।। जैन कर्म सिद्धान्त-एक परिचय ।।

जो आत्मा को परतंत्र करता हैं, दु:ख देता है, संसार में परिभ्रमण कराता है उसे कर्म कहते हैं। अनादि काल से जीव का कर्म के साथ सम्बन्ध चला आ रहा है, इन दोनो का अस्तित्व स्वत: सिद्ध है। 'मैं हूँ।" इस अनुभव से जीव जाना जाता है और जगत में कोई दरिद्र है कोई धनवान है, कोई रोगी है कोई स्वस्थ्य है इस विचित्रता से कर्म का अस्तित्व जाना जाता है।

वे कर्म मुख्य रुप से आठ प्रकार के हैं - (१) ज्ञानावरणी (२) दर्शनावरणी (३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयु (६) नाम (७) गोत्र (८) अंतराय

  1. ज्ञानावरणी कर्म - जो कर्म ज्ञान को न होने दे अथवा ज्ञान की हीनाधिकता जिस कर्म के उदय से हो उसे  ज्ञानावरण कर्म कहते हैं। जैसे एक व्यक्ति विद्वान और दूसरा मूख, किसी को बार-बार पढ़ने पर याद होता है तो किसी को एक बार पढ़ने पर याद होता है। मूर्ति पर पड़ा हुआ कपड़ा जिस तरह मूर्ति का ज्ञान नहीं होने देता वैसे ही ज्ञानावरण कर्म का कार्य है। दूसरों के गुणों को देखकर भीतर ही भीतर जलना, गुरु का नाम छिपाना, दूसरों के ज्ञान का आदर न करना, किताब कॉपी आदि फाड़ देना, पढ़ने वालों को बाधा उत्पन्न करना इत्यादि अनेक कारणों से ज्ञानावरणी कर्म का आस्त्रव-बंध होता है।
  2. दर्शनावरणी कर्म - जो कर्म ज्ञान के पूर्व होने वाले दर्शन को न होने दे तथा जिस कर्म के उदय से बहुत निद्रा आवे, गहन निद्रा आवे, कम निद्रा आवे उसे दर्शनावरण कर्म कहते हैं। द्वारपाल जैसे महल में प्रवेश ही नहीं करने देता है उसी प्रकार दर्शनावरणी कर्म भी पदार्थ का सामान्य अवलोकन (दर्शन) नहीं होने देता है। जिनवाणी का अनादर पूर्वक श्रवण करना, दर्शन आदि में बाधा पहुँचाना, बहुत देर तक सोना, दिन में सोना, आलस्य करना, इन्द्रिय की विपरीत प्रवृत्ति करना इत्यादि कारणों से दर्शनावरणी कर्म का आस्त्रव-बंध होता है।
  3. वेदनीय कर्म - जिस कर्म के उदय से सुख और दु:ख रूप वेदन हो, अनुभव हो, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। पीड़ा होने पर दु:ख तथा अच्छे भोग सामग्री मिलने पर सुख की अनुभूति होना वेदनीय कर्म का कार्य है। जैसे गुड़ की चाशनी लपटी तलवार को चाटने पर जीभ के कटने पर उसकी पीड़ा में दु:ख तथा गुड़ की मधुरता में सुख का अनुभव होता है। स्वयं रोना एवं दूसरों को रुलाना, मारना, पीटना, बाँधना, दूसरों की निन्दा, विश्वास घात इत्यादि कार्यों से असाता वेदनीय कर्म का बंध होता है। सभी प्राणियों पर अनुकम्पा, अर्हत् पूजा, दान, तपस्वी की वैयावृत्य करना, विनयशीलता आदि कायों से साता वेदनीय कम का बंध होता है।
  4. मोहनीय कर्म - जिस कर्म के उदय से जीव पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को नहीं जान पाता उसे मोहनीय कर्म कहते हैं अथवा जिस कर्म के उदय से बुद्धि में भ्रम उत्पन्न होता है, गाफिलता हो उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। शरीर को ही जीव (आत्मा) मानना, अपने से पृथक वस्तुओं को अपना मानना, संयम पालन में कष्ट मानना इत्यादि मान्यताएं मोहनीय कर्म के उदय से होती है। जैसे शराब पिया हुआ व्यक्ति कभी माँ को पत्नी कहता है तो कभी पत्नी को माँ कहता है, इस तरह का विपरीत परिणमन मोहनीय कर्म कराता है। सच्चे धर्म की निंदा करना, धार्मिक कार्यों में अन्तराय पहुँचाना, अत्यधिक कषाय करना, बहुत बोलना, बहुत हँसना इत्यादिक कार्यों से मोहनीय कर्म का आस्रव व बंध होता है।
  5. आयु कर्म - जिस कर्म के उदय से मनुष्यादि भवों में गतियों में रुकना होता है उसे आयु कर्म कहते हैं। जैसे दोनों पैरों में पड़ी हुई बेड़ी (सांकल) मनुष्य को स्वेच्छा से यहाँ-वहाँ नहीं जाने देती एक ही स्थान पर रोके रखती है। बहुत आरम्भ करने व बहुत परिग्रह रखने से नरक आयु का, मायाचारी करने से तिर्यच्च आयु का, अल्प आरंभ और परिग्रह से मनुष्य आयु का तथा सराग संयम, संयमासंयम रुप परिणामों से देव आयु का बंध होता है।
  6. नाम कर्म - जिस कर्म के उदय से अनेक प्रकार से शरीर की रचना होती है उसे नार्म कर्म कहते हैं। मोटा-पतला, काला-गोरा, सुरुप-कुरुप इत्यादि कार्य नाम कर्म के माने जाते हैं। जैसे चित्रकार अनेक प्रकार के चित्र बनाता है उनमें रंग भरता है इसी तरह का कार्य नाम कर्म का है। मन, वचन, काय की कुटिलता से अशुभ नाम कर्म का तथा मन, वचन काय की सरलता से शुभ नाम कर्म का बंध होता है।
  7. गोत्र कर्म - जिस कर्म के उदय से उच्च कुलों में अथवा नीच कुलों में जन्म होता है उसे गोत्र कर्म कहते हैं अथवा जिस कर्म के उदय से उच्च आचरण में व नीच आचरण में प्रवत्ति होती है उसे गोत्र कर्म कहते हैं। जैसे कुम्हार अनेक प्रकार के बड़े घड़े बनाता है उसी प्रकार गोत्र कर्म भी उच्च गोत्री व नीच गोत्री बनता है। दूसरों की निन्दा, अपनी प्रशंसा करने से जाति आदि का मद (घमंड) करने से नीच गोत्र का बंध होता है। आत्म निन्दा पर प्रशंसा, निरभिमानता, नम्र व्रती रखने से उच्च गोत्र का बंध होता है।
  8. अन्तराय कर्म - जिस कर्म के उदय से दाता और पात्र के बीच लेन-देन में वित्र उत्पन्न हो जाये उसे अंतराय कर्म कहते हैं अथवा वस्तु सामने होते हुए भी जिस कर्म के उदय से उसका ग्रहण, भोग, उपयोग न हो सके उसे अंतराय कर्म कहते हैं जैसे मुनिराज को आहार दान देना चाहे किन्तु मुनिराज के पड़गाहन का योग ही प्राप्त न हो, घर में मिठाई बनाई हो और बुखार हो जाये, मिठाई न खा सके इत्यादि अंतराय कर्म के कार्य है | इस क्रम को खजांची की उपमा दी है

