।। रत्नकरंडश्रावकाचार- प्रथम परिच्छेद ।।

पद्यानुवादकर्त्री- श्रीमती त्रिशला जैन (लखनऊ)

नम: श्री वर्धमानाय निर्धूत कलिलात्मने ।
सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते ।।

१. मंगलाचरण

ज्ञानावरणादिक पापकर्म आत्मा से नष्ट किए जिनने।
उन वीरप्रभु को नमन करूं सालोक—त्रिलोक ज्ञान जिनके।।
जैस चक्षु दर्पण को लख निजमुख अवलोकन करता है।
वैसे केवलज्ञानी आत्मा में सारा जगत झलकता है।।

जिन्होंने सम्पूर्ण कर्म कलंक को धोकर अपनी आत्मा को शुद्ध कर लिया है। केवलज्ञान को प्रकट कर तीनों कालों को प्रत्यक्ष कर लिया है। जिनके केवलज्ञान रूपी दर्पण में तीनों लोक और आलोक स्पष्ट झलकते हैं उन तीर्थंकर श्री वर्धमान स्वामी को मैं नमस्कार करता हूँ।।१।।

२. आचार्य की प्रतिज्ञा

देशयामि समीचीनं, धर्मं कर्म-निवर्हणम्।
संसारदु:खत: सत्त्वान्, यो धरत्युत्तमे सुखे।।२।।
संसार दु:खों से जीवों को उत्तम सुख में जो पहुँचाता।
कर्मों का नाशक जैन धर्म ही है सच्चे सुख का दाता।।
जो धर्म विमुख प्राणी जग में वह दु:ख ही भरते हैं।
अतएव अबाधित उसी धर्म का किंचित वर्णन करते हैं।।

जो संसार समुद्र में डूबे हुए संसारी प्राणी को हाथ का अवलम्बन देकर निकालकर उत्तम सुख में धरता है और मोक्ष में भी पहुँचा देता है। वही धर्म कहलाता है। वह सर्व कर्म को नष्ट करने वाला है, समीचीन है और रक्षक है मैं उसी धर्म को कहूँगा।।२।।

३. धर्म का लक्षण

सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि, धर्मं धर्मेश्वरा विदु:।
यदीय-प्रत्यनी-कानि, भवन्ति भवपद्धति:।।३।।
सम्यग्दर्शन अरू ज्ञानचरण ही सच्चे धर्म कहाते हैं।
मिथ्यादर्शन अरू ज्ञानचरण ही जग में भ्रमण कराते हैं।
ऐसा कहना है ऋषियों का जो सच्चे मार्ग प्रकाशक हैं।
तीर्थंकर हैं वे परमगुरु जो अष्टकर्म के नाशक हैं।।

सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन्हीं का नाम धर्म है। धर्म के स्वामी तीर्थंकर और गणधर इन्हें ही मोक्ष का मार्ग कहते हैं। इनसे विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये तीनों संसार दु:ख के कारण है ये कभी भी सुख के हेतु नहीं हो सकते हैं।।३।।

४. सम्यग्दर्शन

श्रद्धानं परमार्थाना-माप्तागमतपोभृताम्।
त्रिमूढ़ापोढ-मष्टाङ्गं, सम्यग्दर्शन-मस्मयम्।।४।।
सच्चे दिल से जो देवशास्त्रगुरु पर श्रद्धान किया जाता।
अरू तीनमूढ़ता आठ मदों का मन से त्याग किया जाता।।
इन दोषों से जब रहित आत्मा आठ अंगयुत होता है।
वह ही व्यक्ति तब पूर्ण रूप से सम्यग्दृष्टि होता है।।

सच्चे आप्त, आगम और मुनि, इनकी श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है। भव्यों का भवमल धोने वाले हैं। आठ मद, शंकादि आठ दोष, तीन मूढ़ता और छह अनायतन इन पच्चीस दोषों से रहित और आठ अंग से सहित सम्यग्दर्शन ही मोक्ष को प्रदान करने वाला है।।४।।

५. आप्त का लक्षण

आप्तेनोच्छिन्नदोषेण, सर्वज्ञेनागमेशिना।
भवितव्यं नियोगेन, नान्यथा ह्याप्तता भवेत्।।५।।
सत्यार्थ देव भी कैसा हो यह प्रश्न सामने आता है।
अट्ठारह दोष रहित होवे वह सच्चा आप्त कहता है।।
उसमें भी वीतरागता हो और हितोपदेशी वाणी हो।
सर्वज्ञपने की कमी रहे तो सच्चा आप्त कभी न हो।।

जो दोष रहित होने से वीतराग, सर्व के ज्ञाता होने से सर्वज्ञ और हित के उपदेशक होने से हितोपदेशी हैं। अत: आगम के ईश्वर हैं। इन तीनों गुणों से युक्त ही आप्त कहलाते हैं। किन्तु जो इन गुणों से रहित हैं वे आप्त नहीं हो सकते हैं।।५।।

