हस्तिनापुर

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में स्थित हस्तिनापुर की गणना प्राचीन नगरों में की जाती है। यह कुरुवंश की राजधानी तो थी ही, सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ, सत्रहवें तीर्थंकर कुन्थुनाथ और अठारहवें तीर्थंकर अरहनाथ की जन्मभूमि भी है। यहाँ इनके गर्भ, दीक्षा और केवलज्ञान कल्याणक भी हुए हैं। इस प्रकार यह तीन-तीन तीर्थंकरों की कल्याणकभूमि होने के कारण बहुत प्राचीनकाल से तीर्थक्षेत्र के रूप में मान्य रहा है। भगवान आदिनाथ का धर्मविहार भी यहाँ हुआ। भगवान आदिनाथ (ऋषभदेव) के लिए राजा श्रेयांस द्वारा दिये गये आहार-दान की प्रसिद्ध घटना से इस नगरी को जो मान्यता मिली है, वह अप्रतिम है। यह पुण्यदिवस वैशाख शुक्ल तृतीया था, जिसे अक्षय तृतीया के नाम से जाना जाता है। मध्यकाल में कई राजनीतिक और प्राकृतिक कारणों से यह नगर शताब्दियों तक उपेक्षित रहा। यहाँ के प्राचीन मन्दिर और निषधिकाएँ नष्ट हो गयीं। सं. 1858 (सन् 1801) में दिल्ली के मुगलकालीन शाही खजांची राजा हरसुखराय ने एक भव्य जिन मन्दिर का यहाँ निर्माण कराया। आज यहाँ लगभग 5 कि.मी. की परिधि में उपर्युक्त तीनों तीर्थंकरों के चरण-चिह्नों सहित नसियाँ हैं। वर्तमान में बाहुबली मन्दिर, चौबीस तीर्थंकरों की टोंकें, जलमन्दिर, पांडुकशिला, समवसरण की रचना, कैलास पर्वत की रचना आदि दर्शनीय हैं । इस बड़े मन्दिर से कुछ ही दूरी पर जम्बूद्वीप की भव्य रचना की गयी है। सन् 1974 में गणिनी आर्यिका ज्ञानमतीजी की प्रेरणा से शास्त्रीय आधार पर 21 मीटर ऊँचे सुमेरु पर्वत की भव्य आकृति बनाई गयी है। इसी परिसर में कमलमन्दिर, त्रिमूर्तिमन्दिर, ध्यानमन्दिर और कलामन्दिर की निर्मिति दर्शनीय है। अभी-अभी एक अन्य उत्तुंग त्रिमूर्ति की प्रतिष्ठा इसी खुले परिसर में की गयी है। नगर के पास में यहीं भव्य श्वेताम्बर मन्दिर भी दर्शनीय है।

काशी

कल्याणकक्षेत्र काशी (वाराणसी) हिन्दू की प्राचीन तीर्थस्थली की तरह जैनों के प्रसिद्ध तीर्थों में से एक है। क्षेत्र के रूप में इसकी प्रसिद्धि सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ के समय से ही हो गयी थी। यहाँ उनके गर्भ, जन्म, तप और केवलज्ञान कल्याणक हुए। महाराज सुप्रतिष्ठ उस समय काशी के नरेश थे। तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की भी यह जन्मस्थली है। 'तिलोयपण्णत्ति' (4.458) में उनके जन्म के सम्बन्ध में इस प्रकार उल्लेख है :

हयसेण वम्मिलाहिं जादो हि वाराणसीए पासजिणो।
पूसस्स बहुल एक्कारसिए रिक्खे विसाहाए॥

अर्थात् भगवान पार्श्वनाथ वाराणसी नगरी में पिता अश्वसेन और माता वम्मिला (वामा) से पौष कृष्ण एकादशी के दिन विशाखा नक्षत्र में उत्पन्न हुए।

