।। उत्तम शौच धर्म ।।
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शौच का अर्थ शुचिभूत होना अर्थात् काल से आत्मा सप्तधातु मय शरीर के संसर्ग से अपवित्र कहलाता है। इस अपवित्र शरीर से भिन्न जो शुद्धात्मा का ध्यान करके उसी में रत रहता है तथा जो मैं सदा शुद्ध बुद्ध हूँ, निर्मल हूँ, स्फटिक के समान हूँ, मेरी आत्मा अनादि काल से शुद्ध है इस तरह हमेशा अपने अंदर ही ध्यान करता है वह शुचित्व है। आत्मा का स्वरूप ही शौच धर्म है। इसीलिए ज्ञानी महामुनि इसी का ध्यान करते हैं। बाह्म शारीरादि की शुद्धि करना, स्नान करना गंगा यमुना आदि नदी, तालाब या समुद्र इत्यादि में स्नान करके जो लोग अपने को शुचि मानते हैं वे केवल बाह्म शुचि ये शुद्ध हैं, परंतु वह शरीर की शुचि अधिक देर तक कहाँ टिक सकती है ? अगर इसको सदा किसी नदी या तालाब में डुबोकर रक्खोगे तो भी यह सप्त-धातु मय महान् अपवित्र दुर्गन्धमय शरीर कभी शुद्ध नहीं हो सकता।

आजकल के बहुत से लोग शरीर को पवित्र करने के लिए कई घंटे तक आठ आठ दस दस बाल्टी तक पानी से स्नान करने में लगे रहते हैं, साबुन से खूब रगड़रगड़ कर स्नान करते हैं और खूब तेल फुलेल, चंदन के उबटन, सुगंधित गुलाब, चम्पा, चमेली, केवड़ा एवं और भी अन्य अनेक प्रकार के फूलों के हार इत्यादि से शरीर की सजावट करते हैं, परंतु पाँच मिनट या दस मिनट में ही उन सुगंधित फूलों का हार, अच्छे-अच्छे कपड़े तथा सोने के जेवर इत्यादि को खराब कर देता है और फूल माला इत्यादि तुरंत ही अपवित्र शरीर के स्पर्श से निर्गन्ध हो जाते हैं। जिस प्रकार हजारों मन साबुन लगाकर कोयले को धुलवाया जाय तो भी वह कोयला कभी भी अपने कालेपन को छोड़कर सफेदपन को प्राप्त नहीं कर सकता उसी तरह यह शरीर भी दुनियाँ भर के साबुन, तेल, फुलेल, अंतर, चंदनादि से कभी भी सुगंधित नहीं हो सकता अर्थात् पवित्र नहीं हो सकता। यह शरीर सदा अमंगल ही रहता है। इसीलिए ज्ञानी महान् महात्मा मुनियों ने शरीर केा शुचि न मानकर उस अमंगलमय शरीर में स्थित मंगलमय शुद्ध आत्म-तŸव को ही शुचि माना है। इस अमंगलमय अर्थात् अशुचिमय शरीर की रक्षा इसीलिए की जाती है कि-जैसे किसान अपने खेत में से उŸाम धान की पैदावरी के लिए खेत में खूब हल चलाकर उसकी मरम्मत करता है और उस खेत में महान् दुर्गाान्धत तथा अपवित्र जानवरों की विष्टा, मनुष्य की विष्ट तथा और भी अमंगल मय वस्तुओं को खेत में डालकर उन अमंगल वस्तुओं से ही अपनी जिन्दगी को मंगलमय तथा सुखमय बनाने के लिए बहुत बढि़या गेहूँ की पैदावार अच्छी तरह कर लेता है और उमर भर बैठे-बैठे खाता है उसी तरह आत्मज्ञानी महान् साधु लोग इस शरीर के अमंगल होने पर भी उससे घृणा न करते हुए जब तक इसके भीतर छिपे हुए सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूपी रत्नत्रयात्मक आत्मसुख की प्राप्ति नहीं कर लेते तब तक उसकी रक्षा करते हैं। परंतु इस शरीर को कभी भी अच्छा मानकर इसके प्रति प्रेम नहीं करते और इसकी खुशमद भी अधिक नहीं करते , पर यदि दूसरे के शरीर से घृणा करेंगे तो इसके भीतर छिपी हुई परमात्म पद अर्थात् आत्मस्वरूप को प्राप्ति हस्तगत होना अत्यंत दुर्लभ है।

