।। सम्यग्दर्शन ।।

जीवादी तत्त्वों की श्रद्धा, करना सम्यक्त्व कहाता है।
वह आत्मा का ही है स्वरूप, जो निज में निज को पाता है।।
जिसके होने पर निश्चित ही, संशय आदिक से रहित ज्ञान।
सम्यक् हो जाता है उसको, सम्यग्दर्शन समझो महान।।४१।।

जिसके होने पर ज्ञान दुरभिप्राय रहित समीचीन हो जाता है, ऐसा जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है जो कि आत्मा का स्वरूप ही है अर्थात् सम्यक्त्व के होने पर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है, उसके पूर्व नहीं।

वीतराग सर्वज्ञदेव के द्वारा कहे हुए शुद्ध जीवादि तत्त्वों का चल, मलिन, अगाढ़ दोष रहित जो श्रद्धान है, रुचि है, निश्चय है वही सम्यग्दर्शन है। वही 'तत्व यही है, ऐसा ही है इस प्रकार की निश्चयबुद्धि रूप होता है। इस सम्यक्त्व के होने पर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है। वह सम्यग्ज्ञान संशय, विमोह और विभ्रम से रहित होता है। सामने किसी सूखे ढूंठ को देखकर दूर से न पहचान कर यह पुरुष है या लूंठ' ऐसे चलायमान ज्ञान को संशय कहते हैं। सीप के टकडे में चांदी के ज्ञान की तरह जो विपरीत ज्ञान है, वह विमोह है तथा चलते हए पैर में तण का स्पर्श हो जाने पर यह क्या है? जो ऐसा अनिर्णीत ज्ञान है वह विभ्रम या अनध्यवसाय कहलाता है, ज्ञान के ये तीन दोष हैं। इनसे रहित ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान होता है। सम्यग्दर्शन के प्रगट होते ही ये तीनों दोष निकल जाते हैं, इस हेतु से वह पूर्व का ज्ञान ही सम्यग्जान बन जाता है। इसका उदाहरण प्रसिद्ध है-

गौतम, अग्निभूति और वायुभूति नाम के तीन ब्राह्मण थे। ये पाँच-पाँच सौ ब्राह्मण शिष्यों के उपाध्याय थे। चार वेद, ज्योतिष्क, व्याकरण आदि छह अंग, मनुस्मृति आदि अठारह स्मृतिशास्त्र, भारत आदि अठारह पुराण और मीमांसा, न्याय आदि इन सभी लौकिक शास्त्रों को यद्यपि जानते थे फिर भी उनका ज्ञान सम्यक्त्व के बिना मिथ्याज्ञान ही था। ये तीनों ही जब वर्धमान स्वामी तीर्थकरदेव के समवसरण में पहुँचे, वहाँ मानस्तंभ के दर्शन से ही मान के गलित हो जाने पर आगमभाषा में दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के उपशम, क्षय हो जाने से और अध्यात्म भाषा में अपनी शुद्ध आत्मा के अभिमुख परिणाम से कालादि लब्धि के मिल जाने पर मिथ्यात्व नष्ट हो गया, उसी समय उनका मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान हो गया।

इसके बाद 'जयति भगवान्' इत्यादि चैत्यभक्ति पढ़कर नमस्कार करके उसी क्षण जैनेश्वरी दीक्षा लेकर केशलोंच के अनंतर ही मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय इन चार ज्ञान और सात ऋद्धियों से सम्पन्न होकर ये तीनों ही भगवान के गणधर हो गये। इनमें से श्री गौतमस्वामी प्रथम गणधर थे, इन्होंने भव्य जीवों के उपकार हेतु द्वादशांग श्रुत की रचना की है। अनंतर ये तीनों ही निश्चयरत्नत्रय की भावना से मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं। इनके पन्द्रह सौ ब्राह्मण शिष्य भी जैनेश्वरी दीक्षा लेकर यथासंभव स्वर्ग-मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं किन्तु अभव्यसेन मुनि ग्यारह अंग का पाठी होते हुए भी सम्यक्त्व के बिना मिथ्याज्ञानी हो रहा है। इसी प्रकार सम्यक्त्व के माहात्म्य से ज्ञान, तपश्चरण, व्रत, उपशम और ध्यान आदि मिथ्यारूप भी समीचीन हो जाते हैं और सम्यक्त्व के अभाव में विषमिश्रित दूध के समान सभी ज्ञान, चारित्र आदि मिथ्या ही रहते हैं।

