१२२. सल्लेखना का लक्षण
उपसर्गे दुर्भिक्षे, जरसि रुजायां च नि:प्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचन-माहु: सल्लेखनामार्या:।।१२२।। उपसर्ग और दर्भिक्ष समय अरू जरा रोग के आने पर। जिसका प्रतिकार न हो सकता ऐसे असाध्यक्षण आने पर।। जिन धर्म तथा रत्नत्रय की रक्षा के लिए प्राणियों को। निजकाया का भी त्याग करे बस कहे समाधिमरण उसको।।
जिसको किसी उपाय से दूर नहीं किया जा सकता ऐसा उपसर्ग यदि आ जावे, ऐसा अकाल पड़ जावे, जर्जरित बुढ़ापा आ जावे, या कठिन असाध्य रोग हो जावे, ऐसे समय में धर्म की रक्षा के लिए जो शरीर का त्याग किया जाता है उसका नाम सल्लेखना है।।१२२।।
१२३. सल्लेखना की आवश्यकता
अन्त:क्रियाधिकरणं, तप: फलं सकलदर्शिन: स्तुवते। सस्माद्यावद्विभवं समाध्मरणे प्रयतितव्यम्।।१२३।। जीवनपर्यंत तपस्या का फल मृत्युसमय आधारित है। गर मरणसमाधि पूर्वक हो तो स्वर्गगमन भी निश्चित हैं।। इस कारण यथाशक्ति सबकों इसमें प्रयत्न करना चाहिए। सर्वज्ञदेव की आज्ञा को अपने चित्त में धरना चाहिये।।
सर्वज्ञ देव तप का फल अंत समय समाधिमरण की प्राप्ति को ही कहते हैं। क्योंकि समाधिमरण से ही सब धार्मिक कार्य फलित होते हैं। इसलिए सर्वशक्तिपूर्वक समाधिमरण के लिए सतत प्रयत्न करना चाहिए।।१२३।।
१२४. सल्लेखना की विधि
स्नेहे वैरं सङ्गं, परिग्रहं चापहाय शुद्धमना:। स्वजनं परिजनमपि च, क्षान्त्वा क्षमयेत्प्रियैर्वचनै:।।१२४।। जिसने समाधि धारण की है वह रागद्वेष का त्याग करें। अरू मोह परिग्रह भी तजकर सबजन में समताभाव धरे।। प्रियवचनों द्वारा स्वपरजनों से क्षमा याचना स्वयं करे। अरू शुद्ध मना होकर खुद भी सबके दोषों को क्षमा करे।।
स्नेह, वैर, मोह और परिग्रह को छोड़ करके शुद्ध चित्त होते हुए समाधिमरण की इच्छा से प्रिय वचनों द्वारा अपने परिवार व अन्य लोगों से क्षमा याचना करे तथा स्वयं भी सभी के अपराधों को क्षमा करे।।१२४।।
१२५. महाव्रत धारण का उपदेश
आलोच्य सर्वमेन:, कृतकारितमनुमतं च निव्र्याजम्। आरोपयेन्महाव्रत-मामरणस्थायि नि:शेषम्।।१२५।। सयल्लेखन धारी कृतकारित अनुमोदन से सब पापों को। छलकपट रहित आलोचन कर वह त्याग करे निज दोषों को।। आमरण साथ रहने वाले सब महाव्रतों को ग्रहण करे। निग्र्रन्थ अवस्था धारण कर फिर निज आत्मा में रमण करे।।
जो पाप किये हैं, कराये हैं, और उनकी अनुमोदना की है उन सभी पापों की मायाचाररहित सरल भावों से आलोचना करके जीवन भर के लिए पाँचों पापों का पूर्णतया त्याग करके सल्लेखना के समय पाँच महाव्रत धारण कर मुनि बन जाना चाहिए।।१२५।।
१२६. स्वाध्याय का उपदेश
शोवं भयमवसादं, क्लेदं कालुष्यमरतिमपि हित्वा। सत्त्वोत्साहमुदीर्य च, मन: प्रसाद्यं श्रुतैरमृतै:।।१२६।। वह क्षपक शोकभय अरूविषाद कालुष्य अरति को तज करके। नित शास्त्रों का स्वाध्याय करे बल अरू उत्साह प्रगट करके।। अमृतसमान जो सुखदायी संताप आदि को नष्ट करे। ऐसे शास्त्रों को सुन करके अपने मन को संतुष्ट करे।।
शोक, भय, स्नेह, अरति और मन की कलुषता को छोड करके तथा अपने बल और उत्साह को प्रगट करके अमृत के समान शास्त्रों से अपने मन को प्रसन्न करना चाहिए। क्योंकि जिन वचन रूपी अमृत अतिशय, तृप्ति, पुष्टि और तुष्टि देकर पुन: मृत्यु को भी नष्ट कर देता है।।१२६।।
१२७. भोजन के त्याग का क्रम
आहारं परिहाप्य, क्रमश: स्निग्धं-विवर्धयेत्पानम्। स्निग्धं च हापयित्वा, खरपानं पूरयेत्क्रमश:।।१२७।। वह सर्वप्रथम आहार तजे फिर क्रम से दूध छाँछ लेवे। अरू दूध छाँछ भी तज करके कांजी और उष्णनीर लेवे।। इस तरह यथा शक्ती पूर्वक क्रम—क्रम से त्याग में वृद्धि करे। निज काया को वह कृश करके पवल्ली को भी कृशित करे।।
अन्नादि भोजन को छोड़कर दूध आदि स्निग्ध पेय पदार्थ को लेवे। पुन: स्निग्ध दूध आदि छोड़कर छांछ या गर्म जल पीना चाहिए। इस तरह क्रम से त्याग करने से आकुलता नहीं होती है तथा शरीर में पीड़ा और व्याधि की विषमता भी नहीं होती है।।१२७।।
१२८.