जैसे किसी गन्दी नाली में यदि अमूल्य रत्न गिर जाय तो कौन बुद्धिमान् उसे छोड़ कर आगे बढ़ेगा ? अर्थात् कोई नहीं। अमूल्य रत्न के लोभ के कारण उस गंदी नाली में हाथ डालने से उसके मन में लेशमात्र भी ग्लानि नहीं आवेगी। अगर उसके मन में ग्लानि आवेगी तो उसमें गिरा हुआ रत्न भी उसको प्राप्त होना अत्यंत दुर्लभ समझना चाहिए। इसी से सम्यग्दृष्टि जीव शरीरस्थ आत्मस्वरूप की प्राप्ति जब तक न हो तब तक उस शरीर को प्रति घृणा न करके बाह्मोपचार करते हुए शरीरस्थ शुद्धधात्मा की प्राप्ति कर लेते हैं। सत्पुरुष ज्ञानी किसी रोगी या कोढ़ी (कुष्टि) लोगों के शरीरादि को देखकर उनके प्रति घृणा नहीं करते। अगर वे घृणा करेंगे तो शुद्धात्म पद की प्राप्ति उनके अत्यंत दूर है, ऐसा समझना चाहिए।

अनादि काल से आत्मा के साथ लगे हुए क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि तथा इंद्रिय जन्य दुष्ट वासनाओं को बढ़ाने वाले विषय भोग रूपी विष को वैराग्य या ज्ञान रूपी पानी से आत्मा के ऊपर लगे हुए कर्म मल को बारम्बार धोना चाहिये और उसमें पुनः बाह्म विषयादि खोटी भावनाओं तथा शुद्धात्म भावना को मलिन करने वाली मायाचार आदि भीतरी कुभावनाओं को त्यागकर शुद्धता का प्रयत्न करना ही उŸाम शौच धर्म है।

बहुत से लोग भीतरी कुवासनाओं को न धोकर बाहर शरीर की शुद्धि मानते हंै, पर जब तक अन्तरंग शुद्धि नहीं होगी तब तक शरीर की शुद्धि काम नहीं कर सकती।

कहा भी है कि-
एवं विहं पि देहं, पिच्छता विय कुणन्ति अनुरायं।
सेवंति आयरेण य, अलद्धपुव्वत्ति गण्णंता।।८६।।

अर्थात्- इस तरह पहले कहे हुए के अनुसार अशुचि शरीर को प्रत्यक्ष देखता हुआ भी यह मनष्य उसमें अनुराग करता है। जैसे ऐसा शरीर पहले कभी न पाया हो, ऐसा मानकर आदर पूर्वक इसकी सेवा रात-दिन करते हुए अज्ञानी संसारी प्राणी उसी को सुख व अपनी आत्मा मानते हुए संसार में परिभ्रमण करते हुए अनंत दुःख उठा रहे हैं।

परंतु जो ज्ञानी हैं वे अशुचिम्य क्षणिक परदेह से विरक्त होकर अपने शरीर से प्रेम नहीं करते। वे सदा अपने आत्मस्वरूप में अनुरक्त रहते हैं, उनकी ही अशुचि भावना सफल है। अन्यथा शरीर में अनुरक्त रहने वाले अज्ञानी प्राणी क्या सफलता को प्राप्त कर सकते हैं ? कदापि नहीं।

