|| संवेग-भावना ||
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सांसारिक दुःखों से भयभीत होना संवेग है अथवा धर्म तथा धर्म के फल में अनुराग होना भी संवेग है।

तत्सुखं यत्र नाऽसुखम्

अर्थात-सुख वह है जहां जरा भी दुःख न हो। संसार में वह सुख कहीं भी नहीं है क्योंकि संसारी जीव जिसको सुख समझता है वह तो ऐसा सुख है जैसे खाज को खुजानते समय होता है, खुजा लेने के बाद जो महान् कष्ट होता है वह उस क्षणिक सुख पर पानी फेर देता है।

नरक गति तो असहनीय दुःख रूप है ही, वहां की पृथ्वी छूते ही इतनी पीड़ा होती है, जितनी पीड़ा हजार बिच्छुओं के एक साथ काटने पर भी शरीर में नहीं होती, वहहां आयु भर खाने को एक-दाना अन्न भी नहंी मिलता जबकि भूख बहुत भारी लगती हैं। इसी तरह प्यास भी बहुत तीव्र सताती हैं परंतु नरकों में जन्म भर एक बून्द भी पानी नहीं मिलता। नारकी सदा आपस मे एक दूसरे को तलवार, बर्छी, पत्थर, मुद्गर, गदा आदि से मारते कूटते हैं, शरीर के टुकड़़े-टुकडे़ कर देते हैं, परंतु परो की तरह से वे टुकडे मिल कर फिर शरीर बन जाता है। नारकी जीव दुःख के कारण मरना चाहते हैं, परंतु जब तक वहां की आयु समाप्त न हो जाय तब तक उनकी मृत्यु नहीं होती। ऐसे भयानक दुःख कम से कम १॰ हजार वर्ष तक तो भुगतने ही पड़ते हैं।

पशुगति में एकेन्द्रिय जीवों में विगोद के जीवों को सबसे अधिक दुःख होता है। वे हमारे एक श्वास लेने की समय में ही १८ बार मर जाते हैं। एक बार मरने में कितना भारी दुःख होता है तो एक श्वास में १८ बार जन्म मरण का दुःख तो किसी तरह कहा ही नहीं जा सकता। इस तरह जन्म मरण निगोद में सदा होता रहता है। निगोद के सिवाय दूसरे ऐन्द्रिय जीव भी ज्ञान की कमी से तथा सुरक्षा की कमी से दूसरे जीवों द्वारा दुःख पाते ही रहते हैं। दो इन्द्रिय लट, गेंडुआ आदि, तीन इन्द्रिय चींटी, खटमल आदि, चै इन्द्रिय मक्खी, मच्छर आदि मनुष्यों तथा पशुओं के पैरों के नीचे आकर कुचल जाते हैं, छिपकली, चिडियाँ आदि खा जाती हैं, चीजों के रखते उठाते, बुहारी, आग, पानी आदि से मरते रहते हैं। पंचेन्द्रिय पशुआंे में कोई असैन जीव मन बिना अज्ञानी रहे आते हैं। सैनी जीव एक दूसरे के शत्रु बनकर मारते काटते खते पीते रहते हैं। चूहे को बिल्ली ने मारा, बिल्ली को कुत्ते ने फाड़ डाला, कुत्ते को भेडि़या मार डालता है, भेडि़या को सिंह और सिंह को शिकारी लोग मार डालते हैं। इसी तरह जलचर, नभचर जीव एक दूसरे को मारते रहते हैं।

पालतू पशुओं को पिंजडे़ मे बंद करके या जंजीर, रस्सी में बांधकर खूंटे से बाँध देते हैं। वहां भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि का जो कष्ट होता है उसको कोई जानता भी नहीं।

नाक में छेद करना, पूँछ कान काट देना, अंडकोष फोड देना आदि कष्टों से पशुओं को बचाने वाला कोई नहीं। ऊँट, बैल, गधा, भैंसा, घोड़ा आदि पर बहुत बोझ लाद कर आगे चलने के लिये घड़ी का मार पड़ती है। बकरा, भैंसा, मेंढा, सूअर, मुर्गा आदि को पापी अज्ञानी लोग काट कर देवी देवताओं पर भेंट चढ़ा देते हैं। चमडे़ के लिये बड़ी निर्दयता से जीवित पशु मारे जाते हैं। गर्भ में से निकालकर गाय, भेंड़ बकरी आदि के बच्चों को नर्म चमड़ा लेने के लिये मार डालते हैं। इत्यादि पशुगति में महान् दुःख जीव सहता है।

