|| अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग ||
jain temple278

ज्ञान आत्मा का प्रधान गुण है, उस ज्ञान गुण को बढाने के लिये सदा ज्ञान का अभ्यास करते रहना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना है।

जिस प्रकार आँखों के बिना मनुष्य अपने समीप में रक्खी हुई वस्तु भी नहीं देख सकता उसी प्रकार बिना सम्यग्ज्ञान के निज आत्मा भी नहीं जान पड़ता। सम्यग्दर्शन भी तभी होता है जबकि जीव के तत्वों को कुछ ज्ञान हो, आत्मा पुद्गल का विवेक हो, संसार मोक्ष का परिज्ञान हो, आस्रव बंध की जानकारी हो। ध्यान भी बिना ज्ञान के नहीं हो सकता। इस कारण यद्यपि ज्ञान में सम्यक्पना सम्यग्दर्शन हो जाने के बाद होता है। पंरतु मूल में देखा जाय तो आवश्यक ज्ञान हए बिना सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं हो सकती।

ज्ञान के बिना मनुष्य करोड़ों वर्ष तक तपस्या करता रहे तो भी वह इतनी कर्मनिर्जरा नहीं कर सकता जितनी निर्जरा ज्ञानी जीव थोडी-सी देर में कर देता है। ज्ञान के बिना चारित्र आत्मा के जिये भार (बोझ) के समान है। चारित्र की शोभा ज्ञान के द्वारा होती है।

श्री समंतभद्र आचार्य ने ज्ञान के द्वारा ही भारतवर्ष में सब जगह बड़े-बडे़े शास्त्रार्थ करके परमत वाले विद्वानों को हराकर जैनधर्म की प्रभावना की थी। अकलंक देव ने ज्ञान के द्वारा ही बौद्धधर्म का खंडन करके जैनधर्म का प्रकाश किया था। आध्यात्मिक ज्ञान के कारण ही श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने समयसार, पंचास्तिकाय आदि ग्रन्थों का निर्माण किया, मूलसंघ की स्थापना करके वीतराग दिगम्बर परम्परा को स्थिर रखा। आज दिन भी जो अनेक शास्त्रों के रूप में जिनवाणी पढ़ने को मिल रही है, वह आचार्यों के विशाल ज्ञान के कारण ही बने हैं।

मनु मे जब कोई शोक की लहर हो, जब कोई व्याकुलता हो, जब मन विषयभोगों में भटक कर अशुभ कर्म बंध करा रहा हो तब उसको शास्त्रों के स्वाध्याय में लगा दीजिये, अशुभ आस्रव तत्काल रुक जायेगा। शास्त्रों का स्वाध्याय तथा अन्य प्रकार से ज्ञान का अभ्यास करना बड़ा पवित्र कार्य है। ज्ञानाभ्यास के समय मन न तो किसी राग में फँसता है, न किसी द्वेष, क्षोभ, लोभ में अटकता है।

राज्य वैभव, सुवर्ण, चांदी, पुत्र, आदि पदार्थ तो आत्मा के साथ सदा नहीं बने रहते हैं। अशुभ कर्म के उदय से इस भव में भी छूट जाते हैं, पर भव में तो कोई साथ जाता ही नहीं, किंतु शास्त्र अभ्यास आदि से उपार्जन किया हुआ ज्ञान तो आत्मा से नहीं छूटता, वह तो आत्मा के पास इस भव मंे भी सदा बना रहता है और अन्य भव में भी साथ हो जाता है। ऐसी अमूल्य ज्ञान निधि जिस मनुष्य के पास नहीं है सचमुच में वह महान् दरिद्री है। ज्ञान की महिमा मे पं0 दौलतराम जी ने कितना अच्छा कहा है-

जे पूरव शिव गये जाय अब आगे जै है,
सो सब महिमा ज्ञान तभी मुनिनाथ कहे है।

विषय चाह दवंदाह जगतजन अरणि दझावै,
तास उपाय न आन ज्ञान धनधान बुझावै।

अर्थात् - जो मुनि भूतकाल में मुक्त हुए, इस समय विदेह क्षेत्रों से मुक्त हो रहे हैं और भविष्य में जो मोक्ष प्राप्त करेंगे, वह सब ज्ञान की ही महिमा है। विषयभोगों की इच्छा संसारी जीवों को जला रही है इस इच्छा रूपी आग को ज्ञान धारा ही बुझा सकती है, उसको शांत करने का अन्य कोई उपाय नहीं हैं, ऐसा आचार्यों ने बतलाया है।

