कर्म सिद्धान्त
कर्म सिद्धान्त समझने के लिए प्रथम हमें कर्म शब्द से ही परिचित हो जाना चाहिए। कर्म शब्द अनेकों अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जैसे कृत्य, कार्यसम्पादन, व्यवसाय, धार्मिककृत्य, कृत का फल आदि। षट्कारक प्रक्रिया में कर्ता कारक के उपरान्त कर्म कारक, जिसका अर्थ 'कर्तुरीप्सिततमं कर्म' अर्थात् जो कर्ता का पसन्द किया हुआ कार्य है वह कर्म है। जैसे जीव का ज्ञान, दर्शन आदि रूप सहज कर्म, पुद्गल का स्पर्श, रस आदि रूप सहज कर्म या परिणमन या कार्य।
व्याकरण के ज्ञाताओं में कर्म का यह अर्थ बहुप्रचलित है। और तत्त्वज्ञानियों को यह कर्म का स्वरूप हमारे सहज स्वभाव का प्रसिद्ध करने वाला होने से पसन्द आता है।
अन्य अर्थ जो जगज्जन में कर्म बन्धन रूप में प्रसिद्ध है। सभी आत्मवादी, ईश्वरवादी दर्शन इस विषय में यही मान्यता प्रसिद्ध करते हैं कि "जो जस करहिं सो तसु फल चाखा' अर्थात् प्राणी जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। वास्तव में कर्म का मौलिक अर्थ तो क्रिया ही है। जीव मन-वचन-काय के द्वारा कुछ-नकुछ करता है यह सब उसकी क्रिया या कर्म है, और मन-वचन-काय ये तीन उसके द्वार हैं। इसे जीव कर्म या भावकर्म कहते हैं। यहाँ तक तो सभी स्वीकार करते हैं।
परन्तु इस भावकर्म से प्रभावित होकर कुछ सूक्ष्म जड़ पुद्गलस्कन्ध जीव के प्रदेशों में प्रवेश पाते हैं, और उसके साथ बंधते हैं। यह बात केवल जैनागम ही बताता है। ये सूक्ष्म स्कन्ध अजीव कर्म या द्रव्य कर्म कहलाते हैं और सूक्ष्म रूप-रसादि के धारक मूर्तिक होते हैं। जैसे-जैसे कर्म (भाव) जीव करता है वैसे ही स्वभाव को लेकर ये द्रव्य कर्म (पुद्गल) उसके साथ बँधते हैं और कुछ काल पश्चात् परिपक्व दशा को प्राप्त होकर उदय (फल) में आते हैं। उस समय इनके प्रभाव से जीव के ज्ञानादि गुण तिरोभूत हो जाते हैं। यही उनका फलदान कहा जाता है। सूक्ष्मता के कारण वे हमें दृष्टिगोचर नहीं हैं। अनुभवगोचर परलोक मानने वाले दार्शनिकों का मत है कि हमारा प्रत्येक अच्छा या बुरा कर्म अपना संस्कार छोड़ जाता है; क्योंकि हमारे प्रत्येक कर्म या प्रवृत्ति के मूल में राग और द्वेष रहते हैं। यद्यपि प्रवृत्ति या कर्म क्षणिक होता है तथापि उसका संस्कार फलकाल तक स्थायी रहता है। संस्कार से प्रवृत्ति और प्रवृत्ति से संस्कार की परम्परा अनादिकाल से चली आती है, इसी का नाम संसार है।
किन्तु जैनदर्शन के मतानुसार कर्म का स्वरूप किसी अंश में इससे भिन्न है। जैनदर्शन में कर्म केवल एक संस्कार मात्र ही नहीं है, किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है। जो रागीद्वेषी जीव की क्रिया से आकृष्ट होकर जीव के साथ मिल जाता है। यद्यपि यह पदार्थ भौतिक है तथापि जीव के कर्म अर्थात् क्रिया से आकृष्ट होकर वह जीव के साथ बँधता है इसलिए उसे कर्म कहते हैं। वह आगे जाकर अच्छा या बुरा फल देता है।
विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि पुद्गल द्रव्य मुख्य रूप से पाँच वर्गणाओं (समान गुण वाले परमाणु पिण्ड को वर्गणा कहते हैं।) में विभक्त हैं (1) आहारवर्गणा (2) भाषा वर्गणा (3) मनोवर्गणा (4) तैजस वर्गणा, और (5) कार्माणवर्गणा। जो इस संसार में सूक्ष्म स्कन्धों के रूप में सर्वत्र व्याप्त हैं। जीव के मन-वचन-काय के माध्यम से, राग-द्वेष रूप कार्यों के निमित्त से यह कार्माण वर्गणा ही कर्मरूप परिणमित हो जाती है, जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने 'प्रवचनसार' में लिखा है –
परिणमदि जदा अप्पा सुहम्हि असुहम्हि रागदोसजुदो। तो पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावेहिं ।। 187।।
जब राग-द्वेष से युक्त आत्मा अच्छे प्रतीत शुभ और बुरे प्रतीत अशुभ कर्मों में लगता है तब कर्म रूपी रज ज्ञानावरण आदि रूप से उसमें प्रवेश करता है।