६. वीतराग का लक्षण

क्षुत्पिपासाजरातज्र्-सजन्मान्तकभयस्मया:।
न रागद्वेषमोहाश्च, यस्याप्त: स: प्रकीत्र्यते।।६।।
नहिं क्षुधा तृषा की बाधा हो नहिं रोग बुढ़ापा आता हो।
नहि जन्म, मरण, भय रागद्वेष अरू गर्वमोह से नाता हो।।
आश्चर्य अरति अरू खेद शोक निद्रा चिन्ता व स्वेद नहीं।
अट्ठारह दोष रहित आत्मा के वीतरागता पूर्ण कही।।

जो भूख, प्यास, बुढ़ापा, आतंक, जन्म, मरण, भय, मद, राग, द्वेष, मोह, रोग, चिंता, निद्रा, आश्चर्य, अरति, पसीना और खेद ये अठारह दोष जिनमें नहीं हैं वही वीतराग है। उसे ही निर्दोष और सर्वगुण युक्त आप्त कहते हैं।।६।।

७. हितोपदेशी का लक्षण

परमेष्ठी परंज्योति-र्विरागो विमल: कृती।
सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्त:, सार्व: शास्तोपलाल्यते।।७।।
जो रागादिक से रहित परमपद में स्थित हो जाता है।
वह द्रव्यकर्म भी तज करके उत्कृष्ट ज्योति को पाता है।
कृतकृत्य प्रभो। यह तीर्थ आपका आदि मध्य और अन्तरहित।
वह हितोपदेशी कहलाता जो जीवों के हित में हो रत।।

जो परमेष्ठी, परंज्योति, विराग, विमल, कृतकृत्य आदि मध्य और अन्त से रहित, तीर्थंकर जिन और सर्वज्ञ हैं। सभी जन का हित करने वाले होने से ‘सार्व’ हैं, वे ही सच्चे उपदेष्टा है। और इसीलिए उनके शासन को मुनिगण ‘सार्वभौम’ कहते हैं।।७।।

८.

अनात्मार्थं बिना रागै:, शास्ता शास्ति सतो हितम्।
ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शा-न्मुरज: किमपेक्षते।।८।।
वह हितोपदेशी जीवों को हित का उपदेश स्वयं देते।
आत्मीय प्रयोजन नहिं कुछ भी नहिं रागद्वेष मन में रखते।।
जैसे मृदंग वादक कर के स्पर्शमात्र से बज उठता।
श्रोताओं को प्रसन्न करके बदले की इच्छा नहिं रखता।।

जैसे बजाने वाले के हाथ के ताड़न से बिना इच्छा के ही मृदंग बजने लगता है उसे कुछ अपेक्षा भी नहीं रहती है। वैसे ही जिनेन्द्र देव बिना इच्छा बिना राग और बिना स्वार्थ के अपनी वाणी से भव्यों को हित का उपदेश देते हैं।।८।।

९. सच्चा शास्त्र

आप्तोपज्ञमनुल्लंघ््य-मदृष्टेष्टविरोधकम्।
तत्त्वोपदेशकृत्सार्वं, शास्त्रं कापथघट्टनम्।।९।।
जो वीतराग का कहा हुआ इन्द्रादिक से भी खण्ड रहित।
प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणों से जो आगम है बाधा विरहित।।
जो तत्वों का उपदेशक है अरू सर्वजीव हितकारक है।
वह ही तो सच्चा आगम है जो मिथ्यामत का नाशक है।।

जो आप्त के द्वारा कथित है, जिसको कोई उलघंन या खंडन नहीं कर सकते हैं। जो प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों से बाधित नहीं होता है। सर्व कुमार्गो का खंडन कर तत्व का उपदेश देने वाला है। सर्व का हितकारी होने से ‘सार्व’ है। वही सच्चा शास्त्र है।।९।।

१०. सच्चे गुरु

विषयाशावशातीतो, निरारभोऽपरिग्रह:।
ज्ञानध्यानतपोरक्तर-तपस्वी स: प्रशस्यते।।१०।।
विषयों की आशा को तजकर आरम्भ रहित साधु होते।
बाह्याभ्यंतर परिग्रह तजकर निज ज्ञानध्यान तप रत रहते।।
ऐसे वे महातपस्वी ही बस सच्चे गुरु कहाते हैं।
बाकी पत्थर की नौका सम अपना संसार बढ़ाते हैं।।

जो पंचेंद्रिय के विषयों की आशा से रहित है, सम्पूर्ण आरम्भ और परिग्रह से रहित निग्र्रन्थ दिगम्बर हैं, सदा ही ज्ञान, ध्यान और तप में अनुरागी हैं वे ही तपस्वी साधु सच्चे गुरू है।।१०।।

११. नि:शंकित अंग

इदमेवे-दृशमेव, तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा।
इत्यकम्पायसाम्भोवत्, सन्मार्गेऽसंशया रुचि:।।११।।
यह ही है तत्व इसी प्रकार नहिं अन्य और कोई प्रकार।
ऐसी दृढ़श्रद्धा होते ही नि:शंकित गुण प्रगटे अपार।।
जैसे असि पर जल रखा हुआ खण्डित होवे परनहिं हटता।
वैसे ही देवशास्त्र गुरु पर सम्यग्दृष्ठी अचलित रहता।।

