।। जीवों की अवस्था विशेष - गतियाँ ।।

गति का स्वरूप -

गति नाम कर्म के उदय से संसारी जीव जिस अवस्था विशेष को प्राप्त करते हैं उसे गति कहते हैं। मैं मनुष्य हूँ मैं देव हूँ आदि इस प्रकार की अनुभूति जिस कर्म का फल है वह गतिनाम कर्म है।

गति के भेद -

गतियाँ चार होती है - नरक गति, तिर्यञ्च गति, मनुष्य गति और देवगति।

नरक गति – हिंसादि पाप कर्मों के फलस्वरूप दु:ख भोगने हेतु जीव की प्राप्त अवस्था विशेष नरक गति है। इस गति में रहने वाले नारकी एक क्षण के लिए भी सुख प्राप्त नहीं करते, निरन्तर क्षेत्र जनित, शारीरिक, मानसिक और असुरकृत दु:खों को यथावसर अपनी पर्याय के अन्तसमय पर्यन्त भोगते रहते हैं। नरक गति को प्राप्त जीव रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वियों में बनें ८४ लाख बिलों में रहते हैं। जिसमें ८२,२५,००० बिल अत्यधिक उष्ण (गरम) एवं १,७५,००० बिल अत्यधिक शीत (ठंड) प्रकृति वाले होते हैं।

तिर्यञ्च गति – मायाचार रूप परिणामों से उपार्जित पाप तथा हिंसादि पाप के फलों को भोगने हेतु प्राप्त जीव की अवस्था विशेष तिर्यञ्च गति कहलाती है। तिर्यञ्च गति में एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के जीव होते हैं अर्थात पत्थर, पानी, हवा, अग्नि तथा पेड़- पौधे इत्यादि सभी एकेन्द्रिय जीव तिर्यञ्च गति के हैं। इस गति में जीवों के पास प्रतिकार करने की क्षमता का अभाव होने पर उन्हे अनेक प्रकार के सर्दी, गर्मी, भूख - प्यास आदि के कष्टों को सहन करना पड़ता है तिर्यच्चों के दु:खों को करोड़ों जिहवा के द्वारा भी कहना शक्य नहीं है।

मनुष्य गति - व्रत रहित जीव के सरल परिणाम, कम आरंभ परिग्रह से उत्पन्न शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त जीव की अवस्था विशेष मनुष्य गति कहलाती है।

इस गति में पुरुषार्थ की मुख्यता रहती है यह गति जंक्शन के समान है, जीव यहाँ से सभी गतियों में जा सकता है तथा कर्म काट कर मोक्ष भी जा सकता हैं। मनुष्य गति मिलना अन्य गतियों की अपेक्षा दुर्लभ है। देव भी मनुष्य बनने के लिए तरसते हैं।

देवगति - मोक्ष प्राप्ति के योग्य पुरुषार्थ की कमी होने पर देव - पूजा, दान व्रतादि से उत्पन्न विशेष पुण्य फलों को भोगने हेतु प्राप्त जीव की अवस्था विशेष देव गति है। आणिमादि आठ गुणों से नित्य क्रीड़ा करते रहते हैं, और जिनका प्रकाशमान, अत्यन्त सुंदर, धातु - उपधातु से रहित दिव्य शरीर है वे देव कहे जाते हैं।

इस गति में सुख की बहुलता रहती है, भूख प्यास आदि की बाधा अत्यल्प होती है। सबकुछ भोगोपभोग सामग्री पूर्व पुण्य के उदय से स्वयमेव मिल जाती है किसी प्रकार की मेहनत/परिश्रम नहीं करनी पड़ती। पाँच इन्द्रियों के विषयों के योग्य भोग सामग्री पर्यात होती है किन्तु आयु पूर्ण होने पर यह सब वैभव छूट जाता है।

जीवों की गति अगति - -

नरक गति के जीव मरणकर मनुष्य व तिर्यञ्च गति में ही जन्म लेते हैं देव गति व नरकगति में नहीं। इसी प्रकार देवगति के जीव भी मरणकर मनुष्य व तिर्यच्च गति में ही जन्म लेते हैं अन्य गतियों में नहीं। विशेषता इतनी है कि देव मरणकर पृथ्वी कायिक, जल कायिक और वनस्पति कायिक एकेन्द्रिय पर्याय में भी जन्म ले सकते हैं। किन्तु नारकी नहीं। नारकी नियम से संज्ञी पऊचेन्द्रिय पर्याय में ही जन्म लेता है।

