु ] कुछ (न कि सर्व) पर्यायों से युक्त [द्रव्येषु ] जीव-पुद्गलादि सर्व द्रव्यों में है।

टीका– मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सभी रूपी-अरूपी द्रव्यों को जानते हैं, किन्तु उनकी सभी पर्यायों को नहीं जानते, उनका विषय-सम्बन्ध सभी द्रव्य और उनको कुछ पर्यायों के साथ होता है।

इस सूत्र में 'द्रव्येषु' शब्द दिया है, जिससे जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल सभी द्रव्य समझना चाहिए। उनकी कुछ पर्यायों को यह ज्ञान जानते हैं, सभी पर्यायों को नहीं।

प्रश्न - जीव, धर्मास्तिकाय इत्यादि अमूर्तद्रव्य हैं, उन्हें मतिज्ञान कैसे जानता है, जिससे यह कहा जा सके कि मतिज्ञान सब द्रव्यों को जानता है ?

उत्तर - अनिन्द्रिय (मन) के निमित्त से अरूपी द्रव्यों को अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप मतिज्ञान पहिले उत्पन्न होता है और फिर उस मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान सर्व द्रव्यों को जानता है और अपनी योग्य पर्यायों को जानता है।

आत्मा का निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान जो सम्यक्मति और श्रुतरूप है, उसका विषय त्रिकाली शुद्ध आत्मा होता है। इन दोनों ज्ञानों के द्वारा जीव को भी यथार्थतया जाना जा सकता है

अवधिज्ञान का विषय

रूपिष्ववधेः

अर्थ - [अवधेः ] अवधिज्ञान का विषय-सम्बन्ध [रूपिषु ] रूपी द्रव्यों में है अर्थात् अवधिज्ञानरूपी पदार्थों को जानता है।

टीका- जिसके रूप, रस, गन्ध, स्पर्श होता है, वह पुद्गलद्रव्य है; पुद्गलद्रव्य से सम्बन्ध रखनेवाले संसारी जीव को भी इस ज्ञान के हेतु के लिए कहा जाता है। [सूत्र २८ की टीका]

जीव के पाँच भावों में से औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक - यह तीन भाव (परिणाम) ही अवधिज्ञान के विषय हैं और जीव के शेष-क्षायिक तथा पारिणामिकभाव और धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य अरूपी पदार्थ हैं, वे अवधिज्ञान के विषयभूत नहीं होते।

यह ज्ञान सब रूपी पदार्थों और उनकी कुछ पर्यायों को जानता है

मनःपर्ययज्ञान का विषय

तदनन्तभागे मन:पर्ययस्य

अर्थ -[ तत् अनन्तभागे] सर्वावधिज्ञान के विषयभूत रूपी द्रव्य के अनन्तवें भाग में [ मन:पर्ययस्य ] मन:पर्ययज्ञान का विषय सम्बन्ध है।

टीका - परमावधिज्ञान के विषयभूत जो पुद्गलस्कन्ध हैं, उनका अनन्तवां भाग करने पर जो एक परमाणुमात्र होता है, सो सर्वावधि का विषय है, उसका अनन्तवाँ भाग ऋजुमति-मन:पर्ययज्ञान का विषय है और उसका अनन्तवां भाग विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान का विषय है।

(सर्वार्थसिद्धि, पृष्ठ ४७३)

सूत्र २७-२८ का सिद्धान्त

अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान का विषय रूपी है, ऐसा यहाँ कहा गया है। अध्याय दो सूत्र एक में आत्मा के पाँच भाव कहे हैं, उनमें से औदयिक, औपशमिक तथा क्षायोपशमिक ये तीन भाव, इस ज्ञान के विषय हैं, ऐसा २७वें सूत्र में कहा है। इससे निश्चय होता है कि परमार्थत: यह तीन भाव रूपी हैं अर्थात् वे अरूपी आत्मा का स्वरूप नहीं है। क्योंकि आत्मा में से वे भाव दूर हो सकते हैं और जो दूर हो सकते हैं, वे परमार्थतः आत्मा के नहीं हो सकते। 'रूपी' की व्याख्या अध्याय पाँच के सूत्र पाँचवें में दी है। वहाँ पुद्गल रूपी' है - ऐसा कहा है और पुद्गल स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णवाले हैं, यह अध्याय पाँच के २३ सूत्र में कहा है। श्रीसमयसार की गाथा ५० से ६८ तथा २०३ में यही कहा है कि वर्णादि से गुणस्थान तक के भाव पुद्गलद्रव्य के परिणाम होने से जीव की अनुभूति से भिन्न हैं, इसलिए वे जीव नहीं हैं। वही सिद्धान्त इस शास्त्र में उपरोक्त संक्षिप्त सूत्रों के द्वारा प्रतिपादन किया गया है।

अध्याय २ सूत्र १ में उन भावों को व्यवहार से जीव का कहा है। यदि वे वास्तव में जीव के होते तो कभी जीव से अलग न होते, किन्तु वे अलग किए जा सकते हैं, इसलिए वे जीवस्वरूप या जीव के निजभाव नहीं हैं

केवलज्ञान का विषय

सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य

अर्थ - [ केवलस्य ] केवलज्ञान का विषय-सम्बन्ध [ सर्वद्रव्य-पर्यायेषु ] सर्वद्रव्य और उनकी सर्व पर्याय हैं अर्थात् केवलज्ञान एक ही साथ सभी पदार्थों को और उनकी सभी पर्यायों को जानता है।

टीका-केवलज्ञान - असहाय ज्ञान अर्थात् यह ज्ञान इन्द्रिय, मन या आलोक की अपेक्षा से रहित है। वह त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायों को प्राप्त अनन्त वस्तुओं को जानता है। वह असङ्कचित, प्रतिपक्षी रहित और अमर्यादित है।

शङ्का - जिस पदार्थ का नाश हो चुका है और जो पदार्थ अभी उत्पन्न नहीं हुआ, उसे केवलज्ञान कैसे जान सकता है?

समाधान - केवलज्ञान निरपेक्ष होने से बाह्य पदार्थों की अपेक्षा के बिना ही नष्ट और अनुत्पन्न पदार्थों को जाने तो इसमें कोई विरोध नहीं आता। केवलज्ञान को विपर्ययज्ञानत्व का भी प्रसङ्ग नहीं आता, क्योंकि वह यथार्थ स्वरूप से पदार्थों को जानता है । यद्यपि नष्ट और अनुत्पन्न वस्तुओं का वर्तमान में सद्भाव नहीं है, तथापि उनका अत्यन्ताभाव भी नहीं है।

केवलज्ञान सर्व द्रव्य और उनकी त्रिकालवर्ती अनन्तानन्त पर्यायों को अक्रम से एक ही काल में जानता है; वह ज्ञान सहज (बिना इच्छा के) जानता है। केवलज्ञान में ऐसी शक्ति है कि अनन्तानन्त लोक-अलोक हों तो भी उन्हें जानने में केवलज्ञान समर्थ है।

(विशेष स्पष्टता के लिये देखो अध्याय १ परिशिष्ट ५ जो बड़े महत्वपूर्ण हैं।)

शङ्का - केवली भगवान के एक ही ज्ञान होता है या पाँचों?