जिनेन्द्र देव द्वारा कथित तत्व यही है, ऐसा ही है, अन्य कुछ नहीं है और अन्य रूप भी नहीं है। तलवार की धार पर रखे हुए जल के सदृश ऐसा अचलित श्रद्धान करना और मोक्ष—मार्ग में संशय रहित रुचि का होना नि:शंकित अंग है।।११।।

१२. नि:कांक्षित अंग

कर्मपरवशे सान्ते, दुखैरन्ततिरतोदये।
पापबीजे सुखेऽनास्था, श्रद्धानाकाङ्क्षणा स्मृता।।१२।।
कर्मों के वश में हुआ जीव जो सुख दु:ख भोगा करता है।
वह नश्वर है दु:खमिश्रित है अरू पापकर्म का कत्र्ता है।।
इंद्रियसुखों में अनितरूप जो व्यक्ति श्रद्धा करता है।
कांक्षा विरहित नि:कांक्षित गुण उसके तब प्रगटित होता है।

जो सुख कर्मों के आधीन है, अन्त सहित है, दु:खों से मिश्रित है, और पाप का बीज है ऐसे सांसारिक सुखों में नित्य बुद्धि से कांक्षा नहीं करना नि:कांक्षित अंग है।।१२।।

१३. निर्विचिकित्सा अंग

स्वभावतोऽशुचौ काये, रत्नत्रयपवित्रिते।
निर्जुगुप्सा गुणप्रीति-र्मता निर्विचिकित्सिता।।१३।।
स्वभावतया यह काया तो अत्यंत अशुचि कहलाती है।
रत्नत्रय धारण करते ही आत्यंतिक शुचिता आती है।।
रत्नत्रय आदि सद्गुणों में जो ग्लानि रहित प्रीति होती।
है निर्विचिकित्सा अंग यही इससे तन की शुद्धि होती।।

यह मानव शरीर स्वभाव से ही अपवित्र है क्योंकि यह मल, मूत्रादि का पिंड है। फिर भी यह रत्नत्रय गुण से पवित्र हो जाता है। अत: रत्नत्रय से युत मुनि के शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करना और उनके गुणों में प्रीति करना निर्विचिकित्सा अंग है।।१३।।

१४. अमूढ़दृष्टि अंग

कापथे पथि दु:खानां, कापस्थस्थेप्यसम्मति:।
असम्पृक्ति-रनुत्कीर्ति-रमूढ़ा-दृष्टिरुच्यते।।१४।।
दु:खों के कारण कुमार्ग में अरू कुमार्गधारक लोगों में।
मन से सम्मत नहि, हो बच से स्तवन करे, निजकाया से।।
नमहिं विनय करे उन गुरूओं की जो मिथ्याधर्म उपासक है।
है अमूढ़दृष्टि अंग यही यह तीन मूढ़ता नाशक है।।

मिथ्यात्व दु:खों का मार्ग है, इस मार्ग में चलने वाले भी दु:ख पथ में ही चलते हैं। उन कुपथ और कुपथिकों को मन से सहमति नहीं देना शरीर से उनकी सराहना नहीं करना और वचनों से भी उनकी प्रशंसा नहीं करना अमूढ़दृष्टि अंग है।।१४।।

१५. उपगूहन अंग

स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य, बालाशक्तजनाश्रयाम्।
वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति, तद्वदन्त्युपगूहनम्।।१५।।
अज्ञानि अशक्त जनों द्वारा जो मोक्षमार्ग की निन्दा हो।
चरित्रग्रहण करके भी जो अनुचित कार्यो को करता हो।।
ज्ञानीजन का कत्र्तव्य यही जिनधर्म प्रेम की इच्छा से।
जग में नहिं प्रगट करे उनको उपगूहन अंग धरे मन से।।

मोक्षमार्ग स्वयं शुद्ध है। मूढ़, अज्ञानी या असमर्थजनों के निमित्त से कभी इसमें कुछ दोष लग जाने से निंदा हो जाती है। सो जैसे बने वैसे माता के समान उनके दोषों को ढक देना उपगूहन अंग है।।१५।।

१६. स्थितिकरण अंग

दर्शनाच्चरणाद्वापि, चलतां धर्मवत्सलै:।
प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञै:, स्थितिकरणमुच्यते।।१६।।
सम्यग्दर्शन अरू चारित से जो मानव डिगने वाले हैं।
उन डिगते हुए प्राणियों को जो बोध कराने वाले हैं।।
ऐसे धर्मीजन के द्वारा फिर से निज में स्थिर करना।
विद्वानों द्वारा कहा गया है स्थितिकरण अंग छठवां।।

