।। पाक्षिक श्रावक।।

जो धर्म का पक्ष रखने वाला, सच्चे देव, शास्त्र व निग्र्रंथ गुरू को शरण मानकर अन्य कुदेवादिक की श्रद्धा छोड़कर अष्टमूलगुण् धारण करता है वह पाक्षिक श्रावक कहलाता है।

यह पाक्षिक श्रावक श्री जिनेन्द्रदेव के द्वारा प्रतिपादित सात तत्वों का हेयोपादेय पूर्वक यथार्थ श्रद्धान करता है। क्योंकि धर्म का मूल श्रद्धान है। इसके बिना कोई भी धर्मपथ का अनुयायी नहीं हो सकता।

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सात तत्वों का संक्षिप्त विचार

मै एक अखंड, निराकुल, अविनाशी चेतन द्रव्य हूं। रागद्वेषरूपी परिणाम विभाव है, हिंसादि व अहिंसादि विकल्प जो मेरी अवस्था में उठते हैं वे सब पाप पुण्य आस्रव हैं। ये दोनों धाराएं आत्मिक स्वभाव से भिन्न अशुचिरूप होने से हेय हैं। क्योंकि वे संसाररूप है, उनका मैं कर्ता, हर्ता और भोक्ता कदापि नहीं हूं।

रागादि से मलिन मेरा परिणाम बन्धत्व तत्व है और रागादि को भिन्न करने का शस्त्र (भेदज्ञान) संवर, निर्जरा तत्व है। इसलिए ये तत्व मुझे उपादये हैं। रागादि से भिन्न एकमात्र शुद्ध विज्ञानधन चेतना में (शुद्धोपयोग में) रमण मोक्षतत्व है जो कि मेरा स्वरूप है।

ऐसे सात तत्वों को हेयोपादेयरूप सम्यक प्रकार से समझकर आत्मा का श्रद्धान करना, उसको जानना और रागादिक को छोड़कर वीतरागभाव से आगे बढ़ना रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग है और रत्नत्रय की पूर्णता ही मोक्ष है।

श्रावक के अष्टमूलगुण

मैं पाक्षिक श्रावक का सदाचार पालन करने के लिए जिनदर्शन जलगालन, रात्रि भोजत्याग, पांच उदुम्बर (बड़, पीपल, कठूमर, पाकर, और गूलर फलत्याग, मद्यत्याग, मधुत्याग, मांसत्याग और जीवदया (संकल्पी हिंसा का त्याग) इन आठ मूलगुणों को धारण करता हूं।

सत्प व्यसन

जुआ खेलना, मांसभक्षण, मद्यपान, शिकार, चोरी, वेश्यागमन, परस्त्रीसेवन। ये सात व्यसन हैं।

सात व्यसनों को उभ्यलोक में दुखदायक समझकर छोड़ता हूं और अभक्ष्य का त्याग करने के लिए मैं आभ्यन्तरशुद्धि के लिए अभ्यासपूर्वक प्रयत्नवान होता हूं तथा पांच अणुव्रत हिंसात्याग, असत्यात्याग, चैर्यत्याग, कुशीलत्याग अैर परिग्रहपरिमाण तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत को धारण करने का मैं अभ्यास करता हूं।

षट्आवश्यक

मैं पाक्षिक श्रावक के षट् आवश्यक देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, संयमपालन, तपोधारण और सुपात्रदान को नियमित रूप से करता हूं।

इन कत्र्तवयों के साथ धार्मिकनीति औरव्यवहारनीति का पालन करता हूं। सबसे प्रथम मैं पच्चीस दोष (आठ मद, आठ शंकादि दोष छह अनायतन और तीन मूढत्रता) रहित शुद्ध (निर्दोष) सम्यग्दर्शन को धारण करता हूं।

अष्ट मूलगुणों के अतिचार

1 - हे भगवान् मैंने मूलगुणों का पालन करते समय अचार (अथाना) चलित रस- दही छांछ, कांजी, गांजा, तंबाकू, अफीम, कोकीन, भांग एवं अर्क आदि का सेवन किया हो, कराया हो और करने की अनुमति दी हो तो मैं इस संबंधी जो अतिचार या अनाचार आजदिन पर्यन्त लगे हों मैं उनका प्रतिक्रमण करता हूं।

2 - हे भगवान्! मैंने मूलगुणों के दूसरे भेद मांसत्याग व्रत मेंचमड़े में रखा हुआ घी तेल, पानी सड़ा हुआ अन्न हींग चमड़े की चालनी - छाजना (सूप) से स्पर्श प्राप्त आटा और चलितरस आटा ग्रहण किया हो या विदेशी अशुद्ध औषधि ग्रहण की हो, कराई हो और करने की अनुमति दी हो तो उस संबंधी जो अतिचार या अनाचार आज पर्यंत लगे हों उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूं।