वह सम्यग्दर्शन पच्चीस मल दोष रहित होना चाहिए। देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और समयमूढ़ता ये तीन मूढ़ता हैं। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और रूप इन आठों का आश्रय लेकर घमण्ड करना मद है। इन आठ के भेद से मद के भी आठ भेद हो जाते हैं। मिथ्यादेव, मिथ्यातप, मिथ्याशास्त्र तथा इनके तीनों के आराधक ये छह अनायतन कहलाते हैं। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़दृष्टि, अनुपगृहन, अस्थितीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना ये आठ शंकादि दोष हैं। इस प्रकार ३ मूढ़ता, ८ मद, ६ अनायतन और ८ शंकादि दोष ये पच्चीस मल दोष हैं, ये सम्यक्त्व को मलिन करने वाले हैं, सरागसम्यग्दृष्टि के लिए ये छोड़ने योग्य हैं, यही सराग सम्यक्त्व ही व्यवहार सम्यक्त्व कहलाता है।

इस सराग सम्यक्त्व के द्वारा ही वीतराग नाम का निश्चय सम्यक्त्व साध्य है। वह शुद्धोपयोग नामक वीतराग चारित्र के साथ ही होता है। व्यवहार सम्यग्दर्शन से ही निश्चय सम्यग्दर्शन प्राप्त किया जाता है। इन दोनों में साध्य-साधन भाव है।

सम्यग्दर्शन से पूर्व यदि आयु बंध नहीं हुआ है तो उस सम्यग्दृष्टि के भले ही व्रत, चारित्र नहीं हैं तो भी वह मरकर नरक, तिर्यंचगति में जन्म नहीं लेता है, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदी नहीं होता है, नीच कुल में जन्म नहीं लेता है, विकृत अंग वाला नहीं होता है, अल्पायु और दरिद्री भी नहीं होता है तथा भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देवों में भी जन्म नहीं लेता है। स्वर्गों में भी प्रकीर्णक, आभियोग्य-वाहनदेव और किल्विषक देवों में भी जन्म नहीं लेता है और यदि पहले से नरक, तिर्यंच या मनुष्य की आयु बांध ली है बाद में सम्यक्त्व- क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया है तो वह नरकों में से पहले नरक में ही जाता है। तिर्यंचों में भोगभूमि का तिर्यच होता है और मनुष्यों में भी भोगभूमि का मनुष्य ही होता है इसलिए सम्यग्दृष्टि मनुष्य मरकर विदेहक्षेत्र में कर्मभूमि का मनुष्य नहीं हो सकता है यह नियम है।

अन्तरंग और बहिरंग कारणों के मिलने पर आप्त (देव),शास्त्र और पदार्थों का तीन मूढ़ता रहित, आठ अंग सहित जो श्रद्धान होता है, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह सम्यग्दर्शन प्रशम, संवेग आदि गुण वाला होता है। सर्वप्रथम यहां पर आप्त, आगम और पदार्थों का स्वरूप समझ लेना आवश्यक है।

सच्चे आप्त- जो सर्वज्ञ है, समस्त लोकों का स्वामी है, सब दोषों से रहित है और सब जीवों का हितू है उसे आप्त कहते हैं। चूंकि यदि अल्पज्ञ मनुष्य उपदेश दे तो लोगों को उससे ठगाये जाने की शंका बनी रहती है इसलिए आत्मार्थी पुरुष उपदेश के लिए ज्ञानी मनुष्य की ही खोज करते हैं।

श्रीसमंतभद्र स्वामी ने भी कहा है कि- 'जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं वे ही आप्त कहलाते हैं।