यदि कोई सम्यग्दर्शन से या सम्यक् चारित्र से च्युत हो रहा हो, तो धर्म प्रेमवश उसे वापस फिर उसी में स्थिर कर देना स्थितिकरण अंग है। इस तरह स्थिर करने वाले बुद्धिमान पुरुष ही अपनी आत्मा में अपने को स्थिर कर लेते हैं।।१६।

१७. वात्सल्य अंग

स्वयूथ्यान्प्रति सद्भाव-सनाथापेतवैâतवा।
प्रतिपत्ति-र्यथायोग्यं, वात्सल्यमभिलप्यते।।१७।।
जो मानव अपने सहधर्मी उनके प्रति बहुत सरलता से।
मायाविरहित अरू यथायोग्य सत्कार करे वचकाया से।।
धर्मी को देख मुदित होता वात्सल्य अंग का धारी है।
गोवत्स प्रेम यह बतलाता छलरहित प्रेम उपकारी है।।

सहधर्मीजनों के प्रति जो हमेशा ही छल कपट रहित होकर सद्भावना रखते हुए प्रीति करते हैं और यथा योग्य उनके प्रति विनय भक्ति आदि भी करते हैं वे ही वात्सल्य अंग के धारी होते हैं।।१७।।

१८. प्रभावना अंग

अज्ञानतिमिरव्याप्ति-मपाकृत्य यथायथम्।
जिनशासनमाहात्म्य-प्रकाश: स्यात्प्रभावना।।१८।।
अज्ञान अन्धेरा फैला है मेटे उसको समुचित मग से।
जिनशासन की महिमा फैले पाखण्ड हटे वैâसे जग से।।
तपदान और पूजादिक से जिन धर्म प्रकाशित करता है।
तब वह प्रभावना अंग सहित सम्यग्दर्शन युत होता है।

अज्ञानरूपी अंधकार सर्व जगत में व्याप्त हो रहा है। जिससे नेत्र सहित भी अज्ञानी जीव अंधे के सदृश हो रहे हैं। जैसे होवे वैसे उस अज्ञान अंधकार को दूर कर अपने जैनधर्म के माहात्म्य का प्रकाश फैलाना प्रभावना अंग है।।१८।।

१९. आठ अंगधारी के नाम

ताव-दञ्जन-चौरो-ऽङ्गे, ततोऽनन्तमती स्मृता।
उद्दायनस्तृतीयेऽपि, तुरीये रेवती मता।।१९।।
इन आठ अंग से प्रसिद्ध हुए उनका जग ने यशगान किया।
इस क्रम से एक—एक गुण में इन सबने अपना नाम किया।।
है अंजनचोर अनंतमती राजा उद्दायन प्रसिद्ध हुए।
रेवती सती के चरण युगल भी देवों द्वारा पूज्य हुए।।

पहले नि:शंकित अंग में अंजन चोर प्रसिद्ध हुआ जिसने आकाशगामी विद्या सिद्ध कर ली। अनंतमती ने अनेक दु:खों को सहन किया फिर भी विषय भोगों की इच्छा नहीं की इसलिए नि:कांक्षित अंग में नाम पाया। उद्दायन राजा ने मुनि की वैयावृत्य करके निर्विचिकित्सा अंग पाला और रेवती रानी ने क्षुल्लक द्वारा की गई परीक्षा में उत्तीर्णता प्राप्त कर अमूढ़दृष्टि अंग में नाम कमाया।।१९।।

२०.

ततो जिनेन्द्रभक्तोऽन्यो, वारि-षेणस्तत: पर:।
विष्णुश्च वङ्कानामा च, शेषयो-र्लक्ष्यतां गतौ।।२०।।
पंचम उपगूहन अंग विषे है भक्त जिनेन्द्र प्रसिद्ध हुआ।
मुनि पुष्पडाल को स्थिर कर वह वारिषेण जगपूज्य हुआ।।
बलिकृत उपसर्ग निवारण कर विष्णुमुनि जग विख्यात हुए।
जिन धर्म प्रभाव बढ़ा करके मुनि वङ्का स्वर्ग को प्राप्त हुए।।

जिनेन्द्र भक्त सेठ ने ब्रह्मचारी के दोष को ढककर उपगूहन अंग पाला। मुनि श्री वारिषेण ने पुष्पडाल मित्र को स्थिर करके स्थितिकरण किया। विष्णु कुमार मुनि ने सात सौ मुनियों की रक्षा कर वात्सल्य अंग में प्रसिद्धि पाई और बङ्काकुमार मुनिराज ने जैन का रथ निकलवाकर प्रभावना अंग में अपना नाम अमर किया है।।२०।।

२१. अंगहीन सम्यक्त्व व्यर्थ है

नाङ्गहीनमलं छेत्तुं, दर्शनं जन्मसन्ततिम्। न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो, निहन्ति विषवेदनाम्।।२१।।
जैसे अक्षर से न्यूनमंत्र विष की पीड़ा नहिं हरता है।
वैसे ही अंगहीन दर्शन भवसंतति नष्ट न करता है।।
भवभ्रमण नष्ट करने में ये ही आठ अंग आवश्यक है।
मुक्ति कन्या को बरने में ये आठों अंग सहायक है।।

