Bhagwan Bahubali
।। जैन परम्परा में बाहुबलि ।।

प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के पुत्र भरत और बाहुबलि के उदात्त जीवन वृत्त जैनधर्म की दोनों ही परम्पराओं में समादृत रहे हैं। फिर भी अपेक्षाकृतरूप से दिगम्बर परम्परा में बाहुबलि के प्रति विशेष आदरभाव देखा जाता है । सहस्राब्दी पूर्व दक्षिण में श्रवणबेलगोल में स्थापित गोम्मटेश्वर बाहुबलि की अद्वितीय विशाल प्रतिमा इस बात का स्पष्ट _प्रमाण है कि दिगम्बर परम्परा में बाहुबलि को कितना गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त रहा है। आज भी न केवल अनेक दिगम्बर जैन तीर्थों एवं मन्दिरों में बाहुबलि की प्रतिमाएँ उपलब्ध होती हैं, अपितु वे तीर्थंकरों की प्रतिमाओं के समान ही पूजित भी हैं, यह सब उनके प्रति उस परम्परा में, जो बहुमान और श्रद्धा है, उसी का प्रतीक है । जबकि श्वेताम्बर परम्परा के तीर्थों एवं मन्दिरों में बाहुबलि की प्रतिमाओं का प्राय: अभाव ही देखा जाता है । यद्यपि आबू के विमलवसहि मन्दिर में, शत्रुजय (पालीताना) के आदिनाथ मन्दिर में और कुम्भारिया के शांतिनाथ मन्दिर में बाहुबलि की अधोवस्त्र युक्त ११-१२वीं शताब्दी की कुछ प्रतिमाएँ हैं । इसी प्रकार जैसलमेर के ऋषभदेव जी के मन्दिर में भी भरत और बाहुबलि की कायोत्सर्ग मुद्रा में सम्वत् १४३६ की मूर्तियाँ हैं (देखिये जैन लेख संग्रह,भाग ३, पृष्ठ ९४) फिर भी वे जिन प्रतिमा के समान पूजित नहीं हैं । इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा तप-त्याग और साधना के अनुपम आदर्श बाहुबलि के प्रति आदरभाव रखते हुए भी उन्हें वह गौरव नहीं दे सकी, जैसाकि उन्हें दिगम्बर परम्परा में प्राप्त है। इससे विपरीत श्वेताम्बर परम्परा का झुकाव निष्काम कर्मयोगी भरत के प्रति अधिक देखा जाता है । श्वेताम्बर आचार्यों ने भरत के जीवन चरित्र को काफी उभारा है। आखिर ऐसा क्यों हुआ ? हमारी दृष्टि में इसका एक मनोवैज्ञानिक कारण है।

भरत और बाहुबलि, दो भिन्न जीवन दृष्टियाँ

वस्तुत: भरत और बाहुबलि के जीवन-वृत्त दो भिन्न जीवन दृष्टियों पर स्थित हैं । भरत का आदर्श निष्काम कर्मयोग का आदर्श है, उसका जीवन एक अनासक्त कर्मयोगी का जीवन है, जो जल में रहे हुए कमल के समान अलिप्त भाव से संसार में रहकर अपने सांसारिक दायित्वों का निर्वाह करता है । बाह्य दृष्टिकोण से देखने पर तो वह आकण्ठ भोगों में डूबा हुआ है, अपने चक्रवर्तित्व के पद की रक्षा के लिए वह भाई से भी युद्ध ठान बैठता है, यही नहीं उस पर चक्र भी चला देता है । किन्तु भीतर से वह उतना ही अनासक्त और विनम्र भी है । यही कारण है कि बाहुबलि आदि सभी भाइयों के दीक्षित होने पर उसका मन पश्चात्ताप और अन्तर्वेदना से भर जाता है । उसे अपने कृत्य पर आत्मग्लानि होती है और छोटे भाइयों के चरणों में उसका मस्तक विनम्र भाव से श्रद्धापूर्वक झुक जाता है । विमलसूरि के पउमचरिउ के अनुसार तो दीक्षा लेने को उद्यत बाहुबलि से वह यहाँ तक कह देता है।

कि भाई अपनी राज्यलक्ष्मी को वापस सम्भालो और दीक्षा मत लो । किन्तु बाहुबलि उसके आग्रह को अस्वीकार कर देते हैं और वह खिन्नमना अयोध्या को लौट जाता है । उसका आदर्श अनासक्त कर्मयोग का आदर्श है । बाहर तो वह कैवल्य लाभ के कुछ समय पूर्व तक अपने सांसारिक दायित्वों के निर्वाह में लगा हुआ है किन्तु उसकी साधना अन्दर ही अन्दर चलती रहती है । कल्पसूत्र की कुछ टीकाओं में तो भरत की इस अनासक्त जीवन दृष्टि को एक कथा के द्वारा स्पष्ट भी किया गया है।

