।। माला क्यों फैरते हैं ? ।।

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आपके पास समय रहा तो आपने माला फैरी। प्राय: हर धर्म , संस्कृति में माला का भी अपना महत्त्व है। माला फैरी जाती है । कोई उल्टी माला फैरते हैं । दाने बाहर को ले जाते हैं। कोई अन्दर की तरफ फैरते हैं, कोई हाथ से फैरते हैं। कोई श्वांसोच्छवास से फैरते हैं, कोई रत्नों की माला फैरते हैं, कोई मोतियों से फैरते हैं। कोई सूत की माला फैरते हैं । तुलसी की माला फैरते है, कोई रुद्राक्ष की माला फैरते हैं। परन्तु आजतक एक भी माला नहीं फिरी|

माला फैरत युग गया, गया न मन का फैर।
कर का मनका डारिके, मन का मनका फैर।।

माला क्यों फैरी जाती है, माला में कितने दाने होते हैं ? माला में १०८ दाने होते हैं । प्राय: हर धर्म संस्कृति के जितने भी जाप अनुष्ठान के उपक्रम हैं, वे सन्तुलित हैं, व्यवस्थित है। १०८ दाने उस माला के अन्दर क्यों होते हैं ? १०८ के सभी अंकों को आपस में जोड़िये तो नौ बन जायेंगे। विश्व के अन्दर ९ (नौ) की संख्या ऐसी है कि इसको दुगुना करते जाओ और उसका योग लगाओ तो ९(नौ) ही निकलता है।

हमारे दैनिक जीवन में किसी भी कार्य को हम सम्पादित करते हैं, वह भी १०८ प्रकार से होता है। चाहे पाप रूप हो, चाहे पुण्य रूप हो, चाहे अच्छा हो, चाहे बुरा हो। माता—बहनें आलोचना पाठ पढ़ती हैं। जिनवाणी के अन्दर आलोचना पाठ है। उसके अन्दर लिखा है कि हम जो दैनिक कर्म करते हैं वो भी १०८ प्रकार से होते हैं।

‘‘समरंभ समारंभ आरंभ, मन वच तन कीने प्रारंभ।
कृत कारित मोदन करिवैं, क्रोधादि चतुष्टय धरिवै।। ’’

इन सबको परस्पर में आप मिलाईये । समरंभ, समारंभ, आरंभ तीन। मन,वचन, काय तीनों को तीन से गुणा कर दो। (र्३३९) कृत, कारित , अनुमोदना फिर गुणा कर दो। (र्९३२७) क्रोध, मान, माया,लोभ (२र्७४१०८) इनके वशीभूत होकर मनुष्य हर कर्म को करता है । चाहे वह अच्छा हो या बुरा । चारों कषायों का उपशमन करेगा तो अच्छे कर्म करेगा और चारों कषायों के साथ चलेगा तो बुरे कर्म करेगा।

समरंभ क्या है ? किसी भी कार्य की संकल्प शक्ति मन के अन्दर अवतरित करना । किसी भी अच्छे, बुरे कर्म के संकल्प को मन के अन्दर अवतरित करना समरंभ है। अब उस कार्य को किस प्रकार से फली भूत किया जाए ? उस कार्य को कैसे सम्पादित किया जाए ? उसकी सामग्री जुटाना, वह है समारंभ । और जब सामग्री जुट गयी तो उसको परिपूर्ण रूप दिया जाए, व्यावहारिक रूप दिया जाए तो वह है आरंभ।

स्वयं करना कृत है। दूसरे से कराना कारित है और कोई कर रहा है, उसकी प्रशंसा करना उसको प्रोत्साहन देना वह अनुमोदना है। क्रोध, मान, माया, लोभ की बात तो सभी जानते हैं। गुस्सा करना क्रोध। अहंकार करना मान। छिपाना, कुटिलता रखना—माया। लालच— लोभ। इतनी प्रकार की प्रक्रियाओं से कर्मों का आस्रव होता है जो हमारी आत्मा को सुखी व दु:खी करते हैं। जब अच्छे मार्ग में समरंभ, समारंभ, आरंभ, कृत, कारित, अनुमोदना, मन, वचन, काय और क्रोध, मान माया, लोभ, की स्थिति को सँभालते हुये लग जायेंगे। तो अच्छा प्रतिफल देते हैं। इन्हीं का ही हम कोई दूसरा रूपक ले लें तो विपरीत प्रतिफल देते हैं।