इस प्रकार कर्म एक मूर्त पदार्थ है जो जीव के साथ बँध जाता है।
'पंचास्तिकाय' ग्रन्थ में उस मूर्त कर्म बन्ध की परम्परा को इस प्रकार व्यक्त किया गया है-
जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी। 136 ।। गदिमधिगदस्स देही देहादो इंदियाणि जायंते। तेहिं दु विषयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा॥ 137 ॥ जायदि जीवस्सेदं भावो संसारचक्कवालम्मि। इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा॥ 138
अर्थात् जो जीव संसार में स्थित है यानी जन्म-मरण के चक्र में पड़ा हुआ है उसके रागरूप और द्वेषरूप परिणाम होते हैं। उन परिणामों से नये कर्म बँधते हैं। कर्मों से गतियों में जन्म लेना पड़ता है। जन्म लेने से शरीर मिलता है। शरीर में इन्द्रियाँ होती हैं। इन्द्रियों से विषयों को ग्रहण करता है। विषयों को ग्रहण करने से इष्ट विषयों में राग और अनिष्ट विषयों में द्वेष करता है। इस प्रकार संसारचक्र में पड़े हुए जीव के भावों से कर्मबन्ध और कर्मबन्ध से राग-द्वेष रूप भाव होते रहते हैं। यह चक्र अभव्य-जीव की अपेक्षा से अनादि अनन्त है और भव्य-जीव की अपेक्षा से अनादि सान्त है; ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।
इससे स्पष्ट है कि संसारी जीव अनादिकाल से मूर्तिक जड कर्मों से बँधा हुआ है, इसलिए एक तरह से वह मूर्तिक ही हो रहा है जैसा कि कहा है।
वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठणिच्चया जीवे। णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधा दो।।7।।
-सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र, 'द्रव्य संग्रह'
अर्थात् वास्तव में जीव में पाँचों रूप, पाँचों रस, दोनों गन्ध, आठों स्पर्श नहीं रहते इसलिए वह अमूर्तिक है क्योंकि जैन दर्शन में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श गुण वाली वस्तु को ही मर्तिक कहा है। किन्तु कर्मबन्ध के कारण व्यवहार में जीव मर्तिक है। अतः ऐसे कथंचित मर्तिक आत्मा के साथ मर्तिक कर्मद्रव्य का सम्बन्ध होता है।
सारांश यह है कि कर्म के दो भेद हैं-द्रव्यकर्म और भावकर्म। जीव से सम्बद्ध कर्म पुद्गलों को द्रव्यकर्म कहते हैं और द्रव्यकर्म के उदय में अज्ञान से होने वाले जीव के राग-द्वेष रूप भावों को भावकर्म कहते हैं। बिना भावकर्म के न तो द्रव्यकर्म होते हैं और न ही द्रव्यकर्मों के बिना भावकर्म होते हैं।
'पंचास्तिकाय संग्रह' में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं-
यह लोक सभी ओर से बादर, सूक्ष्म आदि विविध प्रकार के अनन्तानन्त पुद्गलों से ठसाठस भरा है। इसकी टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है कि कर्मयोग्य पुद्गल सर्वलोकव्यापी होने से जहाँ आत्मा है वहाँ पहले से ही विद्यमान रहते हैं। संसारी आत्मा अपने स्वाभाविक चैतन्य स्वभाव को नहीं छोड़ते हुए ही अनादि बन्धन से बद्ध होने से मोह-राग-द्वेष भाव रूप परिणमन करता है, उन भावों को निमित्त करके पुद्गल स्वभाव से ही कर्मपने को प्राप्त होकर जीव के प्रदेशों में बद्ध हो जाते हैं। जैसे बिना किसी के किये ही पुद्गलों के इन्द्रधनुष, मेघादि रूप स्कन्ध बन जाते हैं, वैसे ही अपने योग्य जीव के परिणामों का निमित्त मिलते ही ज्ञानावरण आदि कर्म भी उत्पन्न हो जाते हैं।
संसार में जो विविधता देखी जाती है-कोई गरीब है, कोई अमीर है, कोई सुखी जैसा है, कोई दुःखी है, कोई ज्ञानी है, कोई अज्ञानी है, यह विषमता न तो अहेतुक है और न ही इसका कारण केवल लोक-व्यवस्था आदि है। इसमें कारण प्रत्येक जीव का अपना शुभाशुभ कर्म ही है।
कर्म का फल जीव को कैसे प्राप्त होता है? क्या अन्य कोई नियन्ता या ईश्वर या वे कर्म ही स्वयं फल देने की सामर्थ्य रखते हैं। इस विषय पर विचार करते हैं-