भगवान् ऋषभदेव के समवशरण में एक स्वर्णकार भरत के भावी जन्म के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रकट करता है । ऋषभदेव भरत की इसी जीवन में मुक्ति की घोषणा करते हैं । किन्तु स्वर्णकार का मन आश्वस्त नहीं होता है, वह ऋषभदेव के निर्णय को पक्षपातपूर्ण मानता है । भरत उसे अपनी निष्काम जीवन दृष्टि को समझाने के लिए एक घटनाचक्र खड़ा करते हैं । स्वर्णकार को ऋषभदेव और चक्रवर्ती भरत की निन्दा के अभियोग में मृत्युदंड दिया जाता है । उस दंड से बचने का एक ही उपाय है, वह यह कि स्वर्णकार तेल से पूर्ण भरे हुए कटोरे को लेकर अयोध्या का परिभ्रमण करे; शर्त यह है कि रास्ते में तेल की एक भी बूंद न गिरे, यदि एक भी बूंद गिरी तो साथ चलने वाले सैनिक वहीं उसका सिर धड़ से अलग कर देगें । किन्तु यदि वह एक भी बूंद बिना गिराये राजभवन में लौट आएगा, तो उसका मृत्युदण्ड निरस्त कर दिया जाएगा।

भरत उस दिन अयोध्या को विशेष रूप से सजाते हैं । अनेक चौराहों पर नाटक आदि का आयोजन करवाते हैं । जब वह लौटकर पहुँचता है तो भरत उससे पूछते हैं- भाई, आज नगर में कहाँ क्या देखा ? प्रत्युत्तर में स्वर्णकार कहता है - यद्यपि मैं नगर परिभ्रमण कर रहा था, किन्तु मुझे तो मौत ही दिखाई दे रही थी अत: सब कुछ दृष्टि के समक्ष रहते हुए भी अनदेखा ही रहा । उसके इस प्रत्युत्तर के आधार पर भरत उसके सामने अपनी जीवन-दृष्टि को स्पष्ट करते हैं । वे कहते हैं कि जिस प्रकार तू एक जीवन की मृत्यु के भय से नगर परिभ्रमण करते हुए उसके आकर्षणों के प्रति पूर्ण उदासीन रहा, वैसे ही मैं भी अनंत जीवनों की मृत्यु का द्रष्टा होकर, संसार के व्यवहार करते हुए भी उसके प्रति उदासीन हूँ । भरत बाहर से संसार में होते हुए भी अन्तर्मन से उससे वैसे ही अलिप्त हैं, जैसे कमल का पत्र जल में रहते हुए भी उससे अलिप्त रहता है । यही कारण है कि वे आरिसा भवन में ही कैवल्य प्राप्त कर लेते हैं । कैवल्य की उपलब्धि के लिये वे न तो कोई कठोर साधना करते हैं और न गृहस्थ जीवन का त्याग करते हैं । जो भंगार के लिए आरिसा भवन में पहँचता है, वही कैवल्य की ज्योति से जगमगाता हआ श्रमण के रूप में वहाँ से बाहर निकलता है । भरत का श्रामण्य कैवल्य का परिणाम है, कैवल्य की साधना नहीं । उनका जीवन प्रवृत्ति में भी निवृत्ति का जीवन है । उनके लिए बाह्य पदार्थ नहीं, मूर्छा ही वास्तविक परिग्रह है। चूंकि यह बात श्वेताम्बर परम्परा के अनुकूल थी अत: उसे भरत का जीवनादर्श अधिक अनुकूल लगा । यही कारण था कि श्वेताम्बर आचार्यों ने भरत के जीवन चरित्र पर अपनी कलम को अधिक चलाया है ।

इसके विपरीत बाहुबलि की जीवन-दृष्टि भिन्न है, वे पूरे मन से राजा हैं । राजा का गौरव उनके मन में है, यही कारण है कि वे बड़े भाई की अधीनता के प्रस्ताव को ठुकराकर युद्ध के लिये तैयार हो जाते हैं और बड़े भाई का राजलिप्सा के मद में युद्ध की नैतिकता को भंग कर छोटे भाई के वध के लिए उद्यत हो जाना ही उनके विराग का कारण बन जाता है । वे श्रमण बन जाते हैं, फिर भी उनके मन से 'राजा का गौरव' समाप्त नहीं होता है । भरत की भूमि पर खड़े रहने या छोटे भाइयों के नमन करने के प्रश्न उनके मन को कचोटते रहते हैं । यद्यपि बाहुबलि ने युद्ध भी जीता है और अपना गौरव भी अक्षण्ण रखा, फिर भी भीतर के युद्ध में उन्हें सहज विजय नहीं मिलती है । उनका जीवन कठोर निवृत्ति प्रधान साधना का जीवन है । ध्यान और कायोत्सर्ग की साधना का ऐसा कोई दूसरा उदाहरण देख पाना कठिन है । जिसके शरीर को लताओं ने आच्छादित कर लिया हो, चींटियों ने जिस पर अपने वल्मीक बना लिये हों, फिर भी जो ध्यान में अचल और अकम्प है, कितनी कठोर साधना है । बाहुबलि का जीवन निवृत्तिपरक कठोरतम साधना का उच्चतम आदर्श है । यही कारण था कि कठोर साधना के आदर्श के प्रति श्रद्धान्वित दिगम्बर परम्परा में बाहुबलि के प्रति अपेक्षाकृत अधिक बहुमान देखा जाता है । किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि श्वेताम्बर परम्परा में बाहुबलि के प्रति या दिगम्बर परम्परा में भरत के प्रति आदर-भाव नहीं रहा है । यह तो मात्र अपेक्षाकृत विशेष रुझान की बात है । वैसे तो दोनों परम्पराओं में दोनों के ही प्रति समादर भाव है। फिर भी हमें इतना तो स्वीकार करना ही होगा कि दोनों की साधना पद्धति भिन्न-भिन्न है । यदि शास्त्रीय भाषा में कहना हो तो जहाँ भरत निश्चय प्रधान साधना के प्रतीक हैं वहीं बाहुबलि व्यवहार प्रधान साधना के प्रतीक हैं । भरत की साधना की यात्रा निश्चय से व्यवहार की ओर है, तो बाहुबलि की साधना की यात्रा व्यवहार से निश्चय की ओर है ।

