|| उत्तम मार्दव धर्म ||

मृदुभाव आत्मा का स्वभाव हे, मृदुता आत्मा के सरल परिणाम को कहते हैं। जैसे कि-

मृदुत्वं सर्व भूतेषु कार्य जीवेन सर्वदा।
काठिन्यं त्यज्यते नित्यं धर्म बुद्धि विजानता।।

जो जीव धर्म बुद्धि को जानते हैं, ऐसे जीवों को उचित है कि समस्त जीवों में हमेशा मृदुभाव अर्थात् सरल भाव रखना चाहिए, कठोर भाव का त्याग करना चाहिए।

उत्तम णाण पहाणो, उत्तमतवयरण करण सीलोवि।
अप्पाणं जो हीलदि, मद्दवरयणं भवे तस्स।।३८५।।
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जो ज्ञानी पंडित हो तो भी ज्ञान मद नहीं करना चाहिए। यह विचारना चाहिये कि मेरे से बड़े-बड़े और भी बहत से ज्ञानी हैं। बड़े-बड़े ऋषि मुनि केवली भगवान् यह सभी चिदात्मज्ञानी हैं। ज्ञान मद करना मेरी भारी मूर्खता है। मैं एक अल्पज्ञानी हूँ। व्यर्थ ज्ञान मद करना मुझे शोभा नहीं देता है। इस प्रकार ज्ञानी को विचार कर कभी भी ज्ञान का मद नहीं करना चाहिए।

धनमद-ये मामूली से पूर्वोपार्जित पुण्य के उदय से कुछ संपत्ति मुझे मिली है यह सभी पूर्व जन्म के पुण्य के प्रताप से मिली हुई है परंतु यह क्षणिक और इन्द्रियजनित होकर संसार में अनेक इन्द्रिय वासनाओं को बढ़ाने वाली है। जब बड़े-बड़े सम्पत्तिशाली तीर्थंकर, चक्रवर्ती तथा स्वर्ग में कुबेर इत्यादि की सम्पत्ति स्थिर नहीं रही। एक दिन पुण्य खत्म होते ही उनको छोड़कर जाना पड़ा, फिर मैं क्षणिक सम्पत्ति के पीछे गर्व करूँ तो मेरे समान अधर्मी या मूर्ख कौन होगा ? इसी तरह जातिमाद, कुलमद, रूपमद, तपमद, पूजामद इत्यादि मद हैं। यह मद स्थिर रहने वाले नहीं हैं और ये संसार में आपस में विरोध पैदा कर क्रोध को बढ़ाने वाले और मान अपमान इत्यादि को उत्पन्न कर मानहानि के अलावा और कुछ नहीं हैं। ऐसे विचार कर ज्ञानी लोग कभी भी गर्व नहीं करते हैं। सम्पूर्ण मानव प्राणी के साथ नम्रता का व्यवहार करते हैं। जो नम्रता का व्यवहार करते हैं। उनके इस संसार में कोई भी शत्रु नहीं होते हैं।

मार्दव धर्म आत्मा अर्थात् निजात्मा स्व-स्वरूप का धर्म है। जहाँ मृदु भाव या नम्रता नहीं है वहाँ धर्म भी नहीं है। और वहाँ नियम, व्रत, तप, दान, पूजा इत्यादि जो मानव करता है विनय भाव के बिना सभी व्यर्थ गिनाया जाता है। और कहता है कि मैंने ऐसा किया जो भी किया मैंने किया अन्य कोई भी मेरे समान किया नहीं इस तरह कह कर जो मान कषाय करता है वह अपनी आत्मा को ठगता है और दुनियाँ को भी ठगाया समझना चाहिए। अहँकारी पुरुष मान कषाय के कारण दूसरे के प्रति झुकता नहीं और आपस में जुहार इत्यादि भी अहँकार के वजह से नहीं करता है सूखे बाँस के समान सीधा ही रहता है। जैसे सूखा बाँस नम्र नहीं होता है अगर उसको ज्यादा जोर से झुकाया जाये तो बीच में से ही टूट जाता है उसी प्रकार अहँकारी मनुष्य अंदर नम्रता न होने के कारण अहँकार से किसी के साथ नम्रता न कर आपस में बैर होने से खुद का नाश कर लेता है और लोग मानी पुरुष के साथ हमेशा द्वेष भाव रखते हैं और बार-बार उसका अपमान करने के लिए प्रयत्न करते हैं तब मानी पुरुष को अपमान होने की महान् चिंता होती है और रात दिन आर्त्तध्यान करता रहता है। जो हमेशा विनम्र रहता है उसकी सभी लोग विनय करते हैं। कदाचित् विनयी मनुष्य पर शत्रु आक्रमण भी करने आए तो उनके सामने विनम्र होकर वह खड़ा हो जाता है तब उसकी विनम्रता को देखकर शत्रु भी मित्र बन जाते हैं, जैसे नदी में छोटी सी घास होती है, उस घास के ऊपर से जब जोर से पानी का वेग चलता है तब वह घास अपने को बचाने के लिये पानी में विनम्र हो जाती है तब अपना बचाव कर लेती है, इसी प्रकार विनम्र सज्जन पुरुष की वृत्ति रहती है। ज्यादा मान करने वाले की गर्दन बहुत ऊँची होती है, उसे मान कषाय की वजह से मर कर ऊँट की योनी में जाकर जन्म लेना पड़ता है। जैसे ऊँट हमेशा ऊपर को देखता है और कहता है मेरे समान कोई भी ऊँचा नहीं है। तब पर्वत सामने आता है तब उसको देखकर, उसको लज्जित होकर अपनी गर्दन को नीचा कर लेना पड़ता है।

