|| उत्तम तप धर्म ||

कायक्लेश:-साधुजन संसार, शरीर तथा भोगों से विरक्त होकर साधु-दीक्षा लेते हैं। अतः वे अपना समस्त समय आत्मशुद्धि के लिये लगाया करते हैं। किन्तु आत्म-शुद्धि के अनुकूल जो भी ध्यान, सामायिक आदि कार्य किये जाते हैं, उन कार्यों के लिये शरीर की सहायता आवश्यक है क्योंकि ध्यान आसन स्वाध्याय में शरीर को भी कार्य करना पड़ता है।

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आत्मशुद्धि के मार्ग में शरीर को सुख नहीं मिल सकता। सहन करने योग्य कष्ट शांति से सहन करना हो कायक्लेश तप हैं।

शरीर आराम पाने के लिये खूब खाना पीना चाहता है और कुछ काम नहीं करना चाहता, पड़ा रहना चाहता है। संसार में विषय भोगी मनुष्य शरीर की सेवा उसकी रूचि अनुसार करते हैं, परंतु मुनि-जन शरीर को स्वल्प आहार देकर उससे धर्म-साधन का अधिक से अधिक काम लेना चाहते हैं। इस कारण अपने शरीर को सुख का अभ्यासी, प्रमादी नहीं बनाना चाहते। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये पृथ्वी पर, शिला पर, या तख्ते पर सोते हैं, खड़े होकर भोजन लेते हैं, केश लोंच करते हैं, नंगे पैर चलते हैं, एक ही आसन से अचल आत्म-ध्यान करते हैं।

आहार, नीहार (मूत्र-मल त्याग करने) के बाद कायोत्सर्ग (खड़े होकर कुछ देर ध्यान) करते हैं। ये समस्त क्रियायें कायक्लेश का ही अंग है। इस तरह यह तप भी आत्म साधना का सहायक तप है। खड़े होकर ध्यान करने को भी कायक्लेश माना है।

इन छहों तपों का प्रभाव शरीर पर पड़ता है अतः इनको बहिरंग तप कहते हैं। बहिरंग तप अन्तरंग तपों के कारण हैं। अतः मुनि-जन इनका सदा आचरण करते हैं। गृहस्थ भी कायक्लेश के सिवाय शेष ५ तपों को अपनी शक्ति अनुसार कर सकता है।

अन्तरंग तप:-अन्तरंग तप जिनका प्रभाव मनोनिग्रह के ऊपर पड़ता है छह प्रकार का है। १ प्रायश्चित्त २ विनय, ३ वैयावृत्ति ४ स्वाध्याय, ५ व्युत्सर्ग ६ ध्यान।

आत्म शुद्धि के प्रतिकूल यदि मुनि से कोई त्रुटि अपराध हो जावे तो मुनि उस त्रुटि का दंड लेने के लिये जो क्रिया करते हैं उसको प्रायश्चित कहते हैं।

प्रायश्चित अने प्रकार से किया जाता है, किंतु स्थूल रूप से उसकी दो विधियाँ हैं। (१) अपने गुरु या संघ नायक के सामने अपने अपराध को शुद्ध मन से यथार्थ कहदे और आचार्य महाराज उसका जैसा भी कुछ दंड दें उसको सहर्ष पालन करें। (२) यदि गुरु, आचार्य का समागम न हो तो स्वयं उसका प्रतिक्रमण करके अपनी समझ के अनुसार उसका दंड ले लेवें।

प्रायश्चित मुनि की शारीरिक दशा, देश काल के अनुसार उपवास, ध्यान, सत्याग आदि के रूप में दिया जाता है। लोहाचार्य को उनके गुरु ने सवा लाख व्यक्ति नये जैन बनाने का प्रायश्चित दिया था, तदनुसार उन्होंने सवा लाख अग्रवालों को उपदेश देकर जैनधर्म में दीक्षित किया। प्रायश्चित में किसी मुनि की दीक्षा कम कर दी जाती हैं, किसी को दूसरे मुनिसंघ में चले जाने का आदेश दिया जाता है, किसी को नई दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा दी जाती हैं, किसी को संघ से बाहर कर दिया जाता है, इस तरह आचार्य को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार जैसा कुछ उचित प्रतीत होता है, उस तरह का प्रायश्चित दिया करते हैं।

प्रायश्चित लेने से मन में यह ग्लानि दूर हो जाती है कि मुझसे अमुक अपराध हो गया है, मैं पापी हूँ, मेरा आत्मा पतित अपराधी है आदि। मन की ग्लानि दूर हो जाने से मन शुद्धि हो जाती है। इस कारण आत्मा को शुद्ध करने के लिये प्रायश्चित भी एक अच्छा उत्तम सरल साधन है। जैसे-अग्नि में तपाने से सोने का खोट निकलकर सोना शुद्ध हो जाता है, उसी तरह प्रायश्चित द्वारा आत्मा का दोष दूरा हो जाता है और मन शुद्ध हो जाता है।

विनय:-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र तथा रत्नत्रय के धारक साधुजन का मन से गौरव मानना उनका उचित सम्मान करना विनय है।

