जंबूद्वीप का संक्षिप्त अवलोकन

तीन सौ ग्यारह पर्वत कहाँ हैं - सुमेरु पर्वत विदेह के मध्य में है। छह कुलाचल-सात क्षेत्रों की सीमा करते हैं। चार गजदंत मेरु की विदिशा में हैं। सोलह वक्षार विदेह क्षेत्र में हैं। बत्तीस विजयार्ध बत्तीस विदेह देश में हैं और दो विजयार्ध, भरत और ऐरावत में एक-एक हैं अत: चौंतीस ाqवजयार्ध हैं। बत्तीस विदेह के ३२, भरत-ऐरावत के दो ऐसे चौंतीस वृषभाचल हैं। हैमवत, हरि तथा रम्यक और हैरण्यवत में एक-एक नाभिगिरि ऐसे चार नाभिगिरि हैं।सीता नदी के पूर्व-पश्चिम तट पर एक-एक ऐसे चार यमकगिरि हैं। देवकुरु-उत्तरकुरु में दो-दो तथा पूर्व-पश्चिम भद्रसाल में दो-दो ऐसे आठ दिग्गज पर्वत हैं। सीता-सीतोदा के बीच बीस सरोवरों में प्रत्येक सरोवर के दोनों तटों पर पाँच-पाँच होने से दो सौ कांचनगिरि हैं।

जंबूद्वीप की संपूर्ण नदियां कितनी हैं और कहाँ कहाँ हैं?

भरतक्षेत्र की गंगा-सिंधु २± इनकी सहायक नदियां २८०००±हैमवतक्षेत्र की रोहित-रोहितास्या २± इनकी सहायक नदियां ५६०००± हरिक्षेत्र की हरित्-हरिकांता २± इनकी सहायक १,१२०००± विदेहक्षेत्र की सीता-सीतोदा २± इनकी सहायक १,६८००० (८४०००²२) ± विभंगा नदी १२ ± इनकी सहायक ३,३६,००० (२८०००²१२) बत्तीस विदेह देशों की गंगा-सिंधु और रक्ता-रक्तोदा नाम की ६४± इनकी सहायक नदियां ८९६००० (१४०००²६४)। रम्यकक्षेत्र की नारी-नरकांता २ ± इनकी सहायक नदियां १,१२,०००± हैरण्यवत क्षेत्र की सुवर्णकूला २± इनकी सहायक ५६०००± ऐरावत क्षेत्र की रक्ता-रक्तोदा २± इनकी सहायक नदियां २८०००· १७,९२,०९०।

अर्थात् सम्पूर्ण जंबूद्वीप में सत्रह लाख, बानवे हजार, नब्बे नदियां हैं। इनमें विदेह की नदियां चौदह लाख, अठहत्तर हैं। सीता-सीतोदा की जो परिवार नदियाँ हैं, वे देवकुरु-उत्तरकुरु में ही बहती हैं। आगे पूर्वविदेह-पश्चिम विदेह में विभंगा तथा गंगा सिंधु और रक्ता-रक्तोदा हैं। जितनी परिवार नदियां हैं वे सभी अपने-अपने कुण्डों से उत्पन्न होती हैं।

चौंतीस कर्मभूमि

भरतक्षेत्र के आर्यखंड की एक कर्मभूमि, वैसे ही ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंड की एक कर्मभूमि तथा बत्तीस विदेहों के आर्यखंड की ३२ कर्मभूमि ऐसे चौंतीस कर्मभूमि हैं। इनमें से भरत-ऐरावत में षट्काल परिवर्तन होने से ये दो अशाश्वत कर्मभूमि हैं एवं विदेहों में सदा ही कर्मभूमि व्यवस्था होने से वे शाश्वत कर्मभूमि हैं।

छह भोगभूमि

हैमवत और हैरण्यवत में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है। वहाँ पर मनुष्यों की शरीर की ऊँचाई एक कोस है, एक पल्य आयु है और युगल ही जन्म लेते हैं युगल ही मरते हैं। दस प्रकार के कल्पवृक्षों से भोग सामग्री प्राप्त करते हैं।

हरिवर्ष क्षेत्र और रम्यक क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था है। वहाँ पर दो कोस ऊँचे, दो पल्य आयु वाले मनुष्य होते हैं। ये भी भोग सामग्री को कल्पवृक्षों से प्राप्त करते हैं। देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्र में उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था है। यहाँ पर तीन कोस ऊंचे, तीन पल्य की आयु वाले मनुष्य होते हैं। ये छहों भोगभूमियां शाश्वत हैं,यहाँ पर परिवर्तन कभी नहीं होता है।

जंबूवृक्ष-शाल्मलिवृक्ष - उत्तरकुरु में ईशान दिशा में जंबूवृक्ष एवं देवकुरु में नैऋत्य दिशा में शाल्मलिवृक्ष हैं।

चौंतीस आर्यखंड - एक भरत में, एक ऐरावत में और बत्तीस विदेहदेशों में बत्तीस ऐसे आर्यखंड चौंतीस हैं।

एक सौ सत्तर म्लेच्छखंड - भरत क्षेत्र के पाँच, ऐरावत क्षेत्र के पाँच और बत्तीस विदेह के प्रत्येक के पाँच-पाँच ५±५± (३२²५) ·१७० म्लेच्छ खंड हैं।

वेदी और वनखंड - जंबूद्वीप में ३११ पर्वत हैं,उनके आजू-बाजू या चारों तरफ मणिमयी वेदियां हैं और वनखंड हैं।

नब्बे कुंड प्रमुख हैं - गंगादि १४ नदियां जहां गिरती हैं वहाँ के १४, विभंगा नदियों की उत्पत्ति के १२, विदेह की गंगादि-रक्तादि ६४ नदियों की उत्पत्ति के ६४ ऐसे १४± १२± ६४·९० कुंड हैं। इनके चारों तरफ उतनी ही वेदी और वनखंड हैं।
२६ सरोवर हैं-कुलाचल के ६ ± सीता-सीतोदा के २०·२६। इनके चारों तरफ ही वनखंड हैं। जितनी नदियां हैं उनके दोनों पाश्र्व भागों में अर्थात् १७९२०९०²२ ·३५८४१८० मणिमयी वेदिका हैं और उतने ही वनखंड हैं।

इन वेदियों की ऊँचाई आधा योजन और विस्तार पाँच सौ धनुष प्रमाण है। सर्वत्र वनखंड आधा योजन चौड़े हैं।

