।। काकन्दी तीर्थ ।।

६. तीर्थंकर पुष्पदंत जन्मभूमि

जैनधर्म के नवमें तीर्थंकर ‘‘श्री पुष्पदन्तनाथ’’ के जन्म से पवित्र काकन्दी नगरी वर्तमान में ‘‘खुखुन्दू’’ नाम से भी प्रसिद्ध है। पूर्वी उत्तरप्रदेश में गोरखपुर के निकट देवरिया जिले में ‘‘खुखुन्दू’’ नाम का एक कस्बा है। जैन परम्परा में अत्यन्त प्राचीन काल से ‘‘काकन्दी’’ का नाम बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है। यहाँ भगवान पुष्पदंत के गर्भ-जन्म कल्याणक तो हुए ही हैं तथा इसी नगर के पुष्पक वन में उनका दीक्षा कल्याणक भी हुआ था पुनः कभी किसी काल में यह पुष्पक वन ही ‘‘ककुभ’’ नाम से कहलाने लगा और एक अलग तीर्थधाम बन गया। धीरे-धीरे काल के थपेड़ों ने दोनों ही तीर्थों को खण्डहरों के रूप में परिवर्तित कर दिया जो प्राचीन संस्कृति को अपनी मूक वाणी में बतला रहे हैं।

जयरामा माता और सुग्रीव पिता के यहाँ काकन्दी नगरी में मगशिर शुक्ला प्रतिपदा को मूल नक्षत्र में भगवान पुष्पदन्तनाथ का जन्म हुआ। इन्द्रों ने वहाँ पन्द्रह माह तक रत्नवृष्टि की और उनका गर्भ-जन्म कल्याणक महोत्सव मनाया था। पुष्पक वन में दीक्षा के पश्चात् भी वर्णन आता है कि चार वर्षों के भ्रमण के पश्चात् वे पुनः विहार करते हुए काकन्दी के पुष्पक वन में पधारे थे और वहीं उन्हें ‘‘नागवृक्ष’’ के नीचे कार्तिक शुक्ला द्वितीया को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी अतः काकन्दी उनके चार कल्याणकों से परम पावन नगरी बन गई है। केवलज्ञान उत्पन्न होने पर इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने समवसरण की रचना की तब भगवान का प्रथम कल्याणकारी दिव्य उपदेश यहीं हुआ था। ककुभ ग्राम को भी वर्तमान में ‘‘कहाऊँ’’ नाम से जाना जाता है, आज काकन्दी यहाँ से १६ किमी. दूर है।

यहाँ पर लगभग १८०० वर्ष प्राचीन ३१ पुट ऊँचा एक मानस्तंभ बना हुआ है, जिसमें चारों ओर दिगम्बर जैन मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इसी स्थल को भगवान पुष्पदंतनाथ का दीक्षा एवं ज्ञानकल्याणक तीर्थ माना जाता है। कल्याणक भूमि होने के साथ-साथ यहाँ का एक प्राचीन इतिहास भी ग्रंथों में आता है कि यह महापुरुषों की उपसर्ग एवं निर्वाणभूमि भी है। भगवती आराधना (गाथा-१५५९) और आराधना कथा कोष (कथा ६७) के आधार पर ‘‘भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ’’ भाग-१ में काकन्दी नगरी के परिचय में अनेक ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख करते हुए यहाँ से संबंधित अभयघोष मुनिराज का कथानक भी प्रस्तुत किया है। जो निम्न प्रकार है-

अभयघोष काकन्दी के राजा थे। उन्होंने एक बार एक कछुए की चारों टाँगें तलवार से काट दीं जिससे वह तड़प-तड़प कर मर गया और कुछ पुण्यवश मरकर उनका ही पुत्र हो गया। कुछ दिनों बाद अभयघोष ने चन्द्र्रग्रहण देखकर मुनि दीक्षा ले ली। एक बार वे काकन्दी के उद्यान में तपस्या में लीन थे। उनका पुत्र चंडवेग भ्रमण करते हुए वहाँ से निकला। जैसे ही उसने मुनि अभयघोष को देखा, उसके मन में पूर्वजन्मसंबंधी संस्कारों के कारण क्रोध की अग्नि भड़क उठी। उसने अपने वैर का बदला चुकाने के लिए यह उपयुक्त अवसर समझा क्योंकि वह जानता था कि ध्यान के समय मुनिराज किसी अत्याचार का प्रतीकार तो करेंगे नहीं। उसने तीक्ष्ण धार वाले शस्त्रों से निर्दयतापूर्वक उनके हाथ-पैर आदि अंगों को काटना प्रारंभ कर दिया। ध्यानलीन मुनिराज आत्मनिष्ठ थे, इस उपसर्ग को उन्होंने तीव्र वैराग्य भाव से सहन किया और धर्मध्यान से शुक्लध्यान अवस्था में आकर चार घातिया कर्मों को नष्ट कर वैâवल्य अवस्था प्राप्त कर ली। अन्तकृत्केवली बनकर अभयघोष मुनिराज ने काकन्दी के उद्यान से मोक्षधाम को प्राप्त किया इसलिए यह नगरी ‘‘सिद्धक्षेत्र’’ के रूप में भी जानी जाती है। उक्त विषयक यहाँ विभिन्न ग्रंथों के उदाहरण प्रस्तुत हैं-