कोई भी गुण किसी व्यक्ति से ग्रहण करने का मुख्य साधन उस गुण के धारक व्यक्ति का समुचित विनय करता है। क्योंकि विनय करने वाले शिष्य को गुरु अपने हृदय के उदार भाव से वह कला बता देता हैं जिसके कारण शिष्य उस गुण के स्वल्पकाल में प्राप्त कर लेता हैं। जो शिष्य विनीत नहीं होता अपने गुरु को उचित विनय नहीं करता है, गुरु उससे प्रसन्न नहीं होते और उसको वह गुण मन कर नहीं सिखाता जिससे शिष्य को उतना लाभ नहीं होने पाता जितना कि होना चाहिए।

गुरु को ऊँचे आसन पर बिठाना, उनके आते ही खड़े हो जाना, उनके आगे हाथ जोड़ना, नमस्कार करना, उनके चरण-स्पर्श करना, उनका शारीरिक खेद दूर करने के लिये उनके पैर दबाना, उनके पीछे चलना, उनके साथ नम्रता से रहना, नम्रता से बातचीत करना, उनकी आज्ञा सहर्ष मानना इत्यादि गुरु विनय है, इसी का दूसरा नाम उपचार विनय है।

सम्यग्दर्शन को आत्म-शुद्धि का मूल आधार समझकर उसका अंग सहित रुचि के साथ निर्दोष पालन करना सम्यग्दर्शन का विनय है।

शास्त्र स्वाध्याय, अध्ययन-अध्यापन करना शंका समाधान करना, पाठ करना पदार्थ निर्णय करना, उपदेश देना, शास्त्र निर्माण करना इत्यादि रूप से ८ अंगों सहित सम्यग्ज्ञान बढ़ाने में रुचि के साथ यत्नशील रहना सम्यग्दर्शन विनय है।

५ महाव्रत, ५ समिति, ३ गुप्ति रूप १३ प्रकार के चारित्र का ठीक तरह अतिचार, अनाचार रहित निर्दोष आचरण करने में उत्साही तथा सदा यत्नशील बने रहना चारित्र विनय है।

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विनय तप के द्वारा आत्मशुद्वि का मुख्य साधन रत्नत्रय सुगमता के साथ प्राप्त हो जाता है।

वैयावृत्य:-रोगी, वृद्ध, अशक्त, बालमुनि की सेवा करना वैयावृत्य तप है।

मुनि संघ में कोई मुनि किसी रोग से पीडि़त हो जाता है, उस समय यदि उसकी उचित सेवा न की जावे, उसका कष्ट कम करने का यत्न न किया जावे तो उस रोगी मुनि के परिणामों में क्लेश, व्याकुलता आ सकती है जिससे कि संघ में क्षोभ हो सकता है तब उसको तो अशुभ कर्म का संचय होगा ही। इसी तरह वृद्ध, बाल, निर्बल साधुओं को उपवास करने से, पैदल चलने से, एकासन से, देर तक ध्यान करने आदि से शरीर में खेद हो जाता है, थकावट आ जाती है, निर्बलता बढ़ जाती हैं। उस समय प्रख दयालु चित्त मुनियों का अपने आचार्य की आज्ञानुसार उन पीडि़त खिन्न, निर्बल मुनियों की सेवा करना मुख्य कर्तव्य है।

दयालु व्यक्ति दूसरे का दुःख नहीं देख सकता, दूसरे को किसी दुख में पड़ा देखकर उस दुख को मिटाने की भावना उसके हृदय में अपने आप पैदा हो जाती है, फिर महाव्रती साधु तो परम दयालु होते हैं, वे किसी साधु का दुख कैसे देख सकते हैं। इस कल्याणमयी भावना से वे दुखी मुनि की सब तरह उचित सेवा करते हैं। उनके पैर दबाते हैं, सिर, हाथ, पीठ, आदि दबाते हैं। उनको सहारा देकर मल मूत्र कराते हैं, उनका मल मूत्र उठा कर किसी अन्य प्रासुक स्थान पर फैंक देते हैं। उनके चित्त में शांति वैराग्य, धैर्य, उत्साह, आत्मबोध लाने के लिये उनको १२ भावनाओं तथा संसार, शरीर भोगों का स्वरूप समझाते हैं। वैराग्य पाठ, परमेष्ठी की स्तुति सुनाते हैं, हितकारी उपदेश मीठे शब्दों में सुनाते हैं। चारों गतियों के दुःख आत्मा का स्वरूप, तत्व, द्रव्य, पदार्थ का विवरण बतलाते हैं।

यानी-जिस प्रकार भी रोगी, निर्बल, दुखी साधु का चित्त अशुभ चिंतन की ओर से हट सके वे सब समुचित उपाय करते हैं। यह सब वैयावृत्य है। वैराग्य से आत्मशुद्धि और पर शुद्धि होती है। इस दृष्टि से वैयावृत्य भी बहुत महत्वशाली तप है।

स्वाध्याय तप:-अपना ज्ञान बढ़ाने के लिये शास्त्रों को पढ़ना दूसरों को पढ़ाना, शंका निवारण के लिये विद्वानों से किसी विषय का पूछना, पाठ करना, शास्त्रीय विषय को विचारना यह सब स्वाध्याय है।

जिस तरह शरीर नेत्रों द्वारा पदार्थ को देखता है, उसी तरह आत्म ज्ञान के द्वारा सब कुछ जानता है। आत्मा का नेत्र ज्ञान है। ज्ञान बिना आत्मा अंधे के समान है, अतः शास्त्रों का स्वाध्याय करके प्रत्येक स्त्री पुरुष को ज्ञानवान बनाना, बनाना चाहिये।

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