जम्बूद्वीप में ५६८ कूट

उनका स्पष्टीकरण-

(१) हिमवान आदि छह कुलाचल के क्रमश:-
हिमवान -शिखरी पर्वत के ११±११
महाहिमवान -रुक्मी के ८±८
निषध -नील के ९±९
ये २२±१६±१८·५६ हैं।
(२) विदेह क्षेत्र के ३२ विजयार्ध एवं भरत-ऐरावत के २ ऐसे ३४ विजयार्ध पर्वत के ९-९ कूट ऐसे ३४²९·३०६ हैं।
(३) सोलह वक्षार पर्वत के ४-४ ऐसे १६²४·६४ हैं।
(४) चार गजदंत के क्रमश:-९±७±९±७ ऐसे ३२ हैं।
(५)' सुमेरुपर्वत के नंदनवन व सौमनसवन में ९±९ ऐसे १८ हैं।
(६) गंगा-सिंधु आदि चौदह नदियों के नीचे गिरने के स्थान पर १४ कूट हैं, जिन पर गंगा आदि देवियों के महल की छत पर जटाजूट सहित अकृत्रिम जिनप्रतिमाएँ हैं, उन पर ही ये गंगा आदि नदियाँ अभिषेक करते हुए जैसी गिरती हैं। ऐसे गंगा आदि १४ नदियों के १४ हैं।
(७) हिमवान आदि छह पर्वतों के ऊपर पद्म, महापद्म आदि छह सरोवरों में १३-१३ कूट हैं। ऐसे ६²१३·७८ हैं। (देखें-तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ)ये सब कुल मिलाकर ५६±३०६±६४±३२±१८±१४±७८·५६८ कूट होते हैं।
विशेष - इनमें से छह कुलाचलों के एक-एक सिद्धकूट, चार गजदंत के एक-एक सिद्धकूट, सोलह वक्षार के एक-एक सिद्धकूट और चौंतीस विजयार्ध के एक-एक सिद्धकूटऐसे-६±४±१६±३४·६० ऐसे सिद्धकूटों पर जम्बूद्वीप के ७८ जिनमंदिर में से ६० जिनमंदिर हैं। शेष सभी कूटों पर देवभवनों में जिनमंदिर हैं उनकी गणना व्यंतर देवों के मंदिरों में होती है। इन्हीं ६० जिनमंदिरों में सुमेरु के १६ एवं जम्बूवृक्ष-शाल्मली वृक्ष के २ मिलाने से ७८ अकृत्रिम जिनमंदिर जम्बूद्वीप के होते हैं।

जंबूद्वीप के अठहत्तर जिनचैत्यालय

सुमेरु के चार वन संबंधी १६ ± छह कुलाचल के ६ ± चार गजदंत के ४± सोलह वक्षार के १६± चौंतीस विजयार्ध के ३४ ±जंबू शाल्मलि वृक्ष के २ ·७८। ये जंबूद्वीप के अठहत्तर चैत्यालय हैं। इनमें प्रत्येक में १०८-१०८ जिनप्रतिमायें विराजमान हैं उनको मेरा मन, वचन, काय से नमस्कार होवे।

इस जंबूद्वीप में हम कहाँ हैं ? यह भरतक्षेत्र, जंबूद्वीप के १९० वें भाग (५२६-६/१९) योजन प्रमाण है। इसके छह खंड में जो आर्यखंड है उसका प्रमाण लगभग निम्न प्रकार है।

दक्षिण का भरतक्षेत्र २३८-३/१९ योजन का है। पद्मसरोवर की लम्बाई १००० योजन है तथा गंगा-सिंधु नदियां ५-५ सौ योजन पर्वत पर पूर्व-पश्चिम बहकर दक्षिण में मुड़ती हैं। यह आर्यखंड उत्तर-दक्षिण २३८ योजन चौड़ा है। पूर्व-पश्चिम में १०००± ५००±५००·२०००योजन लम्बा है। इनको आपस में गुणा करने से २३८²२००० · ४,७६,००० योजन प्रमाण आर्यखंड का क्षेत्रफल हो जाता है। इसके मील बनाने से ४,७६,०००²४०००·१९०,४०,००,००० (एक सौ नब्बे करोड़ चालीस लाख) मील प्रमाण क्षेत्रफल हो जाता है।

इस आर्यखण्ड के मध्य में अयोध्या नगरी है। इस अयोध्या के दक्षिण में ११९ योजन की दूरी पर लवण समुद्र की वेदी है और उत्तर की तरफ इतनी ही दूर पर विजयार्ध पर्वत की वेदिका है। अयोध्या से पूर्व में १००० योजन की दूरी पर गंगानदी की तटवेदी है अर्थात् आर्यखंड की दक्षिण दिशा में लवण समुद्र, उत्तर दिशा में विजयार्ध, पूर्व दिशा में गंगा नदी एवं पश्चिम दिशा में सिंधु नदी है ये चारोें आर्यखण्ड की सीमारूप हैं।

अयोध्या से दक्षिण में ४,७६,००० मील (चार लाख छियत्तर हजार मील) जाने से लवण समुद्र है और उत्तर में, ४,७६,००० मील जाने से विजयार्ध पर्वत है। उसी प्रकार अयोध्या से पूर्व में ४०,००००० (चालीस लाख) मील दूर गंगानदी तथा पश्चिम में इतनी ही दूर पर सिंधु नदी है।

आज का सारा विश्व इस आर्यखंड में है। हम और आप सभी इस आर्यखंड में ही भारतवर्ष में रहते हैं।

षट्काल परिवर्तन

काल के दो भेद हैं-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी। अवसर्पिणी के छह भेद हैं। सुषमासुषमा, सुषमा, सुषुमादुषमा, दुषमा सुषमा, दुषमा और दुषमा दुषमा। प्रथम काल चार कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है, द्वितीय काल तीन कोड़ाकोड़ी सागर, तृतीय काल दो कोड़ाकोड़ी सागर, चतुर्थ काल बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर, पंचम काल इक्कीस हजार वर्ष का एवं छठा काल इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण है।

ऐसे उत्सर्पिणी के दुषुमा-दुषुमा से लेकर छह भेद हैं। उनमें छठे से पहले तक परिवर्तन चलता है। अवसर्पिणी में आयु, शरीर की ऊँचाई आदि का ह्रास होता है और उत्सर्पिणी में आयु, शरीर की ऊँचाई, सुख आदि की वृद्धि होती जाती है।

जब पहले इस भरतक्षेत्र के आर्यखंड में सुषमा-सुषमा काल चल रहा था तब वहाँ के मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई तीन कोस की थी और आयु तीन पल्य की थी, वे स्वर्ण सदृश वर्ण के थे। वे तीन दिन बाद कल्पवृक्षों से प्राप्त बदरीफल बराबर उत्तम भोजन ग्रहण करते थे। उनके मल-मूत्र, पसीना, रोग, अपमृत्यु आदि बाधायें नहीं थीं। वहाँ की स्त्रियां आयु के नव महीने शेष रहने पर गर्भ धारण करती थीं और युगल पुत्र- पुत्री को जन्म देती थीं। संतान के जन्म होते ही पुरुष को जंभाई और स्त्री को छींक आने से वे मर जाते थे। ये युगल वृद्धि को प्राप्त होकर कल्पवृक्षों से उत्तम सुख का अनुभव करते रहते थे।

