|| श्री भक्तामर विधान - Shri Bhaktamar Vidhan ||
jain temple415
मंगलाचरण


शेरछंद
जय जय प्रथम तीर्थेश की मैं वंदना करूँ।
जय जय प्रभो वृषभेश की मैं अर्चना करूँ।।
जय जय जगत जिनेश से अभ्यर्थना करूँ।
मैं कर्मशत्रु जीत के मुक्त्यंगना वरूँ।।१।।

इस कर्मभूमि में प्रथम अवतार लिया था।
षट्कर्म बताकर जगत् उद्धार किया था।।
स्वयमेव तो भव भोग से विरक्त हो गए।
शाश्वत निजात्म ध्यान में निमग्न हो गए।।२।।

उनका ही यशोगान आज भक्त कर रहे।
स्तोत्र के माध्यम से कंठ शुद्ध कर रहे।।
आचार्य मानतुंग की अमर हुई कृती।
जिस पाठ भक्तामर से की आदीश संस्तुती।।३।।

राजा ने बेड़ियों में मुनी को जकड़ दिया।
मुनिवर ने तभी आदिनाथ संस्तवन किया।।
कलिकाल में भी वैâसा चमत्कार हुआ था।
जिनदेव की भक्ती से बेड़ा पार हुआ था।।४।।

स्वयमेव बेड़ियों से मुक्त देखकर सभी।
आश्चर्यचकित हो गए राजा प्रजा सभी।।
नृप ने तभी मुनिवर से क्षमायाचना किया।
मुनिवर ने भक्तामर का सार भी बता दिया।।५।।

यह देशना मिली सदा जिनदेव को भजो।
सम्यक्त्व को धारण करो मिथ्यात्व को तजो।।
तब लोहशृंखला भी पुष्पहार बनेगी।
जिनभक्ति ही निजज्ञान का भंडार भरेगी।।६।।

पूजा हो भक्तामर की बड़े भक्तिभाव से।
करते अखण्ड पाठ भी समकित प्रभाव से।।
माहात्म्य भक्तामर का आज भी प्रसिद्ध है।
श्रद्धा से जो पढ़ ले इसे सब कार्यसिद्ध हैं।।७।।

।। इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।