।। जैन सम्प्रदाय ।।

1. तदैव पतिरोजऽपि सर्वनैमित्तिकाग्रणी।
अर्हद्बलिगुरूश्चक्रै संघसंघट्टनं परभृ।।6।।
सिंहसंघों नन्दिसंघः सेनसंघों महाप्रभः।
देवसंघ इति स्पष्ष्टं स्थानस्थितिविशेषतः ।।7।।
गणगच्छादयस्तेभ्यो जाताः स्वपरसौख्यदाः।
न त. भेदः कोऽप्यस्ति प्रव्रज्यादिपु कर्मसु।।8।।- नीतिसार
2. ‘सिरपुज्जपादसीसो द्रविड़ संघस्य कारगो टुठ्ठो।
णामेण वज्जणंदी पाहुडवेदी महासत्थो।।24।।
वीएसु णत्थि जीवो उब्भसंणं णत्थि फासुगंग णत्थि।
सावज्जं ण हु मण्णई ण गणइ गिहकप्पियं अट्ठं।।26।।
कच्छं खेतं वसहिं वाणिज्जं कारिउण जीवंतो।
गहंतो सीयलणीरे पावं पउरं समज्जेदि।।27।।

द्रविड़ संध्ज्ञ से सम्बंिधत शिलालेख कोगांल्वंशी शांतरवंशी तथा होयसलवंशी राजाओं के राज्यकाल के मिले है। जोप्रायः 10-11 वीं श्ताब्दी या उसके बाद के हैं। जिससे ज्ञात होता है कि उन वंश के नरेशों का संरक्षण इस संघ को प्राप्त था। इन लेखों से यह भी ज्ञात होता है कि इस संघ से आचार्यों ने पद्मावतीदेवी की पूजा के प्रसार में बड़ा योगदान दिया था। कई लेखों में शाांतर और होयलसवंश के राजाओं के द्वारा राज्य सत्ता पाने में पद्मावती की सहायता दिखायी गयी है। लेखों से यह भी ज्ञात होता है कि इस संघ के साधु वसदिय जैन मंदिरों में रहते थे। उनके जीर्णोंद्धार और द्धषियों के आहारदान तथा भूमि, जागीर आदि का प्रबंध करते थे। शायद इन्हीं कारणों से दर्शनसार में इस संघ को जैनाभास कहा हैं

एक शिलालेख में इस संघ को द्रविड़ संघ कोण्डकुन्दान्वय तथा दूसरे में मूलसंघ द्रविड़ान्वय लिखा हैं परंतु 11वी शताब्दी के उत्तरार्ध के लेखों में इसका द्रविड़गण के रूप में नन्दिसंघ असंगलान्वय के साथ उल्लेख हैं। इस पर से ऐसा अनुमान किया जाता है कि प्रारम्भ में द्रविड़ संघ ने अपना आधार मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय को बनाया हो, पीछे यापनीय सम्प्रदाय के प्रभावशाली नन्दिसंघ के अंतर्गत हो गया हो और इसी से दर्शनसार में उसे जैनाभास कहा हो।

11-12वीं शताब्दी में इस संघ के मुनियों की गद्दियों की गद्दियां कोंगलवा राज्य के मुल्लूर तथा शांतर राजाओं की राजधाीन हुम्मच में थीं। हुम्मच से प्राप्त लेखों में इस संघ के अनेक आचार्यों का परिचय मिलता हैं