दस प्रकार के कल्पवृक्ष-पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, मालांग, ज्योतिरांग, दीपांग, गृहांग, भोजनांग, पात्रांग और वस्त्रांग। ये उत्तम वृक्ष अपने नाम के अनुसार ही उत्तम वस्तुयें मांगने पर देते हैं। इसे उत्तम भोगभूमि कहते हैं।धीरे-धीरे आयु आदि घटते-घटते प्रथम काल समाप्त होकर दूसरा काल प्रवेश करता है। तब मनुष्यों की आयु दो पल्य, शरीर की ऊँचाई दो कोस और शरीर का वर्ण चन्द्रमा के समान रहता है। ये लोग दो दिन बाद कल्पवृक्षों से प्राप्त हुए बहेड़े के बराबर भोजन को ग्रहण करते हैं। इसे मध्यम भोगभूमि कहते हैं। द्वितीय काल पूर्ण हो जाने के बाद तृतीय काल प्रवेश करता है तब यहाँ के मनुष्यों की आयु एक पल्य, ऊँचाई एक कोस और शरीर का वर्ण हरित रहता है। ये एक दिन के अन्तर से आंवले के बराबर भोजन ग्रहण करते हैं। आगे क्रम से आयु आदि घटती जाती है इस प्रकार यह भोगभूमि का काल चल रहा था।

जब तृतीय काल में पल्य का आठवां भाग शेष रह गया तब ज्योतिरांग कल्पवृक्षों का प्रकाश मंद पड़ने से आकाश में सतत घूमने वाले सूर्य,चन्द्र दिखने लगे। उस समय प्रजा के डरने से ‘प्रतिश्रुति’ नाम के प्रथम कुलकर ने उनको वास्तविक स्थिति बताकर उनका डर दूर किया। ऐसे ही क्रम से तेरह कुलकर और हुए। अन्तिम कुलकर महाराज नाभिराज थे। उनकी पत्नी मरुदेवी युगलिया जन्म न लेकर किसी प्रधान कुल की कन्या थीं। उन दोनों का विवाह इन्द्रों ने बड़े उत्सव से कराया था।

पुन: चतुर्थ काल में जब चौरासी लाख पूर्व वर्ष, तीन वर्ष साढ़े आठ माह काल बाकी था तब अन्तिम कुलकर नाभिराज की रानी मरुदेवी के गर्भ में भगवान वृषभदेव आए और नव महिने बाद जन्म लिया। ये प्रथम तीर्थंकर थे। इनकी आयु चौरासी लाख वर्ष पूर्व की थी । इन्होंने कल्पवृक्ष के नष्ट हो जाने के बाद प्रजा को असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और विद्या इन षट्क्रियाओं से आजीविका करना बतलाया। क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये तीन वर्ण स्थापित किये। भगवान ने विदेहक्षेत्र की स्थिति को अपने अवधिज्ञान से जानकर यह सब व्यवस्था बनाई। भगवान की आज्ञा से इन्द्र ने कौशल, काशी आदि देश, अयोध्या, हस्तिनापुर, उज्जयिनी आदि नगरियों की रचना की। इस काल में मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक पूर्वकोटि और शरीर पाँच सौ धनुष का ऊँचा होता था।

भगवान ने अपनी पुत्रियों को ब्राह्मी लिपि और अंक लिपि सिखाई। पुत्र-पुत्रियों को सम्पूर्ण विद्याओं में निष्णात किया। अनन्तर दीक्षा लेकर मोक्षमार्ग को प्रगट किया। पुन: केवलज्ञान होने के बाद साक्षात् संपूर्ण जगत को जान लिया और अन्त में चतुर्थकाल के तीन वर्ष, आठ माह, एक पक्ष शेष रहने पर कार्तिक कृष्णा अमावस्या के उषाकाल में पावापुरी से मोक्ष गये हैं।

उसके बाद दुषमा नामक पंचमकाल आ गया। इसमें मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु १२० वर्ष और शरीर की ऊँचाई अधिक से अधिक सात हाथ की है। दिन पर दिन आयु आदि घट रहे हैं। महावीर स्वामी को हुये अब तक लगभग ढाई हजार वर्ष व्यतीत हो गये हैं। हम लोग इस पंचमकाल के मनुष्य हैं।

आगे साढ़े अठारह हजार वर्ष तक भगवान महावीर का शासन चलता रहेगा, अनन्तर एक राजा दिगंबर मुनि से प्रथम ग्रास को शुल्करूप में मांगेगा तब मुनि अन्तराय करके जाकर आर्यिका, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ सहित सल्लेखना ग्रहण कर मरकर स्वर्ग जाएंगे। उस समय धरणेन्द्र कुपित हो राजा को मार देगा, तब राजा नरक जाएंगे। बस! धर्म का और राजा का अंत हो जाएगा।

अनंतर छठा काल आएगा, उस समय मनुष्यों का शरीर एक हाथ का, आयु सोलह वर्ष की मात्र रह जाएगी। ये मनुष्य पशुवृत्ति करेंगे। मांसाहारी होंगे, जंगलों में घूमेंगे, दु:खी, दरिद्री, रोगी, कुटुंबहीन होंगे। पुन: उनचास दिन के प्रलय के बाद इक्कीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर छठा काल समाप्त होगा और देव-विद्याधरों द्वारा रक्षा किये गये कुछ मनुष्य जीवित रहकर पुन: सृष्टि की परम्परा बढ़ाएंगे।

उत्सर्पिणी के छठे काल के बाद धीरे-धीरे पंचम आदि काल आते रहेंगे। यह काल परिवर्तन परम्परा अनादि है। जैनधर्म अनादि है यह सार्वधर्म है-सभी जीवों का हित करने वाला है। सभी तीर्थंकर इस धर्म का उपदेश देते हैं, वे स्वयं इस धर्म के प्रवर्तक नहीं हैं। ऐसे अनंतों तीर्थंकर हो चुके हैं और भविष्य में होते रहेंगे। कोई भी जीव अपने आप धर्म पुरुषार्थ के बल से अपने आपको तीर्थंकर भगवान बना सकता है, ऐसा समझना।

यह षट्काल परिवर्तन भरत, ऐरावत के आर्यखंडों में ही होता है अन्यत्र नहीं है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञानभास्करा:।
कुर्वंतु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

लवण समुद्र का वर्णन'

लवणसमुद्र जंबूद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए खाई के सदृश गोल है, इसका विस्तार दो लाख योजन प्रमाण है। एक नाव के ऊपर अधोमुखी दूसरी नाव के रखने से जैसा आकार होता है उसी प्रकार वह समुद्र चारों ओर आकाश में मण्डलाकार से स्थित है। उस समुद्र का विस्तार ऊपर दस हजार योजन और चित्रा पृथ्वी के समभाग में दो लाख योजन है। समुद्र के नीचे दोनों तटों में से प्रत्येक तट से पंचानवे हजार योजन प्रवेश करने पर दोनों और से एक हजार योजन की गहराई में तल विस्तार दस हजार योजन मात्र है।