इन आठ अंगों में से यदि एक अंग भी न हो तो वह सम्यग्दर्शन संसार की परम्परा का नाश करने में समर्थ नहीं हो सकता है। क्योंकि एक अक्षर से न्यून मंत्र क्या विष की वेदना को दूर कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता, अत: उन आठ अंगों से पूर्ण ही सम्यक्त्व मुक्ति को प्राप्त कराने वाला है।।२१।।

२२. लोक मूढ़ता

आपगा-सागर स्नान-मुच्चय: सिकताश्मनाम्।
गिरिपातोऽग्निपातश्च, लोकमूढं निगद्यते।।२२।।
सागर नदि के स्नानों से यह तन पवित्र हो जाता है।
पत्थर बालू के ढेरों से बस धर्मलाभ मिल जाता है।।
है मुक्ति मिले गिरि से गिरकर अरू अग्नि में जल जाने से।
वे व्यक्ति लोकमूढ़ता के धारक हैं जो ऐसा समझे।।

नदी, सागर में स्नान करके अपने को पवित्र मानना, बालू पत्थर के ढेर लगाने से, पर्वत से गिरकर मरने से अग्नि में जलकर मरने से धर्म मानना वह लोक मूढ़ता है।।२२।।

२३. देव मूढ़ता

वरोपलिप्सयाशावान्, रागद्वेषमलीमसा:।
देवता यदुपासीत, देवतामूढमुच्यते।।२३।
धनपुत्र रोगनिवृति आदि ऐहिक फल की आशाओं से।
जो वर की इच्छा करता है उन रागीद्वेषी देवों से।।
उनकी उपासना करता है जो स्वयं त्रिशूल गदा धारें।
वह पापकर्म का बंध करे जो देवमूढ़ता को धारे।।

वर प्राप्ति की इच्छा से रागी द्वेषी देव देवियों की उपासना करना देवमूढ़ता है। जो जिनशासन के भक्त हैं वे इस मूढ़ता से दूर रहते हैं।।२३।।

२४. गुरु मूढ़ता

सग्रन्थारंभहिंसानां, संसारावर्तवर्तिनाम्।
पाखण्डिनां पुरस्कारो, ज्ञेयं पाखण्डिमोहनम्।।२४।।
जो साधुवेष को धरकर भी आरम्भ परिग्रह रत रहते।
संसार चक्र में भ्रमण करे जो हिंसा में प्रवृत्त रहते।।
ऐसे पाखण्डी गुरुओं की जो पूजा भक्ति करता है।
वह गुरुमूढ़ता का धारक सत्गुरु में प्रीति न करता है।।

जो आरम्भ, परिग्रह और हिंसा में सदा आसक्त रहते हैं। वे संसार समुद्र में डूब रहे हैं तिर नहीं सकते हैं। जो ऐसे पाखंडी गुरुओं को गुरु मानकर उनको उपासना करते हैं वे पाखंड को बढ़ाने वाले हैं वे ही गुरुमूढ़ता वाले हैं।।२४।।

२५. आठमद के नाम

ज्ञानं पूजां कुलं जातिं, बलमृद्धिं तषो वपु:।
अष्टावाश्रित्य मानित्वं, स्मयमाहुर्गतस्मया:।।२५।।
कुछ ज्ञान प्रतिष्ठा को पाकर जो मानव गर्व सहित होता।
कुल जाती बल को पाकर के निजधन में ही फूला रहता।।
निज तप तन का अभिमान करे वह व्यक्ति मानी कहलाये।
मदरहित जिनेन्द्रदेव ने ये मद के लक्षण हैं बतलायें।।

अपने ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, वैभव, तप और रूप इन आठों में से किसी एक, दो आदि के आश्रय से गर्व करना मद है। मद से रहित साधु मद करने को दोष कहते हैं।।२५।।

२६. मद करने से हानि

स्मयेन योऽन्यानत्येति, धर्मस्थान् गर्विताशय:।
सोऽत्येति धर्ममात्मीयं, न धर्मो धार्मिवै-र्बिना।।२६।।
जो मानी पुरुष गर्वयुत हो अपमान किया करता पर का।
अरू रत्नत्रय के धारक हैं ऐसे धर्मात्मा लोगों का।।
वह व्यक्ति पाप बुद्धि होकर निजधर्म का ही अपमान करे।
नहिं धर्म बिना र्धािमक होते ऐसा ऋषिगण व्याख्यान करें।।

जो मद के वश मत्त होकर धर्मात्मा जन का अपमान करते हैं वे अभिमानी अपने स्वधर्म का ही अपमान करते हैं क्योंकि धर्म धर्मात्माजनों के बिना नहीं रह सकता है इसलिए सम्यग्दृष्टी धर्मात्माओं का अपमान नहीं कर सकता है।।२६।।