समाधान - पाँचों ज्ञानों का एक ही साथ रहना नहीं माना जा सकता, क्योंकि मतिज्ञानादि आवरणीय ज्ञान हैं; केवलज्ञानी भगवान क्षीण आवरणीय हैं, इसलिए भगवान के आवरणीय ज्ञान का होना सम्भव नहीं है, क्योंकि आवरण के निमित्त से होनेवाले ज्ञानों का (आवरणों का अभाव होने के बाद) रहना हो सकता है-ऐसा मानना न्याय-विरुद्ध है।

(श्री धवला पुस्तक ६, पृष्ठ २९-३०)

मति आदि ज्ञानों का आवरण केवलज्ञानावरण के नाश होने के साथ ही सम्पूर्ण नष्ट हो जाता है। [देखो, सूत्र ३० की टीका]

एक ही साथ सर्वथा जानने की एक-एक जीव में सामर्थ्य है।

२९वें सूत्र का सिद्धान्त

'मैं पर को जानूँ तो बड़ा कहलाऊँ' ऐसा नहीं, किन्तु मेरी अपार सामर्थ्य अनन्त ज्ञानऐश्वर्यरूप है, इसलिए मैं पूर्णज्ञानघन स्वाधीन आत्मा हूँ - इस प्रकार पूर्ण साध्य को प्रत्येक जीव को निश्चित करना चाहिए; इस प्रकार निश्चित करके स्व से एकत्व और पर से विभक्त (भिन्न) अपने एकाकार स्वरूप की ओर उन्मुख होना चाहिए। अपने एकाकार स्वरूप की और उन्मुख होने पर सम्यग्दर्शन प्रगट होता है और जीव क्रमश: आगे बढ़ता है और थोड़े समय में उसकी पूर्ण ज्ञान-दशा प्रगट हो जाती है

एक जीव के एक साथ कितने ज्ञान हो सकते हैं?

एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्थ्यः

अर्थ - [ एकस्मिन् ] एक जीव में [ युगपत् ] एक साथ [ एकादोनि ] एक से लेकर [आचतुर्थ्य:] चार ज्ञान तक [ भाज्यानि ] विभक्त करने योग्य हैं अर्थात् हो सकते हैं।

टीका- (१) एक जीव के एक साथ एक से लेकर चार ज्ञान तक हो सकते हैं। यदि एक ज्ञान हो तो केवलज्ञान होता है; दो हों तो मति और श्रुत होते हैं; तीन हों तो मति, श्रुत और अवधि अथवा मति, श्रुत और मन:पर्ययज्ञान होते हैं; चार हों तो मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्ययज्ञान होते हैं। एक ही साथ पाँच ज्ञान किसी के नहीं होते और एक ही ज्ञान एक समय में उपयोगरूप होता है। केवलज्ञान के प्रगट होने पर वह सदा के लिए बना रहता है। दूसरे ज्ञानों का उपयोग अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त होता है, उससे अधिक नहीं होता, उसके बाद ज्ञान के उपयोग का विषय बदल ही जाता है। केवली के अतिरिक्त सभी संसारी जीवों के कम से कम दो अर्थात् मति और श्रुतज्ञान अवश्य होते हैं।

(२) क्षायोपशमिक ज्ञान क्रमवर्ती है, एक काल में एक ही प्रवर्तित होता है; किन्तु यहाँ जो चार ज्ञान एक ही साथ कहे हैं, सो चार का विकास एक ही समय होने से चार ज्ञानों की जाननेरूप लब्धि एक काल में होती है - यही कहने का तात्पर्य है। उपयोग तो एक काल में एक ही स्वरूप होता है

सूत्र ९ से ३० तक का सिद्धान्त

आत्मा वास्तव में परमार्थ है और वह ज्ञान है। आत्मा स्वयं एक ही पदार्थ है, इसलिए ज्ञान भी एक ही पद है। जो यह ज्ञान नामक एक पद है, सो यह परमार्थस्वरूप साक्षात् मोक्षउपाय है। इन सूत्रों में ज्ञान के जो भेद कहे हैं, वे इस एक पद को अभिनन्दन करते हैं।

ज्ञान के हीनाधिकरूप भेद उसके सामान्य ज्ञानस्वभाव को नहीं भेदते, किन्तु अभिनन्दन करते हैं; इसलिए जिसमें समस्त भेदों का अभाव है, ऐसे आत्मस्वभावभूत ज्ञान का ही एक का आलम्बन करना चाहिए अर्थात् ज्ञानस्वरूप आत्मा का ही अवलम्बन करना चाहिए, ज्ञानस्वरूप आत्मा के अवलम्बन से ही निम्न प्रकार प्राप्ति होती है –

(१) जिन पद की प्राप्ति होती है। (२) भ्रान्ति का नाश होता है। (३) आत्मा का लाभ होता है। (४) अनात्मा का परिहार सिद्ध होता है। (५) भावकर्म बलवान नहीं हो सकता। (६) राग-द्वेष-मोह उत्पन्न नहीं होते। (७) पुनः कर्म का आस्रव नहीं होता। (८) पुनः कर्म नहीं बँधता । (९) पूर्वबद्ध कर्म भोगा जाने पर निर्जरित हो जाता है। (१०) समस्त कर्मों का अभाव होने से साक्षात् मोक्ष होता है। ज्ञानस्वरूप आत्मा के आलम्बन को ऐसी महिमा है।

क्षायोपशम के अनुसार ज्ञान में जो भेद होते हैं, वे कहीं ज्ञान सामान्य को अज्ञानरूप नहीं करते, प्रत्युत ज्ञान को प्रकट करते हैं, इसलिए इन सब भेदों पर का लक्ष गौण करके ज्ञान सामान्य का अवलम्बन करना चाहिए। नववे सूत्र के अन्त में एकवचन सूचक 'ज्ञानम्' शब्द कहा है, वह भेदों का स्वरूप जानकर, भेदों पर का लक्ष छोड़कर, शुद्धनय के विषयभूत अभेद, अखण्ड ज्ञानस्वरूप आत्मा की ओर अपना लक्ष करने के लिए कहा है। ऐसा समझना चाहिए।