शरीर से बढ़कर संसार में कोई भी वस्तु अपवित्र नहीं है। उदाहरण के लिए एक सुंदर दृष्टांत दिया जाता है। किसी एक सद्गुरु के पास कोई एक मनुष्य संसार में विरक्त होकर दीक्षा लेने आया और गुरु से प्रार्थना कर अपने को संसार रूपी समुद्र से पार होने के लिए कहा कि मुनिवर! मुझे अपना चेला बनाकर साधु बना लीजिए। गुरु ने उस चेले से कहा बेटा! सबसे पहले तुम समस्त संसार में घूमकर देख आओ कि इस दुनिया में सबसे बुरी और अपवित्र कौन सी वस्तु है ? तब आपको बाद में दीक्षा दी जायेगी। गुरु की आज्ञानुसार चेले ने सारे संसार में घूम कर देखा परंतु कोई भी वस्तु उसको बुरी या अपवित्र नहीं दीख पड़ी। बाद में लौट कर गुरु के पास आने लगा तब किसी गाँव के बाहर खेतों खेत पगदंडी के रास्ते चला आ रहा था कि रास्ते के किनारे टट्टी पर बैठी भिनभिनाती हुई मक्खियों को देखा और उससे निकलती हुई दुर्गन्ध को जान कर कहने लगा कि अहा, सारे संसार में अगर दुर्गन्ध है तो यह है, अन्य कोई भी वस्तु बुरी, अमंगल या अपवित्र नहीं है।

इस बात को सुनकर विष्टा ने उस मनुष्य ने कहा कि ऐ निद्यं शरीरधारी मानव! तेरे शरीर के क्षणमात्र स्पर्श से ही मेरी यह निन्दीय दशा हुई और मैं गांव के बाहर आकर निंद्य जगह में फेंका गया हूँ।

उसने फिर मैले से पूछा कि मेरा शरीर कैसे अमंगल है ? तब मैने ने कहा कि जिस समय मैं बाजार में सन्तरा, केले, बर्फी, हलवा इत्यादि उत्तमोत्तम पदार्थ के रूप में दुकान में था उस समय राजे महाराजे तथा सेठ साहूकार आदि बड़े-बड़े आदमी हमारी बड़ी कदर करते थे तथा हाथों से उठा लेते थे और हमारी खूब प्रशंसा करते थे। परंतु जिस समय दुष्ट मानव का संसर्ग हुआ उसी क्षण से हमारी दशा फल रूप से बदल कर महान् निद्यं तथा अपवित्र दुर्गन्धमय विष्टा को प्राप्त हो गई। इसलिये हम अपवित्र या दुर्गन्धमय नहीं हैं। सारे संसार में यह शरीर ही अत्यंत दुर्गन्धमय तथा निंद्य है। अंत में यह किसी काम का नहीं रह जाता।

इस बात का निश्चय कर वह चेला गुरु के पास जाकर प्रणाम कर खड़ा हुआ। तब गुरु ने उससे पूछा कि बेटा! देखा ? हाँ गुरु जी देखा। गुरु ने पूछा कौन सी वस्तु अमंगल या अपवित्र है ? तब चेले ने कहा गुरुदेव! सब में अमंगल व बुरा शरीर ही है। तब गुरु ने पूछा तेरा शरीर ही बुरा है तो तुझे वैराग्य शरीर से हुआ है या अन्य किसी सांसारिक वस्तु से ? तब चेले ने कहा कि शरीर से । गुरु ने कहा कि तब बेटा ? तू शरीर से विरक्त होकर शरीर को अमंगल तथा क्षणिक समझ कर शरीर में स्थित शुद्ध तथा पवित्र शुचिमय आत्मा के स्वरूप की प्राप्ति करलो, क्योंकि उसकी प्राप्ति इसी क्षणिक शरीर के द्वारा ही हो सकती है, अन्य से नहीं।

इसलिए अब शुद्धात्मा का साधन कर लेना ही शरीर की सफलता है, अन्यथा केवल शरीर शुद्धि से आत्मा की शुद्धि नहीं हो सकती। केवल स्नान करने से बाह्म शरीर मात्र की ही शुद्धि है। इसलिए ज्ञानी मानव को इसी नश्वर शरीर के द्वारा आत्महित कर लेना उचित है।