२७. पाप त्याग का उपदेश

यदि पापनिरोधोऽन्य-सम्पदा किं प्रयोजनम्।
अथ पापास्रवो-ऽस्त्यन्य-सम्पदा किं प्रयोजनम्।।२७।।
यदि अशभास्रव का संवर हो जाये तो धन से क्या लेना।
यदि रत्नत्रय निधि मिल जाए राज्यादि विभव का क्या करना।।
गर पापकर्म का आस्रव ही चल रहा तुम्हारे जीवन में।
तो अन्यसंपदाएँ कुछ भी नहिं कार्य करें ये धरमन में।।

यदि पाप का आश्रव रुक जाता है तो अन्य सम्पति से क्या प्रयोजन है? और यदि पाप का आस्रव होता रहता है तो अन्य सम्पत्ति से क्या प्रयोजन है? पाप के कारणों का त्याग कर के पापास्रव को रोको। पुन: सभी सम्पदायें तुम्हें स्वयं मिल जायेंगे।।२७।।

२८. सम्यग्दर्शन की महिमा

सम्यग्दर्शन-सम्पन्न-मपि मातङ्ग-देहजम्।
देवा देवं विदु-र्भस्म-गूढाङ्गारान्तरौजसम्।।२८।।
चाण्डाल पुरुष भी श्रेष्ठ कहा यदि सम्यग्दर्शन संयुत है।
अंगार राख से ढका हुआ हो तो भी वह प्रकाशयुत है।।
जिसके अन्तर में ज्योति छिपी रहती है सम्यग्दर्शन की।
वह देवों से भी श्रेष्ठ कहा ऐसी जिनवर की ध्वनी खिरी।।

चांडाल देहधारी मनुष्य यदि सम्यग्दर्शन से युक्त है तो वह राख से ढके हुए अंगारे के समान अन्दर से तेजस्वी है। ऐसे मनुष्य को श्री गणधर देव संसार में देव कहते हैं। यह सब सम्यग्दर्शन की महिमा है जो कि मनुष्य क्या पशु भी देव हो जाते हैं।।२८।।

२९.

श्वापि देवोऽपि देव: श्वा, जायते धर्मकिल्विषात्।
कापि नाम भवेदन्या, सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम्।।२९।।
कुछ पुण्यकार्य के फलस्वरूप कुत्ता भी स्वर्गलोक जाता।
अरू पापकर्म के फलस्वरूप वह देव श्वान है हो जाता।।
नहिं धर्मसमान अन्य कोई उत्तम वस्तु है इस जग में।
इससे ही भव्यप्राणियों को है स्वर्गमोक्ष मिलता सच में।

इस धर्म के प्रभाव से कुत्ता जैसा हीन पशु भी देव हो जाता है और पाप के निमित्त से देव भी कुत्ता हो जाता है। ऐसी कोई भी सम्पत्ति नहीं है जो धर्म से नहीं मिल सकती है। प्राणियों को जगत के वैभव से क्या मुक्ति भी इसी धर्म से ही मिलती है।।२९।।

३०.

भयाशा-स्नेह-लोभाच्च-कुदेवागमलिङ्गिनाम्।
प्रणामं विनयं चैव, न कुय्र्यु: शुद्धदृष्ट्य:।।३०।।
भय आशा के वश होकर के कुत्सित देवों की न विनय करें।
स्नेह लोभ के वश होकर नहिं खोटे गुरु को नमन करे।।
वह आगम जिसमें हिंसा का स्पष्टतया वर्णन होता।
नहिं पढ़े पढ़ाये जो उनको वह ही सम्यग्दृष्टी होता।।

कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरुओं को सम्यग्दृष्टी जन भय से, आशा से, प्रेम से अथवा लोभ से नमस्कार नहीं करते हैं। तभी वे अपना सम्यग्दर्शन शुद्ध कर सकते हैं क्योंकि सच्चे देव, शास्त्र और गुरु की शरण से सम्पूर्ण सुखों की प्राप्ति होती है।।३०।।

३१.

दर्शनं ज्ञानचारित्रात्, साधिमानमुपाश्नुते।
दर्शनं कर्णधारं तन्, मोक्षमार्गे प्रचक्ष्यते।।३१।।
सद्दर्शन ज्ञानचरण से ही सर्वज्ञपने की प्राप्ति हो।
नहि एक और दो के मिलने से मोक्षमार्ग की प्राप्ति हो।।
सम्यग्दर्शन ही मोक्षमार्ग में खेवटिया का काम करे।
नाविक सम भव्यजनों की नैया भवसमुद्र से पार करे।।

ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा इस सम्यग्दर्शन को विशेष रीति से प्राप्त करना चाहिए क्योंकि संसार समुद्र से पार कर मोक्षमार्ग में पहुँचाने के लिए यह कर्णधार—खेवटिया के समान है। अत: प्रमाद छोड़कर पूर्ण प्रयत्न करके इस सम्यग्दर्शन को ग्रहण करना चाहिए।।३१।।

३२.

