।। केवलज्ञान ।।

इस प्रकार श्रमण महावीर के साधना काल में अनेक उपसर्ग आए, पर वे हमेशा शांत रहे। विरोधियों के प्रति भी उनके हृदय में द्वेष नहीं था। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उनकी साधना का दीप जगमगाता रहा। वे वीर सेनानी की भांति निरंतर आत्मविकास के पथ पर आगे बढ़ते रहें इस तरह वे शरद ऋतु के स्वच्छ जल कीे भांति निर्मल तथा सागर की भांति गंभीर होते चले गये। चन्द्र की भांति सौम्य, सूर्य की भांति तेजस्वी, पृथ्वी की भांति सहिष्णु तथा कच्छप के समान वे जितेन्द्रिय हो गये। अब महावीर केवल ज्ञान की उपलब्धि के निकट थे।

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    एक दिन महावीर जृम्भिका ग्राम के निकट ऋजुकूला नदी के तटपर शालवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। उनके मुखमण्डल पर अब ज्ञान की विलक्षण आभा विकीर्ण होने लगी थी। वीतरागता गहन होती जा रही थी और कर्मों का कलुषअंजली के जल की भांति चुकता चला जा रहा था। घातिया कर्मनष्ट हो चले थे। अंततः साधना की परिणिति केवल ज्ञान के रूप में हुई । वैशाख शुक्लादशीमी के दिनई. पू. 557 को श्र मणमहावीर अरहंत हो गये। अब सारे जगत उनके सामने अपने वास्तविक रूप में था। महावीर की आत्मा ने लम्बी साधना के बाद अपने स्वरूप के सत्य से साक्षात्कार किया। वे अब पूर्ण आनन्दित अवस्था में थे। उनकी चित्त की प्रसन्नता और केवलज्ञान का आलोक सारे जगत में व्याप्त हो गया।

    महावीर अब अपनी साधना और चिन्तन की उपलब्धियों को लोक कल्याण के लिए प्राणी मात्र तक पहुंचा देना चाहते थे जब महावीर के केवल ज्ञान की प्राप्ति की बात आस-पास के नगरो ओर गांवो मे पहुंची तो उनके उपदेशो को सुनने के लिए अपार जन समूह उमड़ पड़ा। इसके लिए विराट जन सभाओं के आयोजन किये जाने लगे। इन सभाओ मे बिना किसी भेद-भाव के सभी प्राणी महावीर के उपदेश को ग्रहण कर सकते थे। अतः वे सभाए समवसरण अर्थात सभी को समान अवसर देने वली कही गयी हैं।