[पाटनी ग्रन्थमाला का श्री समयसार, गाथा २०४, पृष्ठ ३१०]

मति, श्रुत और अवधिज्ञान में मिथ्यात्व

मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च॥

अर्थ - [मतिश्रुतावधयः ] मति, श्रुत और अवधि यह तीन ज्ञान [विपर्ययः ] विपर्यय भी होते हैं।

टीका- (१) उपरोक्त पाँचों ज्ञान सम्यग्ज्ञान हैं, किन्तु मति, श्रुत और अवधि यह तीनों ज्ञान मिथ्याज्ञान भी होते हैं। उस मिथ्याज्ञान को कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और कुअवधि (विभङ्गावधि) ज्ञान कहते हैं। अभी तक सम्यग्ज्ञान का अधिकार चला आ रहा है, अब इस सूत्र में 'च' शब्द से यह सूचित किया है कि यह तीन ज्ञान सम्यक् भी होते हैं और मिथ्या भी होते हैं। सूत्र में विपर्ययः शब्द प्रयुक्त हुआ है, उसमें संशय और अनध्यवसाय गर्भितरूप से आ जाते हैं। मति और श्रुतज्ञान में संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय यह तीन दोष हैं; अवधिज्ञान में संशय नहीं होता, किन्तु अनध्यवसाय अथवा विपर्यय, यह दो दोष होते हैं, इसलिए उसे कुअवधि अथवा विभङ्ग कहते हैं। विपर्यय सम्बन्धी विशेष वर्णन ३२वें सूत्र की टीका में दिया गया है।

(२) अनादि मिथ्यादृष्टि के कुमति और कुश्रुत होते हैं तथा उसके देव और नारकी के भव में कुअवधि भी होता है। जहाँ-जहाँ मिथ्यादर्शन होता है, वहाँ-वहाँ मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र अविनाभावीरूप से होता है ॥

प्रश्न - जैसे सम्यग्दृष्टि जीव नेत्रादि इन्द्रियों से रूपादि को सुमति से जानता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी कुमतिज्ञान से उन्हें जानता है तथा जैसे सम्यग्दृष्टि जीव श्रुतज्ञान से उन्हें जानता है तथा कथन करता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी कुश्रुतज्ञान से जानता है और कथन करता है तथा जैसे सम्यग्दृष्टि अवधिज्ञान से रूपी वस्तुओं को जानता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि कुअवधिज्ञान से जानता है, तब फिर मिथ्यादृष्टि के ज्ञान को मिथ्याज्ञान क्यों कहते हो?

उत्तर

सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्॥

अर्थ - [ यदृच्छोपलब्धेः] अपनी इच्छा से चाहे जैसा (Whims) ग्रहण करने के कारण [सत् असतोः ] विद्यमान और अविद्यमान पदार्थों का [अविशेषात् ] भेदरूप ज्ञान (यथार्थ विवेक) न होने से [ उन्मत्तवत् ] पागल के ज्ञान की भाँति मिथ्यादृष्टि का ज्ञान विपरीत अर्थात् मिथ्याज्ञान ही होता है।

टीका- (१) यह सूत्र बहुत उपयोगी है। यह 'मोक्षशास्त्र है' इसलिए अविनाशी सुख के लिए सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप एक ही मार्ग है, यह पहिले सूत्र में बताकर, दूसरे सूत्र में सम्यग्दर्शन का लक्षण बताता है; जिसकी श्रद्धा से सम्यग्दर्शन होता है, वे सात तत्त्व चौथे सूत्र में बताये हैं, तत्त्वों को जानने के लिए प्रमाण और नय के ज्ञानों की आवश्यकता है, ऐसा ६वें सूत्र में कहा है। पाँच ज्ञान सम्यक् हैं, इसलिए वे प्रमाण हैं, यह ९-१०वें सूत्र में बताया है और उन पाँच सम्यग्ज्ञानों का स्वरूप ११ से ३०वें सूत्र तक बताया है।

(२) इतनी भूमिका बाँधने के बाद मति, श्रुत और अवधि यह तीन मिथ्याज्ञान भी होते हैं और जीव अनादिकाल से मिथ्यादृष्टि है, इसलिए वह जब तक सम्यक्त्व को नहीं पाता, जब तक उसका ज्ञान विपर्यय है, यह ३१वें सूत्र में बताया है। सुख के सच्चे अभिलाषी को सर्व प्रथम मिथ्यादर्शन का त्याग करना चाहिए - यह बताने के लिए इस सूत्र में मिथ्याज्ञान जो कि मिथ्यादर्शन पूर्वक ही होता है, उसका स्वरूप बताया है।

(३) सुख के सच्चे अभिलाषी को मिथ्याज्ञान का स्वरूप समझाने के लिये कहा है कि १- मिथ्यादृष्टि जीव सत् और असत् के बीच का भेद (विवेक) नहीं जानता, इससे सिद्ध हुआ कि प्रत्येक भव्य जीव को पहिले सत् क्या है, और असत् क्या है, इसका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करके मिथ्याज्ञान को दूर करना चाहिए। २- जहाँ सत् और असत् के भेद का अज्ञान होता है, वहाँ नासमझपूर्वक जीव जैसा अपने को ठीक लगता है, वैसा पागल पुरुष की भाँति अथवा शराब पीये हुए मनुष्य की भाँति मिथ्या कल्पनाएँ किया ही करता है। इसलिए यह समझाया है कि सुख के सच्चे अभिलाषी जीव को सच्ची समझपूर्वक मिथ्या कल्पनाओं का नाश करना चाहिए।

(४) पहले से तीस तक के सूत्रों में मोक्षमार्ग और सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान का स्वरूप समझाकर उसे ग्रहण करने को कहा है, वह उपदेश 'अस्ति' से दिया है और ३१वें सूत्र में मिथ्याज्ञान का स्वरूप बताकर उसका कारण ३२वें सूत्र में देकर मिथ्याज्ञान का नाश करने का उपदेश दिया है अर्थात् इस सूत्र में 'नास्ति' से समझाया है। इस प्रकार 'अस्तिनास्ति' के द्वारा अर्थात् अनेकान्त के द्वारा सम्यग्ज्ञान को प्रगट करके मिथ्याज्ञान की नास्ति करने के लिए उपदेश दिया है।

(५) सत् = विद्यमान (वस्तु)

असत् = अविद्यमान (वस्तु) अविशेषात् = इन दोनों का यथार्थ विवेक न होने से।

यदृच्छ (विपर्यय) उपलब्धेः = [विपर्यय शब्द की ३१वें सूत्र से अनुवृत्ति चली आई है।]

