प्रति वर्ष वैसाख शुक्ल तृतीया को अक्षय तृतीया पर्व मनाया जाता है। यह पर्व प्राचीन हैं, क्योंकि प्रथम तीर्थकर श्रृषभदेव ने निर्गन्थ अवस्था मे जब हस्तिनागपुर के राजा श्रेयास के यहां आहार लिया था, तभी से उनके निमित्त से यह पर्व प्रारम्भ हुआ। भगवान ऋषभदेव मानव संस्कृति के आदि संस्कर्ता हैं। वर्तमान अवसर्पिणी काल के तीसरे सुषमा दुषमा नामक काल मे जब चैरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष, आठमाह एक पक्ष बाकी रहगया था तो आषाढ कृष्णा द्वितीय के दिन अंतिम कुल करनाभिराय की पत्नी मरूदेवी के गर्भ मे वे अवतीर्ण हुए। नवमास के बाद चैत्र कृष्णनवमी के दिन अत्तराषाढ़ नक्षत्र और ब्रह्म नाम क महायोग मे उनका जन्म हुआ। बीस लाख पूर्व वर्ष कुमारा वस्था मे एव तिरेसद लाख पूर्व वर्ष राज्यावस्था मे व्यतीत होने पर किसी समय राज्य सभा मे नीलांजना देवी का नृत्य देखते हुए अकस्मात उसकी आयु समाप्त हुई जान कर भगवान संसार, शरीर और भोगो से विरक्त हो गये और लौकान्तिक देवों के द्वारा स्तुत हो कर देवों के द्वारा लायी हुई सुदर्श नामक पालकी पर आरूढ होकर अयोध्या नगरी से बाहर कुछ दूर पर सिद्धार्थ नामक वन मे पहुंचे। पंचमुष्टि केशलोंच कर के उन्होंने सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर दिया और ‘‘ऊँ नमः सिद्धेभ्यः’’ कहते हुए उन्हो ने दीक्षा ले ली। वह दिन चैत्र वदी नवमी का था। छह मासमौन साधना करने के बाद वे आहार के लिए नगर और ग्रामो मे विहार करने लगे। भावुक मनुष्य भगवान के दर्शन कर भक्ति भावना से विभोर होकर अपनी रूपवती कन्यायें, सुन्दरवस्त्र, अमूल्य आभूषण, हाथी, घोडे, रथ, सिंहासन आदि वस्तुवेें भेंट करने लगे। कोई भी विधि पूर्वक उन्हे भिक्षा नही देता था, क्योंकि भिक्षा देने की विधि उन्हे ज्ञात ही नही थी। भगवान अन्य समस्त वस्तुओ को ग्रहण ही नही करते थे। इस प्रकार पुनः उन्होंने छह माहनिराहा रहकर योग साधना की। छह माह बाद पुनः वे आहार के लिए हस्तिनागपुर की ओर आए। दूर से उन्हे आता हुआ देख कर राजा श्रेयांस को अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो आया। इस भव से आठवे भव पहले भगवान ऋषभ देव वज्रजंघ नाम के राजा थे और श्रेयांस कुमार का जीवन उनकी रानी श्रीमती था। एक बार राजा वज्रजंघ ने वन मे दमधर और सागर सेन नामक मुनिराज को आहार दिया था। उस आहार दान के प्रभाव से देवों ने पंचाश्चर्य किये थे।
चान्द्रीचर्या1 से विचरण करते हुए भगवान ऋषभदेव के सामने आने पर दान धर्म की विधि के ज्ञाता और उसकी स्वयं प्रवृत्ति कराने वाले राजा श्रेयांस श्रद्धा आदि गुणो से युक्त हो हे भगवान्! तिष्ठ-तिष्ठ (ठहरिए-ठहरिए) यह कहकर उन्हें घर के भीतर ले गए और उच्चासन पर विराजमान कर उनके चरण कमल धोए, उनके चरणों की पूजा करके उन्हे मन, वचन, कार्य से नमस्कार किया और सम्पूर्ण लक्षणो से युक्त पात्र को देने की इच्छा से उन्होंने इक्षु रस से भरा हुआ कलश उठाकर कहा कि हे प्रभो! यह इक्षु रस सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादन दोष, दश एषणा दोष तथा धूम, अंगार, प्रमाण और संयोजना, इननचार दाता सम्बंधी दोषो से रहित एवं प्रासतुत है; इसे ग्रहण कीजिए। अनन्तर जिन की आत्मा विशुद्ध थी और जो पैरो को सीधा कर खड़े थे, ऐसे भगवान वृषभदेव ने क्रिया से आहार की विधि दिखाते हएु चारित्र की वृद्धि के लिए पारणा की। राजा श्रेयांस ने कल्याण कारी श्री जिनेन्द्र रूपी पात्र प्राप्त किए, इस लिए पांच प्रकार की आश्चर्यजनक विशुद्धियो से ये पंचाश्चर्य प्राप्त हुए - (1) रत्नवृष्टि (2) पुष्पवृष्टि (3) दुन्दुभि वाद्य का बजना (4) शीतल और सुगन्धित मन्द मन्द वायु का चलना (5) अहोदानम् इत्यादि प्रशंसा वाक्य। अर्चित होने के बाद जब तीर्थकर ऋषभदेव तप की वृद्धि के लिए वन को चले गए तब देवों ने अभिषेक पूर्वक दान-तीर्थकर राजा श्रेयांस की पूजाकी। देवो से समीचीन दान और उसके फल की घोषणा सुनकर भरतादि राजाओं ने भी आकर राजा श्रेयांस की पूजाकी।