समभूमि से आकाश में इसकी जलशिखा है,यह अमावस्या के दिन समभूमि से ११००० योजन प्रमाण ऊंची रहती है। वह शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन क्रमश: वृद्धि को प्राप्त होकर पूर्णिमा के दिन १६००० योजन प्रमाण ऊंची हो जाती है। इस प्रकार जल के विस्तार में १६००० योजन की ऊँचाई पर दोनों ओर समान रूप से १,९०,००० योजन की हानि हो गई है। यहाँ प्रतियोजन की ऊँचाई पर होने वाली वृद्धि का प्रमाण ११-७/८ योजन प्रमाण है।

गहराई की अपेक्षा रत्नवेदिका से ९५ प्रदेश आगे जाकर एक प्रदेश की गहराई है, ऐसे ९५ अंगुल जाकर एक अंगुल, ९५ हाथ जाकर एक हाथ, ९५ कोस जाकर एक कोस एवं ९५ योजन जाकर एक योजन की गहराई हो गई है। इसी प्रकार से ९५ हजार योजन जाकर १००० योजन की गहराई हो गई अर्थात् लवण समुद्र के समजल भाग से समुद्र का जल एक योजन नीचे जाने पर एक तरफ से विस्तार में ९५ योजन हानिरूप हुआ है। इसी क्रम से एक प्रदेश नीचे जाकर प्रदेशों की, एक अंगुल नीचे जाकर ९५ अंगुलों की, एक हाथ नीचे जाकर ९५ हाथों की भी हानि समझ लेना चाहिये।

अमावस्या के दिन उक्त जलशिखा की ऊँचाई ११००० योजन होती है। पूर्णिमा के दिन वह उससे ५००० योजन बढ़ जाती है अत: ५००० के १५ वें भाग प्रमाण क्रमश: प्रतिदिन ऊँचाई में वृद्धि होती है।

१६०००-११०००/१५ ·५०००/१५, ५०००/१५·३३३, १/३ योजन-तीन सौ तेतीस से कुछ अधिक प्रमाण प्रतिदिन वृद्धि होती है।

समुद्र के मध्य में पाताल-लवण समुद्र के मध्य भाग में चारों ओर उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य ऐसे १००८ पाताल हैं। ज्येष्ठ पाताल ४, मध्यम ४ और जघन्य १००० हैं। उत्कृष्ट पाताल चार दिशाओं में चार हैं, मध्यम पाताल ४ विदिशाओं में ४ एवं उत्कृष्ट मध्यम के मध्य में ८ अन्तर दिशाओं में १००० जघन्य पाताल हैं।

४ उत्कृष्ट पाताल- उस समुद्र के मध्य भाग में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से पाताल, कदम्बक, वड़वामुख और यूपकेसर नामक चार पाताल हैं। इन पातालों का विस्तार मूल में और मुख में १००० योजन प्रमाण है। इनकी गहराई, ऊँचाई और मध्यविस्तार मूल विस्तार से दस गुणा-१००००० योजन प्रमाण है। पातालों की वङ्कामय भित्तिका ५०० योजन मोटी है। ये पाताल जिनेन्द्र भगवान द्वारा अरंजन-घट विशेष के समान कहे गये हैं। पाताल के उपरिम त्रिभाग में सदा जल रहता है, उनके मूल के त्रिभाग में घनी वायु और मध्य त्रिभाग में क्रम से जल, वायु दोनों रहते हैं। सभी पातालों के पवन सर्वकाल शुक्ल पक्षों में स्वभाव से बढ़ते हैं एवं कृष्ण पक्ष में स्वभाव से घटते हैं। शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा तक प्रतिदिन २२२२-२/९ योजन पवन की वृद्धि हुआ करती है। पूर्णिमा के दिन पातालों के अपने-अपने तीन भागों में से नीचे के दो भागों में वायुु और ऊपर के तृतीय भाग में केवल जल रहता है। अमावस्या के दिन अपने-अपने तीन भागों में से क्रमश: ऊपर के दो भागों में जल और नीचे के तीसरे भाग में केवल वायु स्थित रहता है। पातालों के अन्त में अपने-अपने मुख विस्तार को ५ से गुणा करने पर जो प्राप्त हो, उतने प्रमाण आकाश में अपने-अपने पाश्र्व भागों में जलकण जाते हैं। ‘‘तत्त्वार्थराजवार्तिक’’ गं्रथ में जलवृद्धि का कारण किन्नरियों का नृत्य बतलाया है। यथा-‘‘ रत्नप्रभाखरपृथ्वी-भाग सन्नि-वेशिभवनालयवातकुमारतद्वनिताक्रीडा-जनितानिलसंक्षोभकृतपातालोन्मीलननिमीलनहेतुकौ वायुतोयनिष्क्रमप्रवेशौ भवत:। तत्कृता दशयोजनसहस्रविस्तारमुखजलस्योपरि पंचाशद्योजनावधृता जलवृद्धि:। तत उभयत आरत्नवेदिकाया: सर्वत्र द्विगव्यूतिप्रमाणा जलवृद्धि:। पातालोन्मीलन-वेगोपशमेन हानि:।

अर्थ- रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में रहने वाली वातकुमार देवियों की क्रीडा से क्षुब्ध वायु के कारण ५०० योजन जल की वृद्धि होती है अर्थात् वायु और जल का निष्क्रम और प्रवेश होता है और दोनों तरफ रत्नवेदिका पर्यन्त सर्वत्र दो गव्यूति प्रमाण जलवृद्धि होती है। पाताल के उन्मीलन के वेग की शांति से जल की हानि होती है। इन पातालों का तीसरा भाग १०००००/३·३३३३३-१/३ योजन प्रमाण है।

ज्येष्ठ पाताल सीमंत बिल के उपरिम भाग से संलग्न हैं अर्थात् ये पाताल भी मृदंग के आकार के गोल हैं, समभूमि से नीचे की गहराई का जो प्रमाण है वह इन पातालों की ऊँचाई है। यदि प्रश्न यह होवे कि एक लाख योजन तक इनकी गहराई समतल से नीचे वैâसे होगी ? तो उसका समाधान यह है कि रत्नप्रभा पृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है, वहाँ खरभाग, पंकभाग पर्यन्त ये पाताल पहुँचे हुए ऊँचे गहरे हैं।

