।। पाक्षिक श्रावक।।

ये लोकेऽष्टसहस्त्र लक्षणधरा, ज्ञेयार्णवान्तर्गताः।
ये सम्यग्भव जालहेतुमथनाश्चन्द्रार्कतेजोऽधिकाः।।
ये साध्विन्द्रसुराप्सरोगणशतैः गीतप्रणुत्याचिंताः।
तान् देवानवृषभादिवीरचरमान भक्त्या नमस्याम्यहम्।।

अर्थ - एक हजार आठ शुभ लक्षणों से सुशाभित समस्त ज्ञेयपदार्थों के ज्ञाता, संसार के बंधन के हेतुओं के प्रमुख नाशक, करोड़ों सूर्य और चन्द्र से भी अधिक तेजस्वी, मुनीश्वर, नरेन्द्र अैर देवेन्द्र से पूज्य ऐसे ऋषभादि वीरांत चैबीस तीर्थंकरो को मैं भक्ति पूर्वक नमस्कार करता हूं।

समुदाय भक्ति

केवली, अरिहंत, तीर्थंकर, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, श्रुतकेवली, शास्त्रज्ञानी, पवित्रतपके धारक यतीश्वर, ऋद्धिधारी, गुणवान महर्षि, सिद्धांतवादी, गुप्तिधारक, समितियुक्त, गणधरादि महामुनीश्वर, सम्यग्दृष्टि संयमी, विनियोग्य ब्रह्मचारी! आप मेरा कल्याण करो। कल्याण करो। कल्याण करो। मैं अपने कर्मों का नाश करने के लिए विशुद्ध भाव से आप सबको नमस्कार करता हूं। (नौ बार णमोकार मंत्र का जाप्य करना)

शास्त्राभ्यासो जिनपितनुतिः सगतिः सर्वदायैः।
सद्वृतानां गुणगणकथा, दोषवादे च मौनम।।
वर्सस्यापि प्रियहितवचो, भावना चात्मतत्वे।
संपद्यन्तां मम भव भवे, यावदेतेऽपवर्गाः।।
jain temple207

अर्थ - हे परमेष्ठिन! मुझे सदा जैनागम का अभ्यास, जिनेन्द्रदेव की स्तुति और सज्जनों की संगति प्राप्त हो।

मैं सदा समीचीन चारित्र धारण कत्र्ता महापुरूषों के गुणसमूह का कीर्तन करता रहूं, पर के दोषों के प्रकट करने में मुझे सदा मौनव्रत का ही अवलंबन हो, मेरे वचन सब प्राणियों को प्रिय और हितकारक हों तथा मेरी भावना आत्मतत्वविषयक ही हो।

हे जगदुद्धारक प्रभो! जब तक मुझे मोक्ष की प्राप्ति न हो, तब तक मुझे उपरोक्त सामग्री सदा प्राप्त हो यही मेरी इष्ट प्रार्थना है।

तब पादौ मम हृदये, मम हृदयं तब पदद्वये लीनम्।
तिष्ठतु जिनेन्द्र! तावद् यावन्निर्वाण सम्प्राप्तिः।।

अर्थ - हे जिनेन्द्रदेव! जब तक मुझे निर्वाण (मोक्ष) पद की प्राप्ति न हो तब तक आपके चरणकमल मेरे हृदय में और मेरा हृदय आपके चरणों में लीन हरे।

अक्खर पयत्थ हीणं, मत्ताहीणं च जं गए भणियं।
तं खमउ णाणदेव य, मज्झवि दुक्खक्खयं दिंतु।।

अर्थ - हे जिनेन्द्रदेव! अल्पज्ञतावश मै।ने अक्षर, पद, अर्थ और मात्राओं से हीन जो कुछ भी अशुद्ध उच्चारण किया हो उसे आप क्षमा करें।

दुक्खक्खओ कम्मक्खओ, बोहिलाहो सुगइगमणं।
सम्मं समाहिमरणं, जिणगुण सम्पत्ति होउ मज्झं।।

अर्थ - हे भगवान! मेरे दुखों कानाश हो, कर्मों का क्षय हो, रत्नत्रय की प्राप्ति हो, सुगतिगमन हो, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो ऐसी मेरी प्रार्थना है।

इच्छामि भन्ते पणिइक्कमणइच्चार मालोचेउं तत्थ देशसिया, आसणासिया, अथाणासिया, कालासिया सद्दासिया, काउस्सा गासिया, पणमासिया पडिक्कमणाए तत्थसु।
आवासएसु परिहीणदा जो मए अच्चासणा मणसा विचया काएण कदो वा कारिदो वा कीरन्तो समणुमणिदो तस्य मिच्छा ते दुक्कडं।

हे भगवान अंत में प्रतिक्रमण में लगे हुए दोषों की मैं आलोचना करता हूं। प्रतिक्रमण करने में मुझसे देश, आसन, स्थान काल, मुद्रा, कायोत्सर्ग, स्वासोच्छवास और नमस्कार आदि तथा छह आवश्यकों से संबंध रखने वाले मानसिक, वाचनिक, कायिक एवं कृत, कारित, अनुमोदित दोष हुए हों वे सब मिथ्या हों।

आज से प्रतिक्रमण करने में स्वासोच्छवास से नेत्रों की टिकार से, खांसने से, छींकने, जंभाई लेने से, सूक्ष्म ओर स्थूल अंगों के हिलाने से और दृष्टिदोष आदिसमस्त क्रियाओं से, सूत्रपाठ आदि समस्त क्रियाओं से, सूत्रपाठ आदि क्रियाओं का विस्मरण किया हो, अविनय की हो, प्रमाद और अज्ञान से अन्यथा प्ररूपणा की हो तो मैं इस प्रतिक्रमण के समय वीर भगवान की भक्तिरूपक वयोत्सर्ग करता हूं। (नौ बार णमोकार मंत्र का जाप्य करना)

इच्छामि भन्ते हरियावहियस्य आलोचेउं। पुव्वुत्तर दक्खिण पच्छिम चउदिसासु विदिसासु विहरमाणेण जुगंतर विट्ठणा दट्ठववा, डवडवचरियाए पमाददोशेण भूद जीवसत्ताणं उदघदों कदो वा कारिदो या कीरंतो वा समगुणमणिदो तस्य मिच्छा में दुक्कडम्।

अर्थ - हे भगवन्! मैं ईर्यापथ में लगे हुए दोषों की आलोचना करता हूं। पूर्व उत्तर, दक्षिण और पश्चिम इन चार दिशाओं में और चार विदिशाओं में विहार करते हुए युगान्तर दृष्टि से प्रमादजन्य पद पर जीवों की सत्ता के विषय में जो उपघात दोष मैंने किया हो कराया हो, अनुमोदन की हो, वे सब मेरे दुष्कृत मिथ्या हों।

हे भगवन्! मेरी ली हुई प्रतिक्रमण प्रतिज्ञा के प्रतिकूल कोई जाने, अनजाने, प्रमादयुक्त मन, वचन, काय, कृत, कारित अनुमोदना से हो गया हो एवं मेरा उपयोग आत्मध्यान से छूटकर सांसारिक संकल्प विकल्प रूप उलझनों में चला गया हो और जिससे प्रतिक्रमण में कोई दूषण आया हो उनकी निवृत्ति के लिए मैं नो बार णमोकार मंत्र का कायोत्सर्ग करके प्रतिक्रमण पूर्ण करता हूं। (नौ बार णमोकार मंत्र का जाप्य करना)

समाप्तम्

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