प्राणियों की हिंसा करना, दूसरों की वस्तु चुरा लेना, दान आदि देने नहीं देना, निर्माल्य का ग्रहण करना इत्यादि कार्यों से अंतराय कर्म का बन्ध होता है।

उपरोक्त कमों का बन्ध चार प्रकार का होता है १. प्रकृति बन्ध २. स्थिति बंध ३. प्रदेश बंध ४. अनुभाग बंध

  1. प्रकृति बन्ध - प्रकृति का अर्थ स्वभाव है, बंधे हुए कर्मों में अपने स्वभाव के अनुसार प्रकृति पड़ जाना प्रकृति बंध है जैसे ज्ञानावर्णी कर्म का प्रकृति बंध ज्ञान को न होने देने रूप।
  2. स्थिति बंध - बंधा हुआ कर्म कितने समय तक अपना फल देगा यह समय सीमा निर्धारण स्थिति बन्ध है, जेसे यह कर्म एक वर्ष तक अपना फल देगा।
  3. प्रदेश बन्ध - बन्धे हुए कर्म स्कंध में प्रदेशों की स्कंध संख्या प्रदेश बंध पर निर्भर करती है, जैसे अमुख कर्म में संख्यात अथवा असंख्यात प्रदेश हैं।
  4. अनुभाग बन्ध - बन्धे हुए कर्म में फल देने की शक्ति की होनाधिकता का निर्धारण अनुभाग बंध से होता है जैसे यह कर्म तीव्रता से उदय में आया अथवा मन्दता से यानि सिर दर्द बहुत तेज है अथवा हल्का-हल्का। एक उदाहरण के माध्यम से इन चारों बन्धों को समझे- बाजार से एक नींबू खरीदा, नींबू का स्वभाव खट्टा है, प्रकृति बन्ध का परिणाम | नीबूं एक माह तक खाने योग्य है - स्थिति बन्ध का परिणाम, नींबू बहुत खट्टा है - अनुभाग बन्ध का परिणाम, नीबू २०० पुदगल परमाणु से मिलकर बना है अथवा इसमें ८ कली हैं, प्रदेश बंध का परिणाम है।

इस प्रकार शुभाशुभ कर्म के बंध को जानकर उनके बंध के कारण उनका फल जानकर विवेक पूर्वक कर्मों से बचने का छुटकारा पाने का उपाय ही कर्म सिद्धान्त को पढ़ने समझने का प्रयोजन है।