४ मध्यम पाताल - विदिशाओं में भी इनके समान चार पाताल हैं, उनका मुख विस्तार और मूल विस्तार १००० योजन तथा मध्य में और ऊँचाई, गहराई में १०,००० योजन है, इनकी वङ्कामय भित्ति ५० योजन प्रमाण है। इन पातालों के उपरिम तृतीय भाग में जल, नीचे के तृतीय भाग में वायु, मध्य के तृतीय भाग में जल, वायु दोनों रहते हैं। पातालों की गहराई-ऊँचाई १०,००० योजन है, १०,०००/३·३३३३-१/३ पातालों का तृतीय भाग तीन हजार तीस सौ तेतीस से कुछ अधिक है। इनमें प्रतिदिन होने वाली जलवायु की हानि-वृद्धि का प्रमाण २२२-२/९ योजन प्रमाण है।

१००० जघन्य पाताल-उत्तम, मध्यम पातालों के मध्य में आठ अन्तर दिशाओं में एक हजार जघन्य पाताल हैं। मध्यम पाातालों की अपेक्षा दसवें भाग मात्र है अर्थात् मुख और मूल में ये पाताल १०० योजन हैं। मध्य में चौड़े और गहरे १००० योजन प्रमाण हैं। इनमें भी उपरिम त्रिभाग में जल, नीचे में वायु और मध्य में जलवायु दोनों हैं। इनका त्रिभाग ३३३-१/३ योजन है और प्रतिदिन जलवायु की हानि-वृद्धि २२-२/९ योजन मात्र है।

नागकुमार देवों के १,४२,००० नगर-लवणसमुद्र के बाह्य भाग में ७२०००, शिखर पर २८००० और अभ्यन्तर भाग में ४२००० नगर अवस्थित हैं। समुद्र के अभ्यन्तर भाग की वेला की रक्षा करने वाले वेलंधर नागकुमार देवों के नगर ४२००० हैं। जलशिखा को धारण करने वाले नागकुमार देवों के २८००० नगर हैं एवं समुद्र के बाह्य भाग की रक्षा करने वाले नागकुमार देवों के ७२००० नगर हैं।

ये नगर दोनों तटों से ७०० योजन जाकर तथा शिविर से ७००-१/२ योजन जाकर आकाश तल में स्थित हैं। इनका विस्तार १०,००० योजन प्रमाण है। नगरियों के तट उत्तम रत्नों से निर्मित समान गोल हैं। प्रत्येक नगरियों में ध्वजाओं, तोरणों से सहित दिव्य तट वेदियाँ हैं। उन नगरियों में उत्तम वैभव से सहित वेलंधर और भुजग देवों के प्रासाद स्थित हैं। जिनमंदिरों से रमणीय, वापी, उपवनों से सहित इन नगरियों का वर्णन बहुत ही सुन्दर है, ये नगरियाँ अनादिनिधन हैं।

उत्कृष्ट पाताल के आसपास के ८ पर्वत-समुद्र के दोनों किनारों में बयालीस हजार योजन प्रमाण प्रवेश करके पातालों के पाश्र्व भागों में आठ पर्वत हैं। (ऊपर) तट से ४२००० योजन आगे समुद्र में जाकर ‘‘पाताल’’ के पश्चिम दिशा में कौस्तुभ और पूर्व दिशा में कौस्तुभास नाम के दो पर्वत हैं। ये दोनों पर्वत रजतमय,धवल, १००० योजन ऊँचे, अर्धघट के समान आकार वाले वङ्कामय मूल भाग से सहित, नाना रत्नमय अग्रभाग से सुशोभित हैं। प्रत्येक पर्वत का तिरछा विस्तार एक लाख सोलह हजार योजन है। इस प्रकार से जगती से पर्वतों तक तथा पर्वतों का विस्तार मिलाकर दो लाख योजन होता है। पर्वत का विस्तार १,१६०००। जगती से पर्वत का अंतराल ४२०००± ४२००० · ८४००० । १,१६००० ± ८४००० · २,०००००। ये पर्वत मध्य में रजतमय हैं, इनके ऊपर इन्हीं के नाम वाले कौस्तुभ ,कौस्तुभास देव रहते हैं। इनकी आयु, अवगाहना आदि विजयदेव के समान है। कदंब पाताल की उत्तर दिशा में उदक नामक पर्वत और दक्षिण दिशा में उदकाभास नामक पर्वत हैं। ये दोनों पर्वत नीलमणि जैसे वर्ण वाले हैं। इन पर्वतों के ऊपर क्रम से शिव और शिवदेव निवास करते हैं। इनकी आयु आदि कौस्तुभदेव के समान है।

बड़वामुख पाताल की पूर्व दिशा में शंख और पश्चिम दिशा में महाशंख नामक पर्वत हैं। ये दोनों ही शंख के समान वर्ण वाले हैं। इन पर उदक, उदकावास देव स्थित हैं, इनका वर्णन पूर्वोक्त सदृश है। यूपकेसरी के दक्षिण भाग में दक नामक पर्वत और उत्तरभाग में दकवास नामक पर्वत हैं। ये दोनों पर्वत वैडूर्यमणिमय हैं। इनके ऊपर क्रम से लोहित, लोहितांक देव रहते हैं।

८ सूर्यद्वीप हैं - जगती से बयालीस हजार योजन जाकर ‘‘सूर्यद्वीप’’ नाम से प्रसिद्ध आठ द्वीप हैं। ये द्वीप पूर्व में कहे हुए कौस्तुभ आदि पर्वतों के दोनों पाश्र्वभागों में स्थित होकर निकले हुए मणिमय दीपकों से युक्त शोभायमान हैं। त्रिलोकसार में १६ ‘‘चन्द्रद्वीप’’ भी माने गये हैं। यथा-अभ्यन्तर तट और बाह्य तट दोनों से ४२००० योजन छोड़कर चारों विदिशाओं के दोनों पाश्र्वभागों में दो-दो, ऐसे आठ ‘‘सूर्यद्वीप’’ हैं। और दिशा-विदिशा के बीच में जो आठ अन्तरदिशायें हैं, उनके दोनों पाश्र्व भागों में दो-दो, ऐसे १६ ‘‘चन्द्रद्वीप’’ नामक द्वीप हैं। ये सब द्वीप ४२००० योजन व्यास वाले और गोल आकार वाले हैं। यहाँ द्वीप से ‘‘टापू’’ को समझना।

समुद्र में गौतम द्वीप का वर्णन-लवण समुद्र के अभ्यन्तर तट से १२००० योजन आगे जाकर १२००० योजन ऊँचा एवं इतने ही प्रमाण व्यास वाला, गोलाकार गौतम नामक द्वीप है जो कि समुद्र में ‘‘वायव्य’’ विदिशा में है। ये उपर्युक्त सभी द्वीप वन, उपवन, वेदिकाओं से रम्य हैं और ‘‘जिनमंदिर’’ से सहित हैं। उन द्वीपों के स्वामी वेलंंधर जाति के नागकुमार देव हैं। वे अपने-अपने द्वीप के समान नाम के धारक हैं।