विपरीत-अपनी मनमानी इच्छानुसार कल्पनाएँ होने से वह मिथ्याज्ञान है।

उन्मत्तवत् - मदिरा पीए हुए मनुष्य की भाँति ।

विपर्यय - विपरीतता, वह तीन प्रकार की है - १. कारणविपरीतता, २. स्वरूपविपरीतता, ३. भेदाभेदविपरीतता।

कारणविपरीतता - मूलकारण को न पहचाने और अन्यथा कारण को माने।

स्वरूपविपरीतता - जिसे जानता है, उसके मूल वस्तुभूत स्वरूप को न पहचाने और अन्यथा स्वरूप को जाने।

भेदाभेदविपरीतता - जिसे वह जानता है, उसे 'यह इससे भिन्न है' और 'यह इससे अभिन्न है' - इस प्रकार यथार्थ न पहचानकर अन्यथा भिन्नत्व-अभिन्नत्व को माने, सो भेदाभेदविपरीतता है।

इन तीन विपरीतताओं को दूर करने का उपाय - सच्चे धर्म की परिपाटी है कि पहले जीव सम्यक्त्व प्रगट करता है, पश्चात् व्रतरूप शुभभाव होते हैं और सम्यक्त्व स्व और पर का श्रद्धान होने पर होता है तथा वह श्रद्धान द्रव्यानुयोग (अध्यात्मशास्त्रों) का अभ्यास करने से होता है, इसलिए पहले जीव को द्रव्यानुयोग के अनुसार श्रद्धा करके सम्यग्दृष्टि होना चाहिए और फिर स्वयं चरणानुयोग के अनुसार सच्चे व्रतादि धारण करके व्रती होना चाहिए।

इस प्रकार मुख्यता से तो निचली दशा में ही द्रव्यानुयोग कार्यकारी है। यथार्थ अभ्यास के परिणामस्वरूप विपरीतता को दूर होने पर निम्न प्रकार यथार्थतया मानता है –

(आधुनिक हिन्दी मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २९३)

(१) एक द्रव्य, उसके गुण या पर्याय दूसरे द्रव्य, उसके गुण या पर्याय में कुछ भी नहीं कर सकते। प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने कारण से अपनी पर्याय धारण करता है। विकारी अवस्था के समय परद्रव्य निमित्तरूप अर्थात् उपस्थित तो होता है किन्तु वह किसी अन्य द्रव्य में विक्रिया (कुछ भी) नहीं कर सकता।

(श्री समयसार गाथा ३७३ से ३८२ टीका, पृष्ठ ५१५)

प्रत्येक द्रव्य में अगुरुलघुत्व नामक गुण है, इसलिए वह द्रव्य अन्यरूप नहीं होता, एक गुण दूसरे रूप नहीं होता और एक पर्याय दूसरे रूप नहीं होती। एक द्रव्य के गुण या पर्याय उस द्रव्य से पृथक् नहीं हो सकते। इस प्रकार जो अपने क्षेत्र से अलग नहीं हो सकते और पर द्रव्य में नहीं जा सकते, तब फिर वे उसका क्या कर सकते हैं? कुछ भी नहीं। एक द्रव्य, गुण या पर्याय दूसरे द्रव्य की पर्याय में कारण नहीं होते, इसी प्रकार वे दूसरे का कार्य भी नहीं होते। ऐसी अकारणकार्यत्वशक्ति प्रत्येक द्रव्य में विद्यमान है। इस प्रकार समझ लेने पर कारणविपरीतता दूर हो जाती है।

(२) प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है । जीवद्रव्य चेतनागुणस्वरूप है, पुद्गलद्रव्य स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण स्वरूप है। जब तक जीव ऐसी विपरीत पकड़ पकड़े रहता है कि 'मैं पर का, कुछ कर सकता हूँ और पर मेरा कुछ कर सकता है तथा शुभ विकल्प से लाभ होता है, तब तक उसकी अज्ञानरूप पर्याय बनी रहती है। जब जीव यथार्थ को समझता है अर्थात् सत् को समझता है, तब यथार्थ मान्यतापूर्वक उसे सच्चा ज्ञान होता है। अन्य चार द्रव्य (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल) अरूपी हैं, उनकी कभी अशुद्ध अवस्था नहीं होती। इस प्रकार समझ लेने पर स्वरूपविपरीतता दूर हो जाती है।

(३) परद्रव्य, जड़कर्म और शरीर से जीव त्रिकाल भिन्न है। जब वे एकक्षेत्रावगाहसम्बन्ध से रहते हैं, तब भी जीव के साथ एक नहीं हो सकते। एक द्रव्य के द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव दूसरे द्रव्य में नास्तिरूप हैं; क्योंकि दूसरे द्रव्य से वह द्रव्य चारों प्रकार से भिन्न है। प्रत्येक द्रव्य स्वयं अपने गुण से अभिन्न है, क्योंकि उससे वह द्रव्य कभी पृथक् नहीं हो सकता। इस प्रकार समझ लेने पर भेदाभेदविपरीतता दूर हो जाती है।

सत् - त्रिकाल टिकनेवाला, सत्यार्थ, परमार्थ, भूतार्थ, निश्चय, शुद्ध यह सब एकार्थवाचक शब्द हैं। जीव का ज्ञायकभाव त्रैकालिक अखण्ड है; इसलिए वह सत्, सत्यार्थ, परमार्थ, भूतार्थ, निश्चय और शुद्ध है। इस दृष्टि को द्रव्यदृष्टि, वस्तुदृष्टि, शिवदृष्टि, तत्त्वदृष्टि और कल्याणकारी दृष्टि भी कहते हैं।

असत् - क्षणिक, अभूतार्थ, व्यवहार, भेद, पर्याय, भङ्ग, अविद्यमान, जीव में होनेवाला विकारभाव असत् है, क्योंकि वह क्षणिक है और टालने पर टाला जा सकता है।

जीव अनादि काल से इस असत् विकारी भाव पर दृष्टि रख रहा है, इसलिए उसे पर्यायबुद्धि, व्यवहारविमूढ़, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, मोही और मूढ़ भी कहा जाता है। अज्ञानी जीव इस असत् क्षणिक भाव को अपना मान रहा है अर्थात् वह असत् को सत् मान रहा है; इसलिए इस भेद को जानकर जो असत् को गौण करके सत्स्वरूप पर भार देकर अपने ज्ञायक -स्वभाव की ओर उन्मुख होता है, वह मिथ्याज्ञान को दूर करके सम्यग्ज्ञान प्रगट करता है; उसकी उन्मत्तता दूर हो जाती है।

विपर्यय - भी दो प्रकार का है, सहज और आहार्य।

(१) सहज - जो स्वत: अपनी भूल से अर्थात् परोपदेश के बिना विपरीतता उत्पन्न होती है।

(२) आहार्य - दूसरे के उपदेश से ग्रहण की गई विपरीतता । यह श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा होनेवाले कुमतिज्ञानपूर्वक ग्रहण किया गया कुश्रुतज्ञान है।

शङ्का - दया धर्म के जाननेवाले जीवों के भले ही आत्मा की पहचान न हो, तथापि उन्हें दया धर्म की श्रद्धा तो होती ही है, तब फिर उनके ज्ञान को अज्ञान (मिथ्याज्ञान) कैसे माना जा सकता है?

