।। आहार औषधि कैसे दें ।।
jain temple299

» शांति पूर्वक स्वास्थ्य के अनुकूल क्रम से कब क्या देना किसके बाद क्या देना

-किसके बादक्या नही देना तो बीच में सौंफ व जोवेले रहे हैं- ऐसे साग सब्जी आदि दे सकते हैं।सावधानी रखें।

» जल आदि एकदम जल्दी व एकदम धीरे न दें संतुलित हाथो से अपने लिए स्वयं जलादि दिखता हुए दें।

» एक ग्रास के बाद पुनः निरीक्षण (देखकर) करते हुए दें, कर जग या गिलास दूर कर ले जिससे लेते समय अतिथि या साधु की अंजुलि मे न लगजाये।

» एक-एक व्यक्ति अपने-अपने कार्य विशेष ध्यान देतेहुए एक दूसरे को सावधान रखें-तात्कालिक स्थिति भी समझें।

» ज्यादा चिकने व तरल व गीले पदार्थो शोधन करते हुए अपने हाथ में ज्यादा समय न रखें बारबारहर किसी को न दे चम्चम में रख कर ही दें।

» यदि पानी गर्म या दूध गर्म है तो तत्कालदेने के लिए चैड़े कटोरे व थाली मे देने योग्य थोड़ा जल शीघ्र ठडा कर लें, ठंडा करते हुए देते जाये पूराठंडा करने न बैठजाये।

» रोगी को एकदम ठंडा भोजन नही देना, तोभोजन को गर्म बनाये रखने हेतु गर्मपानीमें व जिसमें कुछ गर्माहट है ऐसी सिगड़ी आदि में उष्णआंचहो जो ढंकी हो गुप्त हो उसमें रखें।

औषधि कैसे दें-

» औषधि अपने मन से रोगी व वैद्य की जानकारी के बिना नही देना वैद्य द्वारा प्रमाणित शुद्ध औषधि को उचित अनुपात व रीति के अनुसार समय परव्यवस्थित योग्य श्रावको से दिलाना।

» दवा कुछ बर्तन में, कुछ हाथो में रह जायें ऐसा न हो।अन्यथाऔषधि का कोई प्रभाव न होगा क्योंकि यदि भस्मआदि है तो कोई वनज दान नीचे रह जायें- व गिरजाये तो औषधि का प्रमाण-अनुपा तबिगड़ जाने से लाभदायक नहीं हो सकती।

» अस्वस्थ के स्वस्थ की भावना के साथ पूर्ण आहार होने तक समता भाव रखें।

» मुख शुद्धि के लिए नींबू के रस को कुछ पानी मे मिलाकर कुल्ला कराना व हल्दी, सोंठ, काली मिर्च, नमक, लोंग इत्यादि से भी मुख शुद्धि करा सकते हैं।

विशेष- चैके मे द्रव शुद्धि रखना द्रव्य शुद्धि में 5 प्रकार के अभक्ष्यो का वर्जन अनिवार्य है।

1 त्रसघत - जिसमें द्वीन्द्रिय आदि जीवो का घात होना है। जैसे मांसादि-नवनीत आदि, फूल तथा अमर्यादित वस्तुएं।

2 स्थावर - जिसमें अनंत साधारण जीव रहते है ऐसे जमीकन्द आदि।

3 प्रमाद वर्द्धक - नशीले पदार्थ-जिसमे तम्बाकू मद्य आदि पदार्थ है।

4 अनुप सेेव्य - जिनको श्रेष्ठ लोग नहीं खाते जैसे गोमूत्र आदि।

5 अनिष्ट - जो स्वास्थ्य के प्रतिकूल हों। इनमे जो भक्ष्य है वह जो किसी के योग्य भी हो सकते हैं। किंतु अभक्ष्य न रखें। रखे तो अतिथि को न दें।

» त्याग से पाप का मूलधन चुकता है और दान से ब्याज।

» समय कत्र्तव्य की प्रतीक्षा करता है। कत्र्तव्य समय की नहीं।

(1) आहार दान मे आगम प्रसिद्ध उदाहरण:-

शांतिनाथ तीर्थंकर के पूर्व जीवन के 12 वें भवराजा श्रीपेण ने दो मुनि महाराजों को नवधाभक्तिपूर्वक आहार दान दिया अैर उनकी रानी तथा सत्यभामा ने आहार दान की बहुत प्रशंसा की, उसका अनुमोदन किया। इसप्रकार कई वर्षो तक राज्य करने के बाद आहार दान के प्रभाव से राजाश्रीपेण ने उत्तम भोग भूमि मे जन्मलिया। आगे जाकर यह जीव ही शांतिनाथ तीर्थंकर हुए।

(2) भगवानआदिनाथ ने अपने पूर्वभव की वज्रजंघ राजा की पर्याय मे पत्नी-श्रीमति के साथ मुनि दमवर और सागर सेनजी महाराज की नवधाभक्तिपूर्वक आहार दिया इस कारण सम्यग्दर्शन से रहित होकर भी दोनों (दान दाताओं) ने उत्तम पात्र दान के फलस्वरूप उत्तम भोग भूमि की मनुप्यायुका बंध कर लिया।

एक रात्रि उन पति-पन्ति ने कमरे मे सुगन्धित धूप घट जलाये और कमरे के दरवाजे बंद करके विश्राम करते हुए निद्रा को प्राप्त हुए। दरवाजे बंद होने के कारण कही से भी धुंआ नहीं निकल सका, अतः ये दोनो गला रूंध जाने से मरण कर उत्तम भोगभूमि में उत्पन्न हुए। ये दानो ही भोग-भूमि मे सम्यक्तत्व को प्राप्तकर स्वर्ग की व मनुष्य आदि पर्यायो को प्राप्त करते हुए वज्रजंघ का जीव आदिनाथ (प्रथम तीर्थंकर) हुए। और श्रीमति का जीव राजा श्रेयांस हुए। जो इस युग के प्रथम दान तीर्थ के कर्ता के रूप् मे प्रसिद्ध हुए। उत्तम दान की महिमा अपार है, जिससे सांसारिक उत्तम भोग प्राप्त होते हैं। और वे भोग संसार मे नहीं उलझाते तथा दान के अतिशय पुण्य के प्रभाव से परंपरा से मुक्ति के भाजन होते हैं।