खरपानहापनामपि, कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या। पञ्चनमस्कारमनास्तनुं त्यजेत्सर्व-यत्नेन।।१२८।। काँजी और उष्ण नीर का भी फिर त्याग करे निज शक्ति से। गुरु से उपवास ग्रहण करके सब व्रत को पाले युक्ती से।। वह महामंत्र को ध्याकर के पुदगलकाया का त्याग करे। जिससे मिल जाये अलौकिक तन नहिं इस काया को पुन: धरे।।
पुन: कांजी, तक्र या गरम जल को भी छोड़कर यथाशक्ति उपवास करना चाहिए और सम्पूर्ण प्रयत्न से महामंत्र का जाप करते हुए अंतिम क्षण में शरीर का त्याग कर देना चाहिये।
१२९. सल्लेखना के पांच अतिचार
जीवितमरणाशंसे, भयमित्र-स्मृतिनिदाननामान:। सल्लेखनातिचारा:, पञ्च जिनेन्द्रै: समादिष्टा:।।१२९।। सल्लेखन व्रत के अतिचार भी पांच बताये हैं प्रभु ने। जीने अरू मरने की इच्छा और क्षुधा आदि से डरने से।। जो मरण समय मित्रादि बन्धबान्धव जनका स्मरण करे। आगामीभव में भोगों की इच्छा कर व्रत में दोष करे।।
सल्लेखना लेने के बाद जीने की इच्छा करना, कष्ट आदि से घबड़ाकर जल्दी मरने की इच्छा करना, भूख आदि कष्टों से डरना, मित्रों का स्मरण करना, और भविष्यकाल में भोगों की वाच्छा करना इस तरह से जीविताशंसा, मरणाशंसा, भय, मित्रस्मृति और निदान ये सल्लेखना के पांच अतिचार होते हैं।।१२९।।
१३०. सल्लेखना का फल
नि:श्रेयसमभ्युदयं, निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम्। नि: पिबति पीत धर्मा, सर्वैर्दु:खैरनालीद:।।१३०।। इस व्रत को जो अतिचार सहित भविमरण समय पालन करते। धर्मामृत को पीने वाला उसके सब दुख दूर भगते।। फिर वह सुख का सागर स्वरूप उस मोक्ष निधि को पाता है। जो दुस्तर है अति विस्तृत है और अनुपम महिमा वाला है।।
जो धर्मरूपी अमृत को पीता हुआ सल्लेखना विधि से शरीर को छोड़ता है वह सब दु:खों से छूटकर नि:श्रेयस—मोक्ष को प्राप्त कर लेता हैं वहाँ पर सर्वश्रेष्ठ, अपार, उत्कर्षशाली परमानन्दमय सुख के समुद्र में अवगाहन करते हुए अक्षय अनन्त गुणों को प्राप्त कर चिच्चैतन्यस्वरूप हो जाता है।।३०।।
१३१. मोक्ष का लक्षण
जन्मजरामयमरणै-र्शोवै र्दु:खै र्भयैश्च परिमुक्तम्। निर्वाणं शुद्धसुखं, नि:श्रेयसमिष्यते नित्यम्।।१३१।। अब कहे मोक्ष का वह स्वरूप जो अन्यमतों में नहीं कहें। जब जन्मजरा भयरोग शोक अरू मृत्यु दुख भी नहीं रहे।। इस सबसे विरहित अविनश्वर जो सुख की शुद्ध अवस्था है। जिन मत में सर्वकर्म विरहित मुक्ति की यही व्यवस्था है।।
जहाँ पर जन्म, जरा, मरण, व्याधि, शोक, दु:ख भय और त्रास नहीं है, जहाँ पर शाश्वत शुद्ध सुख है उसी का नाम नि:श्रेयस है। और वही निर्वाण है। जो भव्य जीव सम्यक्त्व से लेकर सल्लेखना तक व्रतों को धारण करते हैं वे ही इस निर्वाण के अधिकारी होते हैं और वे ही तीन लोक के गुरु बनते हैं।।१३१।।
