Bhagwan Bahubali
।। बाहुबलि की कथा, समानता और अन्तर ।।

बाहुबलि के जीवनवृत्त में जिन उल्लेखनीय प्रसंगों का चित्रण श्वेताम्बर आचार्यों ने किया है, वे दो हैं - एक भरत और बाहुबलि के युद्ध का प्रसंग और दूसरा बाहुबलि की साधना और कैवल्य लाभ का प्रसंग। भरत ने दूत के द्वारा अपने भाइयों को अपनी अधीनता को स्वीकार करने का सन्देश भेजा । शेष भाई भरत के इस अन्याय के सम्बन्ध में योग्य निर्णय प्राप्त करने पिता ऋषभदेव के पास पहुंचते हैं।

और अन्त में उनके उपदेश को सुनकर प्रबुद्ध हो, दीक्षित हो जाते हैं। किन्तु बाहुबलि स्पष्टरूप से भरत को चुनौती देकर युद्ध के लिए तत्पर हो जाते हैं । बाहुबलि ने भरत के सुवेग नामक दूत को जो तर्क, प्रत्युत्तर दिये हैं, वे बहुत ही सचोट, युक्तिसंगत एवं महत्वपूर्ण हैं । इस सम्बन्ध में आवश्यकचूर्णि, चउपन्न महापुरिस-चरियं तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र के प्रसंग निश्चय ही पठनीय हैं । वह कह उठता है, क्या भाई भरत की भूख अभी शांत नहीं हुई है ? अपने लघुभ्राताओं के राज्य को छीनकर भी उसे सन्तोष नहीं हुआ है ? भाई भरत को कह देना कि मैं उसी पिता की सन्तान हूँ, जिसका वह है । व्यंग्म और तार्किकता दानों ही दृष्टियों से इन प्रसंगों में श्वेताम्बर आचार्यों का रचना कौशल अद्वितीय है । सुवेग को राज्य सभा से बाहर निकलते हुए देखकर नागरिक किस तरह काना-फूसी करते हैं इसका चित्रण निश्चय ही रोमांचक है।