मागधद्वीप आदि का वर्णन-भरतक्षेत्र के पास समुद्र के दक्षिण तट से संख्यात योजन जाकर आगे मागध, वरतनु और प्रभास नाम के तीन द्वीप हैं अर्थात् गंगा नदी के तोरणद्वार से आगे कितने ही योजन प्रमाण समुद्र में जाने पर ‘‘मागध’’ द्वीप है। जंबूद्वीप के दक्षिण वैजयंत द्वार से कितने ही योजन समुद्र में जाने पर ‘‘वरतनु’’ द्वीप है एवं सिंधु नदी के तोरण से कितने ही योजन जाकर ‘‘प्रभास’’ द्वीप है। इन द्वीपों में इन्हीं नाम के देव रहते हैं। इन देवों को भरतक्षेत्र के चक्रवर्ती वश में करते हैं।

ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र के उत्तर भाग में रक्तोदा नदी के पाश्र्व भाग में समुद्र के अन्दर ‘‘मागध’’ द्वीप, अपराजित द्वार से आगे ‘‘वरतनु’’ द्वीप एवं रक्ता नदी के आगे कुछ दूर जाकर ‘‘प्रभास’’ द्वीप है जो कि ऐरावत क्षेत्र के चक्रर्वितयों के द्वारा जीते जाते हैं।

४८ कुमानुषद्वीप - लवणसमुद्र में कुमानुषों के ४८ द्वीप हैं। इनमें से २४ द्वीप तो अभ्यन्तर भाग में एवं २४ द्वीप बाह्यभाग में स्थित हैं। जंबूद्वीप की जगती से ५००० योजन आगे जाकर ४ द्वीप चारों दिशाओं में और इतने ही योजन जाकर चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। जंबूद्वीप की जगती से ५५० योजन आगे जाकर दिशा, विदिशा की अन्तर दिशाओं में ८ द्वीप हैं। हिमवन्, विजयार्ध पर्वत के दोनों किनारों में जगती से ६००० योजन जाकर ४ द्वीप एवं उत्तर में शिखरी और विजयार्ध के दोनों पाश्र्व भागों से ६०० योजन अन्तर समुद्र में जाकर ४ द्वीप हैं।

दिशागत द्वीप १०० योजन प्रमाण विस्तार वाले हैं, ऐसे ही विदशागत द्वीप ५५ योजन विस्तृत, अन्तरदिशागत द्वीप ५० योजन विस्तृत एवं पर्वत के पाश्र्वगत द्वीप २५ योजन विस्तृत हैं।

ये सब उत्तम द्वीप वनखंड, तालाबों से रमणीय, फल पूâलोें के भार से संयुक्त तथा मधुर रस एवं जल से परिपूर्ण हैं। यहाँ कुभोगभूमि की व्यवस्था है। यहाँ पर जन्म लेने वाले मनुष्य ‘‘कुमानुष’’ कहलाते हैं और विकृत आकार वाले होते हैं। पूर्वादिक दिशाओं में स्थित चार द्वीपों के कुमानुष क्रम से एक जंघा वाले, पूँछ वाले, सींग वाले और गूंगे होते हैं। आग्नेय आदि विदिशाओं के कुमानुष क्रमश: शष्कुलीकर्ण, कर्णप्रावरण, लम्बकर्ण और शशकर्ण होते हैं। अन्तर दिशाओं में स्थित आठ द्वीपों के वे कुमानुष क्रम से सिंह, अश्व, श्वान, महिष, वराह, शार्दूल, घूक और बंदर के समान मुख वाले होते हैं। हिमवान् पर्वत के पूर्व-पश्चिम किनारों में क्रम से मत्स्यमुख, कालमुख तथा दक्षिण विजयार्ध के किनारों में मेषमुख, गोमुख कुमानुष होते हैं। शिखरी पर्वत के पूर्व पश्चिम किनारों पर क्रम से मेघमुख, विद्युन्मुख तथा उत्तर विजयार्ध के किनारों पर आदर्शमुख, हस्तिमुख कुमानुष होते हैं। इन सबमें से एकोरुक कुमानुष गुफाओं में होते हैं और मिष्ट मिट्टी को खाते हैं। शेष कुमानुष वृक्षों के नीचे रहकर फल पूâलों से जीवन व्यतीत करते हैं।

इस प्रकार से दिशागत द्वीप ४, विदिशागत ४, अन्तर दिशागत ८, पर्वत तटगत ८। ४±४±८±८·२४ अंतद्र्वीप हुए हैं, ऐसे ही लवण समुद्र के बाह्य भाग के भी २४ द्वीप मिलकर २४±२४±·४८ अन्तद्र्वीप लवण समुद्र में हैं।

कुभोगभूमि में जन्म लेने के कारण-मिथ्यात्व में रत, मन्दकषायी, मिथ्यादेवों की भक्ति में तत्पर, विषम पंचाग्नि तप तपने वाले, सम्यक्त्व रत्न से रहित जीव मरकर कुमानुष होते हैं। जो लोग तीव्र अभिमान से गर्वित होकर सम्यक्त्व और तप से युक्त साधुओं का किच्ािंत् अपमान करते हैं, जो दिगंबर साधु की निंदा करते हैं, ऋद्धि रस आदि गौरव से युक्त होकर दोषों की आलोचना गुरु के पास नहीं करते हैं, गुरुओं के साथ स्वाध्याय वंदना कर्म नहीं करते हैं, जो मुनि एकाकी विचरण करते हैं, क्रोध कलह से सहित हैं, अरहंत गुरु आदि की भक्ति से रहित, चतुर्विध संघ में वात्सल्य से रहित, मौन बिना भोजन करने वाले हैं, जो पाप में संलग्न हैं वे मृत्यु को प्राप्त होकर विषम परिपाक वाले, पाप कर्मों के फल से इन द्वीपों में कुत्सित रूप से युक्त कुमानुष उत्पन्न होते हैं। त्रिलोकसार में भी यह कहा है-

दुब्भावअसूचिसूदकपुफ्फवई-जाइसंकरादीहिं।
कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेसु जायंते।।९२४।।

अर्थ - खोटे भाव से सहित, अपवित्र, मृतादि के सूतक पातक से सहित, रजस्वला स्त्री के संसर्ग से सहित, जातिसंकर आदि दोषों से दूषित मनुष्य जो दान करते हैं और जो कुपात्रों में दान देते हैं ये जीव कुमानुष में उत्पन्न होते हैं क्योंकि ये जीव मिथ्यात्व और पाप से रहित विंâचित् पुण्य उपार्जन करते हैं अत: कुत्सित भोगभूमि में जन्म लेते हैं। इनकी आयु एक पल्य प्रमाण रहती है। एक कोस ऊँचे शरीर वाले हैं युगलियाँ होते हैं। मरकर नियम से भवनत्रिक देवों में जन्म लेते हैं। कदाचित् सम्यक्त्व को प्राप्त करके ये कुमानुष सौधर्म युगल में जन्म लेते हैं।