उन १०८ कर्मों का आस्रव हमारे जीवन से निकल जाए, माला इसलिये फैरी जाती है । प्रभु का स्मरण १०८ प्रकार से किया जाता है। हमारे १०८ प्रकार के माध्यम से जो अशुभ कर्मो का आस्रव हो रहा है, वह प्रभु का नाम लेने से रुक जाए। एक—एक दरवाजे पर एक — एक प्रभु, एक— एक परमात्मा को खड़ा कर देते हैं नाम ले लेकर कि प्रभु , तुम यहाँ खड़े हो जाओ। यह कर्म यहाँ से आ रहा है। इसको यहाँ से न आने देना, मेरे अन्दर की शान्ति को यह कर्म नष्ट कर देते हैं। जब प्रभु का नाम वहाँ केन्द्रित हो जाता है, भावनाओं से भावनात्मक तरीके से तो फिर पाप कर्म की हिम्मत नही है कि वह अन्दर घुस आये। प्रभु हमारी आत्मा की पहरेदारी करते हैं १०८ तरीके से।

लेकिन हमने आज तक उस तरह से प्रभु को पुकारा ही नहीं कि यह हमारी पहरेदारी करें। हमने तो अपने विषय—कषायों से इतना मेल—मलाप कर रखा है कि वहाँ प्रभु आता ही नहीं है ।आता भी है तो दरवाजा देखकर चला जाता है कि इसकी परिणति ठीक नहीं है। इसके साथ में और पिट जाउँगा । क्योंकि प्रभु सोचता है कि जब तुम्हें हमारे अन्दर आस्था नहीं है तो फिर मैं क्या करूँगा तुम्हारे अन्दर जा करके तुम्हारे संग में हम पिस जायेंगे। प्रभु बहुत समझदार है। प्रभु को इतना भोला मत समझो। प्रभु आपकी थोथी बातों से प्रसन्न नहीं होगा। प्रभु भोली बातों से प्रसन्न होता है, थोथी बातों से नहीं ।

एक गड़रिया था । अपनी भेड़े चरा रहा था । वह बहुत भोला था और ऐसे लोगों को भगवान मिल जाते हैं बड़ा विचित्र है। श्री महावीर जी ने एक ग्वाले को सपना देकर महावीर भगवान निकले। जो जैन धर्म को जानता भी नहीं और मानता भी नहीं है। उस भोले जीव को श्री महावीर भगवान दिखे। उस समय तो राजा महाराजा सभी थे। भगवान बड़े आदमी के बन जाते , लेकिन नहीं । गरीब की जो गरिमा है, गरीबता की जो सुगन्धि है, कैसी सुगन्धी ?

जैसे बहुत घूप निकलने के बाद जब बरसात का एक झोंका आता है तो पृथ्वी के अन्दर सोंधी—सोंधी मिट्टी की सुगन्धि होती है ऐसी गरीब की आत्मा में भक्ति की सुगन्ध होती है। उसकी दिखावे की कृत्रिम सुगन्ध नहीं होती। उसका प्रभु के प्रति, गुरु के प्रति कैसा प्रेम होता है ? तुलसीदास जी महाराज ने एक जगह लिखा है—

‘‘ज्यों गरीब की देह को , जड़कारे को घाम।
ऐसे कब लगे हो प्रभु, तुलसी के मन राम।।’’

तुलसीदास जी ने कभी बड़े आदमी का उदाहरण नहीं दिया । गरीब की देह को उस जड़कारे का घाम कैसा सुहावना लगता है, मीठा लगता है ? उसकी ललक पाने के लिये वह भागता है। ऐसे कब लग हो प्रभु तुलसी के मन राम ? ऐसी भक्ति , ऐसी उमंग उस भक्त के अन्दर होती है तो वह प्रभु हमारी आत्मा का जाप, माला के माध्यम से स्मरण करते हैं तो वह आता है। लेकिन मुश्किल बात यह है —

‘मन्दिर तीरथ भटकते, वृद्ध हो गया छैल ।
पग की पनहिया घिस गई, गया न मन कर मैल ।।’’
‘‘पाप करते हैं तो बेशुमार करते हैं।
गिन गिन कर नाम लेते हैं परवर्दिगार का।।’’

ईश्वर का, परमात्मा का , गुरु का नाम गिन—गिन कर लेंगे रुपया गिन रहे हो। कही एक ज्यादा न चला जाए और पाप, कोई गिनती है। दिन भर में मन से, वचन से, काय से, कृत से, कारिता से, अनमोदना से, समरंभ से, समारंभ से, आरंभ से, क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से कितने प्रकार से हम लोग पाप करते जाते हैं ?

