तत्कालीन सभी धार्मिक विचारक किसी न किसी मत के प्रतिपादक थे। उन्होंने कुछ निश्चित चिन्ह पकड़ रखे थे।
जो उनके अनुयायी थे वे उनकी सेवा करते थे और जो नहीं थे, वे किनारा काटकर अलग हो जाते थे, किंतु महावीर के साथ यह दिक्कत थी कि वे इतने वीतरागी हो गये थे कि साधारण लोग उनसे निकटता का अनुभव नहीं कर पाते थें न तो श्रमण महावीर किसी सुख-सम्पदा की प्राप्ति कराते थे और न ही जनता के कष्टों का प्रत्यक्ष निवारण करते थे। यही कारण है कि उन्हें अपरिचित-सा जानकर कभी कोई सता लेता था तो कभी कोई प्रणाम कर लेता था।
तपश्चार्य के इस साधनाकाल में महावीर ने जो कठिन से कठिन रास्ता चुना तथा लोगों के मना करने पर उन्हीं स्थानों पर रात्रि में ठहरे, जाहं किसी न किसी विघ्न की सम्भावना थी। इसमें भी एक गहरा कारण है। वे यह जान लेना चाहते थे कि उनकी आत्मा प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कितनी जागी हुई है? उनके सम्पर्क में आने वाली ऐसी आत्माओं पर उनकी आत्मा का क्या प्रभाव पड़ता है? साधना तो उपसर्गों के सहन करने पर ही निखरती हैं
साधना काल में महावीर ने अनके कष्ट झेलने पड़े। कभी उन्हें कोई गुप्तचार समझकर पकड़ लेता तो कभी वे डाकुओं से घिर जाते, किंतु महावीर कहीं प्रतिरोध न करते। उनकी इस मध्यस्थ वृत्ति के कारण एक ओर जहां तत्कालीन तपस्वियों को ईष्र्या होती, वहां दूसरी ओर महावीर की साधना में श्रद्धा रखने वाले व्यक्तियों की भी संख्या बढ़ती जा रही थी। कभी-कभार महावीर के पिता सिद्धार्थ के मित्र या परिचित लोग भी उनको मिल जाते। वे उनकी इस अपूर्व साधना को देखकर सिद्धार्थ के भाग्य को सराहने लगते। महावीर विभिन्न प्रकार के ध्यान करते हुए श्रावस्ती पहुंचे, जहां उन्होंने अपना दसवां वर्षावास किया। श्रावस्ती से कौशम्बी, वाराणसी, राजगिरि, मिथिला आदि नगरों में विहार करते हुए महावीर पुनः वैशाली आये; जहां अपनी साधना का ग्यारहवां वर्ष पूरा किया।
श्रमण महावीर निश्चय ही किसी अनुपम शक्ति, अलौकिक शान की खोज में निकले थे। हम प्रायः अपनी शक्ति अैर ज्ञान के पैमानों से नाप कर उनके व्यक्तित्व को छोटा कर देते हैं। हम कहते हैं- महावीर अहिंसक थे, त्यागी थे, क्षमावादी थे आदि-आदि। ये गुण हमारे लिए महत्व के हैं। महावीर जैसी वीतरागी आत्मा तो इनसे ऊपर उठ चुकी थी। अतः उनकी बारह वर्षों की साधना क्रोध और हिंसा और अहिंसा, त्याग और भोग आदि जैसे द्वन्दो से मुक्त होने की थी। वे दोनों स्थितियों में दृष्टा होने पर प्रयत्न कर रहे थे, वे इतने वीतरागी हो जाते थे कि शरीर की सामान्य क्रियाओं की उन्हें आवश्यकता ही अनुभव नहीं होती थी। इसलिए वे निद्रा न लेते थे। भोजन न करते थे। फिर भी उनका शरीर कांतिमय एवं स्वस्थ बना रहा। यह भौतिक आवश्यकातओं को कम करने का सबसे बड़ा उदाहरण था। इस बात का प्रतीक भी कि व्यक्ति यदि आत्मा के प्रति निरंतर जागृत होता जाये तो कर्मबंधन की अनेक क्रियाएं स्वयमेव तिरोहित होती जाती हैं
निग्र्रन्थ महावीर की साधना और ध्यान इस बात पर भी केन्द्रित था कि वे सत्य की खबर जीवन के जितने रूप और स्तर हैं उन सब तक पहुंचा देना चाहते थे। जो उनहें उपलब्ध हो रहा था उसे कण-कण में वितरण करते जा रहे थे। यही कारण है कि कथाओं, प्रसंगों में देव, मानव, व्यन्तर, पशु, पक्षी, सज्जन, दुर्जन सभी प्रकार के जीव महावीर के सानिध्य के कृतार्थ हुए। अतः आत्मिक जागरण की ओर प्राणी जगत को आकर्षित करना माहवीर की साधना का प्रतिपाद्य था। उन्होंने विभिन्न प्रकार के ध्यानों द्वारा स्वयं पूर्ण जागरण की उपलब्धि की।