पूर्व घटना कास्मरण कर राजा श्रेयांस ने जो दान रूपी धर्म की विधि चलाई उसे दान का प्रत्यक्ष फल देखने वाले भरतादि राजाओं ने बड़ी श्रद्धा के साथ श्रवण किया। राजा श्रेयांस ने बताया कि दान सम्बंधी पुण्य का संग्रह
1. जिस प्रकार चन्द्रमा छोटे बड़े सभी के घर पर प्रकाश फैलाता है, उसी प्रकार जिस मे अतिथि छोटे बड़े सभी के घर पर जाता है, उसे चान्द्रीचर्या कहते हैं।
करने के लिए (1) अतिथि का प्रतिग्रह (पड गाहना) (2) उच्चस्थान पर बैठाना (3) पादप्रक्षालन करना (4) दाता द्वारा अतिथि की पूजा होना (5) नमस्कार करना (6) मनः शुद्धि (7) वचन शुद्धि (8) काय शंद्धि और (9) आहार शुद्धि ये नौ प्रकार जानने योग्य हैं। दान देने से जो पुण्य संचित होता है, वह दाता के लिए स्वर्गादि फल देकर अंत मे मोक्ष फल देता है1
जिस दिन भगवान को आहार हुआ, उस दिन वैसाख शुक्लतृतीया थी। राजा श्रेयास के यहां उस दिन रसोई गृह मे ंभोजन अक्षीण हो गया। अतः इसे आज भी लोग ‘अक्षय तृतीय पर्व’ कहते हैं। भरत क्षेत्र मे इसी दिन से दान देने की प्रथा प्रचलित हुई। यह पर्व जैन समाज की भांति हिंदू समाज मे भी मनाया जाता हैं। बुंदेलखण्ड मे यह पर्व ‘अख्ती’ या ‘अकती’ के रूप् मे प्रसिद्ध है। ये दोनो ही शब्द अक्षयतृतीया के ही अपभ्रश रूप हैं। ऐसी मान्यता है कि तीर्थकर मुनि को प्रथम बार आहार देने वाला दाता उस पर्याय से या तीसरी पर्याय से मोक्ष प्राप्त करता है। कुछ लोगों की ऐसी मान्यता है कि भगवान को मुनि अवस्था मे दान देकर राजा श्रेयांस ने अक्षय पुण्य (जिसका फल मोक्ष प्राप्ति है) प्राप्त किया था, अतः यह तिथि अक्षय तृतीय कहलाती है।
अक्ष्या तृतीया को लोग इतना अधिक शुभ मानते हैं कि इस दिन युवा पुत्र या पुत्री का विवाह बिनालग्न संशोधन के भी किया जाता है। नवीन मकान, दुकान या अन्य नए कार्य का मुहूर्त भी इस दिन करने मे लोग गौरव मानते है और उनका विश्वास है कि इस दिन प्रारघ्म्भ किया गया नया कार्य नियमतः सफल होता है। कुछ स्थानो पर यह परम्परा है कि इस दिन मिट्टी के नए घड़ो का मुहूर्त अवश्य किया जाता है और उनके मुंह पर मिष्टान्न एवं पकवान रखा जाता है जिसे बाद मे दान कर दिया जाता है। इस प्रकार आहार दान के साथ इस पर्व की मान्यता जुडी हुई है। भगवान का यह पारणा दिवस इतना प्रसिद्ध हुआ है कि लोक विजय यंत्र जैसे प्राचीनग्रन्थ का गणित इसी दिन को आदि दिन मानकर किया गया है। बतलाया गया हैं-
2. हरिवंश पुराण 9/180/201
थ्सरिरिसहेसर सामिय पाराणयारब्ध गणियधुव्वकं। दिसइयरेहिंठविय जंतंदेवाणसारमिणं।
अर्थ- यह वक्ष्यमाण यंत्र जो कि भगवान ऋषभ देव, स्वामी के पारणा समय से- अक्षय तृतीया के दिन उनकी प्रथम पारणा ग्रहण की बेला से गणित करके दिशा विदिशाओ मे स्थापित किए हुए ध्रुवा कोेलिए हुए हैं, यह देवो का सार है-दैबाधीन घटनाओ का सूचक है।
जिस दिन उदय काल मे उक्त तृतीया हो, उसी दिन अक्षय तृतीया का उत्सव सम्पन्न करना चाहिए। दान देना, पूजा करना अतिथि सत्कार करना आदि विधेय कार्यो को इस तिथि मे करना चाहिए1।