समाधान - दया धर्म के ज्ञाताओं में भी आप्त. आगम और पदार्थ (नव तत्त्वों) की यथार्थ श्रद्धा से रहित जो जीव हैं, उनके दयाधर्म आदि में यथार्थ श्रद्धा होने का विरोध है; इसलिए उनका ज्ञान अज्ञान ही है। ज्ञान का जो काय होना चाहिए, वह न हो तो वहाँ ज्ञान को अज्ञान मानने का व्यवहार लोक में प्रसिद्ध है, क्योंकि पुत्र का कार्य न करनेवाले पुत्र को भी लोक में कुपुत्र कहने का व्यवहार देखा जाता है।

शङ्का - ज्ञान का कार्य क्या है?

समाधान - जाने हुए पदार्थ की श्रद्धा करना ज्ञान का कार्य है। ऐसे ज्ञान का कार्य मिथ्यादृष्टि जीव में नहीं होता, इसलिए उसके ज्ञान को अज्ञान कहा है।

[श्री धवला पुस्तक ५, पृष्ठ २२४ व पुस्तक १, पृष्ठ ३५३]

विपर्यय में संशय और अनध्यवसाय का समावेश हो जाता है - यह ३१वें सूत्र की टीका में कहा है। इसी सम्बन्ध में यहाँ कुछ बताया जाता है –

१- कुछ लोगों को यह संशय होता है कि धर्म या अधर्म कुछ होगा या नहीं?

२- कुछ लोगों को सर्वज्ञ के अस्तित्व-नास्तित्व का संशय होता है।

३- कुछ लोगों को परलोक के अस्तित्व-नास्तित्व का संशय होता है।

४- कुछ लोगों को अनध्यवसाय (अनिर्णय) होता है। वे कहते हैं कि हेतुवादरूप तर्कशास्त्र है, इसलिए उससे कुछ निर्णय नहीं हो सकता और जो आगम है, सो वे भिन्न-भिन्न प्रकार से वस्तु का स्वरूप बतलाते हैं, कोई कुछ कहता है और कोई कुछ, इसलिए उनकी परस्पर बात नहीं मिलती।

५- कुछ लोगों को ऐसा अनध्यवसाय होता है कि कोई ज्ञाता सर्वज्ञ अथवा कोई मुनि या ज्ञानी प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता कि जिसके वचनों को हम प्रमाण मान सकें और धर्म का स्वरूप अति सूक्ष्म है, इसलिए कैसे निर्णय हो सकता है? इसलिए 'महाजनो येन गतः स पन्थाः' अर्थात् बड़े आदमी जिस मार्ग से जाते हैं, उसी मार्ग पर हमें चलना चाहिए।

६- कुछ लोग वीतराग धर्म का लौकिक वादों के साथ समन्वय करते हैं । वे शुभभावों के वर्णन में कुछ समानता देखकर जगत में चलनेवाली सभी धार्मिक मान्यताओं को एक मान बैठते हैं। (यह विपर्यय है।)

७- कुछ लोग यह मानते हैं कि मन्दकषाय से धर्म (शुद्धता) होता है, (यह भी विपर्यय है।)

८- कुछ लोग ईश्वर के स्वरूप को इस प्रकार विपर्यय मानते हैं कि इस जगत को किसी ईश्वर ने उत्पन्न किया है और वह उसका नियामक है।

इस प्रकार संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय अनेक प्रकार से मिथ्याज्ञान में होते हैं; इसलिए सत् और असत् का यथार्थ भेद समझकर, स्वच्छन्दतापूर्वक की जानेवाली कल्पनाओं और उन्मत्तता को दूर करने के लिए यह सूत्र कहते हैं। [मिथ्यात्व को उन्मत्तता कहा है, क्योंकि मिथ्यात्व से अनन्त पापों का बन्ध होता है, जिसका ध्यान जगत को नहीं है।] प्रमाण का स्वरूप कहा गया, अब श्रुतज्ञान के अंशरूप नय का स्वरूप कहते हैं –

नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढेवंभूता नयाः

अर्थ - [नैगम ] नैगम [संग्रह] संग्रह [व्यवहार ] व्यवहार [ ऋजुसूत्र ] ऋजुसूत्र [शब्द ] शब्द [ समभिरूढ] समभिरूढ़ [एवंभूता] एवंभूत - यह सात [ नयाः] नय [Viewpoints] हैं।

टीका- वस्तु के अनेक धर्मों में से किसी एक की मुख्यता करके अन्य धर्मों का विरोध किए बिना उन्हें गौण करके साध्य को जानना, सो नय है।

प्रत्येक वस्तु में अनेक धर्म रहे हुए हैं, इसलिए वह अनेकान्तस्वरूप है। [ अन्त' का अर्थ 'धर्म' होता है] अनेकान्तस्वरूप समझाने की पद्धति को 'स्याद्वाद' कहते हैं। स्याद्वाद द्योतक है, अनेकान्त द्योत्य है। स्यात्' का अर्थ 'कथञ्चित्' होता है, अर्थात् किसी यथार्थ प्रकार की विवक्षा का कथन स्याद्वाद है। अनेकान्त का प्रकाश करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया आता है।

हेतु और विषय की सामर्थ्य की अपेक्षा से प्रमाण से निरूपण किए गए अर्थ के एक देश को कहना, सो नय है। उसे 'सम्यक्-एकान्त' भी कहते हैं। श्रुतप्रमाण दो प्रकार का है

स्वार्थ और परार्थ। उस श्रुतप्रमाण का अंश नय है। शास्त्र का भाव समझने के लिए नयों का स्वरूप समझना आवश्यक है, सात नयों का स्वरूप निम्नप्रकार है-