जैन साहित्य में बाहुबलि की कथा का विकास

श्वेताम्बर परम्पर। के आगमग्रंथों में स्थानांगसूत्र में बाहुबलि के शरीर की ऊँचाई के सम्बन्ध में तथा समवायांग में बाहुबलि की आयुष्य के सम्बन्ध में उल्लेख अवश्य उपलब्ध हैं, किन्तु वे उनके जीवनवृत्त के सम्बन्ध में कोई विस्तृत जानकारी प्रदान नहीं करते हैं । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में भरत की पखण्ड विजय यात्रा का विस्तार से वर्णन है तथा कल्पूसत्र में ऋषभदेव का जीवन चरित्र दिया गया है, किन्तु उनमें बाहुबलि के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है । इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा का सम्पूर्ण आगम-साहित्य बाहुबलि के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में मौन है।

यद्यपि श्वेताम्बर आगम-साहित्य की टीकाओं में आवश्यक नियुक्ति, आवश्यकभाष्य, विशेषावश्यक भाष्य, आवश्यक चूर्णि, निशीथ चूर्णि, कल्पसूत्रवृत्ति, आचारांग टीका और स्थानांग टीका में बाहुबलि का जीवनवृत्त उल्लिखित है । कथा-साहित्य में विमलसूरि के एउमचरिउ में, संघदासगणि कृत वसुदेवहिण्डि में, शीलांक के चउपन्न महापुरिघरियं में एवं हेमचन्द्र के त्रिषष्टिशलाका पुरुष-चरित्र में भी बाहुबलि का जीवनवृत्त सविस्तार से उल्लिखित है। इसके अतिरिक्त भरत चक्रवर्ती पर लिखे गये भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति में तथा शत्रुजयमाहात्म्य आदि ग्रन्थों में बाहुबलि के सम्बन्ध में उल्लेख प्राप्त है । जिनरत्न कोश के अनुसार बाहुबलि पर दो स्वतन्त्र ग्रंथ 'बाहुबलि चरित्र' के नाम से भी प्राप्त हैं, जिनमें एक के लेखक भट्टारक चारुकीर्ति हैं जो कि दिगम्बर परंपरा के हैं । दूसरे के लेखक अज्ञात हैं, जो कि संभवतः श्वेताम्बर परम्परा के हो सकते हैं । श्वेताम्बर परम्परा में पुण्यकुशलगणि की भरत बाहुबलि महाकाव्य नामक एक अत्यन्त सुन्दर तथा महत्त्वपूर्ण कृति है, यह संस्कृत भाषा में है । इसके अतिरिक्त शालिभद्रसूरि का भरतबाहुबलि रास (१३वीं शताब्दी) एवं अमीऋषिजी का भरत बाहुबलि चौखलिया, समकालीन आचार्य तुलसी का भरतमुक्ति काव्य क्रमश: प्राचीन गुजराती, राजस्थानी एवं हिन्दी में श्वेताम्बर आचार्यों की प्रमुख रचनाएँ हैं, जिनमें बाहुबलि का जीवनवृत्त उल्लिखित है।

दिगम्बर परम्परा के आगम-स्थानीय साहित्य में कुन्दकुन्द के भाव पाहुड़ में बाहुबलि को मान कषाय था, मात्र इतना उल्लेख है । इसके अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा के आगमिक साहित्य में बाहुबलि के जीवनवृत्त का उल्लेख हमें प्राप्त नहीं हुआ है, यद्यपि दिगम्बर परम्परा का पौराणिक साहित्य विस्तार से बाहुबलि की यशोगाथा गाता है । हरिषेण के पद्मपुराण, स्वयम्भू के पउमचरिउ, जिनसेन के आदिपुराण, रविषेण के पद्मपुराण, पुनाटसंघीय जिनसेन के हरिवंश पुराण आदि में बाहुबलि का जीवनवृत्त वर्णित है ।