भगवान पार्श्वनाथ के गर्भ और दीक्षाकल्याणक भी यहीं हुए।

कहा जाता है कि किशोर पार्श्वनाथ जब सोलह वर्ष के थे, एक दिन क्रीड़ा के लिए नगर से बाहर निकले। वहाँ निकट ही वन में उन्होंने एक वृद्ध तापस को पंचाग्नि तप करते हुए देखा। वह कोई और नहीं, महिपाल नगर के राजा पार्श्वकुमार का नाना था। अपनी रानी के वियोग में वह तापसी बन गया था। उस समय वाराणसी वानप्रस्थ तपस्वियों का गढ़ था। पार्श्वकुमार तापस को नमस्कार किये बिना ही पास जाकर खड़े हो गये। तापस को उनका यह व्यवहार अपमानजनक लगा। वह मन ही मन क्रोधित हुआ। तभी उसने बुझती हुई आग सुलगाने के लिए एक बड़ा-सा लक्कड़ उठाया और ज्यों ही उसे कुल्हाड़ी से काटने को हुआ कि पार्श्वकुमार ने अवधिज्ञान से जान लिया कि इस लक्कड़ में नाग-नागिन हैं। उन्होंने तापस को लक्कड़ चीरने के लिए मना किया तो तापस आग-बबूला हो उठा और लक्कड़ काट डाला, जिससे सर्प-सर्पिनी के टुकड़े हो गये। कुमार ने उन्हें मन्त्र सुनाया, जिससे सर्पयुगल मरकर धरणेन्द्र-पद्मावती (यक्षयक्षिणी) हुए। कालान्तर में कषाययुक्त परिणामों से मरकर तापस भी असुर जाति का देव हुआ।

तीस वर्ष की अवस्था में पार्श्वकुमार को जाति-स्मरण हो जाने से वैराग्य हो गया और वाराणसी नगरी के बाहर ही अश्ववन में दीक्षा धारण कर ली।

भगवान सुपार्श्वनाथ का जन्मस्थान वर्तमान भदैनीघाट है, जबकि भेलुपुरा में भगवान पार्श्वनाथ की जन्मस्थली है। आजकल उसी परिसर में दो दिगम्बर जैन मन्दिर हैं।

वाराणसी प्राचीन भारत की सात नगरियों में से एक है। यह स्थली काशी विश्वनाथ के कारण से सारे संसार में प्रसिद्ध है। इस नगरी का सम्बन्ध सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की विख्यात पौराणिक घटना से तो है ही, यह कबीर-तुलसी जैसे अनेक कवियों की रचनाभूमि रही है।

यह नगरी हजारों वर्षों से विद्या केन्द्र रही है। यहाँ भारतीय वाङ्मयदर्शन और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन का प्राचीन केन्द्र है।

अहिच्छत्र

यह अतिशयक्षेत्र है। उत्तर प्रदेश के बरेली जिलान्तर्गत आँवला तहसील में यह स्थित है। प्राचीन काल में इस नगरी का नाम संख्यावती था। यह वही स्थान है, जहाँ तपस्यारत मुनिराज पार्श्वनाथ पर पूर्वजन्म के वैरी असुर कमठ ने घोर उपसर्ग किया और तभी धरणेन्द्र-पद्मावती यक्ष-यक्षिणी ने मुनिराज के ऊपर सहस्रफण फैलाकर उपसर्ग का निवारण किया। तब से इस नगरी का नाम अहिच्छत्र पड़ गया (तओ परं तीसे नगरीए अहिच्छत्र ति नाम संजायं- 'विविधतीर्थकल्प')। चैत्र कृष्ण चतुर्थी का वह दिन, यहाँ भगवान का ज्ञानकल्याणक हुआ। भगवान पार्श्वनाथ अपनी मुनिराज अवस्था में इस उपसर्ग से निर्लिप्त हो तपस्यारत रहे, उन्हें तभी केवलज्ञान हो गया। इन्द्रों और देवों ने आकर सोल्लास उनके ज्ञानकल्याणक की पूजा की।

अहिच्छत्र भारत की अति प्राचीन नगरी है। परवर्ती काल में यह उत्तर पंचाल की राजधानी बनी। महाभारत काल में द्रोण यहाँ के शासक थे।

वर्तमान में यहाँ क्षेत्र पर एक शिखरबन्द मन्दिर है। एक वेदी पर हरित पन्ना की भगवान पार्श्वनाथ की अतिशय चमत्कारी मूर्ति विराजमान है। यह 'तिखालवाले बाबा' नाम से जानी जाती है। कहा जाता है कि किन्हीं अदश्य हाथों ने रातों-रात कछ क्षणों में ही एक दीवार खड़ी कर के उक्त मूर्ति के लिए तिखाल (वेदी) बना दिया। तब से उसे सातिशय प्रतिमा कहा जाता है। भक्तजन यहाँ आकर तिखालवाले बाबा का दर्शन कर अपनी मनोकामनाएं पूरी करते हैं।

अहिच्छत्र के चारों ओर परिसर में आज भी कई भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं। इनमें दो टीले उल्लेखनीय हैं। नाम हैं- ऐचुली और ऐंचुआ। ऐंचुआ टीले पर एक विशाल उच्च चौकी पर भूरे बलुई पाषाण का सात फुट ऊँचा स्तम्भ है। लगता है, यह मानस्तम्भ रहा होगा, जिसके ऊपर का कुछ हिस्सा टूटकर गिर गया है। टीले के इस पाषाण-स्तम्भ को 'भीम की लाट' भी कहा जाने लगा है। किंवदन्ती यह भी है कि प्राचीन काल में यहाँ कोई सहस्रकूट चैत्यालय रहा होगा। कारण कि यहाँ खुदाई में अनेक जैन मूर्तियाँ उपलब्ध हैं।