जो तत्त्वों का उपदेश देकर दुःखरूपी समुद्र से जगत के जीवों का उद्धार करते हैं, कृतज्ञतावश तीनों लोकों के जीव उन्हीं के चरणों में नत हो जाते हैं अतः वे ही सर्वलोक के स्वामी, परमात्मा, सच्चे देव कहलाते हैं। भूख, प्यास, भय, द्वेष, चिन्ता, मोह, राग, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, क्रोध, खेद, मद, रति, आश्चर्य, जन्म, निद्रा और खेद ये अठारह दोष संसार के सभी प्राणियों में पाये जाते हैं। जो इन दोषों से सर्वथा रहित हो चुके हैं वे आप्त हैं। उनके नेत्र केवलज्ञानी हैं उस केवलज्ञानरूपी नेत्र के द्वारा वे सर्व चराचर विश्व को जानते हैं तथा वे ही सदुपदेश के दाता होते हैं। वे जो कुछ कहते हैं, सत्य कहते हैं क्योंकि राग से, द्वेष से या मोह से झूठ बोला जाता है किन्तु जिनमें ये तीनों दोष नहीं हैं उनके झूठ बोलने का कोई कारण भी नहीं है।

जिनकी आत्मा में, श्रुति में, तत्त्व में और मुक्ति के कारणभूत चारित्र में एकवाक्यता पाई जाती है अर्थात् जो जैसा कहते हैं वैसा ही स्वयं आचरण करते हैं और वैसी ही तत्त्व व्यवस्था भी उपलब्ध होती है, उन्हें ही सज्जन पुरुष आप्त मानते हैं।

यद्यपि ऐसे आप्त सच्चे देव आज आँखों से नहीं दिखते हैं फिर भी उन अतीन्द्रिय सर्वज्ञ की विशेषता उनके द्वारा उपदिष्ट आगम से जानी जाती है। जैसे-बगीचे में रहने वाले पक्षियों की आवाज से उनकी विशिष्टता का भान हो जाता है अर्थात् पक्षियों के बिना देखे भी जैसे उनकी आवाज से उनकी पहचान हो जाती है वैसे ही आप्त पुरुषों को बिना देखे भी उनके शास्त्रों से उनकी आप्तता का पता चल जाता है।

ऊपर कहे हुए अठारह दोषों में से एक भी दोष जिनमें विद्यमान है और जो सर्वज्ञ नहीं बन पाये हैं उन्हें सच्चे आप्त नहीं कहना चाहिए।

सच्चा आगम- सबसे प्रथम देव की परीक्षा करनी चाहिए, पीछे उसके वचनों की परीक्षा करनी चाहिए उसके बाद उसमें मन को लगाना चाहिए। जो लोग देव की परीक्षा किए बिना उसके वचनों का आदर करते हैं वे अंधे के सदृश उस देव के कंधे पर हाथ रखकर सद्गति प्राप्त करना चाहते हैं। जैसे माता-पिता के शुद्ध होने पर सन्तान में शुद्धि देखी जाती है वैसे ही आप्त के विशुद्ध होने पर ही आगम में शुद्धता हो सकती है।'' अर्थात् यदि आप्त निर्दोष होता है तो उसके द्वारा कहे गये आगम में भी कोई दोष नहीं पाया जाता किन्तु यदि आप्त राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध आदि दोषों से सहित है तो उसके द्वारा प्ररूपित शास्त्र भी सदोष ही हैं, मुक्ति को प्राप्त कराने में समर्थ नहीं हो सकते अत: पहले देव की परीक्षा करनी चाहिए, उसके बाद उनके वचनों को प्रमाण मानना चाहिए।

जैसे वर्षा का पानी समुद्र में जाकर खारा हो जाता है या सांप के मुंह में जाकर विषरूप बन जाता है वैसे ही पात्र के दोष से विशुद्ध वचन भी दुष्ट हो जाता है तथा जैसे तीर्थ का आश्रय लेने वाला जल पूज्य हो जाता है वैसे ही जो वचन तीर्थंकरों का आश्रय ले लेते हैं अर्थात् उनके द्वारा कहे जाते हैं वही पूज्य होते हैं।