विद्यावृत्तस्य सम्भूति-स्थितिवृद्धिफलोदया:।
न सन्त्यसति सम्यक्त्वे, बीजाभावे तरोरिव।।३२।।
जैसे तरू की उत्पत्ति स्थिति वृद्धि और फल उत्पत्ति।
नहिं बीज बिना हो सकती है यह बीज वृक्ष की सम्पत्ति।।
वैसे ही सम्यग्दर्शन बिन चारित्र ज्ञान की उत्पत्ति।
स्थिति वृद्धि नहिं होती है नहिं फले मोक्षफल की प्राप्ति।।

सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल तभी हो सकता है जब सम्यग्दर्शन है। जैसे कि बीज के बिना वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल नहीं हो सकते हैं। वैसे ही सम्यक्त्व के बिना ये सब कुछ नहीं हो सकते हैं।।३२।।

३३.

गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो, निर्मोहो नैव मोहवान्।
अनगारो गृही श्रेयान्, निर्मोहो मोहिनो मुन:।।३३।।
निर्मोही शुद्धदृष्टि श्रावक भी मोक्षमार्ग में स्थित है।
मोही मिथ्यादृष्टि साधू नहिं मोक्षमार्ग में स्थित है।।
अतएव द्रव्यलिंगी मुनियों से वह श्रावक ही श्रेष्ठ कहा।
जिसके अंतर में सम्यग्दर्शन रूपी तरू है रहे हरा।।

यदि मोह रहित सद्गृहस्थ है तो वह मोक्ष मार्ग में स्थित है और यदि मुनि होकर भी मोह सहित है तो वह मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है। इसलिए मिथ्यादृष्टि मुनि की अपेक्षा वह श्रावक ही श्रेयस्कर है जो कि मित्यात्व से रहित सम्यग्दृष्टि है।।३३।।

३४.

न सम्यक्त्वसमं किञ्चित्, त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्व-समं नान्यत्तनूभृताम्।।३४।।
तीनों लोकों और कालों में उपकारक है प्राणी जन का।
सम्यक्त्व समान नही कोई दूजा पदार्थ है इस जग का।।
मिथ्यात्व समान अन्य कोई अपकार नहीं करने वाला।
इसके धारण से नरक आदि द्वारों का खुला रहे ताला।।

तीनों लोकों और तीनों कालों में संसारी जीवों के लिए सम्यग्दर्शन के समान हितकारी और कुछ भी नहीं है। वैसे ही मिथ्यादर्शन के समान अहितकारी और कुछ भी नहीं है। वैसे ही मिथ्यादर्शन के समान तीनों लोकों और तीनों कालों में अन्य कुछ भी दु:खकारी नहीं है।।३४।।

३५.

सम्यग्दर्शनशुद्धा, नारकतिर्यङ्नपुंसकस्त्रीत्वानि।
दुष्कुलविकृताल्पायु-र्दरिद्रर्तां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिका:।।३५।।
अब सुनिये सम्यकदर्शन से किन—कन गतियों के द्वार रूके।
व्रत रहित शुद्ध सम्यग्दृष्टि भी नारकतन को नहीं धरे।।
त्रिर्यंच नपुंसक स्त्री कुल नहिं मिले नीच कुल भी उसको।
विकलांग शरीर, अल्पआयु, धन भी कम नहिं मिलता उसको।।

सम्यग्दर्शन से शुद्ध हुआ मनुष्य यदि अव्रती भी है तो भी वह नारकी, त्रिर्यंच, नपुंसक, स्त्री, नीचकुली, विकृत अंगवाला, अल्पआयु वाला और दरिद्री नहीं होता है। भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी भी नहीं होता। एकेन्द्रिय और विकलत्रय में भी जन्म नहीं लेता है।।३५।।

३६.

ओजस्तेजोविद्या-वीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथा:।
माहाकुला महार्था, मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूता:।।३६।।
उत्साहकांति विद्या बल से सम्यग्दृष्टि युत होते हैं।
यश वृद्धि विजय अरू अतुलसम्पदा से भी संयुत होते हैं।।
चारों पुरुषार्थों के साधक उत्तम कुल में नवजन्म धरें।
मनुजों में शिरोमणी होते जो सम्यग्दर्शन चित्तधरे।।

शुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले मनुष्य ओजस्वी तेजस्वी होते हैं। विद्या, शक्ति, यश, वृद्धि और विजय को प्राप्त कर अनेक वैभव के स्वामी होते हैं। इक्ष्वाकु आदि उत्तम कुल में जन्म लेकर महापुरुषार्थी होते हैं और सभी मनुष्यों में तिलकभूत होते हैं।।३६।।

३७.

अष्टगुणपुष्टितुष्टा, दृष्टिविशिष्टा: प्रकृष्टशोभाजुष्टा:।
अमराप्सरसां परिषदि, चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्ता: स्वर्गे।।३७।।
सम्यग्दृष्टि प्राणों को तज स्वर्गों में जाकर इन्द्र बने।
जिनवर की पूजा भक्ति से सुन्दरतम तन को प्राप्त करे।।
आठों ऋद्धि की पूर्ण रूपता होने से संतुष्ट रहे।
चिरसमयों तक सुरपरिषद में अप्सरासंग आनन्द करें।।

जो सम्यग्दृष्टि श्री जिनेन्द्र देव के भक्त हैं वे अणिमा, महिमा आदि आठ ऋद्धियों से युक्त उत्तम शोभा से सहित देवियों और अप्सराओं की सभा में चिरकाल तक सुख भोगते रहते हैं। इस तरह स्वर्ग में सौधर्म इन्द्र आदि के वैभव को प्राप्त करते हैं।।३७।।

३८.