मन्दिर के बाहर उत्तर की ओर आचार्य पात्रकेसरी के चरण-चिह्न निर्मित हैं।

वैशाली

वैशाली (कुंडग्राम) भगवान महावीर की जन्मस्थली है। आजकल यह स्थान वषाढ़ गाँव के नाम से जाना जाता है। वैशाली कुंडपुर की इस भूमि को चारों ओर से सीमाचिह्न लगाकर कमलपुष्प के एक विशाल शिला-पट्ट पर महावीर स्मारक का निर्माण कराया गया है, जिस पर प्राकृत और हिन्दी में प्रशस्ति अंकित है। भगवान महावीर के जन्मस्थली का संकेत करने वाली यह प्रशस्ति है। वर्तमान में वैशाली में महावीर की जन्मस्थली पर एक भव्य मन्दिर के निर्माण की योजना है। बिहार-झारखंड प्रदेश के अन्य तीर्थ मिथिलापुरी, चम्पापुरी, मन्दारगिरि, राजगृही, गुणावा, पाटलिपुत्र, भद्रिकापुरी, उदयगिरि, खंडगिरि आदि अनेक प्रसिद्ध जैन तीर्थ-स्थल हैं।

अतिशय क्षेत्र

अतिशय क्षेत्र के मामले में मध्यप्रदेश पुरातत्त्व की दृष्टि से भी समृद्ध है। प्रायः सभी क्षेत्रों में ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक प्राप्त होनेवाली सामग्री- मन्दिर, मूर्तियाँ, अभिलेख, स्तम्भ आदि सम्मिलित हैं। क्षेत्रों की सूची लम्बी है। कुछ-एक के नाम हैं- बजरंगगढ़, थूवौन, चन्देरी, सिहौनिया, पनागर, पटनागंज, अहार, पपौरा, कुंडलपुर, मक्सी, बीनाबारहा, मड़ियाजी।

बजरंगगढ़ क्षेत्र गुना से सात कि.मी. दक्षिण में है। यहाँ का विशेष अतिशय तीर्थंकर शान्तिनाथ, कुंथुनाथ और अरहनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में अवस्थित भव्य मूर्तियाँ हैं। ये सन् 1236 की हैं। अद्भुत है इन मूर्तियों का कला-कौशल और शिल्पविधान। इस त्रिमूर्ति में मूलनायक शान्तिनाथ की साढ़े चौदह फुट ऊँची तथा दायें-बायें कुंथुनाथ और अरहनाथ की लगभग ग्यारह फुट ऊँची मूर्तियाँ हैं। जैन-जैनेतर यहाँ मन में कामनाएँ लेकर आते हैं।

गुना जिले के अन्तर्गत ही पहाड़ों के बीचों-बीच थूवौन अतिशयक्षेत्र का विस्तार है। यहाँ मन्दिरों की संख्या पच्चीस है। अधिकांश मूर्तियाँ पन्द्रह-सोलह फुट अवगाहना वाली हैं। मन्दिर क्र.15 में भगवान आदिनाथ की मूर्ति पच्चीस फुट की है। मूर्ति के अतिशयसम्पन्न होने से इस मन्दिर की प्रसिद्धि भी सर्वाधिक है।

चन्देरी की पद्मासन चौबीसी का अपना महत्त्व है। चौबीस तीर्थंकरों की अत्यन्त पुराणों में वर्णित तीर्थंकरों के वर्ण की हैं। चन्देरी का प्राचीन नाम 'चेदि' राष्ट्र से सम्बन्धित है। कर्मभूमि के प्रारम्भ में इन्द्र द्वारा जिन 52 जनपदों की रचना की गई थी, चेदि उनमें से एक है। एक समय जैन संस्कृति का यह केन्द्र रहा है। यहाँ से लगभग तीन कि.मी. दूर खन्दारगिरि है, जहाँ अनेक जैन मूर्तियाँ और गुफाएँ चट्टानों में उकेरी गई हैं।

