हे भगवान्! पच्चगुरू भक्ति का योत्सर्ग करने की इच्छा से मैं आलोचना पूर्वक अनन्त चतुष्टय से संयुक्त, अष्टमहाप्रातिहार्या ेंसे युक्त अरिहंत भगवान को अष्टगुणों से परिपूर्ण और ऊध्र्वलोक में स्थित िसद्धों को अष्ट प्रवचन मार्ग से युक्त आचार्यों को आचारादिक के शुद्ध ज्ञान का उपदेश देने वाले उपाध्यायों को और सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप (रत्नत्रयस्वरूप) गुणों को पालने में तत्पर सर्वसाधुओं को मैं भक्ति भाव से नमस्कार करता हूं।
इस आलोचना से मुझे दुःखक्षय, कर्म क्षय, बोधि लाभ, सुगति गमन, सामधिमरण और जिन गुणों की प्राप्ति हो।
(नौ बार णमोकारमंत्र काजाप करना)
सिद्धि भक्ति
मैं सिद्ध भक्ति करने के लिए दिवस संबंधी कृत कर्मों की आलोचना करता हूं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्यज्ञान, सम्यक्चारित्र विभूषित, आठ कर्म रहित, आठ गुण सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान, वीर्य अव्या बाध (सुख), अमूर्ति कत्व (सूक्ष्मत्व), अगुरू लघुत्व और अवगाहन त्वरहित, लोक के अन्त भाग में स्वभाव अर्थ पर्याय और स्वभाव व्यज्जन पर्याय से विभाज मान उत्तम अनंत गुणों से युक्त, सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए, ऐसे भूत, भविष्यत और वर्तमान काल संबंधी समस्त सिद्धों को मैं भक्ति पूर्वक नमस्कार करता हूं।सिद्ध भक्ति से मेरे दुख का नाश सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की प्रप्ति, सुगति का गमन, समाधिमरण और जिन गुणों की प्राप्ति हो। इस भावना की सिद्धि के लिए मैं सिद्ध भक्ति करता हूं। (नौ बार णमोकारमंत्र काजाप करना)
अरिहन्त भक्ति
हे भगवान्! चैबीस तीर्थंकरों की भक्ति करने के लिए दिवस संबंधी (रात्रि संबंधी) कृत कर्मों की आलोचना करता हूं। आप पच्च महाकल्याण कों से सुशोभित, अष्ट महा प्रति हार्य सहित, चैबीस अतिशय युक्त, अनन्त चतुष्टय अैर रत्नत्रय के धारक व केवल ज्ञान रूपी आभ्यन्तर लक्ष्मी एवं समवसरणादिबहिरंग लक्ष्मी के स्वामी हो । हे प्रभो! आपके चरणों में बारंबार नमस्कार करने वाले-
शत इन्द्र, बलदेव, वासुदेव, चक्रीद्व छत्रधारी राजाओं एवं ़षिगण यति गण और अनगारों से सेवित, सैकड़ों और हजारों स्तुतियों से स्तुत्य ऐसे वृषभा दिवीर पर्यंत सर्वमंगलकारकमहा पुरूषों को मैं भक्ति भावपूर्वक त्रिकाल वंदना और नमस्कार करता हूं। जिससे मेरे दुखों का भय, बोधि लाभ, शुभ गति में गमन, समाधिमरण और जिन गुणों की प्राप्ति हो। (नौ बार णमोकारमंत्र का जाप करना)
गुरू भक्ति
जो द्वादशांग सूत्र रूपी समुद्र के पारगामी, ज्ञान, ध्यान और तप में लवलीन बाह्यभ्यान्तर परिग्रह रहित, जितेन्द्रिय, शुद्ध चारित्र व छत्तीस गुणों से युक्त, पञ्चा, चारों को स्वयं पालनेवाले व शिष्यों को आचरण करने वाले, स्वसमय और परसमय में पारंगत, मेरू के समान निश्चल, पृथ्वी के समान सहनशील, समुद्र के समानगंभीर, निर्मलबुद्धि वाले, निर्दोष षट् आवश्यकों को पालने वाले, सिंह के समान निर्भय, सौम्यमूर्ति आकाश के समान निर्लेप, देश, कुल और जाति से शुद्ध संघ को दीक्षा, शिक्षा व प्रायश्चित देने में कुशल हैं ऐसे आचार्यों को मैं भक्ति भाव पूर्वक नमस्कार करता हूं। पच्चीस गुण युक्त, मोक्ष मार्ग में स्थित, मोक्ष के इच्छुकमुनीश्वरोंकोउपदेशदेनेमेंप्रवीण व व्रतों की रक्षाकरनेमेंतत्पर, उपाध्याय परमेष्ठी को मैं भक्ति भावपूर्वक नमस्कार करता हूं।