जो वचन ऐसे अर्थ को कहता है जिसे प्रत्यक्ष से देखा जा सकता है, उस वचन की प्रमाणता प्रत्यक्ष से साबित हो जाती है। जो वचन ऐसे अर्थ को कहता है जिसे अनुमान से ही जाना जा सकता है उस वचन की प्रमाणता अनुमान से सिद्ध होती है और जो वचन अत्यंत परोक्ष वस्तु को कहता है, जिसे न प्रत्यक्ष से ही जाना जा सकता है न अनुमान से, पूर्वापर में कोई विरोध न होने से उस वचन की प्रमाणता सिद्ध होती है अतः जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का अवलम्बन लेकर हेय-छोड़ने योग्य और उपादेय-ग्रहण करने योग्यरूप से त्रिकालवर्ती पदार्थों का ज्ञान कराता है उसे आगम या शास्त्र कहते हैं। तत्त्व के ज्ञाताओं का कहना है कि आगम में जीव-अजीव, उनके रहने के स्थान लोक तथा अपने-अपने कारणों के साथ बंध और मोक्ष का कथन होता है। जैसे समुद्र में लहरें उठती हैं वैसे ही सभी पदार्थ द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से स्वभाव से ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होते हैं अर्थात् वस्तु को देखने की दो दृष्टियां हैं - एक द्रव्यार्थिक दूसरी पर्यायार्थिक। द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से वस्तु ध्रुव है और पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से उत्पाद, व्यय शील है। यदि वस्तु को केवल प्रतिक्षण विनाशशील या केवल नित्य माना जायेगा तो बंध और मोक्ष की व्यवस्था नहीं बन सकेगी क्योंकि सर्वथा एकरूप मानने पर उसमें स्वभावांतर अर्थात् परिणमन नहीं बन सकेगा अतः प्रत्येक वस्तु कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य। ऐसा वस्तु का सही स्वरूप समझने के लिए दोनों नयों का अवलंबन लेना ही स्याद्वाद है।

सम्यग्दर्शन के आठ अंग

सम्यग्दर्शन के आठ अंग होते हैं-निःशंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमृढदृष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, प्रभावना और वात्सल्य।

१. निःशंकित अंग - ये सर्वजदेव ही देव हैं, उनके कहे हुए जीवादि तत्त्व ही सही तत्त्व हैं और अहिंसा आदि व्रतों से ही मुक्ति होती है, ऐसा दृढ़ विश्वास करना निःशंकित अंग है क्योंकि तत्त्व के जान लेने पर शत्रु के दृष्टिगोचर होने पर और पात्र (मुनि आदि) के उपस्थित होने पर जिसका चित्त दोलायमान हो जाता है, वह इस लोक में भी खाली हाथ रहता है और परलोक में भी खाली हाथ रहता है।

२. नि:कांक्षित अंग - यदि सम्यग्दर्शन का माहात्म्य है तो मैं देव हो जाऊं, यक्ष हो जाऊं अथवा राजा हो जाऊं', इस प्रकार की आकांक्षा को छोड़ देना चाहिए। जो सांसारिक सुखों के बदले में सम्यक्त्व को बेच देता है वह छाछ के बदले में माणिक्य रत्न को बेच देने वाले मनुष्य के समान केवल अपने को ठग लेता है क्योंकि जिस सम्यग्दृष्टि के चित्त में चिंतामणि है, हाथ में कल्पवृक्ष है, धन में कामधेनु है, उसको याचना से क्या मतलब? जिसकी चित्तवृत्ति उचित स्थान को पाकर निराकुल हो जाती है उसे लक्ष्मी स्वयं वरण कर लेती है जैसे कि समुद्र में नदियां स्वयं प्रवेश कर लेती हैं अतः सम्यग्दर्शन की शुद्धि के लिए मिथ्या मतों के प्राप्त करने की इच्छा तथा इहलोक और परलोक सम्बन्धी सांसारिक सौख्य की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए।