टीकमगढ़ के निकट एक मैदान में परकोटे के भीतर अवस्थित पपौरा अतिशयक्षेत्र है। यहाँ शताधिक मन्दिर हैं । गर्भगृह और वेदियों के कारण यह संख्या अधिक बन गयी है। इनका निर्माणकाल अलग-अलग है- बारहवीं से बीसवीं शती तक का। इस क्षेत्र के अतिशयों को लेकर अनेक किंवदन्तियाँ हैं। टीकमगढ़ से लगभग बीस कि.मी. अहार क्षेत्र है। इस स्थान का पुराना नाम मदनेशसागर भी मिलता है। यहाँ मन्दिरों की कुल संख्या तेरह है- ऊपर पहाड़ पर छह और मैदान में सात। क्षेत्र से लगभग दो कि.मी. दूर पहाड़ों के बीच एक विशाल गुफा 'सिद्धों की गुफा' है।

सागर जिले के अन्तर्गत रहली के पास अतिशयक्षेत्र ‘बीना वारहा' के मुख्य मन्दिर में भूगर्भ से प्राप्त पन्द्रह फुट अवगाहना वाली भगवान शान्तिनाथ की मूर्ति है। इस क्षेत्र का अभी-अभी बहुत विकास हो चुका है। पास ही पटनागंज अतिशयक्षेत्र है, यहाँ की विशेष प्रसिद्धि भगवान पार्श्वनाथ की कृष्णवर्णी सहस्रफणावली की चार फुट चार इंच की चमत्कारी मूर्ति के कारण है।

दमोह जिले में अवस्थित कुंडलपुर अतिशयक्षेत्र प्राचीन और प्रसिद्ध है। यह कुंडलाकार पर्वतमाला से घिरा हुआ है। सम्भवतः इस क्षेत्र का नाम इसी कारण कुंडलपुर पड़ा होगा। पहाड़ के नीचे क्षेत्र पर एक सरोवर भी है। पर्वत पर और नीचे तलहटी में कुल साठ मन्दिर हैं। पहाड़ पर मुख्य मन्दिर 'बड़े बाबा' का मन्दिर कहलाता है। आम जनता में मान्यता है कि इस मन्दिर की साढ़े बारह फुट उत्तुंग यह चमत्कारी मूर्ति भगवान महावीर की है, लेकिन मूर्ति के कन्धे पर लटकते जटाजूट एवं वेदी के अग्रभाग में ऋषभदेव की यक्ष-यक्षिणी उत्र्कीण होने के कारण पुरातत्वविदों ने इसे तीर्थंकर आदिनाथ की मूर्ति कहा है। अभी हाल प्राचीन मन्दिर के निकट ही एक विशाल मन्दिर का निर्माण कर उसमें बड़े समारोह के साथ बड़े बाबा की मूर्ति की स्थापना की जा चुकी है।

वर्तमान में इस क्षेत्र का बहुत विस्तार हो चुका है।

जबलपुर-दमोह मार्ग पर ही कैमूर पर्वत की तलहटी में हिरन नदी के तट पर अवस्थित अतिशयक्षेत्र कोनीजी क्षेत्र की प्रसिद्धि बढ़ गई है। यहाँ के गर्भ मन्दिर की प्रसिद्धि दैवीय चमत्कारों से अधिक रही है। विघ्नहर पार्श्वनाथ मन्दिर में लोग मनौती मनाने आते हैं। कुल नौ मन्दिर हैं। जिनमें सहस्रकूट जिनालय और नन्दीश्वर जिनालय का अपना महत्व है।

एक अन्य अतिशयक्षेत्र उदयगिरि विदिशा से छह कि.मी. पर अवस्थित है। यहाँ की बलुआ पाषाण और परतदार चट्टानों को काटकर गुफाएँ निर्मित हैं, जिनकी संख्या बीस है। गुफा क्र. 1 और 20 जैनों से सम्बन्धित हैं। यहाँ एक दीवार में गुप्तसंवत् 106 का अभिलेख अंकित है। इसकी पहली पंक्ति ‘नमः सिद्धेभ्यः...' से प्रारम्भ हुई है।

मध्यप्रदेश के ही एक प्राचीन जनपद 'मालव-अवन्ती' में मक्सी पार्श्वनाथ, वदनावर, गन्दर्भपुरी, चूलगिरि, पावागिरि, सिद्धवरकूट, वनैड़िया आदि क्षेत्रों की गणना की जाती है। यहाँ इनका नामोल्लेख कर देना ही काफी होगा।

राजस्थान में कोई सिद्धक्षेत्र नहीं है, न ही कल्याणकक्षेत्र। जो कुछ हैं वे या तो अतिशयक्षेत्र हैं (जिनकी संख्या लगभग बीस है) या फिर कलाक्षेत्र के प्रसिद्ध नमूने हैं। ऋषभदेव केसरिया, नागफणी पार्श्वनाथ, बिजौलिया, केशोराय पाटन, पद्मपुरा, श्रीमहावीरजी, चमत्कारजी, चाँदखेड़ी, झालरापाटन, तिजारा आदि अतिशयक्षेत्र माने गये हैं।