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यह आत्मा अनादि काल से क्षणिक इन्द्रिय सुख के प्रति गर्व करके नरक में चली गयी थी तब तेरा मद यह अहँकार कहाँ चला गया ? रावण अहँकार के कारण राम के द्वारा मारा गया और अंत में उनको नरक में जाना पड़ा। तब वहाँ बड़प्पन कहाँ गया। वहाँ से फिर नीच कुल में जन्म लिया तब इस जीव का बड़प्पन कहाँ चला गया। एकेन्द्रिय द्विइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चारइन्द्रिय इत्यादि में जब तू ने जन्म लिया और वहाँ नीच जीवों के द्वारा पाँव के नीचे तुझे ठुकराया जाता था तब तुम्हारा बड़प्पन कहाँ चला गया था। इसलिये जीव को क्षणिक वस्तु के प्रति अहँकार करना महा मूर्खता का कारण है और अंत में नीच गति का कारण है।

ज्ञानी पुरुष कभी भी सांसारिक क्षणिक वस्तु के प्रति कभी भी गर्व नहीं करता है। सच्चा पुरुष हमेशा नम्र होता है। विद्या इत्यादि का घमंड या श्रीमानी का घमंड न करके हमेशा छोटे बड़े जीवों के प्रति उपकार की दृष्टि रखता हैं, जैसे नारियल का झाड़ स्वयमेव ऊँचा रहता है और अपने सिर पर श्रीफल का बोझा लेकर आप स्वयमेव न खाकर दूसरे जीवों के प्रति नम्र होकर गर्मी के दिनों में मीठा-२ पानी पिलाने की याचना करता है। आम का झाड़ बहुत से फल अपने से उत्पादन करता है परंतु उन फलों को स्वयमेव न खाकर गर्मी में नम्र होकर अर्थात् झुककर दूसरों को दे देता है।

आजकल के अहँकारी लोग-थोड़ी सी क्षणिक सम्पत्ति मिल जाय तो वे आसमान से ज्यादा ऊँचे बन जाते हैं और किसी मामूली या धर्मात्मा तथा सज्जन पुरुष को देखकर उनकी कभी विनय या अपस में जुहार इत्यादि करना तथा हाथ जोड़ने में अपना अपमान समझते हैं। इसलिए दूसरे लोग भी बात-बात में उनका तिरस्कार करते हैं। यानी मनुष्य देव शास्त्र गुरु के प्रति विनय करने मे भी हिचक जाता है। कदाचित् मंदिर में भगवान के दर्शन करने जाय तो मस्तक झुकाकर नमस्कार करना अनिवार्य होता है। इसलिए मंदिर या सधु सत्पुरुषों के पास भी नहीं जाता है।

विनय रहित मनुष्य हमेशा धोका ही खाता है। इसलिये आत्म-कल्याण पिपासी भव्य मानव को हमेशा विनय रखना चाहिए। विनय बिना मोक्ष की प्राप्ति भी दुर्लभ है। कहा भी है कि-

विद्या विनेयीपेता हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य।
कांचन मणि संयोगो, नो जनयति कस्य लोचनानंदम्।

विद्या विनय सहित हो तो किसके मन को हरण नहीं करती, जिस प्रकार स्वर्ण में मणि का संयोग हो तो किसके मन को हरण करने वाला नहीं होता अर्थात् सभी के मन को आकर्षित करने वाला होता है। इसलिए मनुष्य को हमेशा विनय गुण प्रत्येक बड़े छोटे के साथ रखना चाहिए।

अहँकार का त्याग भी अपना कल्याण है-

अहंकार त्यागने का अर्थ यह है कि मनुष्य अपने को दूसरों से श्रेष्ठ एवं बुद्धिमान् और दूसरों को अपने से तुच्छ एवं मूर्ख समझ कर उनको अपमानित न करे, अधिकारी तथा धन सम्पन्न होकर भी स्वामित्व का गर्व प्रदर्शित न करे। अल्पज्ञ होकर ज्ञान दुर्वियज्ञ न बने, छोटे मुँह बड़ी बात न करे और बड़प्पन न कर मोह त्याग दे। किसी को यह न सोचना चाहिए कि जो कुछ वह कहता है वह ठीक है। प्रत्येक को यह मानना चाहिये कि भूल उससे भी होती है। किसी की साधारण आलोचना को व्यक्तित्व पर आक्रमण नहीं समझना चाहिए। आलोचना से लाभ लेकर अपने दोषों को सुधारना चाहिए। छोटे-छोटे व्यक्ति का उपहार नहीं करना चाहिए। और आवश्यकता पड़ने पर सत्कार्य की सिद्धि के लिये उसी प्रकार झुक जाना चाहिए। अपने से बडे़ या गुणवान धर्मात्मा को देखकर उनका सत्कार करना, बड़ों की आज्ञा को मानना, उनके बोलते समय बीच में नहीं बोलना, बड़ों के पीछे-पीछे चलना, गुरू के आगे न चलकर उनके पीछे चलना, उनके वचन को पालना, इत्यादि विनय की बातें हमेशा याद रखना और उसी के अनुसार चलना तभी विनय कहा जाता है। अर्थात लोक-लज्जा का ध्यान रखना शिष्टाचार का एक आवश्यक अंग है। लज्जावान् होना प्रत्येक मानव प्राणी का कर्तव्य है ? ये ही मानवता का कल्याण मार्ग है, इसलिए हमेशा अपने भाव को नरम रखना प्रत्येक मानव का कर्तव्य है।