दरिद्रता, रोग, नौकरी आदि के कारण मनुष्य अपमान का बड़़ा दुःख उठाते हैं। इष्टवियोग अनिष्टसंयोग के दुःख मनुष्य के सामने आया ही करते हैं। दुव्र्यसनी पुत्र, व्यभिचारिणी कलहकारिणी स्त्री, विश्वासघाती मित्र, स्वार्थी भाई मौका पाकर दुःख देते ही रहते हैं। इस तरह मनुष्य गति के भी दुःखों का कुछ पार नहीं।

देवों में भी छोटे बड़े पन को भेद-जनक दुःख है, नीची जाति के देव उच्च कोटि के जीवों को देखकर मन में घूरते हैं। बड़े देव विषय भोगों में लीन रहकर अपने भविष्य का जीवन बिगाड़ते हैं, मरने से ६ मास पहले जब उनके गले की माला मुर्झा जाती है तब उनकी देव पर्याय छूटने का जो महान् दुःख होता है उसको वह भुक्त-भोगी जीव जानता है, दूसरा कोई क्या जाने।

जिन देवों को सम्यग्दर्शन एवं आत्मज्ञान होता है वे समझते हैं कि आत्मा का सच्चा हित मनुष्य पर्याय से तपश्चरण द्वारा प्राप्त होगा, इस देव पर्याय में हम आत्म-शुद्धि के लिये तप, त्याग, संयम कुछ नहीं कर सकते। इस तरह देव पर्याय उनके लिये कुछ आनंद की वस्तु नहीं होती।

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इस प्रकार संसार की प्रत्येक योनी, प्रत्येक शरीर और प्रत्येक गति दुःखमय है। जिस तरह खाना जल पीने से प्यास और अधिक उग्र होती जाती है उसी तरह संसार के विषय भोग जिनको कि संसारी जीव सुखमय मानते हैं, वे कुछ तृप्ति नहीं करते, बल्कि तृष्णा और व्याकुलता को बढ़ा देते हैं।

इस प्रकार विचार करने से संसार से विरक्ति हो आती है और संसार से मुक्त होने की उत्कंठा होती है, आत्म-अनुभव की ओर रूचि प्रगट होती है। यह संवेग भावना है।

कविवर पं0 भूधरदास जी ने वज्रनाभि चक्रनाभि चक्रवर्ती की वैराग्यभावना के प्रकरण मे संसार का संक्षेप से अच्छा चित्र खींचा है। वे लिखते हैं-

या संसार महा वन भीतर भ्रमते छौर न आवै,
जन्म जरा मृतु बैरी धावै जीव महा दुख पावै।

अर्थात-संसार रूपी विस्तृत वन में संसारी जीव को भटकते भटकते अंत नहीं मिलता। जन्म, जरा, मृत्यु रूपी शत्रु सदा इसका पीछा किया करता है, जिससे जीव सदा दुःख उठाता रहता है।

कबहूँ जाय नरक थिति भुंजै छेदन भेदन भारी,
कबहँ पशु पर्याय लहै तहं बध बंधन भयकारी।
सुरगति में परसंपति देखै राग उदय दुख होई,
मानुष योनि अनेक विपतिमय सर्व सुखी नहिं कोई।।

अर्थात-यह जीव पापकर्म के उदय से कभी नरक में दीर्घकाल तक भयछेदना, बींधना, सर्दी, गर्मी आदि की असह्म यन्त्रणाएं सहता है। कभी दुर्देव से पशु शरीर पाता है तो वहां पर मारना बांधना आदि भयानक दुःखों से जीवन बिताता है। यदि सौभाग्य से यह देव पर्याय प्राप्त कें तो महान् ऋद्धि-धारक देवों को देखकर ईष्र्या के कारण दुःखी रहता है। मनुष्य गति मंे भी अनेक विपित्तियां भरी हैं। इस तरह संसार में पूर्ण सुखी कोई भी जीव नहीं।

मनुष्य गति में क्या दुःख है-

कोई इष्ट वियोगी विलखै कोई अनिष्ट संयोगी,
कोई दीन दरिद्री विगुचै कोई तन का रोगी,
काहू घर कलिहारी नारी कै वैरी-सम भाई,
काहू के दुख ऊपर दीखै काहू, उर दुचिदाई।।

अर्थात-मनुष्यों के किसी प्रिय व्यक्ति के वियोग का शोक समाया हुआ है, किसी को अप्रिय व्यक्ति (शत्रु आदि) के संयोग से विलाप करना पड़ता है। कोई मनुष्य दरिद्रता के कारण दीन हीन बन कर, तो कोई भयानक रोग के कारण दुःख पा रहा है। किसी को गृहणी (पत्नी) रात दिन कलह करती रहती हैं, किसी का सगा सहोदर भाई शत्रु समान व्यथा पहुँचाता है। किसी को शारीरिक दुःख है जो ऊपर से दिखाई देता है किसी को मानसिक दुःख अन्तर्वेदना देता है।

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