इसलिए प्रभु का नाम लेने के लिए १०८ दानों का प्रावधान रखा और विशेषता रखी उसके सुमेरु पर तीन दानें और डाल दिये । उन १०८ दानों को नियंत्रण में रखने के लिये तीन दाने और डाल दिये । वह तीन दाने हमारे मन, वचन, काय की एकाग्रता के प्रतीक हैं। सारे के सारे दाने अलग—अलग दो राउन्ड में रहते है, एक ही धागे के अन्दर रहते हैं । दोनों धागे एक ही दाने के अन्दर से गुजरते है। जहाँ भक्त और भगवान का भेद मिट जाता है।

‘‘जब मैं था, तब हरि नहीं, जब हरि था मैं नाहिं।
प्रेम गली अति साँकरी जामें दो न समाहिं ।।’’

जहाँ अहंकार नष्ट हो जाता है , वहाँ पर परमात्मा के दर्शन होते हैं । तो यह तीन दाने रत्नत्रय के प्रतीक हैं जो १०८ प्रकार के कर्मों को रोक सकते हैं। रत्नत्रय क्या है ? कल भी बताया था । हमारी बोल—चाल की भाषा में हम सबसे पहले इसी बात का उपदेश देते हैं बच्चों को। बेटा देखभाल कर चलो। देखभाल कर चलना, अच्छी तरह देखकर चलना। मतलब कहीं घटना या दुर्घटना ना हो जाए। घटना व दुर्घटना क्यों होती है ? क्योंकि हम अच्छी तरह देखकर नहीं चलते हैं । देखना, सम्यक् दर्शन है। भालना, सम्यक् ज्ञान है और चलना सम्यक् चारित्र है। रत्नत्रय की आराधना से हम इतने प्रकार से दुष्कर्मों से छुट सकते हैं।

माला फैरने की आकुलता मत कीजिए कि इतनी माला फैरी । आप अपने इष्ट को केवल नौ बार ही जपिये । एक महानुभाव पूछ रहे थे कि महाराज , नौ बार ही णमोकार मंत्र पढ़ने की बात क्यों कही जाती है ? तो हमने नौ की बात बतायी थी कि नौ का अंक ऐसा है कि कहीं भी उसको दुगना करके उसका योग निकालना हो तो वह अपने स्वरूप में आ जाता है । कितने ही विस्तार में ले जाओ। जब हम उसका संकलन करते हैं तो वह अपने स्वरूप में आ जाता है । नौ का अंक अपने स्वरूप को बताने वाला अंक है। कहने का मतलब कि माला जो है, वह आकुलता—व्याकुलता से नहीं निराकुलता से फैरिये। आप दानों से मत गिनिये। आप समय ऐसा निश्चित कर लीजिए। की हमें केवल पाँच मिनट ही प्रभु का स्मरण करना है। पाँच मिनट में चाहे एक बार फैरो, लेकिन कायदे से फैरो।

तो मैं उस ग्वाले की गात बता रहा था । वह अकेला बैठा—बैठा प्रभु से कहता था, प्रभु तू मेरे पास आ जा। मैं खाली रहता हूँ । मैं तेरे पैर दबाउँâगा। मैं तुमको बाजरे की मोटी—मोटी रोटी खिलाउँगा। मैं तेरी सेवा करूँगा। मैं तुझे दूध पिलाउँगा, मैं तुझे नहलाउँगा। तो एक विद्वान वहाँ से गुजर रहा था वह इस ग्वाले की प्रार्थना को सुन रहा था। उसको बहुत ही झुँझलाहट आयी कि तू कैसा मूर्ख है ? तू परमात्मा को ऐसे बुला रहा है उसको पीटा । परमात्मा अवतरित हुआ । उस पण्डित को पकड़ लिया और उसको सजा दी।

उस ग्वाले की भक्ति में खुशबू थी । उसकी भक्ति में आन्तरिक आह्वानन था। हम लोग शब्दों का आडम्बर ढूँढते हैं। प्रभु को प्रसन्न करने के लिये भक्त कभी शब्दों का आडम्बर नहीं ढूँढता है। कभी श्वांग नहीं करता है। भगवान होते हैं और जो परमात्मा, गुरु श्वांग से प्रसन्न हो तो वह परमात्मा, गुरु है ही नहीं। गुरु भावों को महत्व देते हैं, भाषा को महत्व नहीं देते हैं। भगवान ने आज तक भावों को महत्व दिया है। भाषा को कभी महत्व नही दिया । श्री महावीर जी में चले जाओ, जिनकी मैं अभी बात कर रहा था , अब वहाँ पर बहुत विशाल मन्दिर बन गया है। मीणा, गुजर आते है त्यौहारों पर रोटी, दाल , चावल, खीर लाते हैं और फर्श पर पेंâकते हैं और कहते हैं ले, बाबा खा ले। गालियाँ देते हैं भगवान को । भगवान उनकी गलियों से प्रसन्न हैं। नानक महाराज कहते हैं कि उस खून की कमाई की पूड़ी से गरीब की खून—पसीने की मेहनत की सूखी रोटी जो है, उसमें ज्यादा रस है।