श्वेताम्बर आचार्यों में संघदासगणि ने वसुदेवहिण्डि में, जिनदासगणि ने आवश्यकचूर्णि में, आचार्य शीलांक ने चउपन्नमहापुरिस चरियं में और हेमचंद्र ने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में सेना के परस्पर युद्ध का उल्लेख नहीं किया है । यद्यपि विमलसूरि के पउमचरिय में, शालिभद्रसूरि के भरतेश्वर बाहुबलि रास में एवं पुण्यकुशलगणि के भरत बाहुबलि काव्य में सेना के परस्पर युद्ध का उल्लेख है । दिगम्बर परम्परा में आदिपुराण के कर्ता-जिनसेन ने भी सेनाओं के युद्ध का उल्लेख नहीं किया, किन्तु पुनाटसंघीय जिनसेन के हरिवंश पुराण में रविषेण के पद्मपुराण में सेनाओं के मध्य युद्ध का उल्लेख है । इस प्रकार दोनों ही परम्पराओं में दोनों ही प्रकार के उल्लेख प्राप्त हैं, यद्यपि प्राचीन एवं मध्य काल के श्वेताम्बर आचार्यों की रचनाओं में विमलसूरि के अपवाद छोड़कर ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक सेनाओं के परस्पर युद्ध का उल्लेख नहीं है । इसके विपरीत दिगम्बर परम्परा में आदिपुराण के कर्ता जिनसेन को छोड़कर ११-१२वीं शताब्दी तक के शेष सभी आचार्यों ने सेनाओं के परस्पर युद्ध का उल्लेख किया है । इस प्रकार जहाँ मध्यकाल के श्वेताम्बर लेखक भरत और बाहुबलि के मध्य अहिंसक युद्ध का उल्लेख करते हैं, वहाँ मध्यकाल के दिगंबर लेखक दोनों की सेनाओं के युद्ध का भी उल्लेख करते हैं । हिंसक युद्ध से विरत होने के लिए विभिन्न रचनाकारों ने विविध विकल्प दिये हैं - कहीं बाहुबलि स्वयं अहिंसक युद्ध का प्रस्ताव करते हैं तो कहीं मन्त्रीगण और कहीं देवगण एवं इन्द्र अहिंसक युद्ध के रूप में दृष्टि युद्ध, बाहयुद्ध आदि का प्रस्ताव करते हैं । अत: इस सम्बन्ध में किसी एक परम्परा की कोई विशिष्ट अवधारणा हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता । आवश्यकचूर्णि तथा चउपन्न महापुरिस चरियं में बाहुबलि स्वयं अहिंसक युद्ध का प्रस्ताव प्रस्तुत करते हुए कहते हैं - 'किं अणवराहिणा लोगेण मारिएण? तुम अहं दुयगा जुज्झामो ।' निरपराध लोगों को मारने का क्या औचित्य है ? तुम और मैं दोनों ही परस्पर युद्ध करें । विमलसूरि के पउमचरिउ में भी युद्ध में हिंसा के दृश्य को देखकर बाहुबलि कह उठता है'चक्कहरो किं वहेण लोयस्स ? दोण्हंपि होउ जुझं ।' हे चक्रवर्ती ! लोगों का वध करने से क्या लाभ ? क्यों न हम दोनों ही लड़ लें ? इस प्रकार बाहुबलि के द्वारा स्वयं अहिंसक युद्ध का प्रस्ताव प्रस्तुत करवा कर उसकी गरिमा को ऊँचा उठाया गया । यद्यपि हेमचन्द्र के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में देवता दोनों सेनाओं के संग्राम से जनहानि की कल्पना कर दोनों के पारस्परिक अहिंसक युद्ध का प्रस्ताव लेकर दोनों के पास जाते हैं और दोनों ही उसे स्वीकार कर लेते हैं । इसी प्रकार भरतेश्वर बाहुबलि रास और भरतेश्वर बाहुबलिवृत्ति में देवगण ही यह प्रस्ताव प्रस्तुत करते हैं । दिगम्बर परम्परा में जिनसेन के आदिपुराण में तथा स्वयम्भू के पउमचरिउ में अहिंसक युद्ध का प्रस्ताव मन्त्रीगण रखते हैं, किन्तु रविषेण के पद्मपुराण में स्वयं बाहुबलि ही यह प्रस्ताव प्रस्तुत करते हैं।

भरत का दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध आदि में पराजित होना, अपनी पराजय से लज्जित एवं दुःखी होकर आवेश में बाहुबलि पर चक्र चला देना, चक्र का वापस हो जाना, भरत के इस अकृत्य को देखकर बाहुबलि को वैराग्य हो जाना और युद्धभूमि में स्वयं ही दीक्षा लेकर वन-प्रांतर में ध्यानस्थ हो जाना, ऐसी सामान्य घटनाएं हैं, जिनका वर्णन श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा के आचार्यों ने समान रूप से किया हैं।

