|| बहुश्रुत भक्ति ||
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उपाध्याय की भक्ति करना बहुश्रुतभक्ति है।

मुनि संघ में आचार्य के पश्चात् उपाध्याय का पद होता है। मुनियों में जो सबसे अधिक विद्वान साधु होते हैं उनको उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया जाता है। ये समस्त मुनियों को पढ़ाते हैं। इनके ११ अंग, १४ पूर्वों का ज्ञान रूप २५ गुण और भी माने गये हैं। यद्यपि ११ अंग १४ पूर्वों का ज्ञान पूर्ण श्रुतज्ञानी को होता है जिनको कि श्रुतकेवली भी कहते हैं, अतः यथार्थ में पूर्ण श्रुतज्ञानी ही उपाध्याय होने चािहए किंतु पूर्ण श्रुतज्ञानी न होने पर भी जो संघ मे सबसे अधिक ज्ञानी साधु होते हैं उनको भी उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया जाता है।

द्रव्य श्रुतज्ञान के दो भेद हैं। अंग बाह्म, अंग प्रविष्ट।

अंग प्रविष्ट के १२ भेद होते है- आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, धर्मकथांग, उपासकाध्ययन, अन्तःकृत्दशांग, अनुत्तरोपपातिकदशांग, प्रश्न व्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद।

अंग बाह्म के १४ भेद हैं- सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प व्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका।

(१) आचारांग में ८ शुद्धि, पांच समिति, ३ गुप्ति, ५ महाव्रत आदि समस्त मुनि आचार का वर्णन है।

(२) सृत्रकृतांग में ज्ञानविनय, कल्प्य अकल्प्य, छेदोस्थपना आदि व्यवहार धर्म कि क्रियाओं का वर्णन है।

(३) स्थानांग में समस्त द्रव्यों के एक आदि संभव्य समस्त भेदों का वर्णन है।

(४) समवायांग में समस्त पदार्थों की समानता रूप से समवाय का विवरण है। जैसे धर्म, अधर्म, द्रव्य तथा प्रत्येक जी द्रव्य के असंख्यात प्रदेश एक समान होते हैं।

(५) व्याख्याप्रज्ञप्ति में ‘जीव है या नहीं‘ इत्यादि ६॰ हजार प्रश्नों के उत्तरों का विवरण होता है।

(६) ज्ञातृकथांग में जीवादि का स्वभाव, तीर्थंकर का महत्व, दिव्यध्वनि का प्रभाव आदि की कथाएँ, होती हैं।

(७) उपासकाध्ययन में श्रावकों के आचार का विस्तार से वर्णन किया जाता है।

(८) अन्तकृत्दशांग-प्रत्येक तीर्थंकर के समय में महान् उपसर्ग सहन करते हुए जो दश मुनि मुक्ति प्राप्त करते हैं उनकी विस्तृत कथा होती है।

(९) अनुत्तरोपपातिक दशांग-प्रत्येक तीर्थंकर के समय में जो १॰-१॰ महान् उपसर्ग सहन करके समाधिमरण के अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होते हैं, उनकी कथाएँ होती हैं।

(१॰) प्रश्नव्याकर गांग में नष्ट, मुष्टि, चिन्ता आदि अनेक प्रकार के प्रश्नों के अनुसार त्रिकाल संबंधी लाभ 3 लाभ, जीवन मरण आदि फलों का विवरण होता है।

(११) विपाक सूत्र में शुभ अशुभ कर्मों के तीव्र मंद मध्यम आदि अनेक प्रकार के विपाक यानी फल देने रूप अनुभाग का वर्णन विस्तार के साथ होता है।

(१२) दृष्टिवादसूत्र में ३६३ मिथ्यामतों का तथा उनके निराकरण का वर्णन होता है।

दृष्टिवाद सूत्र के ५ भेद हैं-(१) परिकर्म (२) सूत्र (३) प्रथमानुयोग (४) पूर्वगत (५) वूलिका।

परिकर्म में गणित के कारण सूत्र बतलाये गये हैं। इनके ५ भेद हैं (१) चन्द्रप्रज्ञप्ति (चन्द्र के विमान आदि का वर्णन), (२) सूर्यप्रज्ञप्ति (सूर्य का विविध वर्णन), (३) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (जम्बूद्वीप का विस्तृत विवेचन), (४) द्वीपसागर प्रज्ञप्ति (असंख्यात द्वीप समुद्रों का वर्णन) (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति (भव्य अभव्य भेद, प्रमाण लक्षण, रूपी अरूपी द्रव्य आदि का वर्णन, सूत्र में ३६३ मिथ्यामतों का मण्डन पूर्वक खंडन का विवरण है। प्रथमानुयोग मे ६३ शलाका के महान पुरुषों का वर्णन होता है।)