१- नैगमनय - जो भूतकाल की पर्याय में वर्तमानवत् सङ्कल्प करे अथवा भविष्य की पर्याय में वर्तमानवत् सङ्कल्प करे तथा वर्तमान पर्याय में कुछ निष्पन्न (प्रगटरूप) है और कुछ निष्पन्न नहीं है, उसका निष्पन्नरूप सङ्कल्प करे, उस ज्ञान को तथा वचन को नैगमनय कहते हैं। [Figurative]

२- संग्रहनय - जो समस्त वस्तुओं को तथा समस्त पर्यायों को संग्रहरूप करके जानता है तथा कहता है, सो संग्रहनय है। जैसे सत् द्रव्य, इत्यादि [General, Common]

३- व्यवहारनय - अनेक प्रकार के भेद करके व्यवहार करे या भेदे, सो व्यवहारनय है। जो संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किए हुए पदार्थ को विधिपूर्वक भेद करे, सो व्यवहार है। जैसे सत् के दो प्रकार हैं - द्रव्य और गुण । द्रव्य के छह भेद हैं - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । गुण के दो भेद हैं - सामान्य और विशेष । इस प्रकार जहाँ तक भेद हो सकते हैं, वहाँ तक यह नय प्रवृत्त होता है। [Distributive]

४- ऋजुसूत्रनय - [ऋजु अर्थात् वर्तमान, उपस्थित, सरल] जो ज्ञान का अंश वर्तमान पर्याय मात्र को ग्रहण करे, सो ऋजुसूत्रनय है। [Present condition]

५- शब्दनय - जो नय लिङ्ग, संख्या, कारक आदि के व्यभिचार को दूर करता है, सो शब्दनय है। यह नय लिङ्गादि के भेद से पदार्थ को भेदरूप ग्रहण करता है; जैसे दार (पु०) भार्या (स्त्री) कलत्र (न०), यह दार, भार्या और कलत्र तीनों शब्द भिन्न लिङ्गवाले होने से यद्यपि एक ही पदार्थ के वाचक हैं, तथापि यह नय स्त्री पदार्थ को लिङ्ग के भेद से तीन भेदरूप जानता है। [Descriptive]

६- समभिरूढ़नय - (१) जो भिन्न-भिन्न अर्थों का उल्लंघन करके एक अर्थ को रूढ़ि से ग्रहण करे। जैसे गाय [Usage] (२) जो पर्याय के भेद से अर्थ को भेदरूप ग्रहण करे। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर; यह तीनों शब्द इन्द्र के नाम हैं, किन्तु यह नय तीनों का भिन्न-भिन्न अर्थ करता है। [Specific]

७- एवंभूतनय - जिस शब्द का जिस क्रियारूप अर्थ है, उस क्रियारूप परिणमित होनेवाले पदार्थ को जो नय ग्रहण करता है, उसे एवंभूतनय कहते हैं। जैसे पुजारी को पूजा करते समय ही पुजारी कहना। [Active]

पहले तीन भेद द्रव्यार्थिकनय के हैं। उसे सामान्य, उत्सर्ग अथवा अनुवृत्ति नाम से भी कहा जाता है।

बाद के चार भेद पर्यायार्थिकनय के हैं। उसे विशेष, अपवाद अथवा व्यावृत्ति नाम से कहते हैं।

पहले चार नय अर्थनय हैं और बाद के तीन शब्दनय हैं।

पर्याय के दो भेद हैं-(१) सहभावी - जिसे गुण कहते हैं, (२) क्रमभावी - जिसे पर्याय कहते हैं।

द्रव्य नाम वस्तुओं का भी है और वस्तुओं के सामान्यस्वभावमय एक स्वभाव का भी है। जब द्रव्य प्रमाण का विषय होता है, तब उसका अर्थ वस्तु (द्रव्य-गुण और तीनों काल की पर्याय सहित) करना चाहिए। जब नयों के प्रकरण में द्रव्यार्थिक का प्रयोग होता है तब 'सामान्यस्वभावमय एक स्वभाव' (सामान्यात्मक धर्म) अर्थ करना चाहिए। द्रव्यार्थिक में निम्न प्रकार तीन भेद होते हैं

१- सत् और असत् पर्याय के स्वरूप में प्रयोजनवश परस्पर भेद न मानकर दोनों को वस्तु का स्वरूप मानना, सो नैगमनय है।

२- सत् के अन्तर्भेदों में भेद न मानना, सो संग्रहनय है।

३- सत् में अन्तर्भेदों का मानना, सो व्यवहारनय है। नय के ज्ञाननय, शब्दनय और अर्थ (धर्म) नय - ऐसे भी तीन प्रकार होते हैं।

(१) वास्तविक प्रमाणज्ञान है और जब वह एकदेशग्राही होता है, तब उसे नय कहते हैं, इसलिए ज्ञान का नाम नय है और उसे ज्ञाननय कहा जाता है।

(२) ज्ञान के द्वारा जाने गये पदार्थ का प्रतिपादन शब्द के द्वारा होता है, इसलिए उस शब्द को शब्दनय कहते हैं।

(३) ज्ञान का विषय पदार्थ है, इसलिए नय से प्रतिपादित किये जानेवाले पदार्थ को भी नय कहते हैं, यह अर्थनय है।

(श्री स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २६४-२६५, पृष्ठ १८९-१९०, संस्कृत टीका एवं हिन्दी टीका, श्रीमद राजचन्द्र शास्त्रमाला)

आत्मा के सम्बन्ध में इन सात नयों को श्रीमद् राजचन्द्रजी ने निम्नलिखित चौदह प्रकार से अवतरित किए हैं। वे साधक को उपयोगी होने से यहाँ अर्थ सहित दिए जाते हैं।

१- एवंभूतदृष्टि से ऋजुसूत्र स्थिति कर = पूर्णता के लक्ष्य से प्रारम्भ कर।

२- ऋजुसूत्रदृष्टि से एवंभूत स्थिति कर = साधकदृष्टि के द्वारा साध्य में स्थिति कर।

३- नैगमदृष्टि से एवंभूत प्राप्त कर = तू पूर्ण है-ऐसी सङ्कल्पदृष्टि से पूर्णता को प्राप्त कर।

४- एवंभूतदृष्टि से नैगम विशुद्ध कर = पूर्णदृष्टि से अव्यक्त अंश विशुद्ध कर।

५- संग्रहदृष्टि से एवंभूत हो = त्रैकालिक सत्दृष्टि से पूर्ण शुद्धपर्याय प्रगट कर।

६- एवंभूतदृष्टि से संग्रह विशुद्ध कर = निश्चयदृष्टि से सत्ता को विशुद्ध कर।

७- व्यवहारदृष्टि से एवंभूत के प्रति जा = भेददृष्टि छोड़कर अभेद के प्रति जा।

८- एवंभूतदृष्टि से व्यवहार निवृत्ति कर = अभेददृष्टि से भेद को निवृत्त कर।

९- शब्ददृष्टि से एवंभूत के प्रति जा = शब्द के रहस्यभूत पदार्थ की दृष्टि से पूर्णता के प्रति जा।

