स्थापना - गीता छन्द
कैवल्यज्ञान महान लक्ष्मी, त्रय जगत में मान्य है। सब लोक और अलोक जिसमें, एक अणु समान है।। जिस चाह से सब साधुगण, भी सेवते परमात्म को। उस महालक्ष्मी को जजूँ, करके मुदा आह्वान को।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीकेवलज्ञानमहालक्ष्मी ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं। ॐ ह्रीं श्रीकेवलज्ञानमहालक्ष्मी ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। ॐ ह्रीं श्रीकेवलज्ञानमहालक्ष्मी ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टकं-नरेन्द्र छन्द
गंगानदि का पावन जल ले, कंचनभृंग भरूँ मैं। ज्ञानभानु गुण पूजन करके, भव भव त्रास हरूँ मैं।। केवलज्ञान महालक्ष्मी को, नित पूजूँ हरषाऊँ। सुख संपति सौभाग्य प्राप्तकर, शिवलक्ष्मी को पाऊँ।।१।। ॐ ह्रीं केवलज्ञानमहालक्ष्म्यै जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीतिस्वाहा। अष्टगंध चंदन के द्रवसम, कनक कटोरी भरिये। ज्ञानसूर्य का अर्चन करके, पूर्ण शांति को वरिये।।केवल.।।२।। ॐ ह्रीं केवलज्ञानमहालक्ष्म्यै संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीतिस्वाहा। सिंधुफेन सम उज्जवल अक्षत, धौत अखंडित लाऊँ। पूरण गुणमणि अर्चन हेतू, रुचि से पुंज चढ़ाऊँ।।केवल.।।३।। ॐ ह्रीं केवलज्ञानमहालक्ष्म्यै अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीतिस्वाहा। वकुल मालती पारिजात के, पुष्प सुगंधित लाऊँ। मदन विनाशक ज्ञानभानु की, पूजा नित्य रचाऊँ।।केवल.।।४।। ॐ ह्रीं केवलज्ञानमहालक्ष्म्यै कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। मोतीचूर सु लाडू घेवर, फेनी आदि बनाके। क्षुधा वेदनी दूर करन को, जजूँ ज्ञान गुण गाके।।केवल.।।५।। ॐ ह्रीं केवलज्ञानमहालक्ष्म्यै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। घृत दीपक कर्पूर ज्योति से, करूँ आरती रुचि से। अंतर में श्रुतज्ञान पूर्ण कर, जजूँ भारती मुद से।।केवल.।।६।। ॐ ह्रीं केवलज्ञानमहालक्ष्म्यै मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। धूप सुगंधित अग्नि पात्र में, खेऊँ कर्म जलाऊँ। परमज्योति की पूजा करके, सौख्य अपूरब पाऊँ।।केवल.।।७।। ॐ ह्रीं केवलज्ञानमहालक्ष्म्यै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। सेव आम्र अंगूर फलों से, पूजूँ हर्ष बढ़ाऊँ। ज्ञानज्योति का अर्चन करके, मोक्ष महाफल पाऊँ।।केवल.।।८।। ॐ ह्रीं केवलज्ञानमहालक्ष्म्यै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। जल चंदन अक्षत माला चरु, दीप धूप फल लाऊँ। जिनगुण लक्ष्मी की पूजाकर, रत्नत्रयनिधि पाऊँ।।केवल.।।९।। ॐ ह्रीं केवलज्ञानमहालक्ष्म्यै अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा
ज्ञानमहानिधि हेतु, ज्ञान महालक्ष्मी भजूँ। शांतीधारा देत, आत्यंतिक शांती वरूँ।।
शांतये शांतिधारा।
सुरतरु के वर पुष्प, लेय महालक्ष्मी जजूँ। पुष्पांजलि से शीघ्र, प्राप्त करूँ सुख संपदा।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य - ॐ ह्रीं केवलज्ञान महालक्ष्म्यै नमः।
दोहा
पूर्णज्ञान लक्ष्मी महा, मुक्ति सहेली सिद्ध। गाऊँ जयमाला अबे, पाऊँ सौख्य समृद्ध।।१।। चाल-हे दीनबंधु--------- जय जय अनंत गुण समूह सौख्य करंता। जय जय श्री अरिहंत घातिकर्म के हंता।। जय जय अनंतदर्श ज्ञानवीर्य सुख भरे। जय जय समवसरण विभूति सर्व निधि धरें।।२।। केवलरमा को सेवतीं संपूर्ण ऋद्धियाँ। उस आगे आगे दौड़ती हैं सर्व सिद्धियाँ।। सब भूत भविष्यत् व वर्तमान को लखें।। पर्याय सभी गुण सभी तत्काल इव दिखें।।३।। दर्पण समान स्वच्छज्ञान में जगत् दिखे। त्रैलोक्य अरु अलोक प्रतिबिम्ब सम दिपे।। संपूर्ण प्रदेशों से दर्शज्ञान प्रगटता। व्यवधान रहित ज्ञान अतीन्द्रिय विलसता।।४।। पंचेन्द्रियाँ औ मन भी सहायक नहीं वहाँ। कैवल्यज्ञान इसी से असहाय है यहाँ।। प्रतिपक्ष रहित एक अकेला स्वतंत्र है। इससे ही आतमा का राज्य एकतंत्र है।।५।। इसके अनंत चमत्कार आर्ष में कहे। शाश्वत अनंत सौख्य का भंडार यह रहे।। कैवल्य के गुणों को कोई गा नहीं सके। मां शारदा गणधर गुरू भी हारकर थके।।६।। फिर भी हुआ वाचाल मैं गुणगान कर रहा। पीयूष एक कण भी मिले सौख्य कर अहा।। हे नाथ! बात एक मेरी राख लीजिये। ‘कैवल्यज्ञानमती’ रवि प्रभात कीजिये।।७।।
केवलज्ञान महान् में, लोकालोक समस्त। इक नक्षत्र समान है, नमूँ नमूँ सुखमस्तु।।८।। ॐ ह्रीं केवलज्ञानमहालक्ष्म्यै जयमाला पूर्णार्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।
नरेन्द्र छन्द
केवलज्ञान महालक्ष्मी की, पूजा नित्य करें जो। इस जग में धन धान्य रिद्धि निधि, लक्ष्मी वश्य करें सो।। दीपावलि दिन लक्ष्मी हेतू, इस लक्ष्मी को ध्याके। केवल ‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी को, वरें सर्वसुख पाके।।१।।
इत्याशीर्वादः।