ईश्वर को जगत का नियन्ता मानने वाले वैदिक दर्शन जीव को कर्म करने में तो स्वतन्त्र किन्तु उसका फल भोगने में परतन्त्र मानते हैं। उनके मत से कर्म का फल ईश्वर देता है और वह प्राणियों के अच्छे या बुरे कर्म के अनुरूप ही अच्छा या बुरा फल देता है किन्तु जैनदर्शन के अनुसार कर्म अपना फल स्वयं देता है। इसके लिए किसी न्यायाधीश की आवश्यकता नहीं है। जैसे शराब पीने से नशा होता है और दूध पीने से पुष्टि होती है। शराब या दूध पीने के बाद उसका फल देने के लिए किसी दूसरे शक्तिमान नियामक की आवश्यकता नहीं होती। उसी तरह जीव की प्रत्येक कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्ति के साथ जो कर्म परमाणु जीवात्मा की ओर आकृष्ट होते हैं और राग-द्वेष का निमित्त पाकर उस जीव से बँध जाते हैं, उन कर्म परमाणुओं में भी शराब और दूध की तरह अशुभ या शुभ प्रभाव डालने की शक्ति रहती है, जो चैतन्य के सम्बन्ध से व्यक्त होकर जीव पर अपना प्रभाव डालती है। उसके प्रभाव से मुग्ध हुआ जीव ऐसे काम करता है जो दुःखदायक या सुखदायक प्रतीत होते हैं। यदि कर्म करते समय जीव के भाव शुभ होते हैं तो बँधने वाले परमाणु पुण्य रूप होते हैं और उनका फल अच्छा प्रतीत होता है तथा यदि भाव बुरे, अशुभ होते हैं तो बँधने वाले परमाणु पाप रूप होते हैं। कालान्तर में उनका फल भी बुरा या पाप रूप प्रतीत होता है।
जैनदर्शन में कर्म से मतलब जीव की प्रत्येक क्रिया के साथ जीव की ओर आकृष्ट होने वाले कर्म परमाणुओं से है। वे कर्म परमाणु जीव की प्रत्येक क्रिया के साथ जिसे जैनदर्शन में योग के नाम से कहा गया है, जीव की ओर आकृष्ट होते हैं और आत्मा के राग-द्वेष-मोह आदि भावों का, जिन्हें कषाय नाम से अभिहित किया गया है, निमित्त पाकर जीव से बँध जाते हैं। इस तरह कर्म परमाणुओं को जीव तक लाने का काम जीव की योग शक्ति करती है। सारांश यह है कि जीव की योगशक्ति और कषाय ही बन्ध का कारण हैं। कषाय के नष्ट हो जाने पर योग के रहने तक जीव में कर्म परमाणओं का आस्रव/आगमन तो होता है, किन्तु कषाय के न होने के कारण वे ठहर नहीं सकते। उदाहरण के लिए योग को वायु की, कषाय को गोंद की, जीव को एक दीवार की, और कर्मपरमाणुओं को धूल की उपमा देकर समझ सकते हैं। यदि दीवार पर गोंद लगा हो तो वायु के साथ उड़कर आने वाली धूल दीवार से चिपक जाती है, किन्तु यदि दीवार साफ चिकनी और सूखी होती है तो धूल दीवार पर न चिपक कर तुरन्त झड़ जाती है।
यहाँ धल का कम या ज्यादा परिमाण में उड़कर आना वायु के वेग पर निर्भर है। यदि वायु तेज़ होती है तो धूल भी ज्यादा उड़ती है। और यदि वायु धीमी होती है तो धूल भी कम उड़ती है तथा दीवार पर धूल का थोड़े या अधिक दिनों तक चिपके रहना उसपर लगी गोंद आदि गीली वस्तुओं की चिपकाहट की कमी-अधिकता पर निर्भर है। यदि दीवार पर पानी पड़ा हो तो उसपर लगी हुई धूल जल्दी झड़ जाती है। यदि किसी पेड़ का दूध लगा हो तो कुछ देर में झड़ती है और यदि कोई गोंद लगी हो तो बहुत दिनों में झड़ती है। सारांश यह है कि चिपकाने वाली चीज का असर दूर होते ही चिपकने वाली चीज स्वयं झड़ जाती है। यही बात योग और कषाय के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। योगशक्ति जिस दर्जे की होती है, आने वाले कर्मपरमाणुओं की संख्या भी उसी के अनुसार कम या अधिक होती है। यदि योग उत्कृष्ट होता है तो कर्मपरमाणु भी अधिक मात्रा में जीव की ओर आते हैं। यदि योग जघन्य होता है, तो कर्म परमाणु कम मात्रा में जीव की ओर आते हैं। इसी तरह यदि कषाय (राग-द्वेष-मोह) तीव्र होती है तो कर्मपरमाणु भी जीव के साथ बहुत समय तक बँधे रहते हैं व तीव्र फल देते हैं। यदि कषाय हल्की होती है तो कर्म परमाणु जीव के साथ कम समय के लिए बँधते हैं और फल भी कम देते हैं। यह एक साधारण नियम है किन्तु उसमें कुछ अपवाद भी हैं।