3 - हे भगवान्! मैंने मूल गुणों के तीसरे भेद मधुत्यागव्रत में हरे (गीले) पुष्प (ऐसे फूल जिनमें बहुत त्रसजीव आते जाते फिरते, दौड़ते रहते हैं) तथा पुष्पमात्र साधारण वनस्पति हैं। प्रत्येक फूल में अनन्तानन्त बादर निगो दिया जीव होते हैं। (देखों गोम्मटसार या रत्नकरण्ड पद्य 119) ये सब मैंने किये हों, कराए हों और करने की अनुमति दी हो तो इस संबंधी जो अतिचार या अनाचार आज दिन पर्यंत लगे हों उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूं।

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4 - हे भगवन्! मैंने मूल गुणों के चैथे भेद पंच उदुम्बरत्याग में अज्ञातफल, चलितरसफल, बिना देखे फाड़े शोधे ही कच्ची फली, क्षुद्रफल (बेर), नारियल, सुपारी, छहारा, बादाम किसमिस, काजू आदि सेवन किये हों, कराए हों या करने की अनुमति दी हो तो इस संबंधी जो अतिचार या अनाचार आज दिन पर्यंत लगे हों उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूं।

5 - हे भगवन्! मैंने मूलगुणों के पांचवें भेद रात्रि भोजनत्याग नामक मूलगुणों के पालन करने में रात्रि का पिसा हुआ आटा, व रात्रि का बनाया हुआ भोजन ग्रहण किया हो, सूर्योदय के बाद की दो घडि़यों तथा सूर्यास्त से पूर्व की दो घडि़यों में भोज्य पदार्थों का सेवन किया हो, वा औषधिनिमित्त रसादि का सेवन किया हो, कराया हो अैर को करने की अनुमति दी हो तो इस संबंधी जो अतिचार या अनाचार आज दिन पर्यंत लगे हों उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूं।

6 - हे भगवन्! मैंने मूलगुणों के छठवें भेद जल गालन नामक मूलगुण के पालन करने में जल छानने के बाद दो घड़ी व्यतीत हो जाने परभी उस अगलित हुए जल का उपयोग किया हो, गालितजल की जीवानी को जहां से जल लाया गया है वहां नहीं पहुंचाया हो, प्रमाद, अज्ञान या लोभवश पुराने मलिन, महीन अैर सछिद्र वस्त्र से जल छाना हो इस संबंधी कृत, कारित, अनुमोदना से आज दिन पर्यन्त जो दोष लगे हों तो उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूं।

7 - हे भगवन् मैंने मूलगुणों के सातवें भेद जिन दर्शन के पालन करने में प्रमाद किया हो, अविनय किया हो वो मन, वचन, काय की अशुद्धि से सरागी देवों का आराधन संसार, शरीर, भोग रूप प्रयोजन से किया हो तो इस संबंधी जो अतिचार या अनाचार आज दिन पर्यंत लगे हों तो में उनका प्रतिक्रमण करता हूं।

8 - हे भगवन्! मैंने मूल गुणों के आठवें भेद जीव दया के पालन करने में प्रमाद और अज्ञान किया हो, बिना प्रयोजन ही जीवों को सताया हो,दुख दिया हो, अंगोपांग छेदा हो इस संबंधी जो अतिचार या अनाचार आज दिन पर्यंत लगे हों उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूं। (यहां प्रतिमाधारियों को अपनी प्रतिमा के अनुसार जो इस पुस्तक में आगे दिया है वह प्रतिक्रमण करना चाहिए)

निग्र्रन्थ पद की भावना

हे भगवन्! मैं निग्र्रन्थ पद की इच्दा करता हूं, जब तक संसार से मेरा संबंध है तब तक भव - भव में त्रिजगत पूज्य मंगल , लोकोत्तम और शरणभूत निग्र्रन्थपद की भावना करता हूं। धन्य है वह दिन और वह घड़ी कि जिस दिन मैं भी निग्र्रन्थ पद धारण करके ज्ञान, ध्यान और तप में लवलीन होऊंगा, जंगल में वास करूंगा अैर आत्मिक गुणों में रमण करूंगा।

यह निग्र्रन्थ पद बाहरी और आभ्यन्तर समस्त परिग्रह रहित, अनुपम केवलज्ञान का उत्पादक, रत्नत्रय का साधक, सर्वसावद्यरहित, परमौदासीनता का कारण परमविशुद्धि, माया, मिथ्यात्व, निदान, शल्य रहित, सिद्धि का मार्ग, उपशम या क्षपकश्रेणी के चढ़ने का कारण, क्षमाभूषण, मुक्ति का बहिरंग सहकारी, संसार परिभ्रमण का नाशक, निर्वाण का निमित्त, सर्वदुखों का नाशक और सर्वोंत्कृष्ट मार्ग हैं।

ऐसे निग्र्रन्थपद का मैं भक्तिभावपूर्वक श्रद्धान करता हूं, अनन्यभावना से प्रेम करता हूं, विश्वास करता हूं, पवित्रभास से धारण करना चाहता हूं।

इस निग्र्रन्थ पद को तीर्थंकर व गणधर आदि महापुरूषों ने धारण किया। इसलिए इसके समान उत्कृष्ट और दूसरा पद न तो वर्तमान में है न भूत में हुआ है और न भविष्य में होगा।

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