।। जिन चतुर विशंतिस्वत ।।

ओंनमः परमात्मने! नमोऽनेकान्ताय शान्ताय।
थोस्सामिहंजिणवरे, तित्थयरेकेवलीअणंतजिणे।
णरपवरलोयमहिए विहुयरयमले महप्पणणे।।9।।
लोय ससुज्जोमयरे धम्मंतित्थकरंजिणंवंदे।
अरिहंतकित्तिस्से, चउबीसंचेव केवलिणो।।10।।
उपहमजियं च वन्देसंभवमभिणंदणं च समुइच।
पउपप्हंसुपास, जिणं च चंदप्पहं बन्दे।।11।
सुविहिं च पुष्फयंतं, सीयलसेयं च वासुपुज्जंच।
विमलमणंतंभयवं, धम्मंसांतिं च वंदामि।।12।।
कुंथु च जिणवरिंदंअरं च मल्लिं च सुव्वयं च णमिं।
वन्द्रअरिट्ठणेमिं, तहपावड्ढमाणं च।।13।।
एव मए अभित्थूया, विहुयरमला पहीणजरमणा।।14।।
कित्तिय बंदिय महिया, एदे लोगुत्तमाजिणासि;ा।
आोग्गणाणलाहं, दिंतुसमाहिं च मे बोंि।।15।।
चंदेहिंणिम्मलयंरा, आइच्चेहिंअहिय पयासंता।
सायरमिवगंभीरा, सिद्धा सिद्धिमम दिसंतु।।16।।
यावन्तिजिनचैत्यानि, विद्यन्तुभुवन- त्रये।
तावन्तिसततंभक्त्या, त्रिः परीत्य नमाम्यहम्।।17।।

अर्थ - ओंकार को, परमात्मा को, अनेकांत को और संतों को नमस्कार करता हूं। मैं उन तीर्थंकरों को जिनवरों को, केवलियों को, अनन्त जिनों को तथा नरलोक में जो श्रेष्ठ जनों से पूज्य हैं और रजोमन से रहित हैं ऐसे मुनीश्वरों को मैं नमस्कार करता हूं। लोक में उद्योत करने वाले धर्म प्रधान तीर्थरूप् जिनेन्द्र भगवान की वंदना करता हूं और कर्म रूपी शत्रुओं का हनन करने वाले अरिहंत केवल ज्ञानी चैबीस तीर्थंकरों का मैं स्तवन करता हूं। श्री ऋषभदेव (आदिनाथ), अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनंदन, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपाश्र्वनाथ, चंद्रप्रभ, सुविविधनाथ, (पुष्पदंत), शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रत, नामिनाथ, अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) पाश्र्वनाथ और वर्धमान (महावीर स्वामी) को मैं नमस्कार करता हूं। इस प्रकार कर्म रज और जन्म मरण से रहित ऐसे चैबीसतीर्थंकर केवलीभगवान मेरा कल्याण करो, कल्याण करो, कल्याण करो। जिनकी महिमा कीर्ति रूप् से गाई गई है ऐसे लोक में उत्तम सिद्ध भगवान मुझे आरोग्य, ज्ञान, समाधि और बोधि काला भदें।चंद्र जैसे निर्मल, सूर्य जैसे प्रकाश युक्त तथा सागर जैसे गंभीर सब सिद्ध मुझे सिद्धि प्रदान करें।तीनों लोकों में जितने जिन-चैत्यालय हैं उनमें विराजमान जिन-चैत्यों को सदैव तीन परिक्रमा करके भक्ति भाव से मैं नमस्कार करता हूं।

(नौ बार णमोकारमंत्र का जाप करना)

श्री मते वर्धमानाय, नमोनमित विद्धिषे।
यज् ज्ञानान्तर्गतं भूत्वा, त्रैलोक्यं गोष्पदायते।।18।।

अर्थ - जिनके ज्ञान में लोकत्रय स्पष्ट झलकता है और जो मोहा दिभयंकर शत्रुओं को नाश करने वाले है ऐसे श्री वर्धमान स्वामी को मैंन नमस्कार करता हूं।

नमः श्री वर्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने।
सालोकानां त्रिलोकानां, यद् विद्या दर्पणायते।।19।।

अर्थ - जिनकी केवल ज्ञान विद्या अलोक सहित तीनों लोकों को दर्पण के सदृश प्रतिभासित करती है और जिनका आत्मा कर्ममल रहितहै ऐसे श्री वर्धमान स्वामी को मैं नमस्कार करता हूं।

अर्हत्सिद्धाचार्य पाध्यायेभ्यस्तथाचसाधुभ्यः।
सर्वजगद्वन्द्द्येभ्यो, नमोऽस्तुसर्वत्र सवेभ्यः।।20।।

अर्थ - सकल संसार के वंदन करने योग्य ऐसे अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधुको मैं सदानमस्कार करता हूं। (नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करना)