लवण समुद्र के दोनों ओर तट हैं। लवणसमुद्र में ही पाताल है अन्य समुद्रों में नहीं है। लवण समुद्र के जल की गहराई और ऊँचाई में हीनाधिकता है अन्य समुद्रों के जल में नहीं है। सभी समुद्रों के जल की गहराई सर्वत्र हजार योजन है और ऊपर में जल समतल प्रमाण है। लवणसमुद्र का जल खारा है। लवणसमुद्र में जलचर जीव पाये जाते हैं, लवणसमुद्र के मत्स्य नदी के गिरने के स्थान पर ९ योजन अवगाहना वाले एवं मध्य में १८ योजन प्रमाण हैं। इसमें कछुआ, शिंशमार, मगर आदि जलजंतु भरे हैं। पद्मपुराण में रावण की लंका को लवणसमुद्र में माना है अत: इस समुद्र में और भी अनेकों द्वीप हैं जैसा कि पद्मपुराण से स्पष्ट है।

यथा-अस्त्यत्र लवणांभोधौ व्रूâरग्राहसमाकुलै:।
प्रख्यातो राक्षसद्वीप: प्रभूताद्भूतसंकुल:।।१०६।।

शतानिसप्त.....................................................१०७ से ११० तक पद्म पुराण, ४८ पर्व।

अर्थ - दुष्ट मगरमच्छों से भरे हुए इस लवणसमुद्र में अनेक आश्चर्यकारी स्थानों से युक्त प्रसिद्ध ‘‘राक्षसद्वीप’’ है, जो सब ओर सात योजन विस्तृत है तथा कुछ अधिक इक्कीस योजन उसकी परिधि है। उसके बीच में सुमेरु पर्वत के समान त्रिकूट नाम का पर्वत है जो नौ योजन ऊँचा और ५० योजन चौड़ा है, सुवर्ण तथा नाना प्रकार की मणियों से देदीप्यमान एवं शिलाओं के समूह से व्याप्त है। राक्षसों के इन्द्र भीम ने मेघवाहन के लिये वह दिया था। तट पर उत्पन्न हुए नाना प्रकार के चित्र-विचित्र वृक्षों से सुशोभित उस त्रिकूटाचल के शिखर पर लंका नाम की नगरी है जो मणि और रत्नों की किरणों तथा स्वर्ण के विमानों के समान मनोहर महलों से एवं क्रीडा आदि के योग्य सुन्दर प्रदेशों से अत्यंत शोभायमान है। जो सब ओर से तीस योजन चौड़ी है तथा बहुत बड़े प्राकार और परिखा से युक्त होने के कारण दूसरी पृथ्वी के समान जान पड़ती है।

लंंका के समीप में और भी ऐसे स्वाभाविक प्रदेश हैं जो रत्न, मणि तथा सुवर्ण से निर्मित हैं। वे सब प्रदेश उत्तमोत्तम नगरों से युक्त हैं, राक्षसों की क्रीडाभूमि हैं तथा महाभोगों से युक्त विद्याधरों से सहित हैं। संध्याकार सुबेल, कांचन, ह्रादन, योधन, हंस, हरिसागर और अर्धस्वर्ग आदि अन्य द्वीप भी वहाँ विद्यमान हैं, जो समस्त ऋद्धियों तथा भोगों को देने वाले हैं। वन-उपवन आदि से विभूषित हैं तथा स्वर्ण प्रदेशों के समान जान पड़ते हैं।

'छठे पर्व में ६२ से ८२ तक वर्णन है- इस लवणसमुद्र में बहुत से द्वीप हैं जहाँ कल्पवृक्षों के समान आकार वाले वृक्षों से दिशायें व्याप्त हो रही हैं। इन द्वीपों में अनेकों पर्वत हैं जोे रत्नों से व्याप्त ऊँचे-ऊँचे शिखरों से सुशोभित हैं। राक्षसों के इन्द्र भीम, अतिभीम तथा उनके सिवाय अन्य देवों के द्वारा आपके वंशजों के लिए ये सब द्वीप और पर्वत दिये गये हैं ऐसा पूर्वपरंपरा से सुनने में आता है। उन द्वीपों में अनेक नगर हैं। उन नगरों के नाम-संध्याकार, मनोह्लाद, सुबेल, कांचन, हरियोधन, जलधिध्वान, हंसद्वीप, भरक्षम, अर्धस्वर्गोत्कट, आवर्त, विघट, रोधन, अमल, कांत, स्फुटतट, रत्नद्वीप, तोयावली, सर, अलंघन, नभोभानु और क्षेम इत्यादि सुन्दर-सुन्दर हैं।

यहाँ वायव्य दिशा में समुद्र के बीच तीन सौ योजन विस्तार वाला, बड़ा भारी वानरद्वीप है। उसमें महामनोहर हजारों अवांतर द्वीप हैं। उस वानर द्वीप के मध्य में रत्न सुवर्ण की लम्बी, चौड़ी शिलाओं से सुशोभित ‘‘किष्कु’’ नाम का बड़ा भारी पर्वत है। जैसे यह त्रिकूटाचल है वैसे ही वह किष्कु पर्वत है इत्यादि। इस प्रकरण से यह ज्ञात होता है कि इस समुद्र में और भी अनेक द्वीप विद्यमान हैं।

लवणसमुद्र की जगती ८ योजन ऊँची, मूल में १२ योजन, मध्य में ८ एवं ऊपर में ४ योजन प्रमाण विस्तार वाली है। इसके ऊपर वेदिका, वनखंड, देवनगर आदि का पूरा वर्णन जंबूद्वीप की जगती के समान है। इस जगती के अभ्यन्तरभाग में शिलापट्ट और बाह्यभाग में वन हैं। इस जगती की बाह्यपरिधि का प्रमाण १५८११३९ योजन प्रमाण है। यदि जंबूद्वीप प्रमाण १-१ लाख के खंड किये जावें तो इस लवण समुद्र के जंबूद्वीप प्रमाण २४ खंड हो जाते हैं।

भूभ्रमण खण्डन

कोई आधुनिक विद्वान कहते हैं कि जैनियों की मान्यता के अनुसार यह पृथ्वी वलयाकार चपटी गोल नहीं है किन्तु यह पृथ्वी गेंद या नारंगी के समान गोल आकार की है तथा सूर्य, चन्द्र, शनि, शुक्र आदि ग्रह, अश्विनी, भरिणी आदि नक्षत्रचक्र, मेरु के चारों तरफ प्रदक्षिणारूप से अवस्थित हैं, घूमते नहीं हैं। यह पृथ्वी एक विशेष वायु के निमित्त से ही घूमती है। इस पृथ्वी के घूमने से ही सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि का उदय, अस्त आदि व्यवहार बन जाता है इत्यादि।