काइंदि अभयघोसो विचंडवेगेण छिण्णसव्वंगो।
तं वेयणमधियासिय पडिवण्णो उत्तमं अट्ठं।।१५५९।।

अर्थात् काकन्दी नाम नगरी विषै अभयघोष नामा मुनिहू चंडवेग नाम कोऊ वैरीकरि सर्व अंग छेद्या हुवा तिस घोर वेदना वूँâ प्राप्त होय करिके उत्तम अर्थ जो रत्नत्रय तावूं प्राप्त होत भया। इसी प्रकार मरणवंâडिका में वर्णन आया है-

कावंद्यां चंडवेगेन छिन्ननिःशेष विग्रह:।
विषह्याभयघोषोऽपि पीडामाराधनां गतः।।१६२८।।

अर्थ-कावंदी नगरी में चंडवेग नामके दुष्ट व्यक्ति द्वारा सारा शरीर बाणों से घायल होने पर भी अभयघोष नाम के यतिराज ने उस उग्र पीड़ा को सहनकर आराधना को प्राप्त किया। वृहत् समाधिमरण में भी लिखा है-

अभयघोष मुनि काकन्दीपुर महावेदना पाई।
वैरीचण्ड ने सब तन छेद्यो दुःख दीना अधिकाई।।
यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता आराधन चितधारी।
तो तुमरे जिय कौन दुःख है मृत्यु महोत्सव भारी।।

ये सभी प्रमाण काकन्दी नगरी को सिद्धक्षेत्र की संज्ञा प्राप्त कराने में हेतु हैं। वर्तमान में वहाँ खेतों के बीच में एक प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर बना हुआ है। लोगों का विश्वास है कि भगवान पुष्पदंतनाथ का जन्म यहीं हुआ था। मैंने काकन्दी तीर्थ का प्रत्यक्ष दर्शन तो नहीं किया है किन्तु विद्वानों के द्वारा लिखित इतिहास से ज्ञात होता है कि मंदिर में एक वेदी है जो चार स्तम्भों पर मण्डपनुमा बनी हुई है। वहाँ एक शिलाफलक में भगवान नेमिनाथ की कृष्ण पाषाण की पद्मासन प्रतिमा विराजमान थी, जो यहाँ की मूलनायक प्रतिमा कहलाती थी। इसके अतिरिक्त एक श्वेत पाषाण की ११ इंच ऊँची पद्मासन प्रतिमा भगवान पुष्पदंतनाथ की विक्रम संवत् १५४८ की थी, इसी प्रकार से कुछ तीर्थंकर प्रतिमाएँ और यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियाँ भी विराजमान थीं, ये सभी प्रतिमाएँ कुछ वर्षों पूर्व चोरी चली गर्इं।

अन्य तीर्थों की अपेक्षा अभी यह तीर्थ बिल्कुल उपेक्षित था जिसके जीर्णोद्धार एवं विकास की आवश्यकता को देखकर संयोग से उसी आवश्यकता की पूर्ति भी पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के माध्यम से हुई अत: अब निश्चित ही यह काकन्दी तीर्थ प्राचीन जन्मभूमि तीर्थ के रूप में निखर कर विश्व के समक्ष अपनी दिव्य प्रभा प्रसारित करेगा। कावंदी में अब एक सुन्दर कलात्मक विशाल जिनमंदिर का निर्माण हुआ है, उसमें ९ पुट उत्तुंग ग्रेनाइट पाषाण की सुन्दर प्रतिमा भगवान पुष्पदंतनाथ की विराजमान हुई हैं तथा कीर्तिस्तंभ का नवनिर्माण करके उसमें ८ प्रतिमाएँ विराजमान की गई हैं। इन सभी की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा दिनाँक १७ से २१ जून २०१० (ज्येष्ठ शु. षष्ठी से दशमी तक) सम्पन्न हो चुकी है।

अन्त में पावन तीर्थ काकन्दी एवं वहाँ जन्में भगवान पुष्पदंतनाथ के चरणों में शतश: नमन करते हुए उसके निरन्तर विकास की मंगल कामना है।