३. निर्विचिकित्सा अंग - जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा गया यह उग्र तप प्रशंसनीय नहीं है, उसमें अनेकों दोष हैं, इस प्रकार चित्त में सोचना विचिकित्सा कहलाता है क्योंकि शास्त्र में कहे गए शील को पालने में अथवा उसका आशय समझने में जो जीव असमर्थ हैं सो यह उसी का दोष है। स्वतः शुद्ध आकाश भी जो मलिन दिखाई देता है सो यह आकाश का दोष नहीं है किन्तु देखने वालों की आंखों का ही यह दोष है। जो मनुष्य शरीर में दोष देखकर उसके अन्दर बसने वाली आत्मा से ग्लानि करता है वह लोहे की कालिमा को देखकर निश्चय ही सोने को छोड़ देता है अर्थात् जैसे लोहे की कालिमा का सोने के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है वैसे ही शरीर की गन्दगी का आत्मा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है अतः शरीर के गन्देपन को देखकर मुनियों की आत्मा से घृणा नहीं करना चाहिए। यह शरीर अपना हो चाहे दूसरे का, यद्यपि यह बाहर से मनोहर भी दिखता है तो भी उसके अन्दर की हालत का विचार करने पर तो वह उदुंबर फल के समान ही है अतः इस शरीर के वास्तविक स्वरूप को समझने वालों को अपनी चित्तवृत्ति व्याकुल नहीं करनी चाहिए।

४. अमूढ़दृष्टि अंग - जिनके अन्दर बुराइयां भरी हुई हैं किन्तु जो बाहर से सुन्दर दिखते हैं, किम्पाकफल के समान ऐसे मिथ्या मतों पर श्रद्धा नहीं करनी चाहिए। किसी मत में मधु के प्रयोग का विधान है, किसी सम्प्रदाय में मांस भक्षण का विधान है तो किसी मत में मद्य पीने को भी अच्छा माना है और धर्म संज्ञा दी है तथा किन्हीं ने तो यज्ञ में पशुओं का हवन करना भी धर्म कह दिया है सो ये सब बातें मूढ़दृष्टिरूप हैं, इनसे बचना अमूढदृष्टि अंग है क्योंकि यदि देव, शास्त्र और धर्म निर्दोष न हों तो प्राणियों की शुद्ध क्रिया भी श्रेष्ठ फल को नहीं दे सकती जैसे कि विजातियों में कुलीन संतान की प्राप्ति नहीं होती। अतः मिथ्यादृष्टियों की मन से प्रशंसा नहीं करनी चाहिए, न वचन से स्तुति करनी चाहिए और न उसके चमत्कार को देखकर भ्रम में ही पड़ना चाहिए।

उपगृहन अंग - क्षमा, सत्य, संयम आदि धर्म और दान के द्वारा धर्म की वृद्धि करनी चाहिए। जैसेमाता अपने पुत्रों के अपराध को छिपाती है वैसे ही यदि साधर्मियों में से किसी से दैववश या प्रमादवश कोई अपराध बन गया हो तो उसे गुणसंपदा से छिपाना चाहिए क्योंकि असमर्थ मनुष्य के द्वारा की गई गलती से धर्म मलिन नहीं हो सकता है। क्या मेंढक के मर जाने से कभी समुद्र भी दुर्गन्धित हुआ है? जो न तो पर के दोष को ही ढांकता है और न धर्म की वृद्धि ही करता है वह जिनधर्म का पालक नहीं है और उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होना भी दुष्कर है।

स्थितिकरण अंग - परीषह और व्रत से घबराया हुआ तथा आगमज्ञान से शून्य कोई साधर्मी भाई यदि धर्म से भ्रष्ट होता हो तो सम्यग्दृष्टि को उसका स्थितिकरण करना चाहिए। जो तप से भ्रष्ट होते हुए मुनि की रक्षा नहीं करता है, आगम की मर्यादा का उल्लंघन कर देने से वह मनुष्य नियम से सम्यग्दर्शन से रहित है, जो धर्म के निर्वाह में संदिग्ध हैं ऐसे मनुष्यों को संघ में रखना चाहिए। एक दोष के हो जाने पर उन्हें छोड़ नहीं देना चाहिए, प्रत्युत स्थितिकरण करना चाहिए क्योंकि धर्म का कार्य अनेक मनुष्यों के आश्रय से ही चलता है अतः समझा बुझाकर जो जिसके योग्य हो उसको उसी में लगा देना चाहिए। उपेक्षा करने से मनुष्य धर्म से दूर होता जाता है और पुनः उसका संसार भी दीर्घ हो जाता है, इससे धर्म की हानि ही होती है अतः स्थितिकरण अंग का पालन करना चाहिए।

