।। जैन सम्प्रदाय ।।

10 ग्यारह अंगों की मौजूदगी

11 भरत चक्रवर्ती को अपने भवन में केवल ज्ञान की प्राप्ति

12 शूद्र के घर से मुनि आहार ले सकता है

13 महावीर का गर्भ परिवर्तन

14 महावीर का विवाह, कन्या जन्म

15 महावीर स्वामी को तेजोलेश्या से उपसर्ग

16 तीर्थंकर के कन्धे पर देवदूष्य वस्त्र

17 मरूदेवी का हाथी पर चढत्रे हुए मुक्तिमन

18 साध्ुा का अनेक घरों से भिक्षाा ग्रहण करना।

श्वेताम्बर चैत्यवासी

श्वेताम्बर चैत्यवासी सम्प्रदाय का इतिहास इस प्रकार मिलता है-

संघभेद होने के पश्चात् वीर नि.सं. 850 के लगभग कुछ शिथिलाचारी मुनियों ने उग्रबिहार छोड़कर मंदिरों में रहना प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गयी और आगे जाकर वे बहुत प्रबल हो गये। इन्होंने निगम नाम के शास्त्र रचे, जिनमें यह बतलाया गया कि वर्तमान काल में मुनियों को चैत्यों में रहना उचित है और उन्हें पुस्तकादि के लिए आवश्यक द्रव्य भी संग्रह करके रखना चाहिए। ये वनवासियों की निंदा भी करते थे।

इन चैत्यवासियों के नियमों का दिग्दर्शन के प्रबल विरोधी श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने ‘संबोध प्रकरण’ के गुर्वधिकार में विस्तार से कराया है। वे लिखते हैं-

‘ये चैत्य और मठों में रहते हैं, पूजा और आरती करते हैं, जिन मंदिर और शालाएं बनवाते हैं, देवद्रव्य का उपयोग अपने लिए करते हैं, श्रावकों को शास्त्र की सूक्ष्म बातें बताने का निषेध करते हैं, मुहूर्त निकालते हैं, निमित्त बतलाते हैं, रंगीले सुगन्धित और धूप से सुवासित वस्त्र पहनते हैं, स्त्रियों के आगे गाते हैं, साध्वियों के द्वारा लाये गये पदार्थों का उपयोग करते हैं, धन का संचय करते हैं, केशलोच नहीं करते, मिष्ट आहार, पान, घी, दूध और फलफूल आदि सचित्त द्रव्यों का उपयोग करते हैं। तेल लगवाते हैं, अपने मृत गुरूओं के दाह-संस्कार के स्थान पर स्तूप बनाते हैं, जिन प्रतिमां बेचते हैं, आदि।’

वि. सं. 802 अणहिलपुरपट्टण के राजा चावड़ा से उनके गुरू शीलगुणसूरि ने, जो चैत्यवासी थे, यह आज्ञा जारी करा दी कि इस नगर में चैत्यवासी साधुओं को छोड़कर दूसरे वनवासी साधु न आ सकेंगे। इस आज्ञा को रद्द कराने े लिए वि. सं. 1070 के लगभग जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि नाम के दो विधिमर्गी आचार्यों ने राजा दुर्लभदेव की सभा में चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ करके उन्हें पराजित किया तब कहीं विधिमार्गियों का प्रवेश हो सका। राजा ने उन्हें ‘खरतर’ नाम दिया। इसी पर से खरतरगच्छ की स्थापना हुईं इसके बाद से चैत्यवासियों का जोर कम होता गया।

श्वेताम्बरों ने आज जो जतीया श्रीपूज्य कहलाते हैं वे मठवासी या चैत्यवासी शाखा के अवशेष हैं ओर जो ‘संव्रगी’ मुनि कहलाते हैं वे वनवासी शाखा के हैं। संवेगी अपने को सुविहित मार्ग या विधि मार्ग का अनुयायी कहते हैं।

श्वेताम्बरों में बहुत से गच्छ थे। कहा जाता है कि उनकी संख्या 84 थी। किंतु आज जो गच्छ हैं उनकी संख्या अधिक नहीं हैं। मूर्तिपूजन श्वेताम्बरों के गच्छ इस प्रकार हैं-

1 उपकेशगच्छ-इस गच्छ की उत्पत्ति का सम्बंध भगवान पाश्र्वनाथियों से बताया जाता हैं उन्हीं का एक अनुयायी केशी इस गच्छ का नेता था। आज के ओसवाल इसी गच्छ के श्रावक कहे जाते हैं।

2 खरतरगच्छ-इस गच्छ का प्रथम नेता वर्धमानसूरि को बतलाया जाता है। वर्धमानसूरि के शिष्यजिनेश्वरसूरि ने गुजरात के अणहिलपुरपट्टण के राजा दुर्लभदेव की सभा में जब चैत्यवासियों को परास्त किया और राजा ने उन्हें ‘खरतर’ नाम दिया तो उनके नाम पर से यह गच्छ खरतरगच्छ कहलाया। इस गच्द के अनुयायी अधिकतर राजपूताने और बंगाल में पाये जाते हैंै। मुम्बई प्रान्त के इसके अनुयायियों की संख्या थोडी है।