१३२. मुक्तजीवों का लक्षण
विद्यादर्शन-शक्ति-स्वास्थ्यप्रह्लादतृप्तिशुद्धियुज:। निरतिशया निरवधयो, नि:श्रेयसमावसन्ति सुखम्।।१३२।। वह मुक्ति जीव सिद्धालय में निरावधि सुखपूर्वक रहते हैं। अरू दर्शनज्ञानवीर्य सुख भी उनके अनंत ही रहते हैं।। वे पूर्ण स्वास्थ्य आल्हादतृप्ति परिपूर्ण शुद्धियुत होते हैं। न्यूनाधिकता से रहित आठ गुण के वे धारी हाते हैं।।
वे अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य और अनंत सुख इन अनंत चतुष्टय को प्राप्त कर परिपूर्ण स्वस्थता, आल्हाद, तृप्ति और परिपूर्ण शुद्धि को प्राप्त कर लेते हैं। वे निरतिशय, निरावधिक नि:श्रेयस पद में वास करते हैं। वहां अव्याबाध सुख प्राप्त करके हमेशा आत्मसुख में निमग्न रहते हैं।।१३२।।
१३३. विकार का अभाव
काले कल्पशतेऽपि च, गते शिवानां न विक्रिया लक्ष्या। उत्पातोऽपि यदि स्यात्, त्रिलोकसम्भ्रान्तिकरणपटु:।।१३३।। तीनों लोकों में सम्भ्रम को करने वाला उत्पात अगर। हो जाये तो भी सिद्धों के गुण में नहि आये कोई असर।। गर कल्पकाल सैकड़ों बीत जाए नहिं जग में आयेंगे। वे मुक्त जीव निजसुख अनंत में गोते सदा लगायेंगे।।
यदि तीनों लोकों को उथल—पुथल करने वाला उत्पात भी हो जावे, तो भी उनमें विंâचित मात्र भी विकृति या परिवर्तन कभी भी नहीं हो सकता है। जिन्होंने मोक्ष पद प्राप्त कर लिया सैकडों कल्पकाल के बीत जाने पर भी उनमें किंचित भी अंतर नहीं पड़ता है और न वे पुन: वापस इस संसार में ही आते हैं।।१३३।।
१३४. मुक्तजव कहाँ रहते हैं ?
नि:श्रेयसमधिपन्ना-स्त्रैलोक्यशिखामणिश्रयं दधते। निष्किट्टिकालिकाच्छवि-चामीकरभासुरात्मान:।।१३४।। जैसे सुवर्ण जब कीट दोष से रहित शुद्ध भाषित होता। वैसे ही कर्ममुक्त निर्मल आत्मा भी प्रतिभासित होता।। मुक्ति को प्राप्त हुआ प्राणी त्रयलोक शिखर में मणिसमान। शोभा को धारण करता है जग में नहि कोई उन समान।।
जैसे किट्ट कालिमा से रहित हुआ सोना शुद्ध होकर चमकता है वैसे ही कर्म मल से रहित मुक्त आत्मा शुद्ध होकर शोभते हैं और लोक के अग्रभाग पर जाकर स्वात्मजन्य पीयूषरूप सुख को भोगते हैं।।१३४।।
१३५. सद्धर्म का फल
पूजार्थाज्ञैश्वर्यै:, बलपरिजनकामभोगभूयिष्ठै:। अतिशयितभुवनमद्भुत-मभ्युदयं फलति सद्धर्म:।।१३५।। जिनवर के द्वारा कहा गया सद्धर्म बहुत फल फलता है। पूजा धन आज्ञा की विभूति शारीरिक बल भी मिलता है।। परिजन अरू भोग वस्तुएँ भी मिलती हैं पुण्यकर्म से ही। लोकातिशयी आश्चर्यजनक इन्द्रादिक फल भी फले यही।।
यह जिन कथित सच्चा धर्म ही इस जीव को प्रतिष्ठा धन, आज्ञा, ऐश्वर्य तथा शक्ति परिजन और काम भोगों की अधिकता को प्रदान करता है। लोकातिशायि आश्चर्यजनक इन्द्रादिक पदों को देता है और तो क्या लोकों के सभी सुख को प्रदान कर देता है।।१३५।।
इति छठा परिच्छेद