प्रभावना अंग - जिनबिंब और जिनालयों की स्थापना के द्वारा, ज्ञान के द्वारा, तप के द्वारा तथा अनेक प्रकार की महाध्वज आदि पूजाओं के द्वारा जैनधर्म की प्रभावना करना चाहिए। जो मुनियों के ज्ञान, तप और पूजा की निंदा करता है, उनमें झूठा दोष लगाता है, स्वर्ग और मोक्षलक्ष्मी भी नियम से उस मनुष्य से द्वेष करती है। अर्थात् न उसे स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है और न मोक्ष ही मिल सकता है। इस लोक में बुद्धि और धन के समर्थ होने पर भी जो जिनशासन की प्रभावना नहीं करता है वह बुद्धि और धन से समर्थ होने पर भी परलोक में अपना कल्याण नहीं कर सकता है अतः ऐहिक सुख की इच्छा न करके दान, ज्ञान, विज्ञान और महापूजा आदि महोत्सवों के द्वारा सम्यग्दर्शन का प्रकाश करना चाहिए।

वात्सल्य अंग - धर्मात्मा पुरुषों के प्रति उदार होना, उनकी भक्ति करना, मिष्ट वचन बोलना, उनका आदर सत्कार तथा अन्य उचित क्रियायें करना वात्सल्य है। स्वाध्याय, संयम, संघ, गुरु और अपने सह अध्यायी का यथायोग्य आदर-सत्कार करना विनय कहलाता है। जो मानसिक या शारीरिक पीड़ा से पीड़ित हैं, निर्दोष विधि से उनकी सेवा-सुश्रूषा करना वैयावृत्य कहलाता है। यह वैयावृत्य धर्म मुक्ति का कारण है। जिन भगवान में, जिन भगवान के द्वारा कहे हुए शास्त्र में, आचार्य में और तप, स्वाध्याय में लीन मुनि आदि में विशुद्ध भावपूर्वक जो अनुराग होता है उसे भक्ति कहते हैं। जो हर्षित होकर चतुर्विध संघ में यथायोग्य वात्सल्य नहीं करता है वह धर्मात्मा कैसे हो सकता है ? इसलिए व्रतों के द्वारा शारीरिक, मानसिक और आगंतुक रोगों से पीड़ित संयमीजनों का उपकार करना चाहिए।

जैसे दृष्टि अर्थात् आंखों से हीन पुरुष अपने इच्छित स्थान तक नहीं पहुँच सकता वैसे ही दृष्टि अर्थात् सम्यग्दर्शन से हीन पुरुष मुक्ति लाभ नहीं कर सकता। जैसे राज्य के अंग मन्त्री, सेनापति वगैरह के बिना राज्य समृद्धशाली नहीं हो सकता, वैसे ही निःशंकित आदि अंगों के बिना सम्यग्दर्शन भी उत्कृष्ट आभ्यंतर और बाह्य विभूति को नहीं दे सकता इसलिए प्रत्येक प्राणी को चाहिए कि सम्यग्दर्शन के अंगों को प्राप्त करके नि:संग-निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि होने की भावना करे।

सम्यक्त्व से रहित प्राणी में सम्यग्ज्ञान आदि भी नहीं रह सकते हैं क्योंकि बीज के अभाव में धान्य की उत्पत्ति असंभव है। जिसका सम्यग्दर्शन निर्दोष है, चक्रवर्ती की विभूति भी उसका आलिंगन करने के लिए उत्कंठित रहती है और देवों की विभूति तो उसके दर्शन के लिए ही उत्सुक रहती है अधिक क्या कहें ? मोक्ष लक्ष्मी भी उससे दूर नहीं है।