१०- एवंभूतदृष्टि से शब्द निर्विकल्प कर = निश्चयदृष्टि से शब्द के रहस्यभूत पदार्थ में निर्विकल्प हो।

११- समभिरूढ़दृष्टि से एवंभूत को देख = साधक अवस्था के आरूढ़भाव से निश्चय को देख।

१२- एवंभूतदृष्टि से समभिरूढ़ स्थिति कर = निश्चयदृष्टि से समस्वभाव के प्रति आरूढ़ स्थिति कर।

१३- एवंभूतदृष्टि से एवंभूत हो = निश्चयदृष्टि से निश्चयरूप हो।

१४- एवंभूत स्थिति से एवंभूतदृष्टि को शमित कर = निश्चय स्थिति से निश्चयदृष्टि के विकल्प को शमित कर दे।

वास्तविक भाव लौकिक भावों से विरुद्ध होते हैं

प्रश्न - यदि व्यवहारनय से अर्थात् व्याकरण के अनुसार जो प्रयोग (अर्थ) होता है, उसे आप शब्दनय से दूषित कहेंगे तो लोक और शास्त्र में विरोध आएगा।

उत्तर - लोक न समझें इसलिए विरोध भले करें, यहाँ यथार्थ स्वरूप (तत्त्व) का विचार किया जा रहा है - परीक्षा की जा रही है। औषधि रोगी की इच्छानुसार नहीं होती। [सर्वार्थसिद्धि, पृष्ठ ५३४] जगत रोगी है, ज्ञानीजन उसी के अनुकूल (रुचिकर) तत्त्व का स्वरूप (औषधि) नहीं कहते, किन्तु वे वही कहते हैं जो यथार्थ स्वरूप होता है ॥३३॥

पाँच प्रकार से जैनशास्त्रों के अर्थ समझने की रीति

प्रत्येक वाक्य का पाँच प्रकार से अर्थ करना चाहिएशब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ और भावार्थ । 'परमात्मा को नमस्कार' इस वाक्य का यहाँ पाँच प्रकार से अर्थ किया जाता है

(१) शब्दार्थ - 'जो ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा कर्मकलङ्क को भस्म करके शुद्ध नित्य निरञ्जन ज्ञानमय हुए हैं, उन परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ।' यह परमात्मा को नमस्कार का शब्दार्थ हुआ।

(२) नयार्थ - शुद्ध निश्चयनय से आत्मा परमानन्दस्वरूप है। पूर्णशुद्धता प्रगट हुई, वह सद्भूत व्यवहारनय का विषय है। कर्म दूर हुए, वह असद्भूत अनुपचरित व्यवहारनय का विषय है। इस प्रकार प्रत्येक स्थान पर नय से समझना चाहिए। यदि नयों के अभिप्राय को न समझे तो वास्तविक अर्थ समझ में नहीं आता। यथार्थ ज्ञान में साधक के सुनय होते ही हैं।

'ज्ञानावरणीय कर्म ने ज्ञान को रोका' - ऐसा वाक्य हो, वहाँ 'ज्ञानावरणीय नाम का जड़ कर्म ज्ञान को रोकता है', ऐसा कहना दो द्रव्यों का सम्बन्ध बतलानेवाला व्यवहारनय का कथन है, सत्यार्थ नहीं है।

शास्त्रों के सच्चे रहस्य को खोलने के लिये नयार्थ होना चाहिए। नयार्थ को समझे बिना चरणानुयोग का कथन भी समझ में नहीं आता। जहाँ गुरु का उपकार मानने का कथन आए, वहाँ समझना चाहिए कि गुरु परद्रव्य है, इसलिए वह व्यवहार का कथन है और वह असद्भूत-उपचरित व्यवहारनय है । परमात्मप्रकाश गाथा ७ तथा १४ के अर्थ में बताया गया है कि असद्भूत का अर्थ 'मिथ्या' होता है।

चरणानुयोग में जहाँ परद्रव्य छोड़ने की बात आए, वहाँ समझना चाहिए कि वहाँ राग को छुड़ाने के लिए व्यवहारनय का कथन है। प्रवचनसार में शुद्धता और शुभराग की मित्रता कही है, किन्तु वास्तव में वहाँ उनके 'मित्रता' नहीं है, राग तो शुद्धता का शत्रु ही है, किन्तु चरणानुयोग के शास्त्र में वैसा कहने की पद्धति है और वह व्यवहारनय का कथन है। अशुभ से बचने के लिए शुभराग निमित्तमात्र मित्र कहा है। उसका भावार्थ तो यह है कि वह वास्तव में वीतरागता का शत्रु है, किन्तु निमित्त बताने के लिये व्यवहारनय द्वारा ऐसा ही कथन होता है।

(३) मतार्थ - दूसरे विरुद्ध मत किस प्रकार से मिथ्या हैं, उसका वर्णन करना, सो मतार्थ है। चरणानुयोग में कहे हुए व्यवहारव्रतादि करने से धर्म हो, ऐसी मान्यतावाले अन्यमत हैं; जैनमत नहीं है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भावपाहुड़ गाथा ८३ में कहा है कि 'पूजादिक में और व्रतादि सहित होय सो तो पुण्य है और मोह-क्षोभ रहित आत्मा का परिणाम, सो धर्म है। लौकिक जन-अन्यमति कई कहै हैं जो पूजा आदिक शुभ क्रिया में और व्रतक्रिया सहित है, सो जिनधर्म है, सो ऐसे नहीं है।'

यहाँ बौद्ध, वेदान्त, नैयायिक इत्यादि में जो एकान्त मान्यता है और जिनमत में रहनेवाले जीव में भी जिस प्रकार की विपरीत-एकान्त-मान्यता चल रही हो, वह भूल बताकर उस भूलरहित सच्चा अभिप्राय बतलाना, सो मतार्थ है।

(५) आगमार्थ - जो सत् शास्त्र में (सिद्धान्त में) कहा हो, उसके साथ अर्थ को मिलाना, सो आगमार्थ है। सिद्धान्त में जो अर्थ प्रसिद्ध हो, वह आगमार्थ है।