बाहुबलि के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में जिस प्रश्न पर श्वेताम्बर एवं दिगंबर परम्परा में मतभेद पाया जाता है, वह है बाहुबलि के साधनाकाल में मान की उपस्थिति और ब्राह्मी और सुन्दरी के उद्बोधन से उसकी निवृत्ति । श्वेताम्बर परम्परा में विमलसूरि के पउमचरिउ के अतिरिक्त वसुदेवहिण्डि, आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक भाष्य, विशेषावश्यक भाष्य, कल्पसूत्र टीका, चउपन्नमहापुरिसचरियं, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, भरतेश्वर बाहुबलि रास, भरतेश्वर बाहुबलिवृत्ति, भरत बाहुबलि महाकाव्य एवं परवर्ती सभी राजस्थानी एवं हिन्दी में रचित भरत-बाहुबलि के जीवन चरित्रों में यह बात समान रूप से स्वीकार की गई है कि बाहुबलि दीक्षा लेकर ध्यानस्थ हो गये और यह निश्चय कर लिया कि कैवल्य प्राप्त किये बिना भगवान् ऋषभदेव के समवशरण में नहीं जाऊँगा । असर्वज्ञ दशा में भगवान् ऋषभदेव के समवशरण में जाने में बाहुबलि की कठिनाई यह थी कि उन्हें अपने से पूर्व दीक्षित छोटे भाइयों को भी प्रणाम करना होगा। और ऐसा करना उन्हें अपनी प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं लग रहा था । इस समस्या के समाधान का रास्ता यही था कि सर्वज्ञता या वीतराग दशा को प्राप्त करके ही ऋषभदेव के समवशरण में पहँचा जाए, ताकि छोटे भाइयों को वन्दन करने का प्रश्न ही उपस्थित न हो। सभी श्वेताम्बर आचार्यों ने साधनाकाल में न केवल बाहुबलि में मान की उपस्थित को स्वीकार किया, अपितु सभी ने इस घटना का भी उल्लेख किया है कि भगवान् ऋषभदेव की प्रेरणा से ब्राह्मी और सुन्दरी बाहुबलि को उद्बोधित करने हेतु जाती हैं और जाकर कहती हैं- हे भाई, हाथी पर से नीचे उतरो, हाथी पर चढ़े हुए केवल ज्ञान प्राप्त नहीं होता है । एक राजस्थानी कवि ने इसे निम्न शब्दों में बाँधा है –

वीरा म्हारा गज थकी उतरो,
गज चढ्या केवल नहीं होसी रे ।

उनके इस उद्बोधन को सुनकर बाहुबलि का विवेक जागृत होता है, वे विचार करते हैं, निश्चय ही मैं अहंकार रूपी हाथी पर सवार हूँ । पहले जन्म लेने मात्र से कोई बड़ा नहीं हो जाता है, मेरे लघुभ्राताओं ने अध्यात्म की साधना में मुझसे पहले कदम रखा है, निश्चय ही उनका विवेक मुझसे पहले प्रबुद्ध हुआ है, अत: वे वन्दनीय हैं, मुझे जाकर उन्हें प्रणाम करना चाहिए । यह विचार करते हुए, जैसे ही बाहुबलि लघुभ्राताओं के वंदन हेतु जाने के लिये अपने चरण उठाते हैं, कैवल्य प्रकट हो जाता है ।।

सभी श्वेताम्बर आचार्यों ने बाहुबलि के जीवनवृत्त में इस घटना का उल्लेख अवश्य किया है । इस सम्बन्ध से उनमें कोई मतभेद नहीं देखा जाता है जबकि दिगम्बर आचार्यों में इस घटना के सम्बन्ध में भी मतभेद देखा जाता है । प्रथम तो इस प्रश्न पर ही कि बाहुबलि को साधनाकाल में शल्य था, वे एकमत नहीं हैं । जिनसेन ने आदिपुराण में और रविषेण ने पद्मपुराण में शल्य का उल्लेख नहीं किया है; जबकि कुन्दकुन्द ने भाव पाहुड में एवं स्वयम्भू ने पउमचरिउ में शल्य का उल्लेख किया है । बाहुबलि में कषाय था, इस तथ्य का दिगम्बर परम्परा में प्राचीनतम उल्लेख आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थ ‘भाव पाहुड' की गाथा ४४ में मिलता है। किन्तु यह 'मान' कषाय किस बात का था, इसका स्पष्टीकरण उसमें नहीं है । दूसरे जिन दिगम्बर आचार्यों ने शल्य की उपस्थिति का उल्लेख किया है, वे भी इस घटना को श्वेताम्बर आचार्यों से नितांत भिन्न रूप में प्रस्तुत करते हैं - भरत भगवान् ऋषभदेव से पूछते है कि बाहुबलि को कैवल्य प्राप्ति क्यों नहीं हुई ? भगवान् उत्तर देते हैं कि उसके मन में यह कषाय है कि भरत की धरती पर हूँ । भरत स्वयं बाहुबलि के पास जाकर कहते हैं कि धरती तुम्हारी है मैं तो तुम्हारा किंकर हूँ (पउमचरिउ-स्वयम्भू ४/१४) । भरत के इन वचनों को सुनकर बाहुबलि को केवल ज्ञान हो जाता है । कुछ दिगम्बर आचार्यों ने यह भी उल्लेख किया है कि भरत ने जाकर जैसे ही बाहुबलि की पूजा की, उनका शल्य दूर हो गया और उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हो गया । श्वेताम्बर आचार्यों ने तो स्पष्टरूप से बाहुबलि में मान या अहंकार की उपस्थिति बतायी है किन्तु दिगम्बर आचार्यों ने भरत की धरती पर होने के जिस शल्य का उल्लेख किया है उसे या तो हीन भाव (शल्यग्लानि) मानना होगा या भरत के प्रति आक्रोश मानना होगा। इस प्रकार दोनों ने शल्य की व्याख्या भिन्न-भिन्न रूपों में की है।