3 तपागच्छ-इस गच्छ के संस्थापक श्री जगच्चन्द्रसूरि थे। सं. 1285 में उन्होंने उग्र तप किया। इस पर से मेवाड़ के राजा ने उन्हें ‘तपा’ उपनाम दिया। तब से इनका बृहद्गच्छ तपागच्द के नाम से प्रसिद्ध हुआ। श्री जगच्चद्रसूरि और उनके शिष्यों का दैलवारा के प्रसिद्ध मंदिरों का निर्माता वस्तुपाल बड़ा सम्मान करता था। इससे गुजरात में आज तक भी तपागच्छ का बड़ा प्रभाव चला आता है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यह गच्द सबसे महत्व का समझा जाता है। इसके अनुयायी बम्बई, पंजाब, राजपूताना, मद्रास आदि प्रांतों में पाये जाते है।

श्री जगच्चन्द्रसूरि के दो शिष्य थे, देवेन्द्रसूरि और विजयचन्द्र सूरि। इन दोनों में मतभेद हो गया। विजयचन्द्रसूरि ने कठोर आचार के स्थान में शिथिलाचार को स्थान दिया। उन्होंने घोषणा की कि गीतार्थ मुनि वस्त्रों की गठरियां रख सकते हैं, हमेशा घी दूध खा सकते हैं, कपड़े धो सकते हैं, फल तथा शाक ले सकते हैं, साध्वी द्वारा लाया हुआ आहार खा सकते हैं और श्रावकों को प्रसन्न करने के लिए उनके साथ बैठकर प्रतिक्रमण भी कर सकते हैं।

4 पाश्र्वचन्द्रगच्छ-यह तपागच्छ की शाखा है। तपागच्छ के आचार्य पाश्र्वचन्द्र वि.सं. 1515 में इस गच्छ से अलग हो गये। कारण यह था कि इन्होने कर्म के विषय में नया सिद्धांत खड़ा किया था औरन निर्युक्ति भाष्य, चूर्णि और छेद ग्रन्थों को प्रमाण नहीं मानते थे। इस गच्छ के अनुयायी अहमदाबाद जिले में पाये जाते हैं।

5 सार्धपौर्णमीयकगच्छ - पौर्णमीयक गच्छ की स्थापना चन्द्रभसरि ने की थी। कारण यह था कि प्रचलित क्रियाकाण्ड से उनका मतभेद था तथा वे महानिशीय सूत्र की गणना शास्त्र ग्रन्थों में नहीं करते थे। आचार्य हेमचन्द्र की आज्ञा से राजा कुमारपाल ने इस गच्छ के अनुयायियों को अपने राज्य में से निकलवा दिया था। इन दोनों की मृत्यु के बाद एक सुमतिसिंह नाम के पौर्णमीयक कुमारपाल की राजधानी अणहिलपुर में आये और इन्होंने इस गच्छ को नवजीवन दिया। तब से यह गच्द सार्धपौर्णमीय कहलाया। इस गच्छ के अनुयायी आज नहीं पाये जाते।

6 अंचलगच्छ-इस गच्छ के संस्थापक उपाध्याय विजयसिंह थे। पीछे वे आर्यरक्षित सूरि के नाम से विख्यात हुए। इस गच्द में मुखपट्टी के बदले अंचल का (वस्त्र के छोर का) उपयोग किया जाता है इससे इसका नाम अंचलगच्छ पड़ा है।

7 आगमिकगच्छ-इस गच्छ के संस्थापक शीलगुण और देवभद्र थे। पहले ये पौर्णमीयक थे पीेछे से आंचलिक हो गयेथे। ये क्षेत्रपाल की पूजा करने के विरूद्ध थे। विक्रम की 16वी शती में इस गच्छ की एक शाखा के कटुक नाम से पैदा हुई। इस शाखा के अनुयायी केवल श्रावक ही थे।

इन गच्छों में से आज खरतर, तपा और आंचलिक गच्छ ही वर्तमान हैं। प्रत्येक गच्छ की साधु समाचारी जुदा-जुदा है। श्रावणों की सामयिक प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रिया विधि भी जुदी-जुदी है। फिर भी सब में जो भेद है वह एक तरह से निर्जीव-सा है। कोई कल्याणक दिन छः मानता है तो कोई पांच मानता है। कोई पर्युषण अंतिम दिन भाद्रपद शुक्ला चैथ और कोई पंचमी मानता है। इसी तरह मोटी बातों को लेकर गच्छ चल पड़े हैं।

स्थानकवासी

सिरोही राज्य के अरहटबाड़ा नामक गांव में हेमाभाई नामक ओसवाल के घर में विक्रम सम्वत् 1472 में लोंकाशाह का जन्म हुआ। 25 वर्ष की अवस्था में लोंकाशाह स्त्री-पुत्र के सथ अहमदाबाद चले आये। उस समय अहमदाबाद की गद्दी पर मुहम्मदशाह बैठा था। कुछ जवाहारात खरीदने के प्रसंग से लोंकाशाह का परिचय मुहम्मदशाह से हो गया ओर मुहम्मदशााह ने लोंकाशाह की चातुरी से प्रसन्न होकर उन्हें पाटन का तिजोरीदान बना दिया।