मूलसंघ के गण, गच्छ एवं अन्वय

मूलसंघ 4-5वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में विद्यमान थे। देवगण, सेनगण, देशियगण, नन्गिण, सूरस्थगण, काणूरगण, बलात्कारगण आदि उसके अंतर्गत थे। देशियगण का प्रसिद्ध गच्छ पुस्तकगच्छ था, उसी का दूसरा नाम वक्रगच्छ भी था।काणूरगण के दोप्रसिद्ध गच्छ थे मेकपाषाणगच्छ और तिन्त्रिणीकगच्छ। 14वीं शताब्दी के बाद काणूरगण का प्रभाव बलात्कारगण के प्रभावशाली भट्टारकों के आगे क्षीण हो गया। चूंकि बलात्कारगण के आदिनायक पद्मन्दि आचार्य ने सरस्वती को बलात्कार से बुलाया था इसलिए बलात्कारगण और सरस्वती-गच्छ नाम प्रसिद्ध हुआ। 14वी शताब्दी के लोखों से इस गुफा का विशेष प्रभाव प्रकट होता है। एक लेख में मूलसंघ के साथ नन्दिसंघ, बलात्कारगण और सारस्वत गच्छ का उल्लेख है तथा इस गण के आदि आचार्य के रूप में पद्नन्दि का नाम लिखा है ओर उनके कुन्दकुन्द वक्रग्रीव, एलाचार्य गृद्धपिच्छ नाम दिये हैं।

काष्ठा संघ

काष्ठासंध्ज्ञ की उत्पत्ति के संबंध में मतभेद है। दसवीं शताब्दी के दर्शनसार ग्रन्थ में आचार्य देवसेन ने लिखा है कि दक्षिण प्रांत में आचार्य जिनसेन के सतीथ्र्य विनयसेन के शिष्य कुमार सेन ने काष्ठा संघ की स्थापना की थी। इसने मयूर पिच्छ को छोड़कर गाय के बालों की पीछी धारण की थी और समस्त बागड देश में उन्मार्ग का प्रसार किया था। वह स्त्रियों को जि नदीक्षा देता था। क्षुल्लकों की वीरचार्या का विधान करता था और एक छठा गुणव्रत (अणुव्रत) पालता था। इसने पुराने शास्त्रों को अन्यथा रचकर मूढ़ लोकां में मिथ्यात्व का प्रचार किया था। इससे उसे श्रमण संघ से निकाल दिया गया था। तब उसने काष्ठा संघ की स्थापना की थी। तथा 17वीं शताब्दी के एक ग्रंथ वचन कोश में लिखा कि उमास्वामी के पट्धर लोहाचार्य ने उत्तर भारत के अगरोहा नगर में इस संघ की स्थापनाकी थी। मूर्तिलेखों में काष्ठा संघ के साथ लोहाचार्यान्वय का उल्लेख मिलता है। इस संघ से संबंधित लेख भी प्रायः उत्तर पश्चिम भारत से प्राप्त हुए हैं।

काष्ठा संघ की प्रमुख शाखायें या गच्छ चार थे-नन्दितरट, माथुर, बागड़ अैर लाट बागड़। माथुर गच्छ या संघ का सम्भवतया इतना प्रभाव था कि देवसेन ने अपने दर्शनसार में उसकी पृथक गणना की। उसमें लिखा है कि काष्ठ संघ की स्थापना के दो सौवर्ष बाद मथुरा में माथुर संघ की स्थापना रामसेन ने की थी। इस संघ के साधु पीछी नहीं रखते थे। इसलिए यह संघ निप्पिच्छ कहलाता थाा। काष्ठा संघ मथुरान्वय के प्रसिद्ध आचार्यों में सुभाषितरत्नसन्दोह आदि अनेक ग्रन्थों के रचयिता आचार्य अमितगति थे जो राजा भोज के समकालीन थेतथा लाट बागड़ संघ में प्रद्युम्न चरित्र काव्य के कर्ता महासेन थे। यह भी राजा भोज के समकालीन थे।