शल्य की निवृत्ति की व्याख्या भी दोनों परम्पराओं में भिन्न रूप में की गयी है । दिगम्बर परम्परा के अनुसार जहाँ शल्य निवृत्ति भरत के द्वारा की गई क्षमा याचना या पूजा से होती है । वहाँ श्वेताम्बर परम्परा में शल्य की निवृत्ति अपनी संसार पक्ष की बहनों तथा भगवान् ऋषभदेव की प्रधान आर्यिका ब्राह्मी और सुन्दरी के उद्बोधन से होती है। किसी आर्यिका द्वारा श्रमण साधक के उद्बोधन की दो प्रमुख घटनाएँ श्वेताम्बर साहित्य में हमें उपलब्ध होती हैं । एक ब्राह्मी और सुन्दरी के द्वारा बाहुबलि का उद्बोधन और दूसरा राजीमती के द्वारा रथनेमि का उद्बोधन । जबकि दिगम्बर परम्परा में आर्यिकाओं के द्वारा श्रमणों के उद्बोधन के प्रसङ्गों का अभाव सा ही है । यद्यपि श्री लक्ष्मीचन्द जैन ने 'अन्तर्द्वन्द्वों के पार' नामक पुस्तक में यह उल्लेख किया है कि भरत भगवान् ऋषभदेव से बाहबलि में शल्य की उपस्थिति को जानकर स्वयं अयोध्या आते हैं और वहाँ से ब्राह्मी एवं सुन्दरी को लेकर बाहुबलि के समीप जाते हैं, बाहुबलि की पूजा करते हैं और दोनों बहनें बाहुबलि को उद्बोधित करती हैं कि 'भाई हाथी से नीचे उतरो', किन्तु श्री लक्ष्मीचन्द जी के इस कथन का आधार दिगम्बर परम्परा का कौन सा ग्रन्थ है, मुझे ज्ञात नहीं। पुनः उन्होंने भी ब्राह्मी और सुन्दरी को श्राविका के रूप में प्रस्तुत किया है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा में ये साध्वी के रूप में बाहुबलि को उद्बोधित करती हैं।

इस तुलनात्मक अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि बाहुबलि के इस कथानक को दोनों ही परम्पराओं ने अपनी-अपनी धारणाओं के अनुरूप मोड़ने का प्रयास किया है। फिर भी बाहुबलि की रोमांचकारी कठोर साधना का, जो चित्रण दोनों परम्परा के आचार्यों ने किया है, वह निश्चय ही हमें महापुरुष के प्रति श्रद्धावनत बना देता है। जो अन्तर और बाह्य दोनों युद्धों में अपराजेय रहा हो । ऐसा व्यक्तित्व निश्चय ही महान् है । बाहुबलि सर्वतोभावेन अपराजेय सिद्ध हुए हैं । एक ओर चक्रवर्ती सम्राट् को पराजित कर वे अपराजेय बने हैं, तो दूसरी ओर स्वयं प्रबुद्ध हो एकाकी साधना के द्वारा कर्म शत्रुओं को पराजित कर उन्होंने अपनी अपराजेयता को सिद्ध किया है ।