नवनिधिसप्तद्वयरत्ना-धीशा: सर्व-भूमि-पतयश्चक्रम्।
वर्तयितुं प्रभवन्ति, स्पष्टदृश: क्षत्रमौलिशेखरचरणा:।।३८।।
नवनिधि और चौदह रत्नों के स्वामी होते मनु तन पाकर।
बत्तिस हजार सब मुकुट बद्ध राजा नमते हैं आ आकर।।
अरू चक्ररत्न को पा करके षट्खंड भूमि पर विजय करें।
सम्यग्दर्शन की महिमा से ही चक्रवर्ती पद प्राप्त करें।।

नवनिधि चौदह रत्नों को पाकर छहखंड पृथ्वी को जीत लेते हैं। बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उनके चरणों में नमस्कार करते हैं, चक्ररत्न को प्रवर्तित करके इस पृथ्वी पर एक छत्र शासन करते हैं। ऐसी चक्रवर्ती की सम्पत्ति भी सम्यग्दर्शन से ही प्राप्त होती है।।३८।।

३९.

अमरासुरनर-पतिभि-र्यमधरपतिभिश्च नूतपादाम्भोजा।
दृष्ट्या सुनिश्चितार्था वृषचक्रधरा भवन्ति लोकशरण्या:।।३९।।
जीवादि सातों तत्त्वों पर जो भव्यपुरुष श्रद्धा रखते।
देवेन्द्र असुर नरपतियों से उनके पदयुग पूजे जाते।।
तीनों लोकों के शरणभूत गणधर भी उनको नमन करें।
वे धर्मचक्र को धर करके तीर्थंकर पदवी प्रगट करें।।

देवेन्द्र, चक्रवर्ती, धरणेन्द्र, विद्याधर, मुनिपति और गणधर देव ये सभी जिनके चरण कमलों को नमस्कार करते हैं। जो सभी के लिए शरणभूत हैं। ऐसे तीर्थंकर पद को पाकर धर्मचक्र को धारण करते हैं। सम्यग्दर्शन से पवित्र तत्व श्रद्धानी लोग ही ऐसे तीर्थंकर पद को पाते है।।३९।।

४०. सम्यग्दृष्टि ही मोक्ष पद पाते हैं

शिवमजर-मरुजमक्षय-मव्याबाधं विशोकभयशज्र्म्।
काष्ठागतसुखविद्या-विभवं विमलं भजन्ति दर्शनशरणा:।।४०।।
सम्यग्दृष्टि प्राणी मरकर उन मोक्ष सुखों को पाते हैं।
जो जरा रोग अरू मरण रहित औ बाधा विरहित होते हैं।।
नहिं द्रव्य भाव नोकर्म उन्हें नहिं शोक भयाशंका उनको।
चरमावस्था का सुख अनंत औ विद्याविभव मिले उनको।।

जो सम्यग्दर्शन की शरण ले चुके हैं वे जरा, रोग, भय, शोक और शंका से रहित, अक्षय अव्याबाध, अंतिम अवस्था को प्राप्त परम सौख्य और परिपूर्ण ज्ञान युक्त तथा कर्म मल रहित मोक्षधाम को भी प्राप्त कर लेते हैं।

४१. सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति के प्रमुख स्थान

देवेन्द्र-चक्र-महिमान-ममेयमानं, राजेन्द्र-चक्रमवनींद्र-शिरोऽर्चनीयम्।
धर्मेन्द्र-चक्रमधरी-कृत-सर्वलोकं, लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्य:।।४१।।
सम्यग्दृष्टि परिणाम रहित अनुपम सुख को भोगा करते।
देवों मनुजों से पूजित हो देवेन्द्र और चक्री होते।।
शतइन्द्रों द्वारा वन्दनीय फिर धर्मचक्रवर्ती होते।
बस सम्यग्दर्शन के प्रसाद से भव्यमोक्ष में जा बसते।।

जो भव्यजीव सम्यग्दृष्टि है जिनेन्द्र देव की भक्ति में सदा तत्पर रहते हैं। वे ही देवेन्द्र चक्र (सौधर्म इन्द्र) को प्राप्त करके अपरिमित ऐश्वर्य को भोगते हैं। राजाओं से अर्चनीय ऐसे राजेन्द्र चक्र (चक्रवर्ती पद) को पाते हैं पुन: त्रिभुवन में उत्तम ऐसे धर्मन्द्रचक्र (तीर्थंकर पद) को प्राप्त करके मुक्ति लक्ष्मी को भी प्राप्त कर लेते हैं।।४१।।

इति प्रथम परिच्छेद