तिर्यञ्च व मनुष्य गति के जीव चारों गतियों में जन्म ले सकते है विशेषता इतनी है एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक के जीव मरणकर मनुष्य व तिर्यञ्च इन दो गतियों में ही जन्म ले सकते हैं देवगति व नरकगति में नहीं जा सकते। एकेन्द्रिय वायुकायिक एवं अग्निकायिक जीव मरणकर तिर्यञ्च गति में ही जन्म ले सकते हैं अन्य गतियों में नहीं। मनुष्य गति का जीव ही कर्मों का पूरी तरह क्षय कर मुक्ति प्राप्त कर सकता है अन्य गति के जीव नहीं।

गृहस्थ के योग्य '' षट्-कर्म" -

  1. असिकर्म - तलवार, तीर, कमान, बंदूक, तोप, भाला आदि के द्वारा प्रजा की रक्षा करने का कार्य असि कर्म कहलाता है। असिकर्म करने वाले के मन में जीवों की रक्षा का उद्देश्य होने से यह कर्म निन्द्य नहीं माना जाता है। श्री ऋषभदेव, श्री शान्तिनाथ, श्री रामचन्द्र आदि असिकर्म करते थे। सैनिक, सुरक्षा बल, पुलिस आदि का कार्य भी असिकर्म कहा जा सकता है।
  2. मसि कर्म - द्रव्य अर्थात् रुपये-पैसे की आमदनी खर्च आदि के लेखन का कार्य अर्थात् मुनीमी करना, मसि कर्म कहलाता है। सी.ए., सेल्स टेक्स, इन्कमटेक्स के वकील मसि कर्म वाले माने जा सकते है।
  3. कृषि कर्म - हल, कुलिश, दन्ताल आदि कृषि उपकरणों के उपयोग की विधी को जानकर, कृषि कार्य करना कृषि कर्म कहलाता है। यद्यपि कृषि कार्य में त्रस जीवों की हिंसा होती है तदपि कृषक के मन में सभी जीवों के पेट भरे रहे, सभी सुखी रहें ऐसी सद्भावना होने से कृषि कार्य को निन्द्य नहीं माना। अपितु कृषि को उत्तम कार्य कहा गया है। आचार्य श्री शान्तिसागर जी, विद्यासागर जी के गृहस्थाश्रम में कृषि कार्य ही मुख्यता से किया जाता था।
  4. शिल्प कर्म - धोवी, नाई, लुहार, कुल्हार, सुनार आदि अनेक प्रकार के वस्त्राभूषण, हथियार आदि बनाते हैं उनके इस कर्म को शिल्प कर्म कहते हैं। मकान बनाना, महल बनाना, पुल बनाना, मशीन, यंत्र आदि बनाना भी शिल्प कर्म है।
  5. सेवा अथवा विद्या कर्म - लेखन, गणित, चित्रादि पुरुष की बहत्तर कलाओं को विद्याकर्म कहते हैं। लेखक, कवि पत्रकार, टाइप राइटर आदि का कार्य विद्या कर्म है इसी प्रकार से शिक्षक, प्रशासनिक सेवा आदि का कार्य भी सेवा कर्म माना जाता है।
  6. वाणिज्य कर्म - चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थ, घी, तेल, धान्यादि, कपास, वस्त्र, हीरे, मोती, सोना चांदी इत्यादि अनेक प्रकार के द्रव्यों का संग्रह कर उन्हें बेचना 'वाणिज्य कर्म' कहलाता है। इसमें सभी प्रकार का लेन-देन रूप व्यापार सम्मिलित होता है।

कुछ क्रूर व्यापार (खर कर्म) ग्रन्थों में कहे गये है ये कर्म प्राणियों को दु:ख देने वाले होने से त्यागने योग्य है। अर्थात दयाभाव रखने वाले जैन श्रावकों को यह कार्य नहीं करना चाहिए। जैसे - ईट के, चूने के भट्टे लगवाना गोबर गैस प्लान्ट लगवाना, सेप्टिक टैंक बनवाना, हीटर आदि अग्नि उत्पादक यंत्रो का निर्माण करना, पटाखे बम बारुद की चीजें बनाना एवं बेचना, कीट नाशक दवांए जहर आदि बेचना, वन में पते आदि जलाने का ठेका लेना, बारुद द्वारा पहाड़ों को तुड़वाना, दास दासियों का व्यापार, गर्भपात की दवाई तथा खून मांस से उत्पन्न दवाईयां बेचना, लाख, शहद, शराब, हाथीदांत, नशीले पदार्थ, मक्खन आदि का व्यापार, बैल आदि पशुओं के नाक कान आदि छेदने का व्यापार, चमड़े की वस्तुओं का व्यापार। इसके अलावा कुछ छुद्र कर्म भी माने है जिन्हें श्रावक न करे जैसे, जूते-चप्पल का व्यापार, बालों के कटिंग की दुकान, हिसंक प्राणियों (कुत्ते बिल्ली आदि) का पालन पोषण करना, इनको बेचना।