दूसरे कोई वादी पृथ्वी का हमेशा अधोगमन ही मानते हैं एवं कोई-कोई आधुनिक पंडित अपनी बुद्धि में यों मान बैठे हैं कि पृथ्वी दिन पर दिन सूर्य के निकट होती चली जा रही है। इसके विरुद्ध कोई-कोई विद्बान् प्रतिदिन पृथ्वी को सूर्य से दूरतम होती हुई मान रहे हैं। इसी प्रकार कोई-कोई परिपूर्ण जलभाग से पृथ्वी को उदित हुई मानते हैं।

किन्तु उक्त कल्पनायें प्रमाणों द्वारा सिद्ध नहीं होती हैं। थोड़े ही दिनों में परस्पर एक-दूसरे का विरोध करने वाले विद्वान् खड़े हो जाते हैं और पहले-पहले के विद्वान् या ज्योतिष यन्त्र के प्रयोग भी युक्तियों द्वारा बिगाड़ दिये जाते हैं। इस प्रकार छोटे-छोटे परिवर्तन तो दिन-रात होते ही रहते हैं।

इसका उत्तर जैनाचार्य इस प्रकार देते हैं- भूगोल का वायु के द्वारा भ्रमण मानने पर तो समुद्र, नदी, सरोवर आदि के जल की जो स्थिति देखी जाती है उसमें विरोध आता है।

जैसे कि पाषाण के गोले को घूमता हुआ मानने पर अधिक जल ठहर नहीं सकता है अत: भू अचला ही है भ्रमण नहीं करती है। पृथ्वी तो सतत घूमती रहे और समुद्र आदि का जल सर्वथा जहाँ का तहाँ स्थिर रहे, यह बन नहीं सकता अर्थात् गंगा नदी जैसे हरिद्वार से कलकत्ता की ओर बहती है, पृथ्वी के गोल होने पर उल्टी भी बह जायेगी, समुद्र और कुओं के जल गिर पड़ेगे। घूमती हुई वस्तु पर मोटा अधिक जल नहीं ठहर कर गिरेगा ही गिरेगा।

दूसरी बात यह है कि पृथ्वी स्वयं भारी है। अध:पतन स्वभाव वाले बहुत से जल, बालू, रेत आदि पदार्थ हैं जिनके ऊपर रहने से नारंगी के समान गोल पृथ्वी हमेशा घूमती रहे और यह सब ऊपर ठहरे रहें, पर्वत, समुद्र, शहर, महल आदि जहाँ के तहाँ बने रहें यह बात असंभव है।

यहाँ पुन: कोई भूभ्रमणवादी कहते हैं कि घूमती हुई इस गोल पृथ्वी पर समुद्र आदि के जल को रोके रहने वाली एक वायु है जिसके निमित्त से समुद्र आदि ये सब जहाँ के तहाँ ही स्थिर बने रहते हैं।

इस पर जैनाचार्यों का उत्तर-जो प्रेरक वायु इस पृथ्वी को सर्वदा घुमा रही है, वह वायु इन समुद्र आदि को रोकने वाली वायु का घात नहीं कर देगी क्या ? यह बलवान् प्रेरक वायु तो इस धारक वायु को घुमाकर कहीं पेंâक देगी। सर्वत्र ही देखा जाता है कि यदि आकाश में मेघ छाए हैं और हवा जोरों से चलती है तब उस मेघ को धारण करने वाली वायु को विध्वंस करके मेघ को तितर-बितर कर देती है, वे बेचारे मेघ नष्ट हो जाते हैं या देशांतर में प्रयाण कर जाते हैं।

उसी प्रकार अपने बलवान् वेग से हमेशा भूगोल को सब तरफ से घुमाती हुई जो प्रेरक वायु है, वह वहाँ पर स्थित हुए समुद्र, सरोवर आदि को धारने वाली वायु को नष्ट-भ्रष्ट कर ही देगी अत: बलवान् प्रेरक वायु भूगोल को हमेशा घुमाती रहे और जल आदि की धारक वायु वहाँ बनी रहे, यह नितांत असंभव है।

पुन: भूभ्रमणवादी कहते हैं कि पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है अतएव सभी भारी पदार्थ भूमि के अभिमुख होकर ही गिरते हैं। यदि भूगोल पर से जल गिरेगा तो भी वह पृथ्वी की ओर ही गिरकर वहाँ का वहाँ ही ठहरा रहेगा अत: वह समुद्र आदि अपने-अपने स्थान पर ही स्थिर रहेंगे।

इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि-आपका कथन ठीक नहीं है। भारी पदार्थों का तो नीचे की ओर गिरना ही दृष्टिगोचर हो रहा है अर्थात् पृथ्वी में एक हाथ का लम्बा चौड़ा गड्ढा करके उस मिट्टी को गड्ढे के एक ओर ढलाऊ ऊँची कर दीजिये। उस पर गेंद रख दीजिये, वह गेंद नीचे की ओर गड्ढे में ही लुढ़क जायेगी। जबकि ऊपर भाग में मिट्टी अधिक है तो विशेष आकर्षण शक्ति के होने से गेंद को ऊपर देश में ही चिपकी रहना चाहिये था, परन्तु ऐसा नहीं होता है अत: कहना पड़ता है कि भले ही पृथ्वी में आकर्षण शक्ति होवे किन्तु उस आकर्षण शक्ति की सामथ्र्य से समुद्र के जलादिकों का घूमती हुई पृथ्वी से तिरछा या दूसरी ओर गिरना नहीं रुक सकता है।

जैसे कि प्रत्यक्ष में नदी, नहर आदि का जल ढलाऊ पृथ्वी की ओर ही यत्र-तत्र किधर भी बहता हुआ देखा जाता है और लोहे के गोलक, फल आदि पदार्थ स्वस्थान से च्युत होने पर गिरने पर नीचे की ओर ही गिरते हैं।

इस प्रकार जो लोग आर्यभट्ट या इटली, यूरोप आदि देशों के वासी विद्वानों की पुस्तकों के अनुसार पृथ्वी का भ्रमण स्वीकार करते हैं और उदाहरण देते हैं कि-जैसे अपरिचित स्थान में नौका में बैठा हुआ कोई व्यक्ति नदी पार कर रहा है। उसे नौका तो स्थिर लग रही है और तीरवर्ती वृक्ष, मकान आदि चलते हुए दिख रहे हैं परन्तु यह भ्रम मात्र है, तद्वत् पृथ्वी की स्थिरता की कल्पना भी भ्रममात्र है।

इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि- साधारण मनुष्य को भी थोड़ा सा ही घूम लेने पर आखों में घूमनी आने लगती है (चक्कर आने लगता है), कभी-कभी खंड देश में अत्यल्प भूकम्प आने पर भी शरीर में कंपकंपी, मस्तक में भ्रांति होने लग जाती है तो यदि डाकगाड़ी के वेग से भी अधिक वेगरूप पृथ्वी की चाल मानी जायेगी तो ऐसी दशा में मस्तक, शरीर,पुराने ग्रह, वूâपजल आदि की क्या व्यवस्था होगी।

बुद्धिमान् स्वयं इस बात पर विचार कर सकते हैं।