(६) भावार्थ - तात्पर्य अर्थात् इस कथन का अन्तिम अभिप्राय-सार क्या है? कि परमात्मारूप वीतरागी त्रिकाली आत्मद्रव्य ही उपादेय है, इसके अतिरिक्त कोई निमित्त या किसी प्रकार का राग-विकल्प उपादेय नहीं है। यह सब तो मात्र जाननेयोग्य है, एक परमशुद्ध स्वभाव ही आदरणीय है। भावनमस्काररूप पर्याय भी निश्चय से आदरणीय नहीं है, इस प्रकार परम शुद्धात्मस्वभाव को ही उपादेयरूप से अङ्गीकार करना, सो भावार्थ है।

यह पाँच प्रकार से शास्त्रों का अर्थ करने की बात समयसार, पञ्चास्तिकाय, वृहद द्रव्यसंग्रह, परमात्मप्रकाश की टीका में है।

यदि किसी शास्त्र में यह न कही हो तो भी प्रत्येक शास्त्र के प्रत्येक कथन में इन पाँच प्रकार से अर्थ करके उसका भाव समझना चाहिए।

नय का स्वरूप संक्षेप में निम्न प्रकार है-

सम्यग्नय सम्यक् श्रुतज्ञान का अवयव है और इससे वह परमार्थ से ज्ञान का (उपयोगात्मक) अंश है और उसके शब्दरूप कथन को मात्र उपचार से नय कहा है।

इस विषय में श्री धवला टीका में कहा है कि -

शङ्का - नय किसे कहते हैं?

समाधान - ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं।

शङ्का - 'अभिप्राय' का क्या अर्थ है?

समाधान - प्रमाण से गृहीत वस्तु के एकदेश में वस्तु का निश्चय ही अभिप्राय है।

युक्ति अर्थात् प्रमाण से अर्थ के ग्रहण करने अथवा द्रव्य और पर्याय में से किसी एक को अर्थरूप से ग्रहण करने का नाम नय है। प्रमाण से जानी हुई वस्तु के द्रव्य अथवा पर्याय में वस्तु के निश्चय करने को नय कहते हैं, यह इसका अभिप्राय है।

(धवला टीका पुस्तक ६, पृष्ठ १६२-१६३)

'प्रमाण और नय से वस्तु का ज्ञान होता है, इस सूत्र द्वारा भी यह व्याख्यान विरुद्ध नहीं पड़ता, इसका कारण यह है कि प्रमाण और नय से उत्पन्न वाक्य भी उपचार से प्रमाण और नय है।'

(धवला टीका पुस्तक ६, पृष्ठ १६४)

[यहाँ श्री वीरसेनाचार्य ने वाक्य को उपचार से नय कहकर ज्ञानात्मक नय को परमार्थ से नय कहा है।]

पञ्चाध्यायी में भी नय के दो प्रकार माने हैं-

द्रव्यनयो भावनय: स्यादिति भेदाद्विधा च सोऽपि यथा।
पौद्गलिकः किल शब्दो द्रव्यं भावश्च चिदिति जीवगुणः ॥५०५॥

अर्थ - 'वह नय भी द्रव्यनय और भावनय इस प्रकार के भेद से दो प्रकार का है। जैसे कि वास्तव में पौद्गलिक शब्द द्रव्यनय कहलाता है तथा जीव का गुण जो चैतन्य है, वह भावनय कहलाता है अर्थात् नय ज्ञानात्मक और वचनात्मक के भेद से दो प्रकार का है। उनमें वचनात्मक नय द्रव्यनय तथा ज्ञानात्मक नय भावनय कहलाता है।'

स्वामी कार्तिकेय विरचित द्वादशानुप्रेक्षा में नय के तीन प्रकार कहे हैं। अब वस्तु के धर्म को, उसके वाचक शब्द को और उसके ज्ञान को नय कहते हैं-

'सो चिय इक्को धम्मो, वाचय सद्दो वि तस्स धम्मस्स।
तं जाणदि तं णाणं, ते तिण्णि वि णय विसेसा य॥२६५॥'

अर्थ - जो वस्तु का एक धर्म, उस धर्म का वाचक शब्द और उस धर्म को जाननेवाला ज्ञान, ये तीनों ही नय के विशेष हैं।

भावार्थ- वस्तु का ग्राहक ज्ञान, उसका वाचक शब्द और वस्तु, इनको जैसे प्रमाणस्वरूप कहते हैं, वैसे ही नय भी कहते हैं।

(पाटनी ग्रन्थमाला से प्र० कार्तिकेयानुप्रेक्षा, पृष्ठ १७०)

'सुयणाणस्स, वियप्पो, सो विणओ' श्रुतज्ञान के विकल्प (भेद) को नय कहा है।

(कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २६३)

जैन नीति अथवा नय-विवक्षा

एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तु तच्चमितरेण।
अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ॥२२५॥

(पुरुषार्थसिद्धयुपाय)

अर्थ - मथानी को खींचनेवाली ग्वालिन की तरह जिनेन्द्र भगवान की जो नीति अर्थात् नय-विवक्षा है, वह वस्तुस्वरूप को एक नय-विवक्षा से खींचती हुई तथा दूसरी नय-विवक्षा से ढीली करती हुई अन्त अर्थात् दोनों विवक्षाओं से जयवन्त रहे।

भावार्थ - भगवान् की वाणी स्याद्वादरूप अनेकान्तात्मक है। वस्तु का स्वरूप मुख्य तथा गौण नय की विवक्षा से ग्रहण किया जाता है। जैसे जीवद्रव्य नित्य भी है और अनित्य भी है, द्रव्यार्थिकनय की विवक्षा से नित्य है तथा पर्यायार्थिकनय की विवक्षा से अनित्य है। यही नय-विवक्षा है।

(जिनवाणी प्रचारक कार्यालय कलकत्ता से प्रकाशित श्री अमृतचन्द्राचार्यकृत पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, पृष्ठ १२३)

यह श्लोक सूचित करता है कि शास्त्र में कहीं पर निश्चयनय की मुख्यता से कथन है और कहीं पर व्यवहारनय की मुख्यता से कथन है, परन्तु उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि धर्म किसी समय तो व्यवहारनय (अभूतार्थनय) के आश्रय से होता है और किसी समय निश्चयनय (भूतार्थनय) के आश्रय से होता है, परन्तु धर्म तो हमेशा निश्चयनय अर्थात् भूतार्थनय के ही आश्रय से होता है (अर्थात् भूतार्थनय के अखण्ड विषयरूप निजशुद्धात्मा के आश्रय से ही धर्म होता है।) ऐसा न्याय पुरुषार्थसिद्धियुपाय के ५वें श्लोक में तथा श्री कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रन्था गाथा ३११-१२ के भावार्थ में दिया गया है। इसलिए इस श्लोक नं २२५ का अन्य प्रकार अर्थ करना ठीक नहीं है।