सरागी और वीतरागी आत्माओं की अपेक्षा इस सम्यग्दर्शन के दो भेद माने गये हैं-सराग सम्यक्त्व और वीतराग सम्यक्त्व। सराग सम्यग्दर्शन तो प्रशम आदि गुणरूप होता है और वीतराग सम्यग्दर्शन आत्मविशुद्धिरूप होता है।

जैसे पुरुष की शक्ति यद्यपि अतीन्द्रिय है इंद्रियों से उसे नहीं देखा जा सकता फिर भी सन्तान उत्पादन से, विपत्ति में धैर्य धारण करने से और प्रारम्भ किये गये कार्य को समाप्त करना आदि बातों से उसकी शक्ति का निश्चय किया जाता है वैसे ही सम्यक्त्व रूपी रत्न भी आत्मा का स्वभाव होने के कारण यद्यपि बहुत ही सूक्ष्म है फिर भी प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि के द्वारा उसका निश्चय किया जा सकता है।

प्रशम - रागादि दोषों से चित्तवृत्ति के हटाने को पंडितजन प्रशम गुण कहते हैं। यह प्रशम गुण समस्त व्रतों का भूषण है।

संवेग - यह संसार शारीरिक, मानसिक और आगंतुक कष्टों से भरा है और स्वप्न या इन्द्रजाल की तरह चंचल है, इस संसार से डरना संवेग है।

अनुकंपा - सब प्राणियों के प्रति चित्त का दयालु होना अनुकंपा है। दयालु पुरुष इसे धर्म का परम मृल बतलाते हैं।

आस्तिक्य - मुक्ति के लिए प्रयत्नशील पुरुष का चित्त आप्त के विषय में, शास्त्र के विषय में और तत्त्व के विषय में 'ये हैं इस प्रकार की भावना से युक्त होता है उसे आस्तिक पुरुष आस्तिक्य गुण कहते हैं। जो मनुष्य रागी और द्वेषी है, कभी व्रतों का आचरण नहीं करता और न कभी उसकी आत्मा में दया का भाव ही होता है उस नास्तिक बुद्धि वाले का संसार भ्रमण बढ़ता ही जाता है।

सम्यग्दृष्टि श्रावक को माया, मिथ्या और निदान इन तीन शल्यों को दूर करना चाहिए। सरलतारूपी कील के द्वारा मायारूपी कांटे को निकालना चाहिए। इच्छा के अभावरूपी कील के द्वारा निदानरूपी कांटे को निकालना चाहिए और तत्त्वों की भावनारूपी कील के द्वारा मिथ्यात्वरूपी कांटे को निकालना चाहिए।

सम्यग्दृष्टि जीव जैसे आठ अंग और प्रशम आदि चार गुणों को धारण करता है, वैसे ही वह सम्यक्त्व को मलिन करने वाले दोषों को भी छोड़ता है। वे दोष २५ माने गये हैं

मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथा नायतनानि षट्।
अष्टौ शंकादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः।।२४१।।

तीन मृढ़ता, आठ मद, छह अनायतन और आठ शंका आदि सम्यग्दर्शन के ये २५ दोष माने गये हैं। देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता और लोकमूढ़ता ये तीन मूढ़ता हैं। अदेव को देव मानना देवमूढ़ता है, कुगुरु को गुरु मानना गुरुमूढ़ता है और अग्नि में जलना, पर्वत से गिरना आदि कार्यों में धर्म मानना लोकमूढ़ता है। कुल, जाति, रूप, ऐश्वर्य, ज्ञान, तप, पूजा और बल इनका घमंड करना मद है। इन कुल आदि के भेद से मद के भी आठ भेद हो जाते हैं। कुदेव, कुदेव का मंदिर, कुशास्त्र, कुशास्त्र के पाठी और कुतप तथा कुतप के धारक ये छह अनायतन कहलाते हैं। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़दृष्टि, अनुपगृहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना ये आठ शंकादि दोष हैं, इस प्रकार से सब मिलकर २५ दोष माने गये हैं।

इस तरह से संक्षेप में सम्यग्दर्शन का कथन किया गया है। अब सम्यग्ज्ञान का लक्षण कहते हैं।