आज तक किसी बड़े आदमी ने भगवान के दर्शन नहीं किये। लेकिन गरीब लोगों ने भगवान के बहुत दर्शन किये हैं। अगर अमीर आदमी ने दर्शन किये हैं तो उसे भी गरीब आदमी बनना पड़ा होगा ।

अमीर बनकर कभी भगवान के दर्शन नहीं हो सकते हैं। उसे हम जैसा गरीब बनना पड़ा होगा। जितने भी महापुरुष हुये हैं, उन्होंने सब कूछ छोड़ दिया और जंगल को चले गये, गरीब बन गये। अपना जो कुछ था, बह सब लुटा दिया। सब बेकार है। यह सब परमात्मा से मिलने में बाधा करते हैं। इसके माध्यम से आपस की प्रेम—प्रीति टूटती है। यह माया ही सब हमारे भगवान में भेद करा देती हैं।

दो मित्र थे। आपस में उनमें बड़ा प्रेम था । एक मित्र ने अपने खेत में ककड़ियाँ बो दी थीं। अच्छे —अच्छे फल की फसल बो दी। एक मित्र कहीं बाहर गया हुआ था। वह कई दिन बाद लौटा। उसे अपनी मित्र की याद आयी। वह तो अपने खेत पर था, ककड़ियों की रक्षा कर रहा था, फसल की रक्षा कर रहा था। एक अच्छी ककड़ी को देखकर उसके मन में विचार आया और उसका मित्र सामने से आ रहा था । उसने अपने मित्र को देखा और सोचा कि यह तो बड़ी गड़बड़ हो गयी। वह आयेगा तो उसको ककड़ी खिलानी पड़ेगी तो यह ककड़ी टूट जायेगी।

इसलिये वह अपने खेत की पाल पर लेट गया । मित्र आया, उसने देखा कि हमारा मित्र सो रहा है। लेकिन बगल में एक सुन्दर — सी ककड़ी खिल रही है। उसका मन हुआ कि अपने मित्र को जगाये/ उठाये। लेकिन वह किसी कारण से आगे बढ़ गया कि मेरे मित्र के मन में जरूर कुछ न कुछ गड़गड़ हो गया है आदर —सत्कार नहीं करना चाहता है। तुलसीदास जी क्या कहते हैं ?

‘‘आबत ही हरषै नहीं, नैनन नहीं स्नेह।
तुलसी तहाँ न जाइये,कंचन बरसै मेह।।’’

कितनी ही प्रेम—प्रीति हो, भाव बता देते हैं । पदार्थ और संसार की औैर वस्तुएँ , खाने—पीने का मामला अलग है। लेकिन प्रेम और प्रीति केवल भावों से ही जुड़ी होती है। उसके मन में कुछ गड़बड़ हो गयी और वह आगे बढ़ गया । थोड़ी देर बाद वह मित्र उठा। उसने देखा कि वह ककड़ी वहीं पर लगी हुई है। मित्र आकर के चला गया है। बड़ी विचित्र स्थिति बनी उसके मन की । हमारा मित्र बुरा मान गया , मात्र एक ककड़ी के कारण हम दोनों के आपस का प्रेम टूट गया।

उसने उठकर लाठी से उस ककड़ी को पीटनां शुरू कर दिया कि तेरे कारण मेरी वर्षों की पुरानी मित्रता टूट गयी। तू है कि कितने दिन की ? तुझे कोई न कोई खा ही लेगा। लेकिन तेरे कारण जो मेरी मित्रता थी, वह खटायी में पड़ गयी और उसको लाठियों से पीटने लगा। आवाज आ रही है, ककड़ी को पीट रहा है। लौटकर आ गया मित्र। बिना बुलाये आगया और कहने लगा, क्या हो गया भाई ? इस ककड़ी ने हम दोनों के बीच एक दरार डाल दी, मित्र ने कहा।

तो इस संसार की , विषय कषायों की वस्तुएँ हम लोगों को धर्म से दूर ले जाती हैं, व्यवहारिक जीवन में दरार डाल देती हैं, सामंजस्य नहीं होने देती हैं । जिन—जिन पदार्थों से हमारे जीवन में आकुलता—व्याकुलता का प्रादुर्भाव हो, उन—उन पदार्थों की अपेक्षाओं का परित्याग कर दें। अपने आप एक समत्व का साक्षात्कार अपने जीवन में हो जायेगा। तो माला फैरने का मन से उपक्रम करो, करने की चेष्टा करो। उसके बाद हम तीसरी प्रणाली पर आते हैं।