पूर्व के १ भेद हैं-

(१) उत्पाद पूर्व में द्रव्यों के उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य उनके संयोगी धर्मों का वर्णन है।

(२) अग्रायणीयपूर्व में सात सौ सुनय, दुर्नय, पंचास्तिकाय, षट् द्रव्य, सात तत्व आदि का वर्णन है।

(३) वीर्यानुवाद में आत्मवीर्य, परवीर्य, कालवीर्य, तपवीर्य, गुणवीर्य आदि वीर्यो का वर्णन है।

(४) अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व में स्यादस्ति, स्यान्नास्ति आदि सप्तभंगडी का विवेचन है।

(५) ज्ञानप्रवाद में मतिज्ञान, आविज्ञान, कुज्ञान, प्रमाण नय का प्रतिपादन किया गया है।

(६) सत्यप्रवाद पूर्व में सत्य असत्य भाषा शब्द उच्चारण के स्थान, प्रयत्न, मौन आदि का विस्तार से कथन किया गया है।

(७) आत्मप्रवाद पूर्व में आत्मा के विषय में वर्णन हैं।

(८) कर्मप्रवाद में कर्मों की मूलप्रकृति, उत्तरप्रकृति, बंध, सत्ता, उदय, उदीरणा आदि का विवरण है।

(९) प्रत्याख्यान पूर्व में सदोष वस्तु के त्याग, उपवास की विधि, समिति, गुप्ति आदि का विस्तार से व्याख्यान है।

(१॰) विद्यानुवाद में अंगुष्ठप्रसेना आदि सात सौ अल्प विद्या तथा रोहिणी आदि ५॰॰ महाविद्याओं का, मंत्र, यंत्र, तंत्र का, आठ महानिमित्त आदि का विस्तार से विवेचर किया गया है।

(११) कल्याणवाद पूर्व में तीर्थंकरों के पांच कल्याणक, षोडशकारण भावना आदि का वर्णन है।

(१२) प्राणवाद पूर्व में शरीर की चिकित्सा आदि आठ प्रकार के आयुर्वेद का, प्राणों के उपकारक अपकारक द्रव्यों का प्रतिपादन किया है।

(१३) क्रियाशील पूर्व मे संगीत, छन्द, अलंकार आदि पुरुषों की ७२ कलाओं का तथा स्त्रियों के ६४ गुणों का, शिल्प आदि का वर्णन है।

(१४) त्रिलोकविन्दुसार में लोक का स्वरूप, ३६ परिकर्म, ८ व्यवहार, चार-बीज मोक्ष आदि का विस्तार से व्याख्यान है।

दृष्टिवाद के पांचवें भेद चूलिका के ५ भेद हैं। १-जलगता (जल स्तम्भन, अग्नि स्तम्भन, अग्निभक्षण आदि के मंत्र तंत्र आदि का वर्णन) २- स्थलगता (पर्वत भूमि आदि में प्रवेश करने आदि के मंत्र तंत्र आदि) ३- मायागता (इन्द्रजाल जादू सम्बंधी मंत्र आदि का वर्णन) ४- आकाशगता (आकाश में गगन करने के मंत्र आदि का वर्णन), ५-रूपगता (सिंह हाथी आदि अनेक प्रकार के रूप बनाने के कारणभूत मंत्रों आदि का वर्णन करने वाला)

इस तरह अंगबाह्म, अंगप्रविष्ट रूप पूर्ण श्रुतज्ञान है। अंगबाह्म का परिमाण बहुत थोड़ा है, इस कारण श्रुत मुख्य रूप से द्वादश (बारह) अंग रूप से कहा जाता है। तथा बारहवें दृष्टिवाद अंग में १४ पूर्वों का मुख्य स्थान है उनका परिमाण भी बहुत बड़ा है, इस कारण द्रव्यश्रुत को ११ अंग, १४ पूर्व प्रमाणरूप भी कह देते हैं।

उपाध्याय परमेष्ठी ११ अंग, १४ पूर्वों के ज्ञाता होते हैं। इस कारण ११ अंग$१४ पूर्वों = २५) की जानकारी के रूप में उनके २५ गुण कहे जाते हैं।

उपाध्याय बहत श्रुतों यानी शास्त्रों के पारंगत विद्वान् होते हैं, इस कारण उनका दूसरा नाम बहुश्रुत भी है। उपाध्याय की भक्ति करना, उनका विनय, आदर सत्कार करना बहुश्रुतभक्ति है।

बहुश्रुत भक्ति से विविध शास्त्रों का, अंक पूर्वों का ज्ञान प्राप्त होता है। यही बहुश्रुत भक्ति तीर्थंकर प्रकृति के बंध का कारण है।