इन तीनों को देवसेन आचार्य ने जैनाभास कहा है किंतु इनका बहुत-सा साहित्य उपलब्ध है और उसका पठन-पाठन भी दिगम्बर सम्प्रदाय में होता है। हरिवंशपुराण के रचयिता ने आचार्य देवनन्दि के पश्चात वज्रसूरि का स्मरण किया है। और उनकी उक्तियों को धर्म शास्त्र के प्रवक्ता गणधर देव की तरह प्रमाण कहा है। यह वज्रसूरि वही जान पड़ते हैं जिन्हें द्राविड़ संघ का संस्थापक कहा जाता हैं ऐसी स्थिति में यह प्रश्न होता है कि दर्शनसार के रचयिता ने इन्हें जैनाभास क्यों कहा? क्योंकि दर्शनसार की रचना हरिवंशपुराण के पश्चात वि.सं. 996 में हुई है। इसका समाधान यह हो सकता है कि देवसेन सूरि ने दर्शनसार में जो गाथाएं दी हैं, वे पूर्वाचार्य प्रणीत हैं।

पूर्वाचार्यों की दृष्टि में द्रविड़ आदि संघों के साथ साधु जैनाभास ही रहे होंगे। इसीलिए दर्शनसार के रचयिता ने भी उन्हें जैनाभास बतलाया है, अन्यथा जिस श्ज्ञिथिलाचार के कारण उन्होने उक्त संघों को जैनाभास कहा है, वह शिथिलाचार मूलसंध्ज्ञी मुनियों में भी किसी न किसी रूप में प्रविष्ट हो गया था। वे भी मंदिरों की मरम्मत आदि के लिए गांव, जमीन आदि का दान लेने लगे थे। उपलब्ध शिलालेखों से यह स्पष्ट है कि मुनियों के अधिकार में भी गांव-बगीचे रहते थे। वे मंदिरों का जीर्णोद्वार करते थे, दानशालाएं बनवाते थे। एक तरह से उनका रूप मठाधीशों के जैसा हो चला था। किंतु इसका यह मतलब नहीं है कि उस समय में शुद्धाचारी तपस्वी दिगम्बर मुनियों का सर्वथा अभव हो गया था, अथवा सब उन्हीं के अनुयायी बन गये थे। शस्त्रोक्त शुद्ध मार्ग के पालने वाले और उनको मानने वाले भी थे तथा उसके विपरीत आचरण करने वाले मठपतियों की आलोचना करने वाले भी थे। पं. आशाधर जी ने अपने अनगारधर्मामृत के दूसरे अध्याय में इन मठपति साधुाओं की आलोचना करते हुए लिखा है-‘द्रव्य जिन लिंग के धारी मठपति ग्लेच्छों के समान लोक और शास्त्र के विरूद्ध आचरण करते हैं। इनके साथ मन, वचन ओर काय से कोई संबंध नहीं रखना चाहिए।’

ये मठाधीश साधु भी नग्न ही रहते थे, इनका बाह्य रूप दिगम्बर मुनियों के जैसा ही होता थ। इन्हीं का विकसित रूप भट्ठारक पद है।

तेरह पंथ और बीस पंथ

भट्टाकी युग के शिथिलाचार के विरूद्ध दिगम्बर सम्प्रदाय में एक पंथ का उदय हुआ, जो तेरह पंथ कहलाया। कहा जाता है कि इस पंथ का उदय विक्रम की सत्रहवीं सदी में पं. बनारसीदास जी के द्वारा आगरे में हुआ था। जब यह पंथ तेरह पंथ के नाम से प्रचलित हो गया तो भट्टारकों का पुराना पंथ बीस पंथ कहलाने लगा। किंतु ये नाम कैसे पड़े, यह अभी तक भी एक समस्या ही हैं इसके संबंध में अनेक उपपत्तियां सुनी जाती हैं किंतु उनका कोई प्रामाणिक आधार नहीं मिलता।

श्वेताम्बराचार्य मेघ विजय ने वि.सं. 1757 के लगभग आगरे में युक्ति प्रबोध नाम का एक ग्रन्थ रचा हैं यह ग्रंथ पं. बनारसीदास जी के मत का खण्डन करने के लिए रचा गया है। इसमें वाणरसी मत का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है-