ऐसे महत्वशाली ज्ञान गुण को बढ़ाने के लिये सदा प्रयत्न करने रहना चाहिए। बालक, युवक, अधेड़, वृद्ध, स्त्री, पुरुष सब किसी को अपना ज्ञान बढ़ाने का उद्योग करना चाहिए। शास्त्रस्वाध्याय, पढ़ना, पूछना, पाठ करना, पढ़ाना, विचार करना आदि जिन उपायों से ज्ञान वृ़िद्ध हो वे उपाय काम में लेने चाहिए। आत्मा कर्म, संसार, मोक्ष आदि का ज्ञान प्रत्येक स्त्री पुरुष को अवश्य होना चाहिए।

ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारण।
यह परमामृत जन्म जरा मृतु रोग निवारण।

अर्थात् - इस जगत में ज्ञान के समान आत्मा के लिये सुखदायक और कोई पदार्थ नहीं है। जन्म, जरा (बुढ़ापा) और मृत्यु को दूर करके अजन्मा, अजर, बनाने के लिये यह ज्ञान ही अमृत के समान है।

सम्यग्ज्ञान के विषय में पं0 दौलतरामजी ने छहढाला में उपर्युक्त पद्य तथा निम्नलिखित पद्य और भी लिखे हैं-

कोटि जन्म त पतपे ज्ञान बिन कर्म झरें जे,
ज्ञानी के छिनमांहि गुप्ति तै सहज टरें ते।
मुनिव्रत धारि अनन्तवार ग्रीवक उपजायो,
पै निज आतम ज्ञान बिना सुख लेश न पायो।

अर्थात् - करोड़ों जन्म तक आत्मज्ञान के बिना तपस्या करने पर भी जितने कर्मों की निर्जरा हो पाती है उतने कर्मों की निर्जरा आत्मज्ञानी के योग निरोध रूप गुप्तियों के द्वारा क्षण भर में हो जाती है। जिस तरह भरत चक्रवर्ती ने अन्तर्मुहूर्त में केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया। यह जीव अनन्तों बार मुनिव्रतों का आचरण करे गै्रवेयक (१६ स्वर्गों से ऊपर के विमानों) में उत्पन्न हुआ, ंिकंतु आत्मज्ञान के बिना इसको जरा भी निराकुल आत्मसुख प्राप्त नहीं हुआ।

धन समाज गज बाज राज तो काम न आवे,
ज्ञान आपको रूप भये फिर अचल रहावे।
तस ज्ञान को कारण स्वपर विवेक बखानौ,
कोटि उपाय बनाय भव्य ताकों उर आनौ।

अर्थात् - धन सम्पत्ति, परिवार, हाथी, घोड़ा, राज्य तो इस आत्मा के काम नहीं आते हैं-इनसे आत्मा का कुछ लाभ नहीं होता है, पर ज्ञान आत्मा के स्वरूप है और वह सदा आत्मा के पास स्थिर रहता है। हाथी-घोड़े आदि पदार्थ सदा नहीं रहते। उस आत्मज्ञान का कारण निज-पर भेद विज्ञान है। अतः हे भव्य मनुष्यों। करोड़ों यत्न करके उस सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करो।

इस तरह ज्ञान सबसे अधिक मूल्यवान गुण है, ज्ञान के कारण आत्मा चेतन कहलाता है, ज्ञान के कारण ही इसको अपनी उन्नति का मार्ग सूझता है। इस ज्ञान का आत्मा में आनंत भंडार भरा हुआ है, ज्ञान को कहीं बाहर से नहीं लाना पड़ता है। वह ज्ञान भंडार ज्ञानावरण कर्म के पर्दे से छिपा हुआ है, सतत ज्ञान-अभ्यास करते रहने से ही ज्ञानावरण कर्म दूर हो सकता है, अतः मनुष्य को सदा ज्ञान प्राप्ति तथा ज्ञान प्राप्ति अवश्य करते रहना चाहिए।