व्रत, तप व ध्यान रूपी अग्नि से कर्मों का नाश करने में प्रवीण, षट् आवश्यक कर्मों में सावधान, अनंत ज्ञाना दिरूप शुद्ध आत्मा के स्वरूप की साधना करने वाले, मन को जीतने वाले, शील रूपी कवच को धारण करने वाले, गुण रूपी अस्त्र रहित के समान पराक्रमी, गज के समान स्वाभिमानी, मृग के समान निस्संग, सूर्य के समान तेजस्वी, चंद्र के समान निर्मल, सागर के समान गंभीर, सुमेरू के समान अकम्प, अडोल, आकाश के समान निरालम्ब, निर्लोप, परीषह और उपसर्ग को सहन करने वाले अट्ठा इस मूलगुणों का निरति चार पालन करने वाले मोक्ष के साधक, भावलिंगी तपो निधि मुनीश्वरों को भक्ति पूर्वक नमस्कार करता हूं। (नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करना)
चैत्य भक्ति
म ैंचैत्य भक्ति एवं कायोत्सर्ग करने की इच्छा पूर्वक आलोचना करता हूं। अधोलो कमें (साल करोड़ बहत्तर लाख) अकृत्रिम जिन मंदिर, तिर्यंक (मध्य), लोक में (चार सौ अट्ठावन) और ऊध्र्व लोकमें (चैरासी लाख संतानवे हजार ते इस अकृत्रिम जिन चैत्यालयों) में नौ अरब पच्चीस करोड़ त्रेपन लाख सत्ताइस हजार नौ सौ अड़तालीस, 9255327948 अकृत्रिम जिन प्रतिमाओं को एवं व्यंतर, ज्योतिष्क देवों के भवन में स्थित असंख्यात चैत्यालय तथा असंख्यात जिन प्रतिमाओं को मैं भक्तिभाव से नमस्कार करता हूं। जिससे हमारे दुखों का क्षय, कर्मों का क्षय, बोधि लाभ शुभगति गमून, समाधिमरण व जिन गुणों की प्राप्ति हो। (नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करना)
निर्वाण भक्ति
अष्टा पद (कैलाश), सम्मेदाचन, गिरनार, चम्पापुर, पावापुर आदि तीर्थों से एवं विदेह क्षेत्र तथा समस्त कर्म भूमि से जितने जीव कर्म मलरहित सिद्ध, बुद्धि एवं निर्मल हो गए हैं उन सर्व सिद्धों को व तीर्थ क्षेत्रों को भक्ति भाव से मैं नमस्कार करता हूं। (नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करना)
श्रुतभक्ति (जिनवाणी भक्ति)
इष्ट प्रार्थना-प्रथमं करणं चरणं द्रव्यमिति अनुयोग चतुष्टयाय नमः।
अर्थ - अब इष्ट प्रार्थना के लिए मैं प्रथमानुयोग, करूणानुयोग, द्रव्यानुयोग को नमस्कार करता हूं।
एक सौबारह करोड तिरासी लाख अट्ठावन हजार पांच पदयुक्त द्वादशांग जिन वाणी को एवं चैदह प्रकीर्णकों को आठ करोड़ एक लाख आठ हजार एक सौ पचहत्तर (80108175) अक्षरों को मैं नमस्कार करता हूं।
भावश्रुत और अर्थ पदों के कत्र्ताश्री तीर्थंकर देव द्वारा भाषित एवं तीर्थं कर देव के निमित्त से अनन्तर भाव श्रुत रूप् पर्याय से परिणत श्री इन्द्र भूति गौत मगणधर ने बाहर अंग चैदह पूर्वग्रंथों की एक ही मुहूर्त में क्रमशः द्रव्य श्रुत की रचना की है उनको मैं भक्ति पूर्वक नमस्कार करता हूं। (नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करना)